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Showing posts from 2023
 देश के कोने कोने में डर बैठा है। क्या गद्दी पर एक जनावर बैठा है।। कितना कोहरा छाया है दुपहरिया में  शायद दिन भी ओढ़े कंबर बैठा है।। जहां जरा जो  चूका उसका टिकट कटा  गोया मौसम घात लगा कर बैठा है।। इतना कुहरा इतनी ठण्डक ठिठुरन भी जैसे जाड़ा जाल बिछा कर बैठा है।। नए साल मे भी छाया है मातम क्यों कौन साँप कुण्डली लगाकर बैठा है।। उससे कहदो मौत उसे भी आएगी कौन यहाँ पर अमृत पीकर बैठा है।। कोरोना से कहो तुम्हारी खैर नहीं हर हिंदुस्तानी में  शंकर बैठा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 नया साल औरों के साथ मनाओगे। या फिर बीते कल में वापस आओगे।। धन दौलत में सचमुच ताकत होती है प्यार-मुहब्बत में आख़िर क्या पाओगे।। यूँ भी ज़ख़्म ज़दीद सताते रहते हैं लगता है फिर ज़ख़्म नए दे जाओगे।। तुमको दिल का मन्दिर महफ़िल लगता है दिल के तन्हा घर को खाक़ सजाओगे।। तुमको शायद नग़्मे-वफ़ा से नफ़रत है फिर तुम कैसे गीत वफ़ा के गाओगे।। सुरेश साहनी, कानपुर

आशिक़ी

 इश्क़ होता तो आशिक़ी रहती। आप होते तो ज़िन्दगी रहती।। वज़्म में लाख तीरगी रहती। उनके रहने से रोशनी रहती।। मयकदा कब किसी से कहता है वो न होता तो तिश्नगी रहती।। मिल के दरिया में हो गयी दरिया यूँ भी कब तक  नदी नदी रहती।।
 तुम  अगर एतबार पढ़ पाते।  मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते।। तुम मेरा हाथ थाम लेते तो वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इधर किश्तों में पैकर बंट गया है।। मेरे आगे  मेरा क़द  घट गया है।। कहाँ से क्या लिखें कैसे लिखें हम अभी मन शायरी से हट गया है।। हमें तूफान आता दिख रहा है उन्हें लगता है बादल छंट गया है।। भरोसा उठ गया है राहबर से चलो अब ऊंट जिस करवट गया है।। भला गैरों से क्या उम्मीद हो जब मेरा साया भी मुझसे कट गया है।। ख़ुदा को क्या ग़रज़ जो याद रखे हमें ही नाम उसका रट गया है।। सुरेश साहनी
 क्या बात करें गुज़रे कल की। जब रीत गयी गागर जल की।। करते करते कल की आशा हम भूल गए जग की भाषा जो पूर्ण समय पर नहीं हुई क्या रखते ऐसी अभिलाषा कुछ ढलकाये कुछ खुद ढलकी।। तुमने कितने इल्ज़ाम दिए स्वारथी छली सब नाम दिए पर इतने निष्ठुर नहीं रहे तुमने ग़म भी इनाम दिये कुछ मज़बूरी होगी दिल की।। जग को बतलाना ठीक नहीं पीड़ा को गाना ठीक नहीं तुमने बोला बस प्यार करो होठों पर लाना ठीक नहीं छलिया को सुन आंखें छलकी।। तुम कब समझे हो प्रीत इसे मत कहो प्रीत की रीत इसे मैं तुमको हारा समझूंगा तुम कहते रहना जीत इसे कामना गयी फल प्रतिफल की।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जानना है तो सवालों में मिलो। डूब कर मुझसे ख्यालों में मिलो।। टूट कर चाहने वालों की तरह तुम हमें चाहने वालों में मिलो।। प्यार में जान भी देने वाली जब मिलो ऐसी मिसालों में मिलो।। हमसे हर वक्त मिलो जाने वफ़ा क्या ज़रूरी है कि सालों में मिलो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 लोग कहते हैं समन्वय जैसी कोई स्थिति नहीं बन सकती। जो विज्ञान से परिचित नहीं वो पदार्थ की प्लाज्मा अवस्था को भी नहीं मानते।आज के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्यों पर विहंगावलोकन करें तब देखेंगे।पूंजीवाद राष्ट्रवाद की मजबूत आड़ ले चुका है। मनुवाद दलित हितैषी होने का नाटक कर रहा है। दलित पुरोधा सामंतवाद की ढाल बनकर खड़े हैं। आज आंदोलन देशद्रोह और सरकारी दमनचक्र को राष्ट्रहित बताया जा रहा है।इन स्थितियों के पनपने का कारण यही है कि हम समन्वय के मार्ग से भटक गए थे। या यूं कहें कि समन्वयवादी निषाद(द्रविण) संस्कृति को शनैःशनैः ध्वस्त कर दिया गया। प्राचीन आर्ष ग्रंथों में जहां एक ओर शैव और वैष्णवों में समन्वय स्थापित करने की बात की  जाती रही, वहीं दूसरी ओर शिव भक्तों को आज की भांति ही खलनायक बता बता कर मारा जाता रहा।  यह समन्वय और विग्रह का संघर्ष आज भी जारी है।  जब तक समन्वयवाद एक राजनैतिक दर्शन के रूप में नहीं उभरेगा। तब तक देश इन दमनकारी व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं होगा। सुरेश साहनी, प्रणेता- समन्वयवाद
 हिन्दू या मुसलमान भी रहने नहीं दोगे। तो क्या हमें इंसान भी रहने नहीं दोगे।। मौला को निगहबान भी रहने नहीं दोगे। फिर कहते हो भगवान भी रहने नहीं दोगे।। जीने के लिए जान भी रहने नहीं दोगे। मर जाएं यूँ बेजान भी रहने नहीं दोगे।। सुख चैन के सामान भी रहने नहीं दोगे। घर मेरा बियावान भी रहने नहीं दोगे।। फतवों के तले कौम दबी जाती है सारी क्या जीस्त को आसान भी रहने नहीं दोगे।। क्या इतने ज़रूरी हैं सियासत के इदारे तालीम के ऐवान भी रहने नहीं दोगे।। अब काहे का डर तुमने कलम कर दीं जुबानें अब बोलते हो कान भी रहने नहीं दोगे।। हर रोज़ बदल देते हो तुम नाम हमारे क्या कल को ये उनवान भी रहने नहीं दोगे।। हल बैल गये साथ मे खेतों पे नज़र है शायद हमें दहकान भी रहने नहीं दोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते। वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।।
 सोच रहे हैं  नए साल में कुछ तो नया नया सा लिख दें। स्वागत कर लें अभ्यागत का गए साल को टाटा लिख दें।। छू कर आये चरण बड़ों के बच्चों को जाकर दुलरायें और सभी मिलने वालों से मिलकर मंगल वचन सुनाएं नए तरह से लिखें बधाई या संदेश पुराना लिख दें।। बोल बोल कर वहीं पुराने जुमले मजमा नया लगाएं या कह कर के नया तमाशा खेल पुराने ही दोहराएं लम्बे चौड़े भाषण पेलें जन कल्याण जरा सा लिख दें।। सोच रहे हैं नया कहाँ है यह निस दिन आता जाता है है भविष्य से आशंकाएं पर अतीत से कुछ नाता है मन को नया कलेवर तो दें तन हित भी प्रत्याशा लिख दें।।
 सर्दी पर लिख लिख हुए सारे दास कबीर। कितनों ने अनुभव करी ,हल्कू की वह पीर।। दोहा सुरेश साहनी
 आप नाहक कमान ताने थे। जान लेने के सौ बहाने थे तीर थे जाल और दाने थे। मेरे  जैसे  कई  निशाने थे ।। चाहते तो वो जीत भी जाते उनको पाशे ही तो बिछाने थे।। दिमाग दिल जिगर मेरी नज़रें उनकी ख़ातिर कई ठिकाने थे।। उनकी ताकत नई थी जोश नया हां मगर पैंतरे पुराने थे।। लोग पलकें बिछाए रहते थे हाय क्या दौर क्या ज़माने थे।। गर्द में वो भी मिल गए जिनके आसमानों में आशियाने थे।।
 सब करना मशहूर न करना । मुझको मुझसे दूर न करना।। हद होती है अहदे वफ़ा की   इतना भी मजबूर ना करना।। किशमिश होकर रह जाओगे तुम ख़ुद को अंगूर न करना।। दिल तुमसे रोशन रोशन है तुम इसको बेनूर ना करना।। बेशक़ तुम बेहद सुंदर हो पर ख़ुद को मग़रूर न् करना।। सुरेश साहनी कानपुर
 चलो वो दुश्मनी ही ठान लेंगे। तो क्या ले लेंगे मुझसे क्या न लेंगे।। ख़ुदा सुनता है मैंने भी सुना था कभी मेरी सुनें तो मान् लेंगे।। अमां घोंचू हो क्या वे दिल के बदले भला काहे तुम्हारी जान लेंगे।। नज़र से तोलना आता था उनको वो कहते हैं कि अब मीजान लेंगे।। ख़ुदारा आप इतना बन संवर कर ज़रूर इकदिन मेरा ईमान लेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आज ये ज़िक्रे- आशनाई क्यों। पहले शाइस्तगी दिखाई क्यों।। मुझसे तुमने कभी कहा तो नहीं फिर ये इल्ज़ामें- बेवफ़ाई क्यों।। अजनबी हूँ तो अजनबी ही रह आशना है तो ये ढिठाई क्यों।। इंतेख़ाबात को गए रिश्ते कशमकश तक ये बात आई क्यों।।  राब्ता जब नहीं रहा उनसे  देख कर आँख डबडबाई क्यों।। साहनी तुम से प्यार करता था बात इतनी बड़ी छुपाई क्यों।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मेरे आगे ग़ज़ल सी बैठी है। झील वाले कंवल सी बैठी है ।। इक क़यामत है हुस्न ज़ालिम का और जैसे अज़ल सी बैठी है।। ज़िंदगी की किताब लेकर वो मुस्कुराती रहल सी बैठी है।। इतनी आसान तो नहीं होगी जितनी ज़्यादा सहल सी बैठी है।।
 तेरे फ़िराक़ की दहशत से रात बिगड़ी है। कि तुझसे राब्ता रखने से बात बिगड़ी है।। समर न मांगती हौव्वा तो इल्म क्यों होता इस इक गुनाह से आदम की जात बिगड़ी है।। साहनी
 ज़ख़्म भी किसलिए सजाते फिरें। कोई तगमे हैं जो दिखाते फिरें।। वो हमें रात दिन सताते फिरें। और हम उनपे जां लुटाते फिरे।। दर्द चेहरे पे दिख रहा होगा क्या ज़रूरी है हम बताते फिरें।। वो हमारे हैं सब तो जाने हैं हक भला किसलिए जताते फिरें।। जब ज़माना है दिलफरेबों का हम भी किस किस को आज़मातें फिरें।। तगमे/ बैज, पदक , स्मृति चिन्ह, ताम्रपत्र, तमगे फ़रेब/ छल सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 निर्धन का अभिशाप है सर्दी की सौगात। रात ठिठुरती रह गयी चौराहे पर रात।। चौराहे पर रात ठिठुरती रही बेचारी खुले अंग प्रत्यंग लिए इक अबला नारी।। कह सुरेश कविराय शरद ऋतु का ओछापन धनिक मनाते जश्न यातना सहते निर्धन।।     सुरेश साहनी
 दून से हरीद्वार घूमे हो। खूब बद्री केदार घूमे हो। सच कहो तुम कभी जवानी में  जाके पलटन बजार घूमे हो।।
 हुस्न ज़िद पर अड़ा नहीं होता। तो तमाशा खड़ा नहीं होता।।  दिल न दुनिया न तो समंदर है दिल ज़्यादः बड़ा नहीं होता।। बेबसी संगदिल बनाती है दिल किसी का कड़ा नहीं होता।। हुस्न को मयकदा नहीं कहते इश्क़ भी बेवड़ा नहीं होता।। आशिकों को मिले है ये दौलत ग़म कहीं पर गड़ा नहीं होता।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मेरी जानकारी में कानपुर में लगभग चार सौ सक्रिय कवि या शायर हैं।छुपे हुए डायरी बन्द और शौकिया हज़ार से कुछ अधिक ही होंगे। प्रदेश में सौ गुना मान लीजिए।      इस सूची से अपना नाम वापस लेने में भलाई लगती है। अच्छा ही हुआ अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि प्रतीक मिश्र  जब "कानपुर के कवि"  पुस्तक लिये सामग्री जुटा  रहे थे, तब हम छूट गए थे। उनको किसी ने बताया ही नहीं। जलने वाले कवि तो तब भी रहे होंगे। जब कबीर और तुलसी से जलने वाले कवि हुए हैं तो हमसे जलने वाले क्यों नहीं हो सकते।  अभी एक कवि महोदय को एक गोष्ठी में नहीं बुलाया।उन्हें बहुतै बुरा लगा। उन्होंने तुरंत एक गोष्ठी का आयोजन किया, और किसी को नहीं बुलाया। एक पौवा, चार समोसे एक प्याज, एक चिप्स का पैकेट और एक बीड़ी का बंडल।और शीशे के सामने महफ़िल सजा के बैठ गए। मुझसे बताने लगे तब पता चला।मैंने कहा यार मुझे ही बुला लिया होता।मैं तो पीता भी नहीं।      वे बोले,"-इसीलिए तुम कवि नहीं बन पाए, और यही हाल रहा तो कवि बन भी नहीं पाओगे।" हमेशा फ्री के जुगाड़ में रहते हो। मैने जोर देकर कहा, भाई! में बिलकूल ...
