देश के कोने कोने में डर बैठा है। क्या गद्दी पर एक जनावर बैठा है।। कितना कोहरा छाया है दुपहरिया में शायद दिन भी ओढ़े कंबर बैठा है।। जहां जरा जो चूका उसका टिकट कटा गोया मौसम घात लगा कर बैठा है।। इतना कुहरा इतनी ठण्डक ठिठुरन भी जैसे जाड़ा जाल बिछा कर बैठा है।। नए साल मे भी छाया है मातम क्यों कौन साँप कुण्डली लगाकर बैठा है।। उससे कहदो मौत उसे भी आएगी कौन यहाँ पर अमृत पीकर बैठा है।। कोरोना से कहो तुम्हारी खैर नहीं हर हिंदुस्तानी में शंकर बैठा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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Showing posts from 2023
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नया साल औरों के साथ मनाओगे। या फिर बीते कल में वापस आओगे।। धन दौलत में सचमुच ताकत होती है प्यार-मुहब्बत में आख़िर क्या पाओगे।। यूँ भी ज़ख़्म ज़दीद सताते रहते हैं लगता है फिर ज़ख़्म नए दे जाओगे।। तुमको दिल का मन्दिर महफ़िल लगता है दिल के तन्हा घर को खाक़ सजाओगे।। तुमको शायद नग़्मे-वफ़ा से नफ़रत है फिर तुम कैसे गीत वफ़ा के गाओगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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तुम अगर एतबार पढ़ पाते। मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते।। तुम मेरा हाथ थाम लेते तो वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इधर किश्तों में पैकर बंट गया है।। मेरे आगे मेरा क़द घट गया है।। कहाँ से क्या लिखें कैसे लिखें हम अभी मन शायरी से हट गया है।। हमें तूफान आता दिख रहा है उन्हें लगता है बादल छंट गया है।। भरोसा उठ गया है राहबर से चलो अब ऊंट जिस करवट गया है।। भला गैरों से क्या उम्मीद हो जब मेरा साया भी मुझसे कट गया है।। ख़ुदा को क्या ग़रज़ जो याद रखे हमें ही नाम उसका रट गया है।। सुरेश साहनी
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क्या बात करें गुज़रे कल की। जब रीत गयी गागर जल की।। करते करते कल की आशा हम भूल गए जग की भाषा जो पूर्ण समय पर नहीं हुई क्या रखते ऐसी अभिलाषा कुछ ढलकाये कुछ खुद ढलकी।। तुमने कितने इल्ज़ाम दिए स्वारथी छली सब नाम दिए पर इतने निष्ठुर नहीं रहे तुमने ग़म भी इनाम दिये कुछ मज़बूरी होगी दिल की।। जग को बतलाना ठीक नहीं पीड़ा को गाना ठीक नहीं तुमने बोला बस प्यार करो होठों पर लाना ठीक नहीं छलिया को सुन आंखें छलकी।। तुम कब समझे हो प्रीत इसे मत कहो प्रीत की रीत इसे मैं तुमको हारा समझूंगा तुम कहते रहना जीत इसे कामना गयी फल प्रतिफल की।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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लोग कहते हैं समन्वय जैसी कोई स्थिति नहीं बन सकती। जो विज्ञान से परिचित नहीं वो पदार्थ की प्लाज्मा अवस्था को भी नहीं मानते।आज के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्यों पर विहंगावलोकन करें तब देखेंगे।पूंजीवाद राष्ट्रवाद की मजबूत आड़ ले चुका है। मनुवाद दलित हितैषी होने का नाटक कर रहा है। दलित पुरोधा सामंतवाद की ढाल बनकर खड़े हैं। आज आंदोलन देशद्रोह और सरकारी दमनचक्र को राष्ट्रहित बताया जा रहा है।इन स्थितियों के पनपने का कारण यही है कि हम समन्वय के मार्ग से भटक गए थे। या यूं कहें कि समन्वयवादी निषाद(द्रविण) संस्कृति को शनैःशनैः ध्वस्त कर दिया गया। प्राचीन आर्ष ग्रंथों में जहां एक ओर शैव और वैष्णवों में समन्वय स्थापित करने की बात की जाती रही, वहीं दूसरी ओर शिव भक्तों को आज की भांति ही खलनायक बता बता कर मारा जाता रहा। यह समन्वय और विग्रह का संघर्ष आज भी जारी है। जब तक समन्वयवाद एक राजनैतिक दर्शन के रूप में नहीं उभरेगा। तब तक देश इन दमनकारी व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं होगा। सुरेश साहनी, प्रणेता- समन्वयवाद