 जोड़ तोड़ कर ही लिखना है तो तुम यह करते भी होंगे तुम कौए को हंस दिखाने-  की कोशिश करते भी होंगे किन्तु सभी कवितायें  केवल  तुम तक ही रह जाती होंगी कुछ शुभेच्छुओं और चारणों- से प्रशस्ति ही पाती होंगी जोड़ गाँठ कर शब्द गाँज कर गीत नहीं बन पाते हैं प्रिय ढेरों कूड़ा कंकड़ पत्थर भवन नहीं कहलाते हैं प्रिय बाद तुम्हारे उन गीतों को कोई मोल न देगा प्यारे सिवा तुम्हारे कोई अधर भी अपने बोल न देगा प्यारे गीतों को लिखने से पहले भावों को जीना पड़ता है अमिय-हलाहल सभी रसों को यथा उचित पीना पड़ता है सुरेशसाहनी कानपुर
 इक नज़र ने बचा लिया मुझको। उसके डर ने बचा लिया मुझको।। दिल की कश्ती डुबा रही थी जब इक भँवर ने बचा लिया मुझको।। मन्ज़िलों में भटक गया होता पर सफ़र ने बचा लिया मुझको।। जो मकीं थे वो मार ही देते दरबदर ने बचा लिया मुझको।। मेरे अपनों को हाल था मालुम बेख़बर ने बचा लिया मुझको।।
 मेरे चेहरे की जब किताब पढ़ो। सर्द आंखों में ग़र्क़ ख़्वाब पढ़ो।। मेरी हालत को यूँ न समझोगे जो अयाँ है उसे हिजाब पढ़ो।। मेरे आमाल पढ़ न पाओगे तुम असासे गिनो हिसाब पढ़ो।। तो तुम्हे शाह से ही निस्बत है जाओ ज़र्रे को आफ़ताब पढ़ो।। हाले-हाज़िर की वज़्ह भी तुम हो मेरा खाना भले ख़राब पढ़ो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 चलो हम मान लेते हैं कि तुम हो। भले दो चार कहते हैं कि तुम हो।। तुम्हारा क्या पता तुमको पता है कई ख़ुद को समझते हैं कि तुम हो।।
 आज मेरे प्यारे मित्र हकीक भाई हम सबको छोड़ गए। हकीकत था आज बन के फ़साना चला गया। घर भर की नेमतों का खज़ाना चला गया।। तन्हाइयों ने घेर लिया दिल को यकबयक जैसे सुना कि दोस्त पुराना चला गया।। क्यों कर कहें कि आके क़ज़ा ले गयी उसे हक़ बात है कि जिसको था जाना चला गया।। जाने की उस गली में तमन्ना चली गई मिलने का था वो एक बहाना चला गया।। तुम क्या गए हकीक कि आलम है ग़मगुसार गोया कि नेकियों का ज़माना चला गया।। हिन्दू मुसलमा अपने पराये से था जो दूर गा कर मुहब्बतों का तराना चला गया।। कितने ही आसियों की उम्मीदें चली गईं कितनी ही यारियों का ठिकाना चला गया।। मौला ने ले लिया उसे अपनी पनाह में प्यारे हुसैन तेरा दीवाना चला गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये किसकी सिम्त चलना चाहता हूँ। मैं आख़िर क्या बदलना चाहता हूँ।। तेरे ख्वाबों में पलना चाहता हूँ। मैं खुश होना मचलना चाहता हूँ।। है मुझ सा कोई मेरे आईने में मग़र मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ।। ये माना हूँ गिरा अहले नज़र में अभी तो मैं सम्हलना चाहता हूं।। मैं लेकर तिश्नगी की शिद्दतों को तेरे शीशे में ढलना चाहता हूँ।। मुझे इन महफिलों में मत तलाशो मैं अन्धेरों में जलना चाहता हूँ।। चलो तुम तो वहाँ गुल भी खिलेंगे गुलों सा मैं भी खिलना चाहता हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पहले से धारणा बना ली प्रिय एक बार मिले तो होते। हम भी तुमको प्यारे लगते दो पग संग चले तो होते।। तुमने मुझ को जब भी देखा औरों की आंखों से देखा औरों से मेरे बारे में सुना खींच दी लक्ष्मण रेखा रावण नहीं पुजारी दिखता मैं पर तुम पिघले तो होते।। उपवन उपवन तुम्हें निहारा कानन कानन तुम्हें पुकारा पर्वत जंगल बस्ती बस्ती भटका यह पंछी आवारा एक अकेला क्या करता मैं दो के साथ भले तो होते।। तुमको भाया स्वर्ण-पींजरा मैं था खुले गगन का राही मैं था याचक निरा प्रेम का तुमने कोरी दौलत चाही यदि तुम तब यह प्यार दिखाते मन के तार मिले तो होते।। सुरेशसाहनी कानपुर
 कौन अब गीत गुनगुनाता है। छंद पढ़ता है गीत गाता है।। आज श्रोता डिमांड करते हैं और कवि चुटकुले सुनाता है।। है नजाकत समय की कुछ ऐसी पेट से भाव हार जाता है।। और फिर कवि कहाँ से दोषी है आप का भी दवाब आता है।। आज के दौर में हँसा पाना आदमी है कि खुद विधाता है।।  दर्श देते हैं देव उतना ही भक्त जितना प्रसाद लाता है।।
 उनके कितने ताम झाम हैं शायद दरबारी गुलाम हैं।। कविता शायद कभी लिखी हो पर मंचों के बड़े नाम हैं।। ये सलाम करते हाकिम को तब खाते काजू बदाम हैं।। अपने हिस्से मूंगफली के दाने खाली सौ गराम हैं।। सत्ता के हित में भटगायन बड़े लोग हैं बड़े काम हैं।। ये एमपी के सेवक ठहरे अपने मालिक सियाराम हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हम नाम हुसैन का लेते हैं रखते हैं अक़ीदा जालिम में। ये दुनिया कहाँ जा पहुंची है हम खोए हैं हिन्दू मुस्लिम में।।
 ज़िन्दगी अब हो गयी है हसरतों की क़ैद में। हर खुशी दम तोड़ती है ख्वाहिशों की क़ैद में।। ताज अपने वास्ते बनवा के वो जाता रहा ज़ीस्त तन्हा रह गयी है वारिसों  की क़ैद में।। अब कफ़स खुद तोड़ना चाहे है अपनी बंदिशें नफ़्स अब घुटने लगी है खाँसियों की क़ैद में।। बंट गए हैं आसमां भी बाद भी परवाज भी अब परिंदे उड़ रहे हैं सरहदों की क़ैद में।। कौन कहता है मुहब्बत बंधनों से दूर है आज है आशिक़मिजाजी मज़हबों की क़ैद में।। ग़म के बादल छा गए हैं कस्रेदिल पर इस तरह ढह न जाये इश्क़ का घर बारिशों की क़ैद में।। दिल किसी बिंदास दिल को दें तो कैसे दें अदीब नौजवानी रह गयी है हासिलों की क़ैद में।। सुरेश साहनी, अदीब
 आपने प्यार से क्या पुकारा मुझे। ख़ुद ही देने लगे सब सहारा मुझे।। आप से हसरतें तो मुकम्मल हुई ज़िन्दगी ने भी हँस कर सँवारा मुझे।। मुझको कंधे मिले इसमें हैरत तो है अब तलक था सभी ने उतारा मुझे।। नूर उनका मुजस्सिम हुआ इस तरह ख़ुद बुलाने लगा हर नज़ारा मुझे।। इक दफा जिसकी महफ़िल में रुसवा हुए फिर उसी ने बुलाया दुबारा मुझे।।   साथ मेरा नहीं जिनको तस्लीम था आज वो कर रहे हैं गंवारा मुझे।।
 बन के मेरे यार पड़े हैं। पता नहीं वे किधर खड़े हैं।। कविता में है प्रतिरोधी स्वर  पर सत्ता के साथ खड़े हैं।। स्वाद कसैला कैसे होगा वे व्यंजन में दही बड़े हैं।। मेरी पोस्ट न दिखती इनको हैं तो चिकने मगर घड़े हैं।।
 तुम ने प्रेम मेरा ठुकराया  मैंने यही शब्दसः गाया  तुमने क्यों मेरी पीड़ा को  प्रेम गीत का नाम दे दिया।।   अब दुनिया को क्या समझाऊं    भला कहाँ जाकर छुप जाऊँ    दिल की दबी   वेदनाओं को    क्यों तुमने आयाम दे दिया ।। सुरेश साहनी,
 तुमको हक़ है कि मुझे प्यार करो। अपनी ज़ुल्फ़ों में गिरफ्तार करो।। मन करे आके मिलों ख़्वाबों में और फिर नींद भी दुश्वार करो। ख़्वाबगाहों में भटकने वालों कुछ हकीकत को भी स्वीकार करो।।
 इनकी उनकी रामकहानी छोड़ो भी। क्या दोहराना बात पुरानी छोड़ो भी।। अक्सर ऐसी बातें होती रहती हैं इनकी ख़ातिर ज़ंग जुबानी छोड़ो भी।। शक-सुब्हा नाजुक रिश्तों के दुश्मन हैं यह नासमझी ये नादानी छोड़ो भी।। आओ मिलकर आसमान में उड़ते हैं अब धरती की चूनरधानी छोड़ो भी।। चटख चांदनी सिर्फ़ चार दिन रहनी है मस्त रहो यारों गमख़्वानी छोड़ो भी।। मर्जी  मंज़िल मक़सद राहें सब अपनी सहना ग़ैरों की मनमानी छोड़ो भी।। दो दिन रहलो फिर अपने घर लौट चलो मामा मौसी नाना नानी छोड़ो भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इश्क़ मुहब्बत अपने बस की बात नहीं फिर वो चाहत अपने बस की बात नहीं माना उनके दिल से अपनी दूरी है लेकिन नफ़रत अपने बस की बात नहीं वो दुनिया मे नम्बर वन है चीटिंग से ऐसी शोहरत अपने बस की बात नहीं
 बद करामत मुझे नहीं आती। ये सियासत मुझे नहीं आती।। उसकी नफ़रत से है कड़ी नफ़रत फिर भी नफ़रत मुझे नहीं आती।। यां अक़ीदत से कोई उज़्र नहीं पर इबादत मुझे नहीं आती।। बदनिगाही नहीं रही  फ़ितरत और हिक़ारत मुझे नहीं आती।। यूँ भी तनक़ीद किस तरह करता जब मलामत मुझे नहीं आती।। कौड़ियों में रहा इसी कारण ये तिजारत मुझे नहीं आती।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 वो बुरा है , क्योंकि गैर-बिरादर है । वह भी बुरा है , क्योंकि मेरा बिरादर है  पर गैर पार्टी में है । वह बहुत बुरा है  मेरा बिरादर है  पर मेरी पार्टी में  मेरे बराबर बैठना  चाहता  है।।
 मैं अपने पढ़ने वालों की ख़ातिर लिखता हूँ। लिखने में थक भी जाता हूँ पर फिर लिखता हूँ। औरों ने मजहब के आगे दिल तोड़े होंगे मैं दिल को गुरुद्वारा- मस्जिद-मन्दिर लिखता हूँ।। जो मज़हब को मानवता से ऊपर रखते हैं मैं उनको ढोंगी तनखैया काफ़िर लिखता हूँ।। जिन लोगों ने मजहब को व्यापार बनाया है मैं ऐसों को संत न लिखकर ताज़िर लिखता हूँ।। धनपति जो हो गया आज सब माया है कहकर मुझको बोला मैं पैसों की ख़ातिर लिखता हूँ।। जो सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं तुम साधू समझो मैं उनको शातिर लिखता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 भूख और प्यास के मुद्दों को दबा देता है। जब वो मज़हब की कोई बात उठा देता है।। इतनी चालाकी से  करता है मदद क़ातिल की मरने वाले को कफ़न उससे दिला देता है।। अपना घर दूर जज़ीरे में बना रखा है जब शहर जलता है वो खूब हवा देता है।। अपने परिवार के हक में कभी अपनी ख़ातिर कौम के सैकड़ों परिवार मिटा देता है।। कौन सी कौम है जिससे न हो रिश्ते उसके कौम के क़ौम वो चुटकी में लड़ा देता है।। रोज खाता है हक़-ए-मुल्क़ में इतनी कसमें पर सियासत के लिए रोज भुला देता है।। बख्शता है कहाँ वो मुल्क़ को मजहब को भी ग़ैर तो ग़ैर वो अपनों को दगा देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दिन रहे उलझन भरे रातों रही बेचैनियां। फागुन नहीं सावन नहीं फिर क्यूं रही हैरानियाँ।। मैं इस गली तुम उस गली ,मैं इस डगर तुम उस डगर इक नाम जुड़ने से तेरे इतनी मिली बदनामियाँ।। लैला नहीं मजनू नहीं फरहाद- शीरी भी नहीं अब आशिक़ी के नाम पर बाक़ी रहीं ऐयारियां।। सब चाहते हैं जीस्त में सरपट डगर मिलती रहें  पर इश्क़ ने देखा नहीं आसानियाँ दुश्वारियां।।
 न्याय पर से भी भरोसा उठ गया। अब व्यवस्था का ज़नाज़ा उठ गया।। आईये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया लग रहा है कोई अच्छा उठ गया।। अब तेरी महफ़िल में रौनक ख़त्म है दिल तेरी महफ़िल से तन्हा उठ गया।। इक मदारी को यही दरकार है चंद सिक्के और मजमा उठ गया।। बन्द कमरे में हुई कुछ बैठकेँ और फिर नाटक का पर्दा उठ गया।। सुरेश साहनी
 जब मेरे बिन तेरी महफ़िल सजती है।  महफ़िल गोया तन्हा रोया करती है।। जैसे अर्थी उठती है लावारिस की वो महफ़िल भी कुछ ऐसे ही उठती है।। यूँ भी महफ़िल होती है दिल वालों की बेदिल वालों की तो मंडी चढ़ती है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 इक हसीं ख़्वाब सजाकर हमने। कर दिया उनको मुनव्वर हमने।। रात ख़्वाबों में वो आये फिर क्या ओढ़ ली वस्ल की चादर हमने।। शख़्सियत कर ली बुजुर्गों जैसी इश्क़ में उम्र बिताकर  हमने ।। कर दिया जैसे शहर को पत्थर आईना खुद को बनाकर हमने।। उनकी नज़रों में बड़ी गलती की अपने बच्चों को पढ़ाकर हमने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तमाम दिन भाग दौड़ के चलते  हम तक़ल्लुफ़ भी छोड़ देते हैं। जिनपे चलते हैं दोस्त या अपने ऐसी  राहों को  मोड़ देते हैं।। और तब तक कमी नहीं खलती जब तलक हम हवा में होते हैं। और जब टूटकर बिखरते हैं तब हमें दोस्त याद आते हैं।। सभी फेसबुक  मित्रों को आज तसल्ली भरा नमस्कार!!!!! सुप्रभात!!!!!!
 अब पहले जितना वक्त कहाँ अब भाग दौड़ की दुनिया है। अब कोई भी रिश्ता बनना इक बोझ सा लगने लगता है।। अब एक तकल्लुफ है कहना पर वो भी भारी लगता है वो सचमुच चाय न मांग पड़े भारी बीमारी लगता है।।
 इस कविता की प्रेरणा अनूप शुक्ल जी की पोस्ट बनी। नोटबन्दी ने सियासत में नए आयाम जोड़े हैं। समूचे देश को अब एक जैसा काम जोड़े हैं।। सभी हैं चोर अधिकारी,करमचारी कि व्यापारी मिले हैं शाह चौकीदार बहुत बदनाम जोड़े हैं।। खड़े हैं एक सफ में सारे मोदी जी की मर्जी से नहीं तो कब सियासत ने  रहीम-ओ-राम जोड़े हैं।। जिसे गांधी न कर पाये करा तस्वीर ने उनकी घुमाया  सिर्फ चेहरा और खास-ओ-आम जोड़े हैं।। तुम्हें मुजरिम ने लूटा है ,लुटे हैं मुंसिफ़ी से हम मेरे हिन्दोस्तां को एक सा अंजाम जोड़े हैं।।
 ग़ज़ल मेरी मेरे काबू में बिलकुल भी नहीं रहती। कलम मेरी मेरे मौजूं में बिलकुल भी नही रहती।। मैं जब लिखता हूँ उसके वास्ते  कुछ हर्फ़ कागज पर ये सच है वो मेरे पहलू में बिलकुल भी नहीं रहती।। सुरेश साहनी
 पहले पत्थरदारी की। फिर शीशे से यारी की।। जन्म हुआ संघर्षों में मैंने कब तैयारी की।। सुन कर तुम हँस सकते हो बात मेरी ख़ुद्दारी की।। प्यार मिले इस लालच में ख़ुशियाँ बहुत उधारी की।। जान हथेली पर रक्खी तब जाकर सरदारी की।।
 सम्बन्धों  में  समरसताएँ  बनी  रहें किन्तु प्रेम को सम्बन्धों का नाम न दो। सत है चित है सदानन्द है तुम इसको काम जनित उन्मादों के आयाम न दो।। तुमको बचपन से यौवन तक देखा है साथ तुम्हारा प्रतिदिन प्रति क्षण चाहा है। किन्तु वासना जन्म नहीं ले सकी कभी इस सीमा तक हमने धर्म निबाहा है।। जो शिव है है वही सत्य वह सुन्दर भी जो सुन्दर है केवल भ्रम कुछ पल का है। पा लेने में खारापन आ सकता है पर प्रवाह मीठापन गंगा जल का है।। हम तुमको चाहें तुम भी हमको चाहो सम्बन्धों से परे प्रेम यूँ पावन है। जन्म जन्म तक प्रेम रहेगा कुछ ऐसे जैसे धरती पर युग युग से जीवन है।। सुरेशसाहनी
 यह भारतीय राजनीति का संक्रमण काल  चल रहा है। आम जनता ,किसान, आदिवासी समुदाय, जलवंशी समुदाय ,सवर्ण समाज और पिछड़ी जातियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिन पर लिखा जा सकता है। लेकिन कुछ भी लिखने के लिए कुछ तो समय चाहिए। सो है नहीं। रोजी रोटी के लिए सुबह शाम की मशक्कत आपकी  चिन्तन क्षमता हर लेती है।  उससे भी बड़ी दिक्कत है कि भारत सरकार की आर्थिक नीति बड़ी तेजी से बाज़ारवाद के अंधे कुएं की ओर बढ़ रही है। मीडिया  केवल उन्ही राजनैतिक दलों को भारतीय राजनीति के विकल्प बता रहा है, जो आर्थिक उदारवाद के नाम पर गरीब-विरोधी आर्थिक नीतियों को प्रश्रय देते आ रहे हैं।आज देश के अधिकांश बुद्धिजीवी इन ज़मीनी सच्चाईयों से मुँह फेरकर जाति-धर्म की राजनीति पर जुगाली कर रहे हैं। ये सब घूमकर केवल इस बात पर जोर देने में लगे हैं कि जहां जिस भी दल से इनकी बिरादरी या धर्म के लोग लड़ रहे हों उनके समर्थन का दिखावा करो।इन सब का देश के समाज के ,इनके खुद के जातिय समाज के विकास से कोई मतलब नहीं।आख़िर इन सबके धर्म, मजहब, पंथ और जाति को ख़तरा जो है। ऐसे में आप कुछ भी सकारात्मक लिखें,लोग उसे नकारात्मक रूप में लपकने...