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हिन्दू या मुसलमान भी रहने नहीं दोगे। तो क्या हमें इंसान भी रहने नहीं दोगे।। मौला को निगहबान भी रहने नहीं दोगे। फिर कहते हो भगवान भी रहने नहीं दोगे।। जीने के लिए जान भी रहने नहीं दोगे। मर जाएं यूँ बेजान भी रहने नहीं दोगे।। सुख चैन के सामान भी रहने नहीं दोगे। घर मेरा बियावान भी रहने नहीं दोगे।। फतवों के तले कौम दबी जाती है सारी क्या जीस्त को आसान भी रहने नहीं दोगे।। क्या इतने ज़रूरी हैं सियासत के इदारे तालीम के ऐवान भी रहने नहीं दोगे।। अब काहे का डर तुमने कलम कर दीं जुबानें अब बोलते हो कान भी रहने नहीं दोगे।। हर रोज़ बदल देते हो तुम नाम हमारे क्या कल को ये उनवान भी रहने नहीं दोगे।। हल बैल गये साथ मे खेतों पे नज़र है शायद हमें दहकान भी रहने नहीं दोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मेरी आंखों में प्यार पढ़ पाते। वक़्त रहते बुखार पढ़ पाते।। मेरे दिल की रहल में रहते तो हम तुम्हें बार बार पढ़ पाते।। यूँ न् परदेश में बने रहते तुम अगर इंतज़ार पढ़ पाते।। गुलशने दिल हरा भरा रहता तुम जो इसकी बहार पढ़ पाते।। हम तुम्हें गुनगुना रहे होते तुम जो मेरे अशआर पढ़ पाते।। हम न बाज़ार में खड़े मिलते हम अगर इश्तहार पढ़ पाते।।
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सोच रहे हैं नए साल में कुछ तो नया नया सा लिख दें। स्वागत कर लें अभ्यागत का गए साल को टाटा लिख दें।। छू कर आये चरण बड़ों के बच्चों को जाकर दुलरायें और सभी मिलने वालों से मिलकर मंगल वचन सुनाएं नए तरह से लिखें बधाई या संदेश पुराना लिख दें।। बोल बोल कर वहीं पुराने जुमले मजमा नया लगाएं या कह कर के नया तमाशा खेल पुराने ही दोहराएं लम्बे चौड़े भाषण पेलें जन कल्याण जरा सा लिख दें।। सोच रहे हैं नया कहाँ है यह निस दिन आता जाता है है भविष्य से आशंकाएं पर अतीत से कुछ नाता है मन को नया कलेवर तो दें तन हित भी प्रत्याशा लिख दें।।
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आप नाहक कमान ताने थे। जान लेने के सौ बहाने थे तीर थे जाल और दाने थे। मेरे जैसे कई निशाने थे ।। चाहते तो वो जीत भी जाते उनको पाशे ही तो बिछाने थे।। दिमाग दिल जिगर मेरी नज़रें उनकी ख़ातिर कई ठिकाने थे।। उनकी ताकत नई थी जोश नया हां मगर पैंतरे पुराने थे।। लोग पलकें बिछाए रहते थे हाय क्या दौर क्या ज़माने थे।। गर्द में वो भी मिल गए जिनके आसमानों में आशियाने थे।।
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चलो वो दुश्मनी ही ठान लेंगे। तो क्या ले लेंगे मुझसे क्या न लेंगे।। ख़ुदा सुनता है मैंने भी सुना था कभी मेरी सुनें तो मान् लेंगे।। अमां घोंचू हो क्या वे दिल के बदले भला काहे तुम्हारी जान लेंगे।। नज़र से तोलना आता था उनको वो कहते हैं कि अब मीजान लेंगे।। ख़ुदारा आप इतना बन संवर कर ज़रूर इकदिन मेरा ईमान लेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आज ये ज़िक्रे- आशनाई क्यों। पहले शाइस्तगी दिखाई क्यों।। मुझसे तुमने कभी कहा तो नहीं फिर ये इल्ज़ामें- बेवफ़ाई क्यों।। अजनबी हूँ तो अजनबी ही रह आशना है तो ये ढिठाई क्यों।। इंतेख़ाबात को गए रिश्ते कशमकश तक ये बात आई क्यों।। राब्ता जब नहीं रहा उनसे देख कर आँख डबडबाई क्यों।। साहनी तुम से प्यार करता था बात इतनी बड़ी छुपाई क्यों।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ज़ख़्म भी किसलिए सजाते फिरें। कोई तगमे हैं जो दिखाते फिरें।। वो हमें रात दिन सताते फिरें। और हम उनपे जां लुटाते फिरे।। दर्द चेहरे पे दिख रहा होगा क्या ज़रूरी है हम बताते फिरें।। वो हमारे हैं सब तो जाने हैं हक भला किसलिए जताते फिरें।। जब ज़माना है दिलफरेबों का हम भी किस किस को आज़मातें फिरें।। तगमे/ बैज, पदक , स्मृति चिन्ह, ताम्रपत्र, तमगे फ़रेब/ छल सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मेरी जानकारी में कानपुर में लगभग चार सौ सक्रिय कवि या शायर हैं।छुपे हुए डायरी बन्द और शौकिया हज़ार से कुछ अधिक ही होंगे। प्रदेश में सौ गुना मान लीजिए। इस सूची से अपना नाम वापस लेने में भलाई लगती है। अच्छा ही हुआ अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि प्रतीक मिश्र जब "कानपुर के कवि" पुस्तक लिये सामग्री जुटा रहे थे, तब हम छूट गए थे। उनको किसी ने बताया ही नहीं। जलने वाले कवि तो तब भी रहे होंगे। जब कबीर और तुलसी से जलने वाले कवि हुए हैं तो हमसे जलने वाले क्यों नहीं हो सकते। अभी एक कवि महोदय को एक गोष्ठी में नहीं बुलाया।उन्हें बहुतै बुरा लगा। उन्होंने तुरंत एक गोष्ठी का आयोजन किया, और किसी को नहीं बुलाया। एक पौवा, चार समोसे एक प्याज, एक चिप्स का पैकेट और एक बीड़ी का बंडल।और शीशे के सामने महफ़िल सजा के बैठ गए। मुझसे बताने लगे तब पता चला।मैंने कहा यार मुझे ही बुला लिया होता।मैं तो पीता भी नहीं। वे बोले,"-इसीलिए तुम कवि नहीं बन पाए, और यही हाल रहा तो कवि बन भी नहीं पाओगे।" हमेशा फ्री के जुगाड़ में रहते हो। मैने जोर देकर कहा, भाई! में बिलकूल ...