 मत पूछो किस बात का डर है। बे मौसम बरसात का डर है।। कतराते हो दिल देने से क्या दिल के आघात का डर है।। ग़ैरों से  उम्मीद नहीं है पर अपनों से  घात का डर है।। रात सजा करती है महफ़िल अब दिन को भी रात का डर है।। हम ख़ुद पर काबू तो कर लें इस दिल को जज्बात का डर है।। दिल्ली की बातें मत पूछो भूतों को जिन्नात का डर है।  लोग बहुत सहमे हैं उनको अनजाने हालात का डर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जिनसे कभी मिले नहीं अक्सर उन्ही में हम। ख़ुद को तलाशते रहे खोकर उन्हीं में हम।। क्यों जाये हम बहिश्त कहीं और ढूंढ़ने  शायद कि ख़त्म कर सकें बंजर उन्हीं में हम।। वैसे तो किस्मतों पे भरोसा नहीं रहा फिर भी जगा रहे हैं मुक़द्दर उन्हीं में हम।। ग़ैरों के आसमान में जाएं तो किसलिए दिल कह रहा है होंगे मुनव्वर उन्हीं में हम।। बेशक़ मिले नहीं हैं ख़्याली ज़हान से  लेकिन बने रहेंगे बराबर उन्हीं में हम।। माना कि ऐसी राह में हैं राहजन मगर पाते हैं हर मुकाम पे रहबर उन्हीं में हम।। दिल में बिठा के अपने ही दिल के लिए अदीब ताउम्र खोजते फिरे इक घर उन्हीं में हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
 किसके लिए जियेंगे ये सोचा नहीं कभी। किसके लिए मरेंगे  ये सोचा नहीं कभी।। जो फ़र्ज़ थे वो मैने बराबर अता किये  कुछ लोग क्या कहेंगे ये सोचा नहीं कभी।।
 आख़िर तुमने अपनी वाली कर दी ना। मुझ फ़कीर की झोली खाली कर दी ना।। तुम सबके दिन अच्छे करने वाले थे खाक़ करोगे रातें काली कर दी ना।।
 उस शख़्स से मेरा कोई रिश्ता कभी न था। मेरा ही था कैसे कहूँ मेरा  कभी न था।। चुपचाप छोड़कर गया अफ़सोस है यही जैसे गया वो इस तरह जाता कभी न था।।
 आज उजालों का मजा क्यों ना लें धनवान। ख़ुद को गिरवी रख चुके हैं अब के दिनमान।।  सुरेश साहनी
 अगर रुसवाईयों से यूँ डरेगा। मुहब्बत ख़ाक़ तू मुझसे करेगा।। ज़हाँ वालों से यूँ डरता फिरेगा। हमारे साथ कैसे चल सकेगा।।
 चांद जो हमसफ़र हुआ होता। आसमानों पे घर हुआ होता।। मुश्किलें कुछ तो कम हुईं होतीं कुछ तो आसां सफर हुआ होता नूर के साथ दाग भी मिलते इश्क जो  बाअसर हुआ होता।। हर्ज क्या हम जो चश्मेनम रहते  उनका दामन भी तर हुआ होता।। तेरे होने से फ़र्क़ पड़ता तो मैं भी लालो-गुहर हुआ होता।। सुरेश साहनी कानपुर 94515451
 आशिक़ी का वही बदल थी क्या। वो मेरी उलझनों का हल थी क्या। मुस्कुरा कर नज़र झुका लेना प्यार की क्या वही पहल थी क्या।। गुनगुनाते हैं हम जिसे अक्सर तुम वही सुरमई ग़ज़ल थी क्या।।
 कह रहा है मुजस्समा मुझको। कैसे मानूँ है जानता मुझको।। जानते हैं कई भला मुझको। कह रहा है कोई बुरा मुझको।। जिसको अहले वफ़ा कहा तुमने दे रहा है वही दगा मुझको।। हो न् हो लौट कर वो आएगा उम्र भर ये भरम रहा मुझको।। मैंने उसका मुकाम माँगा  जब उसने सौंपा मेरा पता मुझको।। दूर रहता है इस तरह गोया दे रहा है बड़ी सज़ा मुझको।। अलविदा क्यों सुरेश को कह दें मुद्दतों बाद है मिला मुझको।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तुम्हे देख कर क्यों लगता है जैसे हम कुछ हार गए हों या अपना कुछ छूट गया हो या ऐसा लगता है जैसे तुम्हे समय ने मेरी किस्मत- की  झोली से चुरा लिया है किन्तु इसे दावे से कहना अब जैसे बेमानी सा है.... कभी मिलो तो हो सकता है तुमसे मिलकर मेरी आँखें हौले से यह राज बता दें तुम ही उनका वह सपना हो जिसकी ख़ातिर वे बेचारी रातों को जागा करती थीं और  सुबह से उस रस्ते पर दिन भर बिछी बिछी रहती थीं जिन से होकर जिन पर चलकर तुम आया जाया करती थी।
 मुहब्बत कर न पाये तुम चलो नफ़रत ही कर लेते सुना है उम्र भर रिश्ते अदावत के भी चलते हैं।।सुरेशसाहनी
 विद्रोही मन कहाँ किसी के साथ रहा है विद्रोही मन खाक किसी के साथ रहेगा। उसे पता है जो भी आया छला उसी ने उसे पता है जो आएगा घात करेगा।। सुरेश साहनी
 हम जन्मजात अभिचिन्तक है सदियों पहले के सूत्रधार बल से कम छल से गए हार उस छल की पीड़ा को लेकर  मन मे इस बीड़ा को लेकर हम सोते में भी जगते हैं इक ऐसी सुबह हम लाएंगे जब हमसे छल करने वाले अपने छल से घबराएंगे हर रोज सुबह तब होती है जब इस प्रसूति पीड़ा का फल  कविता अपना आकार लिए कागज की धरती पर आकर जब स्वयम प्रस्फुटित होती है मैं नहीं मात्र तब साथ मेरे सदियों की पीड़ा उठती है सदियों की पीड़ा उठती है जब जन्म नई कविता  लेगी हर बार  प्रथम प्रसवानुभूति से कवि तो निश्चित गुजरेगा पर जब भी कविता जन्मेगी हर बार किसी अव्यवस्था से आक्रोश प्रथम कारण होगा....
 जय जवान तब तक है जय किसान तब तक है जब तक वे अपने अधिकार नहीं मांगते जब तक वे अपनी सरकार नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक जब तक वे सेवा का दाम नहीं मांगते नाम नहीं मांगते आराम नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक हर मजूर मालिक है भाव ताव होने तक किसान अन्नदाता है बस चुनाव होने तक मान जान कब तक है जय जवान तब तक है जय जवान कब तक है जय किसान तब तक है सुरेश साहनी, कानपुर
 ये किस्सों के भी चलते हैं हकीकत के भी चलते हैं।। जवानी में तो अक्सर दौर तोहमत के भी चलते हैं।। कि फाकाकश फकीरों के कई किस्से सुने होंगे मगर ये दौरे-गर्दिश मा बदौलत के भी चलते हैं।। मुहब्बत कर न पाये तुम चलो नफ़रत ही कर लेते सुना है उम्र भर रिश्ते अदावत के भी चलते हैं।।सुरेशसाहनी
 मेरे अंदर का नचिकेता डरा हुआ है और सामने का ऋषि कुल अब अभिचिन्तन से मरा हुआ है कल कोई मुझको अज्ञानी कह सकता है देशद्रोह से आरोपित कर खालिस्तानी कह सकता है पहले यम उत्तर देते थे शांत भाव से लोकतंत्र का यम ईवीएम मार रहा है अब चुनाव से
 बनाये कितने बहाने तेरी मुहब्बत में। बिता दिये हैं ज़माने तेरी मुहब्बत में।। तेरी गली, गली का मोड़ ,पान की गुमटी यही थे अपने ठिकाने तेरी मुहब्बत में।।
 फिर मुझे ग़म ने आजमाया है। आज दिल फिर से मुस्कुराया है।। कोई अपना है क्या करें यारों  तीर जानिब से जिसकी आया है।। क्या ख़ुदा को भी खौफ़ है कोई आसमानों पे घर बनाया है।। नींद उसकी भी उड़ रही होगी तब तो ख्वाबो में मेरे आया है।।
 आदमी से कहाँ बचा रहता। वो अगर यूँ न् लापता रहता।। वक़्त वो उम्र भर  नहीं लौटा फिर मैं किसके लिए रुका रहता।। हुस्न ने जब बदल लिए चेहरे इश्क़ कब तक वही बना रहता।। उसकी मर्ज़ी पे क्यों गुरेज़ करें देर कितना है बुलबुला  रहता।। खलवतें ज़िन्दगी का हिस्सा हैं साथ कब तक है काफिला रहता।। साहनी तू  है तो ख़ुदा खुश है मैं जो होता क्या ख़ुदा रहता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तुम महफ़िल में होकर तन्हा तन्हा हो मैं तन्हा रहकर भी साथ तुम्हारे हूँ।। राग रंग में खोकर तुम तो भूल गए मैं सुध बुध खोकर भी साथ तुम्हारे हूँ।। तुम जीवन जी कर भी मेरे नहीं हुए मैं तुम पर मर कर भी साथ तुम्हारे हूँ।। तुम मेरा सानिध्य भोग मुंह फेर गए मैं उपेक्षा पर भी साथ तुम्हारे हूँ।।
 जाने कैसे इन हाथों से हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। लेकिन बाज़ारी दुनिया में खो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। ख्वाबों के टूटा करने  से  हर रोज उजड़ती है दुनिया पर फसल सुहाने ख़्वाबों की बो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। कुछ अपनी फिक्रों के कारण कुछ दुनिया की चिंताओं से मैं जगता रहता हूँ लेकिन सो  जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मैं रोज हथौड़ी छेनी से कुछ भाव तराशा करता हूँ पर अगले दिन ही पत्थर क्यों हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मेरे मिसरे उन गलियों में  क्यों जाकर भटके फिरते हैं जब उन गलियों से ही होकर तो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। सुरेश साहनी, कानपुर  अदीब
 हमपे तोहमत भले लगा देते। तुम तो अहदे वफ़ा निभा देते।। तुम पे हर इक खुशी लुटा देते। प्यार से तुम जो मुस्करा देते।। ज़ख़्म सीने के जगमगा उठते तुम जो झूठा भी आसरा देते।। तुमसे प्याले की जुस्तजू कब थी जाम आंखों से जो पिला देते।। क्या ज़रूरी थी ग़ैर की महफ़िल हमसे कहते तो क्या न ला देते।। हम न पी कर भी बेख़ुदी में रहे। कोई इल्ज़ाम मय को क्या देते।। तुम जो आते सुरेश इस दिल मे क्यों किसी और को बिठा देते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 मिला है जो हमें तकदीर से  कुछ कम नहीं है चलो इनमें ही कुछ चीजें मुकम्मल ढूंढते हैं।। Suresh Sahani
 किसी के पास सागर है मगर वो खुद में गाफिल है हमारी प्यास सहराओं में जाकर सर पटकती है।।सुरेश साहनी
 ज़िन्दगी तुझसे परेशां तो हूँ। कुछ नहीं हूँ तो क्या इंसां तो हूँ।। क्यों न  चाहूँ मैं  तवज्जह ख़ातिर चार दिन ही सही मेहमाँ तो हूँ।।
 ये सोच कर मुझे उसने कुबूल कर ही लिया कि दूसरा कोई मुझसे भला तो क्या होगा।।साहनी
 #लघुकथा - मरीज़ कल मैं शहर के व्यस्त क्षेत्र से अपने बच्चे के साथ गुज़र रहा था। सड़क पर भीड़ भाड़ यथोचित ही थी।लाल बत्ती खुल चुकी थी। तभी पीछे से अचानक एम्बुलेंस के सायरन की आवाज सुनाई पड़ी। लोग तितर बितर होने की स्थिति में आ गए। मैं भी असहज होकर और किनारे यानि लगभग सड़क से की तरह सरक आया।      कुछ देर  बाद   किसी सत्ताधारी दल से सम्बंधित झंडा लगाए एक एसयूवी टाइप गाड़ी गुज़री। भीड़ होने के कारण स्पीड उनके अनुसार कम ही थी। उसमें कुछेक सदरी टाइप लोग खीखी करके हँसते बतियाते दिखाई दिए। और वह गाड़ी आगे चली गयी।   बच्चे ने पूछने के अंदाज़ में बताया 'पापा ये एम्बुलेंस नहीं थी।"  मै क्या बताता। पर यह बात तो तय है कि उसमें मरीज ही थे। शायद  मानसिक मरीज जो सैडिज़्म या किसी हीनता श्रेष्ठता बोध से ग्रसित रहते हैं। सुरेश साहनी, कानपुर
 प्यार मुझसे जो करोगे तो सँवर जाओगे। इन निगाहों में रहोगे तो सँवर जाओगे।। मत सुनो बात ज़माने की न तो फिक्र करो हां अगर दिल की सुनोगे तो सँवर जाओगे।।
 वैसे तो मेरे पोस्ट किसी काम के न थे तुमने कमेंट करके उन्हें ख़ास कर दिया।।साहनी
 जनता सच में बेबस है क्या। फिर सत्ता में काकस है क्या।। हक़ से हैँ महरूम रियाया गद्दी पर पॉन्टीयस है क्या।। साधु प्रहरी क्या क्या है ये  ये भी कोई सिरदस है क्या।। ये ये भी है ये वो भी है ये मायावी राक्षस है क्या।। दुनिया सारी घूम रहा है अवतारे-कोलम्बस है क्या।।  चारो ओर हुआ अँधियारा सूली पर फिर जीसस है क्या।। रावण भी पूजा जाता है अपयश है यह तो यश है क्या।। हेरोदस / एक राजा जिसने प्रभु यीशु को मृत्युदंड दिया सुरेश साहनी कानपुर  9451545132 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़ुल्म हम पे भी कम नहीं गुज़रे। सिर्फ़ ये है कि हम नहीं गुज़रे।। राब्ता उस गली से क्या रखते जिस गली से सनम नहीं गुज़रे।। हैफ़ जिस से अदूँ रहे हम भी इक उसी के सितम नहीं गुज़रे।। उस को दरकार थी नुमाइश की आप लेकर अलम नहीं गुज़रे।। यूँ जुदाई है मौत से बढ़कर आप के हैं सो हम नहीं गुज़रे।। तिश्नगी थी तो लज़्ज़तें भी थीं सर कभी कर के खम नहीं गुजरे।। सुरेश साहनी,कानपुर
 आज जब मौत की पनाह में हूँ। लग रहा है कि ठीक राह में हूँ।। अपने तकिए में आके खुश हूँ मैं मुद्दतों बाद ख़्वाबगाह में हूँ।। ऐसा लगता था इश्क़ में जैसे पाँव से सर तलक गुनाह में हूँ।। जबकि वो याद ही तो आये हैं और मैं किसलिए उछाह में हूँ।। इतना शक़ भी न कीजिये जानम रात दिन आपकी निगाह में हूँ।।