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जोड़ तोड़ कर ही लिखना है तो तुम यह करते भी होंगे तुम कौए को हंस दिखाने- की कोशिश करते भी होंगे किन्तु सभी कवितायें केवल तुम तक ही रह जाती होंगी कुछ शुभेच्छुओं और चारणों- से प्रशस्ति ही पाती होंगी जोड़ गाँठ कर शब्द गाँज कर गीत नहीं बन पाते हैं प्रिय ढेरों कूड़ा कंकड़ पत्थर भवन नहीं कहलाते हैं प्रिय बाद तुम्हारे उन गीतों को कोई मोल न देगा प्यारे सिवा तुम्हारे कोई अधर भी अपने बोल न देगा प्यारे गीतों को लिखने से पहले भावों को जीना पड़ता है अमिय-हलाहल सभी रसों को यथा उचित पीना पड़ता है सुरेशसाहनी कानपुर
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मेरे चेहरे की जब किताब पढ़ो। सर्द आंखों में ग़र्क़ ख़्वाब पढ़ो।। मेरी हालत को यूँ न समझोगे जो अयाँ है उसे हिजाब पढ़ो।। मेरे आमाल पढ़ न पाओगे तुम असासे गिनो हिसाब पढ़ो।। तो तुम्हे शाह से ही निस्बत है जाओ ज़र्रे को आफ़ताब पढ़ो।। हाले-हाज़िर की वज़्ह भी तुम हो मेरा खाना भले ख़राब पढ़ो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आज मेरे प्यारे मित्र हकीक भाई हम सबको छोड़ गए। हकीकत था आज बन के फ़साना चला गया। घर भर की नेमतों का खज़ाना चला गया।। तन्हाइयों ने घेर लिया दिल को यकबयक जैसे सुना कि दोस्त पुराना चला गया।। क्यों कर कहें कि आके क़ज़ा ले गयी उसे हक़ बात है कि जिसको था जाना चला गया।। जाने की उस गली में तमन्ना चली गई मिलने का था वो एक बहाना चला गया।। तुम क्या गए हकीक कि आलम है ग़मगुसार गोया कि नेकियों का ज़माना चला गया।। हिन्दू मुसलमा अपने पराये से था जो दूर गा कर मुहब्बतों का तराना चला गया।। कितने ही आसियों की उम्मीदें चली गईं कितनी ही यारियों का ठिकाना चला गया।। मौला ने ले लिया उसे अपनी पनाह में प्यारे हुसैन तेरा दीवाना चला गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ये किसकी सिम्त चलना चाहता हूँ। मैं आख़िर क्या बदलना चाहता हूँ।। तेरे ख्वाबों में पलना चाहता हूँ। मैं खुश होना मचलना चाहता हूँ।। है मुझ सा कोई मेरे आईने में मग़र मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ।। ये माना हूँ गिरा अहले नज़र में अभी तो मैं सम्हलना चाहता हूं।। मैं लेकर तिश्नगी की शिद्दतों को तेरे शीशे में ढलना चाहता हूँ।। मुझे इन महफिलों में मत तलाशो मैं अन्धेरों में जलना चाहता हूँ।। चलो तुम तो वहाँ गुल भी खिलेंगे गुलों सा मैं भी खिलना चाहता हूँ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पहले से धारणा बना ली प्रिय एक बार मिले तो होते। हम भी तुमको प्यारे लगते दो पग संग चले तो होते।। तुमने मुझ को जब भी देखा औरों की आंखों से देखा औरों से मेरे बारे में सुना खींच दी लक्ष्मण रेखा रावण नहीं पुजारी दिखता मैं पर तुम पिघले तो होते।। उपवन उपवन तुम्हें निहारा कानन कानन तुम्हें पुकारा पर्वत जंगल बस्ती बस्ती भटका यह पंछी आवारा एक अकेला क्या करता मैं दो के साथ भले तो होते।। तुमको भाया स्वर्ण-पींजरा मैं था खुले गगन का राही मैं था याचक निरा प्रेम का तुमने कोरी दौलत चाही यदि तुम तब यह प्यार दिखाते मन के तार मिले तो होते।। सुरेशसाहनी कानपुर
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कौन अब गीत गुनगुनाता है। छंद पढ़ता है गीत गाता है।। आज श्रोता डिमांड करते हैं और कवि चुटकुले सुनाता है।। है नजाकत समय की कुछ ऐसी पेट से भाव हार जाता है।। और फिर कवि कहाँ से दोषी है आप का भी दवाब आता है।। आज के दौर में हँसा पाना आदमी है कि खुद विधाता है।। दर्श देते हैं देव उतना ही भक्त जितना प्रसाद लाता है।।