 मेरी गली में आपका आना अगर है तो। मिलिएगा मुझसे दिल जो लगाना अगर है तो।। यूँ इश्क़ में बहाने ज़रूरी नहीं मगर अच्छा रहेगा कोई बहाना अगर है तो।।  दैरोहरम से मेरा ख़ुदा लापता मिला ले चलिए मैक़दे में ठिकाना अगर है तो।। सागर में डूबने से कहाँ उज़्र है मुझे क़िस्मत में आशिक़ी का खज़ाना अगर है तो।।  ऐ ज़ीस्त झूठी तोहमतों का डर है किसलिए फिर फिर नये लिबास का पाना अगर है तो।। दुनिया से उठ लिए तो कोई इंतज़ार क्यों ले चलिए रस्म सिर्फ़ उठाना अगर है तो।। उससे तो बेहतर है चरिंदों कि ज़िन्दगी इक अपने वास्ते जिये जाना अगर है तो।। इक आप साथ हैं तो कोई ग़म नहीं अदीब होने दें उसके साथ ज़माना अगर है तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 पैर जब जंज़ीर से वाकिफ़ न् थे। हम किसी तकदीर से वाकिफ न् थे।। ये नहीं तदबीर से वाकिफ़ न् थे। आप की तस्वीर से वाकिफ़ न् थे।। डूब कर हम रक़्स करते थे मगर रक़्स की तासीर से वाकिफ़ न् थे।। किस बिना पर मुझको काफ़िर कह गए आप जब तफ़्सीर से वाकिफ़ न् थे।। ख़्वाब अच्छे दिन के देखे थे मगर आज की ताबीर से वाकिफ़ न् थे।। इल्म का खाया न् था जब तक समर बाकसम तक़सीर से वाकिफ़ न् थे।। बालपन तक मन के राजा थे सुरेश तब किसी जागीर से वाकिफ न् थे।। तक़दीर-भाग्य, तदबीर- युक्ति , रक़्स- नृत्य, तासीर- प्रभाव, काफ़िर- धर्मविरुद्ध, तफ़्सीर- टीका, धर्मग्रंथ की व्याख्या,  ताबीर- किसी स्वप्न की व्याख्या, तक़सीर-अपराध, समर- फल, इल्म- ज्ञान  सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 अहले-दिल को सुकून मिल जाता। आशिक़ी को सुतून(स्तंभ) मिल जाता।। यूँ भी मजनू को हो गया अरसा इक नया कारकून मिल जाता।।
 दिल की बस्ती तबाह की जाये। फिर मुहब्बत की राह की जाये।। कुछ तो रुसवाईयों के हासिल हों अपनी हस्ती सियाह की जाये।। आईनों से अगर मिले फुर्सत इश्क़ पर भी निगाह की जाये।। दर्द अपना सुना रहे है वो किस तरह वाह वाह की जाये।। बिन तुम्हारे है एक पल मुश्किल जीस्त कैसे निबाह की जाये।। सुरेश साहनी, कानपुर
 खामोशी तो खूब रही है क्या बोलें। किसकी किश्ती डूब रही है क्या बोलें।। फिर हम इंसानों की क्या हस्ती है जब दुनिया तलक ग़ुरूब रही है क्या बोलें।।साहनी
 सब थे अपने द्वारे साधो। हम ही थे बंजारे साधो।। भावों की बहरी बस्ती में जाकर किसे पुकारे साधो।। सच मे साथ चला क्या कोई यूँ थे सभी हमारे साधो।। जब दुनिया ही कंचन मृग है कितना मन को मारे साधो।। हार गहें मन से मत हारें हार है मन के हारे साधो।। मैं मैं करना मन का भ्रम है तू ही तू कह प्यारे साधो।। सोहम जपकर भवसागर से ले चल नाव किनारे साधो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कलपित हय,हम सोचित हय हम काहे न बे-रोजगार रहे। जन धन खाता हम खुलवायित जेहिमा सब पईसा डारि रहे। हमते बढ़िया हैं रामलाल हम मूढ़ वहै हुशियार रहे। अपने बच्चन का पढ़वा के उनहूं के भाग बिगारि रहे।। सुरेश साहनी
 हमारी ज़िंदगी  ही झूठ पर है। यहां सच बोलना भी इक हुनर है।। ये दुनिया नफ़रतों को पूजती है मुहब्बत आज भी धीमा ज़हर है।। मैं सेहतयाब होकर लौट आया दुआओं में तेरी अब भी असर है।। ज़हर पीने की आदत डाल लें हम गृहस्थी जीस्त का लंबा सफर है।। अभी रिश्ते भी हैं अनुबन्ध जैसे रखो या तोड़ डालो आप पर है।। कोई उम्मीद मत रखना किसी से उम्मीदे ख्वाहिशों का बोझ भर है।। ठिकाना क्या बनाते हम गदायी ख़ुदा ख़ानाबदोशों का सदर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यत्र तत्र हैं सूर्पनखा की नाक काटते लोग। अपराधों के दण्डकवन में मृत्यु बांटते लोग।। क्या मानक हैं कैसे निर्धारित होते आदर्श। क्या उन आदर्शो के ऐसे होते हैं प्रतिदर्श।। राम तुम्हें
 क्या तुम जो चाहोगे वो ही लिख दोगे। खेती है क्या अपनों को ही लिख दोगे।। तुमसे सहमत है तो कोई बात नहीं सच बोला तो उसको द्रोही लिख दोगे।। जिससे राहें तक बतियाती दिखती हैं उसको भी अनजान बटोही लिख दोगे।। छल से धन दौलत पा बैठे हो लेकिन किस्मत को कैसे आरोही लिख दोगे।। अपनो को ठगने में तुमको हर्ज कहाँ तुम तो मुझको ही निर्मोही लिख दोगे।।
 सपने लेकर नींद कुंवारी लेटी है।। खोई खोई आस बिचारी लेटी है।। क्या ज़िंदा रहना ही है ज़िंदा होना वो बिस्तर पे लाश हमारी लेटी है।। अस्पताल चलते हैं दौलत वालों से तुम क्या समझे वो बीमारी लेटी है।। बीबी खुश है आज़ादी की राह खुली वो माँ है जो ग़म की मारी लेटी है।। बोझ गृहस्थी का अब कौन उठाएगा वो घर भर की ज़िम्मेदारी लेटी है।। टूट रही हैं लोकतंत्र की सांसें अब बंदूकों पर रायशुमारी लेटी है।। इस शासन में अब शायद ही उठ पाये सीसीयू में जन ख़ुद्दारी लेटी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कौन सी आरजू जिबह कर लें। कौन सी शर्त पर सुलह कर लें।। जुल्फ़ तेरी जो सर न हो पाए तुम कहो और क्या फतह कर लें।। तुम जो ख़ामोश हो तो किस दम पर कोई फ़रयाद या जिरह कर लें।। साथ तुम हो न चाँद है रोशन तीरगी में कहाँ सुबह कर लें।। जब मिले हो तो खानकाहों पर क्या हम अपनी भी खानकह कर लें।। तेरी ख़ातिर कहाँ कहाँ न लड़े और किस किस से हम कलह कर लें।। और कैसे करार पाएं हम ख़ुद को बेफिक्र किस तरह कर लें।।  सुरेश साहनी, कानपुर
 अब कोई साहिबे-किरदार  न ढूंढ़े मुझमें। मेरे जैसा कोई हर बार न ढूंढ़े मुझमें।। मुंसिफ़ाना हूँ तबीयत से सभी से कह दो  कोई अपना ही तरफगार न ढूंढ़े मुझमें।। ग़ैर के घर हो भगतसिंह है चाहत जिसकी  उससे कह दो कोई यलगार न ढूंढ़े मुझमें।। होंगे बेशक़ कई बीमार शहर में   उसके हुस्न वैसा कोई बीमार न ढूंढ़े मुझमें।। इतनी मुश्किल से शफ़ा दी मेरे हरजाई ने अब कोई इश्क़ के आसार न ढूंढ़े मुझमें।। यूँ भी मजलूम हूँ मजदूर हूँ दहकां भी हूँ कोई परधान सा ऐयार न ढूंढ़े मुझमें।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132
 यूँ तो मैं मेरे साथ था फिर भी मैंने मुझको कहाँ नहीं ढूँढा।।साहनी
 नित विपक्ष पर लादते मनमाने प्रतिबंध। सत्ता पा कर हो गए ये सचमुच मद-अन्ध।। साहनी दोहा
 आओ कि साथ बैठ के पीते हैं जाम फिर। अपने बिगड़ चुके हुये रिश्ते के नाम फिर।। सिर लेके अपने हाथ में गुज़रे थे उस गली कैसे कहें कि खेत मे आएंगे काम फिर।।
 झोंपड़ी अपनी महल सी हो गयी। इक कली खिल कर कँवल सी हो गयी।। आपकी नज़रे इनायत क्या हुई ज़िन्दगी ताज़ा ग़ज़ल सी हो गयी।। और आसां हो गयी दुश्वारियां मुश्किलें सचमुच सहल सी हो गयी।।
 आदमी दो दिन इधर दो दिन उधर ज़िंदा रहा। किन्तु राक्षस आदमी में उम्र भर ज़िंदा रहा।। जिस किसी भी शख़्स की आंखों का पानी मर गया उसको ज़िंदा मान लें कैसे अगर ज़िंदा रहा।। एक अबला  की किसी वहशी ने इज़्ज़त बख्श दी यूँ  लगा उस शख़्स में इक जानवर जिन्दा रहा।। फिर से जिंदा हो न् जाये जानवर में आदमी हाँ यही डर रातदिन शामोसहर ज़िंदा रहा।। उम्र के हर मोड़ पर माँ बाप याद आते रहे मैं वो बच्चा था जो मुझमे उम्र भर जिन्दा रहा।। बंट चुके आँगन में दीवारों के जंगल उग गए फिर भी बूढ़े बाप की आँखों मे घर जिन्दा रहा।। दिल बियावां जिस्म तन्हा औ मनाज़िर अजनबी साहनी की सोच में फिर भी शहर ज़िंदा रहा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 मेरा महबूब होना चाहिए था। तुम्हे क्या खूब होना चाहिए था।। तुम्हारे हाथ मे आकर जो खुलता वही मकतूब होना चाहिए था।। मैं तालिब हूँ तुम्हारा तो तुम्हें भी मेरा मतलूब होना चाहिए था।।
 तुम ये समझे हो कि पत्थर आईना हो जायेगा। हम को लगता है अकड़ कर देवता हो जाएगा।। उनको लगता है कि कतराकर निकल जाएंगे वो हम कहें हैं उनका हर वादा वफ़ा हो जायेगा।।
 अज़ीब परम्परा सी चलाई जा रही है। कभी कोई मोम सी गुड़िया  तो कभी मोमबत्ती जलाई जा रही है।। अब यह दोनों कार्य  इस तेजी से हो रहे है, समझ में नहीं आता क्या किसके उपलक्ष्य में  मनाया जा रहा है बेटियों के लिए मोमबत्तियां या मोमबत्तियों के लिए  बेटियों को जलाया जा रहा है।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम भूल गए कैसे मुहब्बत के फसाने। कहते थे तुम्हीं याद रहेंगे ये ज़माने।। नज़रों से ज़ेहन ज़ेहन से दिल दिल से मेरी जां  तुम बदला किये अपने ठिकाने पे ठिकाने।। तुम मुझसे न मिल पाए या मिलना नहीं चाहा अब लाख करे जाओ बहाने पे बहाने।।
 काश फिर से कोई पीने को वज़ह मिल जाये कैफ़े-ग़म ही सही जीने को वज़ह मिल जाये।। ज़ख़्म तमगे हैं ज़माने को दिखाने के लिए कौन चाहे है कि सीने को वजह मिल जाये।। फिर मज़ा क्या है अगर जीस्त में तकलीफ़ न् हों गो भँवर हो तो सफीने को  वज़ह मिल जाये।। सुरेश साहनी कानपुर
 तंग  हुए सब काफ़िये बिगड़े सभी रदीफ़। हुए बेबहर देख हम अपनो की तकलीफ।।सुरेश साहनी दोहा
 हनुमान दलित थे या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन वे शासक वर्ग थे ,यह पता है।सुग्रीव, बालि , नल,नील आदि सब शासक थे।एक  सज्जन ने कहा कि वे मल्लाह थे।मैंने पूछा- सो कैसे? उनका उत्तर था- मल्लाह भोली कौम है ज़रा सा कोई पुचकार दे , ये लोग उसके प्रेम में पागल हो जाते हैं।और इतने पागल कि सामने वाले के प्यार में तीसरे पक्ष का घर भी फूँक  डालते हैं। आज भी राम के नाम पर सबसे ज्यादा यही समाज जान देने को उतारू रहता है।
 बड़ी उम्मीद थी जिससे किनारा कर गया इक दिन। सहारा बन के हमको बेसहारा कर गया इक दिन।। जो कहता था तुम्हें संग ले चलूंगा कहकशांओं में वही किस्मत का गर्दिश में सितारा कर गया इक दिन ।। सुरेश साहनी
 तूफ़ां के रुख़ मोड़ रही हैं। सांसें जो दम तोड़ रही हैं।। जीस्त कहाँ तक इनसे लड़ती तक़दीरें   मुंहजोर  रही हैं।। हालातों की ज़ुर्रत देखो जूना कफ़स झिंझोड़ रही हैं।। ग़म के बोझ दबाते कैसे जब महफिलें हंसोड़ रही है।। टूट गए होते हम कबके  कुछ उम्मीदें जोड़ रही हैं।। वहशत ने सीमाएं लांघी लाजें पांव सिकोड़ रही हैं।। अब अदीब बिकना चाहे है आतें ऐंठ मरोड़ रही हैं।। #सुरेशसाहनी-अदीब
 आप ईश्वर को नकार सकते हैं।किंतु समय और प्रकृति को क्यों नकारते  हैं।समय और प्रकृति दोनों का अस्तित्व है। दोनों की प्रतीति है। एक को हम आंखों से देख पाते हैं और एक को नहीं किंतु दोनों के गर्भ में अनन्त रहस्य हैं।इन दोनों का समन्वय सृष्टि है।सृष्टि जिसे हम नकार नहीं सकते।आप सब कुछ नकार दीजिये।क्या होगा ,आप पृथक हो जाएंगे,अलग थलग पड़ जाएंगे।आप में अहंकार आ जायेगा।आप अपनी बात सब पर थोपेंगे।बहुत से लोग आपकी बात सुन सकते हैं।किंतु उससे भी अधिक आपकी बातों से निस्पृह रहते हैं।उनकी उदासीनता से आपका मन बढ़ता है।आपमें श्रेष्ठता बोध आता है।यह #सोSहम  वाली अनुभूति नहीं है।यह स्वयं को ईश्वर बताने का छद्म प्रयास है।जब आप स्वयं को सर्वोच्च मानने लगते हैं ,तब सृष्टि आपके अस्तित्व को नकार देती है।इसलिए विग्रह बोध से बचें।आप और समस्त चराचर प्रेम और अस्तित्व के समान अधिकारी हैं।यह सत्य है, शिव है ,और सुंदर भी है। #समन्वयवाद
 दो हजार के नोट मोदी जी की दूरदर्शिता है।वरना हजार-पाँच सौ के साढ़े चौदह लाख करोड़ मूल्य के नोट छापने में हालत खराब हो जाती।चीन से एटीएम मशीन और कलपुर्जे मंगा लिए ,चीन भी खुश,।जर्मनी और जापान से कागज मंगाएं दोनों खुश ।डॉलर के दाम बढ़े ,अमेरिका भी खुश।अब विकास दर गिरने से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ेगा।फुटकर के अभाव से भिखारी भी कम होंगे। आटा-दाल के दाम बढ़ेंगे,परचून वाले खुश।ऑनलाइन दूध ,साग-सब्जी मिलने से गृहिणीयाँ खुश।अनाज के दाम बढ़ने से किसान खुश, बॉर्डर पर तनाव बढ़ने से आर्म्स-डीलर खुश।अमीरों का धन निकलने से गरीब खुश।सब खुश हैं हमारी बकरी मरी तो कोई दुःख नहीं पड़ोसी की दीवार तो गिरी। कुल मिलाकर देश में विकास ही विकास दिखाई दे रहा है।      लोग मोदी जी के समर्थन में लाइनों में लगे हुए हैं।बैंकों में सर्वर नाम का कोई कर्मचारी अजगर की गति से कार्य कर रहा है।जनता जय जयकार कर रही हैं।बैंक कर्मचारी काला धन जमा करते करते जब श्याम वर्ण के होने लगते हैं,तब उनकी पत्नियां गलत आदमी से ब्याह करने के उलाहने देती हैं।वहीँ नए नोट वितरण में लगे चेहरों पर गुलाबी आभा आने से उनकी घरवालियां...
 सुना है तुमको अब फुर्सत नहीं है। हमारे वास्ते मोहलत नहीं है।। हमें वो लोग दिल से चाहते हैं हाँ उन के पास धन दौलत नहीं है। चलो माना तुम्हे सब जानते हैं ये बदनामी कोई शोहरत नहीं है।। बदल जाते हो मौसम की तरह तुम मगर ये तो भली आदत नहीं है।। मुझे वो कल भला चंगा मिला था सुना है आज वो जीवित नहीं है।। हवाओं में जहर है जानते हैं शहर वालो को अब हैरत नहीं है।। किसी से इत्तेफ़ाक हो भी तो कैसे वो अपने आप से सहमत नहीं है।।
 अदा उल्फ़त की अपनी इक तरह है। उसी से इश्क़ है जिससे गिरह है।। जो इक दूरी है मुझमें और उसमें यही नजदीकियों की इक वज़ह है।।साहनी
 फिर अदब का वही उसूल चले। दौरे-हाज़िर में जिस को भूल चले।।  जैसे उस दौर में ग़ज़ल के लिए   मीर के  दाग़ के  स्कूल चले।। बेहतर हैं चलें उसी जानिब जिस तरफ़ थे मेरे रसूल चले।। जिस जगह प्रेम की बजे मुरली मन उसी भानुजा के कूल चले।। क्या ज़रूररत वहां रुका जाये बात कोई जहाँ  फिजूल चले।। क्या ज़रूरी मुबाहिसे में पड़ें बात जब कोई ऊलजलूल चले।। साहनी अब है इश्क़ की जद में अब तो पत्थर पड़े कि फूल चले।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पाँच हो चार हो कि तीन रहे। जो रहे बस तमाशबीन रहे।। कुल मिलाकर यहीं कहेंगे हम ज़िंदगानी के दिन हसीन रहे।। पेंचोखम हो कि ज़ेरो बम सब थे हश्र से फिर भी मुतमईन रहे।। होश आते ही बोझ लाद लिए उम्र भर हम कोई मशीन रहे।।
 अगर पढ़ लिए होते तुमने  मेरे ख़त तुम मेरे होते।। तुमने जब भी देखा मुझको मुझमें कोई अज़नबी देखा मेरा अंतर्मन कब देखा मेरा बाह्यरूप ही देखा अगर देख पाते अंतर्मन विधि सम्मत तुम मेरे होते।। बाहर से श्रीकृष्ण भी दिखे माखनचोर छिछोरे छोरे समय देख दे गयीं गोपियाँ उन्हें हृदय के कागद कोरे होते यदि उस छलिया जैसे खुशकिस्मत  तुम मेरे होते।। Suresh Sahani
 ख़्वाब अपने आसमानी ही रहे। तुम मेरी ख़ातिर कहानी ही रहे।। मैंने चाहा दिल की बस्ती में रहो तुम अना में राजधानी ही रहे।। उनके दावे थे हवाई और क्या कुल जमा खर्चे जुबानी ही रहे।। लुट रही थी मेरी दुनिया और तुम चाहते थे शादमानी ही रहे।।Q
 एहसासे-वस्ल से ही तबियत सँवर गयी। गोया बहार ज़ीस्त को छूकर गुज़र गयी।। एहसासे -गम से कोई तआरुफ़ कहाँ हुआ वो हुस्ने दिलफ़रेब ये आयी उधर गयी।। जो इश्क़ दायरे में रहे इश्क़ ही नहीं मजनू कहाँ रुका कहाँ लैला ठहर गयी।।
 क्या कह दें मनमाना है क्या। दुख का भी पैमाना है क्या। सच्चा सुख पहचाना है क्या।। क्षण में रोना क्षण में हँसना पगला या दीवाना है क्या।।
 बेशक़ तुम  इल्ज़ाम लगाओ। कुछ सर पर इनाम लगाओ।। माना मेरा मोल नहीं है कुछ तो सच का दाम लगाओ।। अब तुम सत्ता में बैठे हो सच पर खूब लगाम लगाओ।। डर क्या सैया कोतवाल है मजलिस सुबहो शाम लगाओ।।
 मर चुकी अमृत कथाओं पर लिखो। कुछ व्यथा जीवित शिलाओं पर लिखो।। राजप्रासादों के दुख यदि लिख चुके कुछ त्रसित जन की व्यथाओं पर लिखो।।गीतांश-साहनी
 मुसलसल कर रहे हो बदज़ुबानी। कहाँ से सीख ली ये तर्जुमानी।। भले पहली दफा हम सुन रहे हैं लगे है खूबियाँ ये खानदानी।।साहनी
 अब जामुन को आम कहेंगे। और सुबह को शाम कहेंगे। हम अंधे हो चुके इस कदर अब रावण को राम कहेंगे।।
 एक निर्भया और मर गयी लेकिन बहुत बड़ा अंतर है इसके या उसके होने में क्योंकि यह है उसी वंश की जिसके वाहक वेदव्यास थे फिर ऐसे लोगों की इज़्ज़त इज्ज़त नहीं हुआ करती है इनको कहदो मौन रहें ये पीड़ा को चुपचाप सहन कर आसानी से जी सकती हैं या फिर कायरता से प्रेरित होकर जौहर कर सकती हैं हो सकता है फिर प्रधान की आंखों में आंसू आ जाये.....
 इस देश का एक बहुत बड़ा मजदूर वर्ग नौका चालन, मछली पालन,मछली का आखेट ,झींगा व्यवसाय,कमलगट्टा सिंघाड़ा उत्पादन ,सीप-मोती  आदि तथा पानी पहुंचाने के कार्य से जुड़ा हुआ है।इनका कार्य क्षेत्र हमेशा ही शहरी मुख्यालयों से दूर ताल-पोखर,नदी-नाले कछार अथवा समुद्र के तटीय अंचलों में  रहा है। अधिक दिनों  तक जलीय क्षेत्रों में काम करने अथवा आवास-प्रवास होने से हाइड्रो-जेनरेटेड डिसीज अथवा माइक्रोफंगल इंफेक्शन से यह लोग अधिक प्रभावित रहते हैं।इसके साथ ही सुदूर क्षेत्रों में रहने के कारण इनकी पीढियां अशिक्षित अथवा कम शिक्षित रह जाती हैं।    देश को लगभग आठ प्रतिशत राजस्व देने वाले इन साढ़े छह करोड़ जल श्रमिकों का कोई माई बाप नहीं हैं।इसका एक बड़ा कारण है आज तक इनके कार्यो  को श्रम मंत्रालय ने अथवा केंद्र सरकार ने मान्यता नहीं दी है।  जबकि इस समुदाय को फिशरमैन और #वाटरवर्कर्स के रूप में सरकार द्वारा मान्यता देकर इनके इएसआई कार्ड,परिचय पत्र दे देना चाहिए था।इस बार की केंद्र सरकार इनके कार्यों के लिए #एक्वाकल्चर एंड फिशरीज़ मंत्रालय और रेगुलट्रीज़ बनाने का वादा करके मुकर गई।...
 तुमसे किसने कहा निभाओ। चाहे जहाँ बेझिझक जाओ ।। हम क्यों तुम पर बंदिश डालें तुम क्यों हम पर अश्क़ बहाओ।। प्यार स्वयं इक पागलपन है प्यार में पागल मत बन जाओ।। मैं भी अपनी ज़िम्मेदारी तुम भी अपना धर्म निभाओ।। कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें है इन पर मत जाओ।। वालिदैन हैं रूप ख़ुदा के ख़िदमत करो दुआयें पाओ।। तुम सुरेश को समझ गए ना जाओ दुनिया को बतलाओ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 किसको बेबस भूखे नंगे याद रहे। सबको झंडे रंग बिरंगे याद रहे।। जनता ने झेला पर जनता भूल गयी नेताओं को लेकिन दंगे याद रहे।। कल तुम कैसे बीच हमारे आओगे तुम बहरे हो हम हैं गूँगे याद रहे।। हम कृषकों को कैसे भिखमंगा बोला तुम हो वोटों के भिखमंगे याद रहे।। खुद को एलीट क्लास समझ बैठे हो तुम फिर क्यों  देहाती बेढंगे याद रहे।। कल तुमको हम ही औकात बताएंगे किससे ले बैठे हो पंगे याद रहे।।
 कहो तुम याद आओगे कहाँ तक। मुहब्बत आजमाओगे कहाँ तक जो ख्वाबों में मुसलसल आ रहे हो यूँ आ आ कर जगाओगे कहाँ तक।। सुरेश साहनी
 कविता कहने के लिए अगणित है तैयार। पर श्रोता के नाम पर मिलते बस दो चार।। दोहा
 मैं कोई आज़ाद परिन्दा थोड़ी हूँ। जिंदा दिखता हूँ पर जिंदा थोड़ी हूँ।। तुम दौलत की दुनिया के रहवासी हो मैं उस दुनिया का वाशिंदा थोड़ी हूँ।। मुझसे मिलकर कर तुमको  ज़िल्लत लगती है इन बातों से में शर्मिंदा थोड़ी हूँ।। आज गया जो उठकर तेरी महफ़िल से  आने वाला मैं आईन्दा थोड़ी हूँ।।
 इश्क़ अगर पर्दे में है  रानाई है। इसके आगे जहमत है रुसवाई है।। झूठ बोलकर क्यों ज़मीर मारेगा पर सच बोलेगा किसकी शामत आयी है।। जीवन समझो एक अधूरी सी लड़की मौत समझ लेना उसकी कुड़माई है।।
 हँसते गाते दिल को पीरें दे दी  है। बीमारे-दिल को अक्सीरें दे दी हैं।। जग ने प्यार मुहब्बत करने वालों के शानों पर गिरती शहतीरें दे दी हैं।। प्यार की ताकत है जो अक्सर शाहों ने दिल की दौलत पर जागी रे दे दी हैं।। इश्क़ में हर नामुमकिन मुमकिन होता है इश्क़ ने ख्वाबों को ताबीरें दे दी हैं।। नाहक आईना तोड़ा है कुछ समझे तुमने सच को सौ तस्वीरें दे दी हैं।।  सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हम जब भी उस राह चले हैं। हम खुद से ही जुदा मिले हैं।। किसकी किससे करें शिकायत सारे अपने ही निकले हैं।। अंधियारों से कौन जूझता दीपक बनकर हमीं जले हैं।। हमें बुझाने को आंधी ने उलटे सीधे दांव चले हैं।। लेकिन जितनी हवा चली है हम उससे ज्यादा मचले हैं।। हमें डराता है तो सुन हम- तूफानों में बढ़े पले हैं।। सुरेश साहनी
 सुना है बड़े लोग तेरे सगे हैं। हम तो तेरे साथ नाहक़ लगे हैं।। जो ख़्वाब दिखला के उसने ठगा था वही ख़्वाब दिखला के तू भी ठगे है।।SS
 कोई मेरी कहानी कह रहा है। मगर किसकी ज़ुबानी कह रहा है।। मेरा माज़ी मुझे कल याद रखे मुझें यादें सुहानी कह रहा है।।
 घर के अंदर घर की चारदीवारी में। सीमायें टूटी हैं आपसदारी में।। वो वर्षों के रिश्ते नाते भूल गया ऐसा क्या है उस दो दिन की यारी में।। ज़र ज़मीन का बँटना कोई बात नहीं दिल क्यों बाँटा सबने हिस्सेदारी में।। महल सरीखी खुशी दिखी है कुटिया में कुटियों का खालीपन महल अटारी में।। दिल के चोरी होने पर अफसोस नहीं आखिर कब तक रखता पहरेदारी में।। नदिया इठलाकर सागर से मिलती है आख़िर क्या मीठापन है उस खारी में।। ज़ीस्त भले  आलस दिखलाया करती है मौत हमेशा रहती है तैयारी में।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जो हम न् मुँह में जुबान रखते। तो ओहदा आलीशान रखते।। न आन रखते न बान रखते। ज़मीर बिकता   दुकान रखते।। हमारे  शाने से तीर चलते वे हाथ अपने कमान रखते।। तुम्हारे हाथों भी तेग होती जो उसके कदमों में म्यान रखते।। नसीब होते तुम्हें भी मोती   जो तुम न् ऊंची उड़ान रखते।। शहीद होने से कुछ मिला क्या जहान मिलता जो जान रखते।। ज़रा जो  गिरते नज़र में अपनी तमाम ऊँचे मकान रखते।। सुरेश साहनी कानपुर 94515451