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उनके कितने ताम झाम हैं शायद दरबारी गुलाम हैं।। कविता शायद कभी लिखी हो पर मंचों के बड़े नाम हैं।। ये सलाम करते हाकिम को तब खाते काजू बदाम हैं।। अपने हिस्से मूंगफली के दाने खाली सौ गराम हैं।। सत्ता के हित में भटगायन बड़े लोग हैं बड़े काम हैं।। ये एमपी के सेवक ठहरे अपने मालिक सियाराम हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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ज़िन्दगी अब हो गयी है हसरतों की क़ैद में। हर खुशी दम तोड़ती है ख्वाहिशों की क़ैद में।। ताज अपने वास्ते बनवा के वो जाता रहा ज़ीस्त तन्हा रह गयी है वारिसों की क़ैद में।। अब कफ़स खुद तोड़ना चाहे है अपनी बंदिशें नफ़्स अब घुटने लगी है खाँसियों की क़ैद में।। बंट गए हैं आसमां भी बाद भी परवाज भी अब परिंदे उड़ रहे हैं सरहदों की क़ैद में।। कौन कहता है मुहब्बत बंधनों से दूर है आज है आशिक़मिजाजी मज़हबों की क़ैद में।। ग़म के बादल छा गए हैं कस्रेदिल पर इस तरह ढह न जाये इश्क़ का घर बारिशों की क़ैद में।। दिल किसी बिंदास दिल को दें तो कैसे दें अदीब नौजवानी रह गयी है हासिलों की क़ैद में।। सुरेश साहनी, अदीब
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आपने प्यार से क्या पुकारा मुझे। ख़ुद ही देने लगे सब सहारा मुझे।। आप से हसरतें तो मुकम्मल हुई ज़िन्दगी ने भी हँस कर सँवारा मुझे।। मुझको कंधे मिले इसमें हैरत तो है अब तलक था सभी ने उतारा मुझे।। नूर उनका मुजस्सिम हुआ इस तरह ख़ुद बुलाने लगा हर नज़ारा मुझे।। इक दफा जिसकी महफ़िल में रुसवा हुए फिर उसी ने बुलाया दुबारा मुझे।। साथ मेरा नहीं जिनको तस्लीम था आज वो कर रहे हैं गंवारा मुझे।।
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इनकी उनकी रामकहानी छोड़ो भी। क्या दोहराना बात पुरानी छोड़ो भी।। अक्सर ऐसी बातें होती रहती हैं इनकी ख़ातिर ज़ंग जुबानी छोड़ो भी।। शक-सुब्हा नाजुक रिश्तों के दुश्मन हैं यह नासमझी ये नादानी छोड़ो भी।। आओ मिलकर आसमान में उड़ते हैं अब धरती की चूनरधानी छोड़ो भी।। चटख चांदनी सिर्फ़ चार दिन रहनी है मस्त रहो यारों गमख़्वानी छोड़ो भी।। मर्जी मंज़िल मक़सद राहें सब अपनी सहना ग़ैरों की मनमानी छोड़ो भी।। दो दिन रहलो फिर अपने घर लौट चलो मामा मौसी नाना नानी छोड़ो भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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बद करामत मुझे नहीं आती। ये सियासत मुझे नहीं आती।। उसकी नफ़रत से है कड़ी नफ़रत फिर भी नफ़रत मुझे नहीं आती।। यां अक़ीदत से कोई उज़्र नहीं पर इबादत मुझे नहीं आती।। बदनिगाही नहीं रही फ़ितरत और हिक़ारत मुझे नहीं आती।। यूँ भी तनक़ीद किस तरह करता जब मलामत मुझे नहीं आती।। कौड़ियों में रहा इसी कारण ये तिजारत मुझे नहीं आती।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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मैं अपने पढ़ने वालों की ख़ातिर लिखता हूँ। लिखने में थक भी जाता हूँ पर फिर लिखता हूँ। औरों ने मजहब के आगे दिल तोड़े होंगे मैं दिल को गुरुद्वारा- मस्जिद-मन्दिर लिखता हूँ।। जो मज़हब को मानवता से ऊपर रखते हैं मैं उनको ढोंगी तनखैया काफ़िर लिखता हूँ।। जिन लोगों ने मजहब को व्यापार बनाया है मैं ऐसों को संत न लिखकर ताज़िर लिखता हूँ।। धनपति जो हो गया आज सब माया है कहकर मुझको बोला मैं पैसों की ख़ातिर लिखता हूँ।। जो सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं तुम साधू समझो मैं उनको शातिर लिखता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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भूख और प्यास के मुद्दों को दबा देता है। जब वो मज़हब की कोई बात उठा देता है।। इतनी चालाकी से करता है मदद क़ातिल की मरने वाले को कफ़न उससे दिला देता है।। अपना घर दूर जज़ीरे में बना रखा है जब शहर जलता है वो खूब हवा देता है।। अपने परिवार के हक में कभी अपनी ख़ातिर