 इश्क़ था जबकि छलावा तेरा। दिल को भाता था दिखावा तेरा।। झूठ था फिर यकीं लायक था दरदेदिल का वो मदावा तेरा।। आजमाऊँ तो ख़ुदा झूठ करे  जाँनिसारी का ये दावा तेरा।। मैं नहीं कोई बहक सकता था इतना सुंदर था भुलावा तेरा।। जबकि मक़तल ही था मंज़िल अपनी इक बहाना था बुलावा तेरा।। ऐ ख़ुदा तू है अगर कुजागर तो ये दुनिया है कि आँवा तेरा।। साहनी ही तो गुनहगार नहीं उसमें पूरा था बढ़ावा तेरा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पहले मुर्गी या अंडे की बातें करते लोग। सैटरडे के दिन संडे की बातें करते लोग।। जिसने मजदूरों का वेतन मार लिया बेखौफ उस से मंदिर के चंदे की बातें करते लोग।। पैसे वाले बहुत दुखी हैं सचमुच चिंता है पर गरीब पर दे डंडे की बातें करते लोग।। अब सीधे सादे रस्तों पर किसे भरोसा है रोज नए छल हथकण्डे की बातें करते लोग।।
 जो कह रहा था तो सुनने की ताब भी रखता। सवाल उसने किया था जवाब भी रखता।। बिखेर देता भले ही वो ख़ार गुलशन में बराये रस्म चमन में गुलाब भी रखता।। कि एतराज किसे है उठाये गंगाजली अगरचे साकिया उसमें शराब भी रखता।।
 कभी दिल किसी का दुखाना न प्यारे। किसी जीव को भी सताना न प्यारे।। कभी दिल का मन्दिर ढहाना न् प्यारे। भले काबा काशी को जाना न् प्यारे।।
 धुंध इक ग़म का आसपास रहा। कल न जाने क्यूँ मैं उदास रहा।। बादलों में लुका छिपी शब भर गोया महताब बदहवास रहा।।
 पुष्प पथ में बिछाये हैं रख दो चरण। आपसे स्नेह का है ये पुरश्चरण।।   प्रीति के पर्व का यह अनुष्ठान है दृष्टि का अवनयन लाज सोपान है सत्य सुन्दर की सहमति है शिव अवतरण।। कुछ करो कि स्वयम्वर सही सिद्ध हो सिद्धि हो और रघुवर सही सिद्ध हो शक्ति बन मेरे भुज का करो  प्रिय वरण।।
 अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ा। बेवज़ह मुझको बड़ा होना पड़ा।। बिक के अहले रोकड़ा होना पड़ा। फिर वजीरे- केकड़ा  होना  पड़ा।। तेरी दुनिया किस क़दर तक़सीम है मुझको भी यकसू खड़ा होना पड़ा।। देश है या फिर कबीलों का हुजूम अंततः मुझको धड़ा होना पड़ा।। बोझ अपनों का उठाने के लिए मुझको खच्चर खड़खड़ा होना पड़ा।। लोग अच्छा जानकर के खा न् लें मुझको नेचर का  सड़ा होना पड़ा।। साफ करने थे ज़माने के गटर बेबसी में बेवड़ा होना पड़ा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 झूठे  और  लबार  नहीं हैं। हम सहिये  हुशियार नहीं हैं।। हमें हिकारत से ना देखो जनता हैं,लाचार नहीं हैं।। हुआ काम मुंह फेर रहे हो हम कल के अखबार नहीं हैं।। वक्त पड़े पर काम न आएं इतने भी बेकार नहीं हैं।। बहरे कान नहीं हैं अपने हम दिल्ली दरबार नहीं हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 क्यों सबको दिखलाते हो। नाहक़ रोये जाते हो ।। गेहूं-चावल महंगे हैं! ब्रेड क्यों नही खाते हो।। थोड़ी सी तकलीफ तो है क्यों इतना चिल्लाते हो।। देश हवा में उड़ता है तुम्ही रेल से जाते हो ।। पुरस्कार क्या पाओगे उलटी कलम चलाते हो।। Suresh Sahani
 नदी तालाब सागर झील झरने तरक्क़ी हैं इन्हीं सब की कतरनें।। हमारे गांव लंगर नाव घर सब तुम्हारे ठाठ हैं इनकी उजड़नें।। अँगूठा द्रोण ने काटा गलत है व्यवस्था ही अंगूठा काटती है। कि गुरुता द्रोण बन कर बेबसी में किसी अन्धे के तलवे चाटती है।। तुम्हारे महल ये अट्टालिकायें हमारी संस्कृति के मकबरे हैं। तुम्हारे शहर तब विकसित हुए जब हमारे लाभ हित घुट कर मरे हैं।। हमारे द्रोण को आज़ाद कर दो तुम्हारी राजतंत्रीय बेड़ियों से। छुड़ा लेगा धरा को एकलव्य तब  विदेशी पूंजीवादी भेड़ियों से।। सुरेश साहनी , कानपुर
 होश खोने दो लड़खड़ाने दो। अपनी आंखों में डूब जाने दो।। इन किनारों को दूर जाने दो। दिल की किश्ती को डूब जाने दो।। तुम कोई गीत बन के आ जाओ मेरे होठों को गुनगुनाने दो।। अपने पहलू में फिर सुलाओ मुझें मेरे ख़्वाबों को जाग जाने दो।। आओ घूंघट उठाओ महफ़िल में ताब वालों को आजमाने दो।।   सुरेश साहनी, कानपुर
 द्रोण जन का पक्षधर क्यों कर हुआ है जबकि राजा ही व्यवस्था कर रहा है हो सुनिश्चित कोई गुरुकुल पक्षधर जनशक्ति का होने न पाए। एकलव्यों को धरा पर ज्ञान का अधिकार है क्या कल अगर सक्षम हुए ये लोग तब हम क्या करेंगे मूर्ख हो तुम द्रोण जिसकी मूर्खता से राजपथ को आज जन का पथ बनाकर निर्धनों की शांत लेकिन धुर अराजक भीड़ का गर्जन सुनाई दे रहा है और अंधे कान के परदे फ़टे से जा रहे हैं हाँ हमें कुछ कुछ दिखाई दे रहा है हस्तिनापुर का सिंहासन हिल रहा है और कुरुकुल पांडु पुत्रों के सहित  इतिहास बनने की दिशा में अग्रसर है ज्ञान की मंथर हवायें  आंधियां बनने न पायें हो सके तो ज्ञान के इन संकुलों को बंद  कर दो आज शिक्षा सिर्फ धनिकों  राजपुत्रों के लिए है यह बता दो   दक्षिणा में हो सके तो प्राण मांगो खेत घर खलिहान सब बंधक बना लो द्रोण या तो राजगुरु पद त्याग कर दो अन्यथा इन गुरुकुलों को बंद कर दो सुरेश साहनी, कानपुर
 जब कभी ख़ुद से ऊब जायें हम। तुम कहो कैसे कैफ़ लायें हम।। और किस के क़रीब जायें हम। किस को अपना यहां बनायें हम।। बेवफ़ाई तो यार ने की है फिर भला अश्क़ क्यों बहायें हम।। दिन उसी वक़्त का तो हिस्सा है वक़्त काटें कि दिन बितायें हम।। बेहतर है कि मयकदे चल दें होश में जब भी लड़खड़ायें हम।।
 खा लेंगे हम जो भी चना चबैना है। खुशियों से अपना क्या लेना देना है।। भारत जीता मैच खुशी की बात तो है फिर छूटा रॉकेट खुशी की बात तो है भाई बना प्रधान विलायत का भईया झूम रहा है देश खुशी की बात तो है पर चाची को हिस्सा एक न् देना है। हमें विलायत से क्या लेना देना है।।....... आयी दीवाली बज़ार में रौनक है खूब मजा मा मोटा भाई शौनक है दौलत है तो रोज मनाओ दीवाली दौलत गाड़ी बंगला चम्मक धम्मक है हम मज़दूरों की छेनी ही छेना है। बस बच्चों के खील बतासे लेना है।।...... सुरेश साहनी कानपुर
 हम तो मशरूफ़ हैं तेरे ग़म में इतनी फुरसत कहाँ  के हम खुश हों।।
 करूँगा क्या मैं ले कर चाँद तारे  मेरा किरदार रोशन हो बहुत है।।साहनी
 इश्क़ के पैरोकार हैं हम भी। आशिकों में शुमार हैं हम भी। हुस्न का नाम ज़ालिमों में है और उसका शिकार हैं हम भी।। दिल किसी ग़ैर को न् दे बैठें उन से कह दो निसार हैं हम भी।। वो हमारा सुकूने दिल है तो उसके दिल का करार हैं हम भी।। गुल का ख़ुद पर यूँ रश्क़ ठीक नहीं उससे कह दो बहार हैं हम भी।। तोड़ कर दिल उन्हें क़रार मिला तो कहाँ सोगवार हैं हम भी।। उनको आने ही दो अयाँ होकर आज कुछ बेक़रार हैं हम भी।। सुरेश साहनी कानपुर
 जब अस्थाना जी आते थे कितने चेहरे खिल जाते थे उनमे कुछ कुछ तो ऐसे थे अब मत पूछो वो कैसे थे पर उन पर नज़रे पड़ते ही ये भी कुछ कुछ खिल जाते थे  कपड़े भी बढ़िया क्रीचदार सॉफिस्टिकेटेड होशियार सब देख इन्हें खुश होते थे ये देख उन्हें मुस्काते थे बेशक़ ये सुघर सजीले थे पर उतने ही शर्मीले थे पर सबको बहन बोलने से इनके रिश्ते कट जाते थे एक बार रिश्ते के लिए लड़की देखने गए तो लड़की से पूछ बैठे थे  बहिन जी आपकी हॉबिज क्या क्या हैं। परिणाम आप समझ सकते हैं इक बार मिली मेरी भाभी उनको माता जी बोल गए जल्दी में भूल गए थे ये जो चश्मा सदा लगाते थे कोई बाला तो शायद ही  इनके ख्वाबों में आई हो ये सपनों की चर्चा में भी अम्मा की बातें लाते थे।। अस्थाना जब भी आते हैं अम्मा बाबू याद आते हैं मुझसे ज्यादा माँ बाबू के अस्थाना जी मन भाते थे।। एक बार टीचर ने बताया नेक काम करने वाले स्वर्ग जाते हैं तुममें कौन कौन स्वर्ग जायेगा एक बच्चे ने उत्तर दिया मैं नहीं जाऊंगा। माँ कहती है सीधे घर आया करो। जानते हैं वो बच्चा कौन था  एक बार टीचर ने पूछा , मंगल सिंह को सौ रुपये के फल लाने के लिए 500 दिए। वो कितने ...
 कृष्ण सबके दिलों में बसता है उसकी मुरली से रस बरसता है उसकी मुस्कान में सरसता है विश्व हँसता है जब वो हँसता है जाने किस वंश का उजाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है......
 वे भगवा वे नीला परचम लेकर दौड़ रहे हैं। हम हैं एक तिरंगे का दम लेकर दौड़ रहे हैं।। वे गर्दन तक डूब गए हैं नफ़रत के सागर में हम लहरों के ज़ेरो बम को लेकर दौड़ रहे हैं।। वे दिन रात पिये जाते हैं पर संतोष नहीं है हम हैं सिर्फ़ सुराही का खम लेकर दौड़ रहे हैं।। आलम दौड़ रहा है अपनी ख़ातिर अंधा होकर  पर हम किसकी ख़ातिर आलम लेकर दौड़ रहे हैं।। नफ़रत फुर्तीला करती है हम मज़हब वालों को ये त्रिशूल ताने वो बल्लम लेकर दौड़ रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या मुहब्बत धूप है  जो रोशनी में साथ है या मुहब्बत घटती बढ़ती चांदनी का साथ है या मुहब्बत तीरगी में अनछुआ एहसास है या मुहब्बत वो है जो केवल तुम्हारे पास है पास रहना ही तुम्हारा खुशनुमा एहसास है साथ होते हो तो लगता है मुहब्बत पास है पर मुहब्बत तब भी रहती है हमारे जेहन में डूबते हैं जब कभी  ऐ दोस्त यादे-कुहन में सिलसिले यादों के  थमते ही नहीं हैं रात भर ख़्वाब आंखों में  उतरते ही नहीं हैं रात भर लोग कहते हैं मुहब्बत का यही अंदाज़ है जिसको दुनिया जानती है आशिक़ी वो राज़ है.....