कौम के सैकड़ों परिवार मिटा देता है।। कौन सी कौम है जिससे न हो रिश्ते उसके कौम के क़ौम वो चुटकी में लड़ा देता है।। रोज खाता है हक़-ए-मुल्क़ में इतनी कसमें पर सियासत के लिए रोज भुला देता है।। बख्शता है कहाँ वो मुल्क़ को मजहब को भी ग़ैर तो ग़ैर वो अपनों को दगा देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दिन रहे उलझन भरे रातों रही बेचैनियां। फागुन नहीं सावन नहीं फिर क्यूं रही हैरानियाँ।। मैं इस गली तुम उस गली ,मैं इस डगर तुम उस डगर इक नाम जुड़ने से तेरे इतनी मिली बदनामियाँ।। लैला नहीं मजनू नहीं फरहाद- शीरी भी नहीं अब आशिक़ी के नाम पर बाक़ी रहीं ऐयारियां।। सब चाहते हैं जीस्त में सरपट डगर मिलती रहें पर इश्क़ ने देखा नहीं आसानियाँ दुश्वारियां।।
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न्याय पर से भी भरोसा उठ गया। अब व्यवस्था का ज़नाज़ा उठ गया।। आईये मिल कर पढ़ें यह मर्सिया लग रहा है कोई अच्छा उठ गया।। अब तेरी महफ़िल में रौनक ख़त्म है दिल तेरी महफ़िल से तन्हा उठ गया।। इक मदारी को यही दरकार है चंद सिक्के और मजमा उठ गया।। बन्द कमरे में हुई कुछ बैठकेँ और फिर नाटक का पर्दा उठ गया।। सुरेश साहनी
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इस कविता की प्रेरणा अनूप शुक्ल जी की पोस्ट बनी। नोटबन्दी ने सियासत में नए आयाम जोड़े हैं। समूचे देश को अब एक जैसा काम जोड़े हैं।। सभी हैं चोर अधिकारी,करमचारी कि व्यापारी मिले हैं शाह चौकीदार बहुत बदनाम जोड़े हैं।। खड़े हैं एक सफ में सारे मोदी जी की मर्जी से नहीं तो कब सियासत ने रहीम-ओ-राम जोड़े हैं।। जिसे गांधी न कर पाये करा तस्वीर ने उनकी घुमाया सिर्फ चेहरा और खास-ओ-आम जोड़े हैं।। तुम्हें मुजरिम ने लूटा है ,लुटे हैं मुंसिफ़ी से हम मेरे हिन्दोस्तां को एक सा अंजाम जोड़े हैं।।
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सम्बन्धों में समरसताएँ बनी रहें किन्तु प्रेम को सम्बन्धों का नाम न दो। सत है चित है सदानन्द है तुम इसको काम जनित उन्मादों के आयाम न दो।। तुमको बचपन से यौवन तक देखा है साथ तुम्हारा प्रतिदिन प्रति क्षण चाहा है। किन्तु वासना जन्म नहीं ले सकी कभी इस सीमा तक हमने धर्म निबाहा है।। जो शिव है है वही सत्य वह सुन्दर भी जो सुन्दर है केवल भ्रम कुछ पल का है। पा लेने में खारापन आ सकता है पर प्रवाह मीठापन गंगा जल का है।। हम तुमको चाहें तुम भी हमको चाहो सम्बन्धों से परे प्रेम यूँ पावन है। जन्म जन्म तक प्रेम रहेगा कुछ ऐसे जैसे धरती पर युग युग से जीवन है।। सुरेशसाहनी
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यह भारतीय राजनीति का संक्रमण काल चल रहा है। आम जनता ,किसान, आदिवासी समुदाय, जलवंशी समुदाय ,सवर्ण समाज और पिछड़ी जातियां आदि अनेक मुद्दे हैं जिन पर लिखा जा सकता है। लेकिन कुछ भी लिखने के लिए कुछ तो समय चाहिए। सो है नहीं। रोजी रोटी के लिए सुबह शाम की मशक्कत आपकी चिन्तन क्षमता हर लेती है। उससे भी बड़ी दिक्कत है कि भारत सरकार की आर्थिक नीति बड़ी तेजी से बाज़ारवाद के अंधे कुएं की ओर बढ़ रही है। मीडिया केवल उन्ही राजनैतिक दलों को भारतीय राजनीति के विकल्प बता रहा है, जो आर्थिक उदारवाद के नाम पर गरीब-विरोधी आर्थिक नीतियों को प्रश्रय देते आ रहे हैं।आज देश के अधिकांश बुद्धिजीवी इन ज़मीनी सच्चाईयों से मुँह फेरकर जाति-धर्म की राजनीति पर जुगाली कर रहे हैं। ये सब घूमकर केवल इस बात पर जोर देने में लगे हैं कि जहां जिस भी दल से इनकी बिरादरी या धर्म के लोग लड़ रहे हों उनके समर्थन का दिखावा करो।इन सब का देश के समाज के ,इनके खुद के जातिय समाज के विकास से कोई मतलब नहीं।आख़िर इन सबके धर्म, मजहब, पंथ और जाति को ख़तरा जो है। ऐसे में आप कुछ भी सकारात्मक लिखें,लोग उसे नकारात्मक रूप में लपकने...
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मत पूछो किस बात का डर है। बे मौसम बरसात का डर है।। कतराते हो दिल देने से क्या दिल के आघात का डर है।। ग़ैरों से उम्मीद नहीं है पर अपनों से घात का डर है।। रात सजा करती है महफ़िल अब दिन को भी रात का डर है।। हम ख़ुद पर काबू तो कर लें इस दिल को जज्बात का डर है।। दिल्ली की बातें मत पूछो भूतों को जिन्नात का डर है। लोग बहुत सहमे हैं उनको अनजाने हालात का डर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जिनसे कभी मिले नहीं अक्सर उन्ही में हम। ख़ुद को तलाशते रहे खोकर उन्हीं में हम।। क्यों जाये हम बहिश्त कहीं और ढूंढ़ने शायद कि ख़त्म कर सकें बंजर उन्हीं में हम।। वैसे तो किस्मतों पे भरोसा नहीं रहा फिर भी जगा रहे हैं मुक़द्दर उन्हीं में हम।। ग़ैरों के आसमान में जाएं तो किसलिए दिल कह रहा है होंगे मुनव्वर उन्हीं में हम।। बेशक़ मिले नहीं हैं ख़्याली ज़हान से लेकिन बने रहेंगे बराबर उन्हीं में हम।। माना कि ऐसी राह में हैं राहजन मगर पाते हैं हर मुकाम पे रहबर उन्हीं में हम।। दिल में बिठा के अपने ही दिल के लिए अदीब ताउम्र खोजते फिरे इक घर उन्हीं में हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कह रहा है मुजस्समा मुझको। कैसे मानूँ है जानता मुझको।। जानते हैं कई भला मुझको। कह रहा है कोई बुरा मुझको।। जिसको अहले वफ़ा कहा तुमने दे रहा है वही दगा मुझको।। हो न् हो लौट कर वो आएगा उम्र भर ये भरम रहा मुझको।। मैंने उसका मुकाम माँगा जब उसने सौंपा मेरा पता मुझको।। दूर रहता है इस तरह गोया दे रहा है बड़ी सज़ा मुझको।। अलविदा क्यों सुरेश को कह दें मुद्दतों बाद है मिला मुझको।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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तुम्हे देख कर क्यों लगता है जैसे हम कुछ हार गए हों या अपना कुछ छूट गया हो या ऐसा लगता है जैसे तुम्हे समय ने मेरी किस्मत- की झोली से चुरा लिया है किन्तु इसे दावे से कहना अब जैसे बेमानी सा है.... कभी मिलो तो हो सकता है तुमसे मिलकर मेरी आँखें हौले से यह राज बता दें तुम ही उनका वह सपना हो जिसकी ख़ातिर वे बेचारी रातों को जागा करती थीं और सुबह से उस रस्ते पर दिन भर बिछी बिछी रहती थीं जिन से होकर जिन पर चलकर तुम आया जाया करती थी।
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हम जन्मजात अभिचिन्तक है सदियों पहले के सूत्रधार बल से कम छल से गए हार उस छल की पीड़ा को लेकर मन मे इस बीड़ा को लेकर हम सोते में भी जगते हैं इक ऐसी सुबह हम लाएंगे जब हमसे छल करने वाले अपने छल से घबराएंगे हर रोज सुबह तब होती है जब इस प्रसूति पीड़ा का फल कविता अपना आकार लिए कागज की धरती पर आकर जब स्वयम प्रस्फुटित होती है मैं नहीं मात्र तब साथ मेरे सदियों की पीड़ा उठती है सदियों की पीड़ा उठती है जब जन्म नई कविता लेगी हर बार प्रथम प्रसवानुभूति से कवि तो निश्चित गुजरेगा पर जब भी कविता जन्मेगी हर बार किसी अव्यवस्था से आक्रोश प्रथम कारण होगा....