 दूज तीज छठ अब भी है। गंगा का तट अब भी है।। अरबों रुपये फूंक दिए कूड़ा करकट अब भी है।। नैतिकता के मानी क्या नेता लम्पट अब भी है ।। किसको फुर्सत सुनने की जो था बतकट अब भी है।। बच्चों की पहली ख्वाहिश टॉफी कम्पट अब भी है।। मानसरोवर जाने में उतनी झंझट अब भी है।। चित तो तब भी अपनी थी  अपनी ही पट अब भी है।। इस शमशानी संसद से बेहतर मरघट अब भी है।। तुम सुरेश को क्या जानो सच्चा मुँहफट अब भी है।। Suresh sahani
 आज  मैंने उसे  पढ़ा खुलकर । आज ही वो मुझे मिला खुलकर।। कोई मधुमास हो गया खुलकर। और सावन बरस पड़ा खुलकर।। इश्क़ में गाँठ था पुरानापन हो गया फिर नया नया खुलकर।। आज की रात क्या क़यामत थी आज की रात मैं जिया खुलकर।। अल सुबह  गुनगुना उठा कोई आज सूरज भी था खिला खुलकर।। ख़ुश्क होठों का नीम पलकों से कोई किस्सा बयां हुआ खुलकर।। साहनी भी कमाल करता है जो न कहना था कह दिया खुलकर।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ताउम्र अपने दरमियाँ  जो फासले रहे। हैरत है इसके बाद भी रिश्ते बने रहे।। गैरों ने हर कदम पे सहारा दिया मगर हम उनको क्या कहेंगे जो अपने बने रहे।।SS
 दमदार ग़ज़लगो है क़ता ढूंढ़ रहा है। किस दौर में वो अहले वफ़ा ढूंढ़ रहा है।। तहज़ीबो-तमद्दुन जहाँ लाचार पड़े हैं इस दौर में वो शर्मो-हया ढूंढ़ रहा है।। उम्मीद को बुझने नही देती है यही बात वो स्याह अंधेरों में शमा ढूंढ़ रहा है।। वो मुल्क में बीमारी-ए-नफ़रत का पसरना वो मर्ज़ की जड़ और दवा ढूंढ़ रहा है।। दामन है तारतार गरीबी की वजह से अब मीडिया उसमे भी मज़ा ढूंढ़ रहा है।। क्यों अपनी बहन देख के होटल में खफ़ा है गर अपने लिए जिस्म नया ढूंढ़ रहा है।। शायद कि किसी काम तेरे आ सके #अदीब क्या है जो तू औरों से सिवा ढूंढ़ रहा है।।                           -- सुरेशससाहनी 'अदीब"
 क्षतियाँ स्वाभाविक हैं फसलें भी तैयार होने तक तीस प्रतिशत नष्ट हो जाती हैं यह सहज है हर पदार्थ की अर्धायु होती है जीवन मे सारा समय उपयोग में नहीं गुज़रता हमनें देखा है आग जलने पर पूरी ऊर्जा  का उपयोग नहीं हो पाता बिजली, बरसात ,धूप और जीवन के सभी हासिल कभी पूरी तरह  इस्तेमाल नहीं हो पाते और तो और  कुछ भी पूरी तरह नष्ट भी नहीं होता यह सब सत्य है,  सहज है ,फिर भी  हम सहज नहीं हो पाते पूरी तरह....... Suresh Sahani
 चलो विजय पथ पर चलते हैं आशा के रथ पर चलते हैं।। हम हारे या मन हारा है क्या अपना जीवन हारा है यह पड़ाव है उस मंज़िल तक हम अपने कथ पर चलते हैं।। कांटे कंकड़ पत्थर क्या है फिर साहस से बढ़कर क्या है चलों लिए विश्वास आज फिर मन के सारथ पर चलते हैं।। जीवन तो फिर भी जीना है अमृत सा हर विष पीना है यदि शिवत्व अपना अभीष्ट है इसी मनोरथ पर चलते हैं।। रम्भा जैसी सुर बालायें कितना ही मन को भटकायें एक लक्ष्य है विजय प्राप्ति कर रतिपति मन्मथ पर चलते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आये थे घिर के शाम को बादल कहाँ गये। लेकर के मेरी आँख से काजल कहाँ गये।। मेरी गली ही आज लगी अजनबी मुझे जाने मेरे मिजाज के पागल कहाँ गये।। वो अहले हुस्न जाने-बहारों के काफिले  आख़िर वो होके आँख से ओझल कहाँ गये।। अक्सर इसी दयार से गुजरा किया था में यां थे कई हरे भरे जंगल कहाँ गये।।
 इश्क़ के दर्द जो पाले होते। हम भी खुशियों के हवाले होते।। उनके पांवों में भी छाले होते। जो तेरे चाहने वाले होते।। मेरे अफसानों में तुम हो वरना ख़ाक़  यादों में उजाले होते।। सर हथेली पे लिए आते हम तुमने नेजे तो निकाले होते।। उनके परदे का ख़याल आता है वरना अपने भी रिसाले होते।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हम किसी को दोष क्या दें। क्यूँ न हम खुद को सम्हालें।। उन पे अंगुली क्या उठायें हम स्वयं में क्यों न झाकेँ आईना  मैला  नहीं हैं धूल  चेहरे पर है  झाड़ें।। मंदिरो-मस्जिद से पहले दिल में इक दीपक जलाएं।। एक दिन दौलत से ज्यादा काम आती हैं सदायें।। क्यों न लें अपनी गरज है दीन दुखियों से दुवाएं।।
 हुलस के उससे मैं मिलने गया था राजभवन लिबास देख के निगाह फेर ली उसने। वो कह रहा था दवा देगा एक दिन लेकिन मैं बेक़रार जो ठहरा अभी लगा मरने।।
 इस कहानी को सिलसिला मत दो दिल को यादों का वास्ता मत दो।। कुछ सलीके से भी रहा करिये तोड़कर दिल ये मशविरा मत दो।। दौड़ कर वो गले न लग जाये प्यार को इतना फासला मत दो।। लोग पत्थर के हो गए हैं अब हो सके इन को आईना मत दो।। भूल जाये तो भूल जाने दो दिल की गलियों में रास्ता मत दो।। इक दफा दिल को मर्तबा देकर फिर ख़ुदा को भी मर्तबा मत दो।। सुरेश साहनी
 दूर रहकर भी नदी के  हृदय में तुम नित उतरते यह नदी की जीत है या प्रेम से अभिभूत होकर तुम समर्पण नित्य करते.... पर नदी भी प्यार में डूबी हुई है
 तुम्हारे रुख की रंगत  कम हुई है। कहो किस से मुहब्बत कम हुई है।। इधर कुछ कम हुईं हैं शोखियाँ भी निगाहों की शरारत कम हुई हैं।। गले मिलने लगे हैं लोग फिर से दिलों के बीच नफ़रत कम हुई है।। ज़रूरत हो गयी है आज हावी तो है तस्लीम ग़ैरत कम हुई है।। हुआ करती थी कल तक आज लेकिन कलमकारों की अज़मत कम हुई है।। जवानी में हुआ करते थे चर्चे कहें क्या जब कि शोहरत कम हुई है।। उन्हें हम कर चुके हैं माफ लेकिन वो कहते हैं मुरौवत कम हुई हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हाँ उन्हें हर्फ़े वफ़ा याद नहीं। मुझको भी उनकी जफ़ा याद नहीं।। आदतन वो ये कहा करते हैं ये उन्हें पहली दफा याद नहीं।। इश्क़ सौदा था कोई उनके लिए मुझको नुकसान नफा याद नहीं।। दर्दे दिल कब से हैं कैसे बोलें जब उन्हें इसकी शिफा याद नहीं।। हाँ वो दुनिया से ख़फ़ा हैं लेकिन कोई उनसे है ख़फ़ा याद नहीं।। दिल के ज़ख्मों को सजा लें बेहतर हमको तरकीबे-रफ़ा याद नहीं।। झूठ क्यों बोलें छिपाएं क्यों कर बात कहते हैं सफा याद नहीं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 अन्धे युग मे अंधा होकर जीना सीख रहा हूँ। हद से ज्यादा सीधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। पूरा होना मुश्किल होकर जीना भी मुश्किल है आधे से भी आधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। इतनी ज़िम्मेदारी लेकर आया हूँ इस जग में बचपन मे ही बूढ़ा होकर जीना सीख रहा हूँ।। आदत डाल रहा हूँ मैं हर हालत में चल पाऊँ मैं जूता चमरौधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सीधे चलकर देख लिया दुनिया उल्टा चलती है मैं ऐसे में औंधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। मस्ती में जब झूम रहे हैं शैतानों के प्यारे मैं मालिक का बन्दा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
 जो ना समझे पीर पराई नेता जी। कैसे उसकी करें बड़ाई नेता जी।। उनके घर होटल से खाना आता है वो क्या समझेंगे महगाई नेता जी।। तुम बिलियन ट्रिलियन की बातें करते हो हमको मुश्किल हुई दहाई नेता जी।। फांके करवा देती है जब बढ़ती है जीएसटी में आना पाई नेता जी।। बातों से तुम करुणा सागर लगते हो किन्तु कर्म से हुये कसाई नेता जी।।
 फासले से भी प्यार होता है इश्क़ नज़दीकियाँ नहीं होती।। हुक्मरां बन के यूँ न इतराओ मौत की अर्ज़ियाँ नहीं होती।।
 दिल के सहराओं में एहसास के चश्मे लेकर फिर से आया है कोई प्यार के वादे लेकर।।SS
 कैसे अपनी साख बचाएं। पेटीएम से काम चलायें।। मुफ़लिस अपनी गुल्लक फोड़ें देश को काला धन लौटाएं।। इससे यह शिक्षा मिलती है गिरहस्ती में कुछ न छिपाएं।। वरना मियां पूछ ही लेंगे कर्रे नोट कहाँ से आये।। फिर से फुटकर नोट चलेंगे उस ने अच्छे दिन लौटाए।। झोली भर पैसे ले निकले  मुट्ठी भर राशन ले आये।।
 सोच रहे होगे यह आफत भारी है। इसको कविता लिखने की बीमारी है।। चौबीस घण्टे यह लिखता ही रहता है क्या यह कविता का एन डी तीवारी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वक्त बे वक्त निकल पड़ता है। दर्द लफ़्ज़ों में मचल पड़ता है।। दिल तो पत्थर है मगर आंखों से कोई चश्मा सा उबल पड़ता है।। तेरे आने से निकल पड़ती हैं जां दिल न आने पे दहल पड़ता है।। बेवज़ह कब्र पे दस्तक मत दो नींद में अपनी ख़लल पड़ता है।। इस तरह याद न आया करिये अपनी पेशानी पे बल पड़ता है।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम उसे ऐसा कहो हम क्यों कहें! तुम उसे वैसा कहो हम क्यों कहें! हम जिसे जैसा कहें तुम क्यों कहो! झूठ या सच जो कहें तुम क्यों कहो! हम सही हैं तुम सही हो सब सही। पर अहम का रास्ता अच्छा नहीं।। सुरेश साहनी
 लो दाँत हमारे अंदर हैं नाखून भी हमने समेट लिए अब कुछ दिन तक  आसानी से तुम हमपे यकीं कर सकते हो... यूँ भी घर के जल जाने तक हम घर की हिफाज़त करते हैं हम उनमें हैं जो उम्मत से बेलौस मुहब्बत करते हैं पर वस्ल मुकम्मल होने तक फिलहाल इलेक्शन होने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।। हाँ प्यासों के मर जाने पर हमने भी कुयें खुदवाए हैं कुछ भूखों के मर जाने पर हमने लंगर चलवाये हैं कुछ भूखे प्यासे मरने तक अपनी साँसों के चलने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।।
 हम ज़ुल्म के खिलाफ क्या लड़ते लड़ते तो मारे जाते क्योंकि समर्थ पर ज़ुल्म नहीं होते हम कभी विद्रोही कभी नक्सली और कभी आतंकी कहकर सताए जाते  आख़िर हम अपनी हद में  क्यों नहीं रहते उनकी सुविधाओं के रास्ते मे आने का हमें क्या हक़ है ये गांव,ये शहर,ये आलीशान  हवेलियां ये बीच ये रिसॉर्ट्स ये कॉटेज और ये इठलाती हुईं सड़कें और ये कोयला पत्थर,बालू, मोरंग उगलती खानें ये खेत ये खलिहान और इन पर उगे सपने हमें क्या हक़ है ये तहसीलें, ये अदालतें ये दफ्तर ये फाइलें ये बाबू ये अफसर और वो राजपथ से जुड़ी इमारतें हमें क्या हक है कि हम इन पर अपना हक जताएं और ऐसा भी नहीं है कि हमें हक़ ही नहीं हमको हक़ है कि किसी हक़ के लिए अपनी हद में बड़ी ख़ामोशी से हो रहे ज़ुल्म को सहते जायें और इंसाफ को इतना समझें ये हमारे लिए होती ही नही.....
 अपनी केवल इतनी भूख। उनकी जाने कितनी भूख।। सबके अपने अपने सपने सबकी अपनी अपनी भूख।। कुछ की एक कटोरी भर है कुछ की थाली जितनी भूख।। लदी हुई है  मजदूरों पर  सेठ तुम्हारी वज़नी भूख।। आखिर तुमको क्यों लगती है इंसां की  बदचलनी  भूख।। आदमखोर तेरी फ़ितरत में कुटिल हवस की जननी भूख।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तीरगी छा गई है बस्ती में। नूर है किसकी सरपरस्ती में।। लोग कुछ मयक़दे नहीं आये आग लगनी है किसकी  मस्ती में।। एक दरवेश जो शहनशा है कितनी हस्ती है एक हस्ती में।। पास कुछ भी नहीं है खोने को सिर्फ़ मस्ती है तंगदस्ती में।। आप से इश्क़ माफ करिएगा हम हैं मशरूफ़ घर गिरस्ती में।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चुप जो रहती है उसकी खामोशी। कुछ तो कहती है उसकी खामोशी।। वो नही बोलती  किसी शय से बोल पड़ती है उसकी खामोशी।। तंज़ उसके कभी नहीं अखरे पर अखरती है उसकी खामोशी।। उस तबस्सुम को गौर से देखो खूब जँचती है उसकी खामोशी।। कहकहे सब बिखर गए उसके सिर्फ़ दिखती है उसकी खामोशी।। जब कभी वो उदास होता है खूब हँसती है उसकी खामोशी।। साहनी फूट फूट रोता है जब उभरती है उसकी खामोशी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेशक़ फ़ितरत से आवारा मैं ही था। घर के होते भी बंजारा मैं ही था।। तुमने जो मांगा था मन्नत  याद नहीं आसमान से टूटा तारा मैं ही था।। इन अश्कों के सागर किसने देखे हैं हैफ़ समुंदर जितना खारा मैं ही था।।
 दर्द जाकर किसे सुनाते हम। लोग हंसते तो मर न जाते हम ।। उस मसीहा से क्या छुपाते हम। या बताते तो क्या बताते हम।। जब तुम्हीं ने यक़ीन तोड़ दिया फिर भला किस को आज़माते हम।। फिर ठिकाना कोई कहाँ मिलता उस ख़ुदा को अगर भुलाते हम।। आसमानों की ओर आना था क्या ज़मीनों पे घर बनाते हम।। जो मुअज्जिन की तू नहीं सुनता फिर भला किस तरह बुलाते हम।। साहनी पहले से ज़मीन पे है और कितना उसे गिराते हम।।        साभार Suresh Sahani SiR
 घाव दिल पर मेरे लगा तो था  हाँ मुझे दर्द कुछ हुआ तो था।। हाल सबने मेरा सुना तो था। कौन रोया कोई  हँसा तो था।। जाल फेंका था फिर वही उसने मेरे जैसा कोई फँसा तो था।। मान लेते हैं तुम नहीं कातिल क़त्ल मेरा मगर हुआ तो था।। उसमें ढेरों बुराईयाँ भी थी साहनी आदमी भला तो था।। सुरेश साहनी कानपुर
 मन यायावर है यह सच है तन नाहक भटका करता है यत्र तत्र फैले रंगों में जहां तहां अटका करता है
 सिर्फ आना था और चलना था। क्या ख़ुदा पर कोई यक़ीन करे जब उसे आदमी को छलना था।। साँप जब आस्ती में पलना था।।sahni
 जैसे जैसे ज़िन्दगी जाती रही। मौत की परवाह भी जाती रही।। उम्र ने जैसे कहीं ठहरा दिया और फिर आवारगी जाती रही।। ख़ुश्कियाँ सहरा को पाकर कम हुई और लब से तिश्नगी जाती रही।। अहले दिल आये अना के नूर में इश्क़ वाली रोशनी जाती रही।। अब भी है इब्लीस ग़ालिब चारसू कैसे माने तीरगी जाती रही।। फिर किरायेदार ढूढेंगे नया याद दिल से आपकी जाती रही।। साहनी अब आदमी हैं काम के वक़्त रहते आशिक़ी जाती रही।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कौन इतना सँवर के आया है। चाँद है या कि उसका साया है।। डर सा लगता है उसको छूने में दिल ने भी किस से दिल लगाया है।। सच है सौ फीसदी मै उसका हूँ वो मेरे हक़ में कितना आया है।। चाँदनी से मैं जल गया होता धूप की   बर्फ ने   बचाया है।। चांदनी भी उसी से लिपटी है जिसने हरदम उसे सताया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब हम आते हैं तरंग में। रस बरसाते हैं तरंग में।। सब कहते हैं जादू सा है जो हम गाते हैं तरंग में।। नहीं सुना तो क्यों यह माने लोग बुलाते हैं तरंग में।। कुछ कहते हैं भाव न् खाओ हम तो खाते हैं तरंग में।। और कहीं सचमुच दुर्लभ है जो हम पाते हैं तरंग में।। आओ इसमे तब जानोगे क्यों सब आते हैं तरंग में।। अज्ञानी पूछा करते हैं क्या समझाते हैं तरंग में।। ख़ुद अज्ञात रहा करते है  वे जो लाते हैं तरंग में।। हम सुरेश कब रह जाते हैं जब रंग जाते हैं तरंग में।। सुरेश साहनी कानपुर
 चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो। आज अवगुंठन हृदय के  खोल दो कुछ बोल दो।।....... क्या समय की वर्जनाओं ने कभी रोका तुम्हें या कि दुनिया की प्रथाओं ने कभी रोका तुम्हें हर प्रथा हर वर्जना को  तोड़ कर प्रिय बोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... प्रेम की बहती नदी में कल रवानी हो न हो आज हम तुम साथ हैं कल ज़िंदगानी हो न हो अपनी नीरस ज़िन्दगी में  शादमानी घोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... आज हाथों से निकलने का न कल अफ़सोस हो आज का अमृतकलश कल सिर्फ़ सूखा कोष हो आज ही हर शब्द को  स्वर्णाक्षरों का मोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।....... सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम्हें देखना था अगर देखना था। तुम्हारे सिवा फिर किधर देखना था।। तुम्हारी गली से गुजरने का मक़सद ख़ुदारा तुम्हे इक नज़र देखना था।। मेरे चाँद को फ़िक्र थी चांदनी की सितारों को शायद सहर देखना था।। कभी छाँव में जिसकी हम तुम मिले थे मुझे आज फिर वो शज़र देखना था।। चलो राख उन हसरतों की कुरेदें मुझे इश्क़ का वो शरर देखना था।। कहो तो तुम्हारी निगाहों से देखें मुझे मेरे ख़्वाबों का घर देखना था।। सुरेश साहनी कानपुर
 राजा साहब को चमचे ही घेरे हैं। वे सोचें हैं , जनता उनके पीछे है।। समय नहीं जनता ही यह बतलाएगी अब ज़मीन किसके कदमों के नीचे है।। Suresh Sahani
 सामने दिल की बात करते हो। और मुड़ते ही घात करते हो।। तोड़ कर इस तरह से नाज़ुक दिल खुद को महवे-नशात करते हो।।
 आखिर मुझसे इतनी बातें क्यों करती हो। अपने दिल के कोने में कुछ तो रखती हो।। ऐसा हूँ  मैं,    वैसा हूँ  मैं,    कैसा हूँ  मैं तुम बतला दो जैसा भी सोचा करती हो।। आखिर तुम को कौन उड़ा कर ले जायेगा जाने क्यों दिन में सपने देखा करती हो।। छोड़ के चल दोगी एकदिन औरों के जैसे नाहक़ साथ निभाने वाले दम भरती हो।। Suresh Sahani Kanpur
 अल्लाह नहीं था जब भगवान नहीं थे जब।। क्या था तेरी दुनिया में इंसान नहीं थे जब।। नफ़रत के तलातुम कभी ऐसे नहीं उठते थे मज़हब की सियासत के तूफान नहीं थे जब।। हद से भी कहीं ज़्यादा तब होगी हसीं दुनिया अलक़ाब न थे इतने उनवान नहीं थे जब।। तुझको तो पता होगा कैसी थी मेरी दुनिया ये रीत धरम दीनो-ईमान नहीं थे जब।। क्या तब भी तेरी  दुनिया इतनी बड़ी दिखती थी ये रेल नहीं थी जब वीमान नहीं थे जब।। जो बात करो दिल से वो दिल को पहुंचती थी मुश्किल थे कहाँ रस्ते आसान नहीं थे जब।। क्या तब नहीं करते थे बातें वे ग़ज़ल जैसी दुनिया में तेरी रुक्न-ओ-अरकान नहीं थे जब।। क्या इश्क़ तेरी दुनिया मे तब भी रहा होगा इस ख़ल्क़ में नफ़रत के सामान नहीं थे जब।। ये शेखो बरहमन क्या तब भी थे भले इतने मौला तेरी दुनिया में शैतान नहीं थे जब।। सुरेश साहनी ,अदीब कानपुर
 अक्सर जब विद्यालय खुलने लगते हैं। कुछ बच्चों के  ख़्वाब मचलने लगते हैं।। पर फांके की आहट उन्हें जगाती है वे फिर कूड़ा करकट बिनने लगते हैं।। माँ की खांसी में बेबस आशाएं  हैं आशाओं में द्वंद पिघलने लगते हैं।। भूखे भाई बहनों की अकुलाहट में ये चिंतन से बूढ़े लगने लगते हैं।। बाप नशेड़ी सीधा डंडा रखता है जब वे आड़ा-तिरछा चलने लगते हैं।। नियति उन्हें अहसास दिलाने लगती है उनके ख़्वाब उन्हें ही छलने लगते हैं।। सभ्य लोग और गांव गली के कुत्ते भी उन्हें देख तत्काल भौकने लगते हैं।। क्या ये भी अपने भारत की थाती हैं मन मे कई सवाल कौंधने लगते हैं।। Suresh Sahani
 चली जब बात तुम फिर याद आये। दुखे जज़्बात तुम फिर याद आये।। सुकूँ से दिन कटा मशरूफ़ रहकर हुई जब रात तुम फिर याद आये।। सुरेश साहनी कानपुर।
 उम्र भर दरवेश जैसा ही रहा। भीड़ में रहकर भी तन्हा ही रहा।। वक़्त बदला लोग भी बदले मग़र एक मैं जैसा था वैसा ही रहा।।साहनी
 आप बरहम हैं तो क्या हम मुस्कुराएं भी नहीं। गीत गाना छोड़ दें हम गुनगुनाएं भी नहीं।। पास रहने पर उन्हें गोया बड़ी तकलीफ है और उस पर उज़्र यह हम दूर जाएं भी नहीं।।  उन की चाहत है कि उनके ज़ुल्म हम हँस कर सहें और वो ऐंठे रहें हम कुनमुनाये  भी नहीं।। वो ये चाहें हैं कि सब आवाज अपनी घोट लें जानवर बोलें न् पंछी चहचहायें भी नहीं।। और हम अपनों के हक़ में सोचना भी छोड़ दें यूँ कि अपनों के लिए मांगे दुआयें भी नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर
 शहर में आईने सस्ते हुए हैं।  न जाने लोग क्यूँ सहमे हुए हैं।। मुझे कुफे की बैय्यत देने वालों मुझे बख्शो बहुत धोखेे हुए हैं।। दिखाओ ख्वाब मत अच्छे दिनों के जो अच्छे थे ज़माने जा चुके हैं।। सुरेश साहनी
 मैं सोच रहा हूँ कि हमारा समाज सत्य में जाग गया है या जागने का दिखावा कर रहा है।लेकिन यह सत्य है कि प्रदेश सरकार जाग रही है।उसके मंत्री जाग रहे हैं।उसके समर्थक जाग रहे हैं।मीडिया सुविधानुसार जागता या सोता है। अब प्रदेश में किसी के मरने पर अंतिम संस्कार की चिन्ता नहीं होती। अभी अख़लाक़ का अंतिम संस्कार किया गया।दनकौर में आबरू का विसर्जन हुआ।अब ताजा घटना मऊ जनपद में ग्राम बैजापुर दक्षिण टोला में घटी है।यहाँ एक गरीब निषाद युवती एक दबंग यादव ग्राम प्रधान की हवस का शिकार नहीं बनने पर जिन्दा फूंक दी गयी।आज मेरी उस गांव में 13 साल के साक्षी चंदन से  बात हुयी है।चन्दन के अनुसार उस महिला का बयान रिकार्ड किया गया था।मजिस्ट्रेट के बयान में तीन नाम थे।थाने में सपा समर्थक प्रधान और उसके साथी का नाम हटा दिया गया ।केवल उक्त महिला के एक पट्टीदार का नाम रिपोर्ट में रखा गया । प्रशासन संतुष्ट है कि उस गरीब के अंतिम संस्कार का खर्चा बच गया।वरना उसका पति कहाँ से उसका अंतिम संस्कार कर पाता।वह तो बेचारा खुद अपने भरण पोषण के लिए परदेश में मजदूरी करने गया है।प्रशासन चिंतित तब होता जब वह किसी सबल जाति की...
 खुद को खोया ,खुद को पाया। तब मैंने क्या   ख़ाक कमाया।। हुए अरबपति श्री संत जी समझाते हैं सब है माया।। जन्मजात मैं रहा बावरा या ज्ञानी हो कर बौराया ।। कैसे बात समझ में आती कहाँ किसी ने कुछ समझाया।। अनपढ़ था तो लिख लेता था और पढ़ा तो लिखा लिखाया।। प्राण नहीं तो तैर रहा है प्राण रहे तो तैर न पाया।। जाना था जब हाथ झार कर  नाहक़ इतना समय गंवाया।। Suresh sahani, kanpur
 कभी कभी सच ऐसे भी जिन्दा रखा है। बोला है पर चेहरे पर पर्दा रखा है।। तुम मेरी पहचान के लिए व्याकुल क्यों हो क्या मेरे चेहरे पर सत्य लिखा रखा है।। क्या चेहरा दर चेहरा सच बदला करता है आखिर ऐसे बदलावों में क्या रखा है।। अब उसकी बातों को सारे सच मानेंगे उसने अपना नाम तभी बाबा रखा है।। साथ चलो यदि चल न सको तो मिल कर बोलो अपना और पराया क्या फैला रखा है।।
 कर सकते हो शक्ति से,मसिजीवी खामोश। कैसे कुचलोगे मगर ,जनता का आक्रोश।।SS
 जहां नजदीकियां बढ़ने लगी हैं। दिलों में दूरियां बढ़ने लगी हैं।। जमीं के लोग छोटे दिख रहे हैं मेरी ऊंचाईयां बढ़ने लगी हैं।। हम अपनी खामियां देखें तो कैसे नज़र में खामियां बढ़ने लगी हैं।। हमारा ताब ढलना चाहता है इधर परछाईयाँ बढ़ने लगी है।। सम्हलने के यही दिन है मेरी जां बहुत बदनामियाँ बढ़ने लगी हैं।। हमें मालूम है तौरे-ज़माना मग़र हैरानियाँ बढ़ने लगी हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ज़ीस्त अपनी निकल गयी आख़िर। मौत  आयी थी  टल गई आख़िर।। आरज़ू कब   तलक जवां  रहती उम्र के  साथ   ढल गयी आख़िर।। नौजवानी   ढलान  पर   आकर बचते बचते फिसल गई आख़िर।। आपने भर निगाह देख लिया इक तमन्ना मचल गयी आख़िर।। हुस्न होता भले बहक जाता पर मुहब्बत सम्हल गयी आख़िर।। उम्र के इस पड़ाव पर आकर ज़िंदगानी  बदल  गयी आख़िर।। Suresh Sahani,kanpur
 मैं कण कण में हूँ बतला भी सकते थे। मेरा मत जन तक पहुंचा भी सकते थे।। मेरे फेके सच के पत्थर डूब गए मेरे भक्त उन्हें तैरा भी सकते थे।। SS
 हुस्न ज़्यादा अमीर है शायद। इश्क़ अपना फक़ीर है शायद।। आज के इश्क़ का ख़ुदा जाने अब भी रांझा की हीर है शायद।। उसको तगड़ी सज़ा मुकर्रर है आदतन वो बशीर है शायद।। रोज आता है सह के मक़तल में वो यहीं का ख़मीर है शायद।। आशिक़ी में वो जां लुटा देगा कोई ज़िद है कि पीर है शायद।।दीन पर ऐतबार करता है आदमी बेनजीर है शायद।।SS
 कहने को आज़ाद हैं,अपना है कानून। पर अपने ही चूसते ,अब अपनों का खून।।SS
 जहाँ ताज़िर हुकूमत में रहेंगे। यकीनन लोग गुरबत में रहेंगे।। आवाज़ें मुसलसल देते रहना नहीं तो लोग दहशत में रहेंगे।। नई नस्लें अब हमसे पूछती हैं ये कब तक ऐसी हालत में रहेंगे।। ये सोने के कफ़स तुमको मुबारक  हमे बेहतर है तुरबत में रहेंगे।। हमें भी बुतपरस्ती आ न जाये अगरचे तेरी सोहबत में रहेंगे।। बगावत एक दिन होकर रहेगी कहाँ तक  लोग ज़ुल्मत में रहेंगे।। भुला बैठे हो वादा करके हमको कहाँ तक हम मुहब्बत में रहेंगे।। सुरेश
 युद्ध नहीं उन्माद चाहिए। बेशक़ व्यर्थ विवाद चाहिए।। दंगे बिना चुनाव न होंगे कुछ तो पानी-खाद चाहिए।। चलो झोपडी जलवाते हैं भव्य अगर प्रासाद चाहिए।। आप को हमने ही लूटा था वोटों आशीर्वाद चाहिए।। हाय हाय करती जनता से हमको जिंदाबाद चाहिए।। जनता भूखी हैं होने दो हमको भर भर नाद चाहिए।। एफडीआई बड़ी चीज है देश किसे आज़ाद चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यूँ तो मुश्किल है मनाओ मान जाए तो कहो। ये न हो तो रूठ जाओ आ न जाये तो कहो।। प्यार में सब है ज़रूरी रार भी मनुहार भी प्यार के प्रतिरूप ही हैं प्यार भी तकरार भी  प्यार के ही गीत गाओ  वो न गाये तो कहो।। यूँ तो... तुम न चाहो देखना पर दृष्टि जाएगी वहीं राह अनचाहे कदम को ले के जाएगी वहीं खूब ना में सिर हिलाओ हो न जाये तो कहो।।यूँ तो.... सुरेश साहनी
 बैंक महाजन हो गए,गिरवी हुआ समाज। ग्राहक अपने मूल पर चुका रहे हैं ब्याज।।SS
 कहने को आज़ाद हैं,अपना है कानून। पर अपने ही चूसते ,अब अपनों का खून।।SS
 नामचीं है तभी तो रुसवा है। इश्क़ वालों में उसका जलवा है।। इश्क़ के दम पे ताज़ है वरना नफरतों का बदल तो मलवा है।।SS
 कौन किसका असीर है साहब सबकी अपनी ही पीर है साहब बेवफ़ा क्यों कहें किसी को हम अपना अपना ज़मीर है साहब आज बेहतर है कल ख़ुदा जाने आदमी का शरीर है साहब हुस्न होता तो बदगुमां होता इश्क़ सचमुच फकीर है साहब इसकी किस्मत में सिर्फ जलना है हाँ यही काश्मीर है साहब पास माँ बाप थे तो लगता था पास अपने ज़गीर है साहब आपका प्यार मिल सके जिससे कौन सी वो लकीर है साहब आज दिल खोल कर सितम कर लो वो ख़ुदा भी अमीर है साहेब सुरेश साहनी, कानपुर
 ठीक है चाँद का ज़लाल रहे। आगे सूरज भी है ख़याल रहे।। जा तेरी आरज़ू नहीं करता अब न तुझको कोई मलाल रहे।। हुस्न के तज़किरे रहें बेशक़ इश्क़ का ज़िक्र भी बहाल रहे।। दुश्मनी की भी उम्र इक तय हो दोस्ती कब तलक सवाल रहे।। कुछ तो वो जिम्मेदारियां समझें कुछ तो उनके भी सर बवाल रहे।। बोझ मिलकर उठे तो बेहतर है एक क्यों उम्र भर हमाल रहे।। हुस्न बीमार कब हुआ यारब इश्क़ क्यों जाके अस्पताल रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आज फिर गुरु द्रोण को मेरी ज़रूरत पड़ गयी आज फिर अर्जुन उन्हें  मौके  पे  ठेंगा दे गया।। साहनी
 वो जो सारे काम काले कर रहा है। इश्तेहारों में उजाले कर रहा है।। आदमी से नफरतों की आड़  में मुल्क ये किसके हवाले कर रहा है।।
 मैं इससे तो सहमत हूँ की किसी भाषा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए|लेकिन हिंदी वाले किसी का मजाक उड़ाते हैं इससे सहमत नहीं हूँ ,क्योंकि उपहास भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है,अपितु परिहास और खिलंदड़ा पन भारतीय जीवन-शैली जरुर है|हमारे देश में हिंदी के विरोध का कारण दूसरी भाषाओं का अपमान करने की मूर्खता नहीं बल्कि वोट-बैंक वाली घटिया राजनीति है|और देश भाषा के कारण नहीं बल्कि जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति के कारण बँटा हुआ है|पता नहीं क्या सोचकर ये तथाकथित भाषाविद हिंदी पर संकीर्ण और नस्लवादी होने का आरोप लगा रहे हैं|हिंदी भाषियों की उदारता पर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित नहीं|यह एक प्रकार का मानसिक दमन है जो कुछ निजी हित साधन का जरिया सिद्ध करता है|मैं तो हिंदी में समस्त भाषा -बोली के आवश्यक शब्दों का स्वतः-समावेशन का समर्थक हूँ,और मुझे गर्व है की हिंदी इन गुणों से स्वयं-विभूषित है|
 गजल धूँआ धाकड़ लीन दिवाली के मानत ई ग्रीन दिवाली जादव कुर्मी बाभन सोइत सभहँक भिन्ने भीन दिवाली सभठाँ नेता एकै रंगक भारत हो की चीन दिवाली छन छन टूटै नहिएँ जूटै सीसा पाथर टीन दिवाली देशक बाहर देशक भीतर सौंसे घिनमा घीन दिवाली सभ पाँतिमे 22-22-22-22 मात्राक्रम अछि दू टा अलग-अलग लघुकेँ दीर्घ मानबाक छूट लेल गेल अछि सुझाव सादर आमंत्रित अछि #आशीषअनचिन्हार