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जय जवान तब तक है जय किसान तब तक है जब तक वे अपने अधिकार नहीं मांगते जब तक वे अपनी सरकार नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक जब तक वे सेवा का दाम नहीं मांगते नाम नहीं मांगते आराम नहीं मांगते जय जवान तब तक है जय किसान तब तक हर मजूर मालिक है भाव ताव होने तक किसान अन्नदाता है बस चुनाव होने तक मान जान कब तक है जय जवान तब तक है जय जवान कब तक है जय किसान तब तक है सुरेश साहनी, कानपुर
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आदमी से कहाँ बचा रहता। वो अगर यूँ न् लापता रहता।। वक़्त वो उम्र भर नहीं लौटा फिर मैं किसके लिए रुका रहता।। हुस्न ने जब बदल लिए चेहरे इश्क़ कब तक वही बना रहता।। उसकी मर्ज़ी पे क्यों गुरेज़ करें देर कितना है बुलबुला रहता।। खलवतें ज़िन्दगी का हिस्सा हैं साथ कब तक है काफिला रहता।। साहनी तू है तो ख़ुदा खुश है मैं जो होता क्या ख़ुदा रहता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जाने कैसे इन हाथों से हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। लेकिन बाज़ारी दुनिया में खो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। ख्वाबों के टूटा करने से हर रोज उजड़ती है दुनिया पर फसल सुहाने ख़्वाबों की बो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। कुछ अपनी फिक्रों के कारण कुछ दुनिया की चिंताओं से मैं जगता रहता हूँ लेकिन सो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मैं रोज हथौड़ी छेनी से कुछ भाव तराशा करता हूँ पर अगले दिन ही पत्थर क्यों हो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। मेरे मिसरे उन गलियों में क्यों जाकर भटके फिरते हैं जब उन गलियों से ही होकर तो जाती है हर रोज ग़ज़ल।। सुरेश साहनी, कानपुर अदीब
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हमपे तोहमत भले लगा देते। तुम तो अहदे वफ़ा निभा देते।। तुम पे हर इक खुशी लुटा देते। प्यार से तुम जो मुस्करा देते।। ज़ख़्म सीने के जगमगा उठते तुम जो झूठा भी आसरा देते।। तुमसे प्याले की जुस्तजू कब थी जाम आंखों से जो पिला देते।। क्या ज़रूरी थी ग़ैर की महफ़िल हमसे कहते तो क्या न ला देते।। हम न पी कर भी बेख़ुदी में रहे। कोई इल्ज़ाम मय को क्या देते।। तुम जो आते सुरेश इस दिल मे क्यों किसी और को बिठा देते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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#लघुकथा - मरीज़ कल मैं शहर के व्यस्त क्षेत्र से अपने बच्चे के साथ गुज़र रहा था। सड़क पर भीड़ भाड़ यथोचित ही थी।लाल बत्ती खुल चुकी थी। तभी पीछे से अचानक एम्बुलेंस के सायरन की आवाज सुनाई पड़ी। लोग तितर बितर होने की स्थिति में आ गए। मैं भी असहज होकर और किनारे यानि लगभग सड़क से की तरह सरक आया। कुछ देर बाद किसी सत्ताधारी दल से सम्बंधित झंडा लगाए एक एसयूवी टाइप गाड़ी गुज़री। भीड़ होने के कारण स्पीड उनके अनुसार कम ही थी। उसमें कुछेक सदरी टाइप लोग खीखी करके हँसते बतियाते दिखाई दिए। और वह गाड़ी आगे चली गयी। बच्चे ने पूछने के अंदाज़ में बताया 'पापा ये एम्बुलेंस नहीं थी।" मै क्या बताता। पर यह बात तो तय है कि उसमें मरीज ही थे। शायद मानसिक मरीज जो सैडिज़्म या किसी हीनता श्रेष्ठता बोध से ग्रसित रहते हैं। सुरेश साहनी, कानपुर
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जनता सच में बेबस है क्या। फिर सत्ता में काकस है क्या।। हक़ से हैँ महरूम रियाया गद्दी पर पॉन्टीयस है क्या।। साधु प्रहरी क्या क्या है ये ये भी कोई सिरदस है क्या।। ये ये भी है ये वो भी है ये मायावी राक्षस है क्या।। दुनिया सारी घूम रहा है अवतारे-कोलम्बस है क्या।। चारो ओर हुआ अँधियारा सूली पर फिर जीसस है क्या।। रावण भी पूजा जाता है अपयश है यह तो यश है क्या।। हेरोदस / एक राजा जिसने प्रभु यीशु को मृत्युदंड दिया सुरेश साहनी कानपुर 9451545132 सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ज़ुल्म हम पे भी कम नहीं गुज़रे। सिर्फ़ ये है कि हम नहीं गुज़रे।। राब्ता उस गली से क्या रखते जिस गली से सनम नहीं गुज़रे।। हैफ़ जिस से अदूँ रहे हम भी इक उसी के सितम नहीं गुज़रे।। उस को दरकार थी नुमाइश की आप लेकर अलम नहीं गुज़रे।। यूँ जुदाई है मौत से बढ़कर आप के हैं सो हम नहीं गुज़रे।। तिश्नगी थी तो लज़्ज़तें भी थीं सर कभी कर के खम नहीं गुजरे।। सुरेश साहनी,कानपुर
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मेरी गली में आपका आना अगर है तो। मिलिएगा मुझसे दिल जो लगाना अगर है तो।। यूँ इश्क़ में बहाने ज़रूरी नहीं मगर अच्छा रहेगा कोई बहाना अगर है तो।। दैरोहरम से मेरा ख़ुदा लापता मिला ले चलिए मैक़दे में ठिकाना अगर है तो।। सागर में डूबने से कहाँ उज़्र है मुझे क़िस्मत में आशिक़ी का खज़ाना अगर है तो।। ऐ ज़ीस्त झूठी तोहमतों का डर है किसलिए फिर फिर नये लिबास का पाना अगर है तो।। दुनिया से उठ लिए तो कोई इंतज़ार क्यों ले चलिए रस्म सिर्फ़ उठाना अगर है तो।। उससे तो बेहतर है चरिंदों कि ज़िन्दगी इक अपने वास्ते जिये जाना अगर है तो।। इक आप साथ हैं तो कोई ग़म नहीं अदीब होने दें उसके साथ ज़माना अगर है तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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पैर जब जंज़ीर से वाकिफ़ न् थे। हम किसी तकदीर से वाकिफ न् थे।। ये नहीं तदबीर से वाकिफ़ न् थे। आप की तस्वीर से वाकिफ़ न् थे।। डूब कर हम रक़्स करते थे मगर रक़्स की तासीर से वाकिफ़ न् थे।। किस बिना पर मुझको काफ़िर कह गए आप जब तफ़्सीर से वाकिफ़ न् थे।। ख़्वाब अच्छे दिन के देखे थे मगर आज की ताबीर से वाकिफ़ न् थे।। इल्म का खाया न् था जब तक समर बाकसम तक़सीर से वाकिफ़ न् थे।। बालपन तक मन के राजा थे सुरेश तब किसी जागीर से वाकिफ न् थे।। तक़दीर-भाग्य, तदबीर- युक्ति , रक़्स- नृत्य, तासीर- प्रभाव, काफ़िर- धर्मविरुद्ध, तफ़्सीर- टीका, धर्मग्रंथ की व्याख्या, ताबीर- किसी स्वप्न की व्याख्या, तक़सीर-अपराध, समर- फल, इल्म- ज्ञान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सब थे अपने द्वारे साधो। हम ही थे बंजारे साधो।। भावों की बहरी बस्ती में जाकर किसे पुकारे साधो।। सच मे साथ चला क्या कोई यूँ थे सभी हमारे साधो।। जब दुनिया ही कंचन मृग है कितना मन को मारे साधो।। हार गहें मन से मत हारें हार है मन के हारे साधो।। मैं मैं करना मन का भ्रम है तू ही तू कह प्यारे साधो।। सोहम जपकर भवसागर से ले चल नाव किनारे साधो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हमारी ज़िंदगी ही झूठ पर है। यहां सच बोलना भी इक हुनर है।। ये दुनिया नफ़रतों को पूजती है मुहब्बत आज भी धीमा ज़हर है।। मैं सेहतयाब होकर लौट आया दुआओं में तेरी अब भी असर है।। ज़हर पीने की आदत डाल लें हम गृहस्थी जीस्त का लंबा सफर है।। अभी रिश्ते भी हैं अनुबन्ध जैसे रखो या तोड़ डालो आप पर है।। कोई उम्मीद मत रखना किसी से उम्मीदे ख्वाहिशों का बोझ भर है।। ठिकाना क्या बनाते हम गदायी ख़ुदा ख़ानाबदोशों का सदर है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या तुम जो चाहोगे वो ही लिख दोगे। खेती है क्या अपनों को ही लिख दोगे।। तुमसे सहमत है तो कोई बात नहीं सच बोला तो उसको द्रोही लिख दोगे।। जिससे राहें तक बतियाती दिखती हैं उसको भी अनजान बटोही लिख दोगे।। छल से धन दौलत पा बैठे हो लेकिन किस्मत को कैसे आरोही लिख दोगे।। अपनो को ठगने में तुमको हर्ज कहाँ तुम तो मुझको ही निर्मोही लिख दोगे।।
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सपने लेकर नींद कुंवारी लेटी है।। खोई खोई आस बिचारी लेटी है।। क्या ज़िंदा रहना ही है ज़िंदा होना वो बिस्तर पे लाश हमारी लेटी है।। अस्पताल चलते हैं दौलत वालों से तुम क्या समझे वो बीमारी लेटी है।। बीबी खुश है आज़ादी की राह खुली वो माँ है जो ग़म की मारी लेटी है।। बोझ गृहस्थी का अब कौन उठाएगा वो घर भर की ज़िम्मेदारी लेटी है।। टूट रही हैं लोकतंत्र की सांसें अब बंदूकों पर रायशुमारी लेटी है।। इस शासन में अब शायद ही उठ पाये सीसीयू में जन ख़ुद्दारी लेटी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कौन सी आरजू जिबह कर लें। कौन सी शर्त पर सुलह कर लें।। जुल्फ़ तेरी जो सर न हो पाए तुम कहो और क्या फतह कर लें।। तुम जो ख़ामोश हो तो किस दम पर कोई फ़रयाद या जिरह कर लें।। साथ तुम हो न चाँद है रोशन तीरगी में कहाँ सुबह कर लें।। जब मिले हो तो खानकाहों पर क्या हम अपनी भी खानकह कर लें।। तेरी ख़ातिर कहाँ कहाँ न लड़े और किस किस से हम कलह कर लें।। और कैसे करार पाएं हम ख़ुद को बेफिक्र किस तरह कर लें।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अब कोई साहिबे-किरदार न ढूंढ़े मुझमें। मेरे जैसा कोई हर बार न ढूंढ़े मुझमें।। मुंसिफ़ाना हूँ तबीयत से सभी से कह दो कोई अपना ही तरफगार न ढूंढ़े मुझमें।। ग़ैर के घर हो भगतसिंह है चाहत जिसकी उससे कह दो कोई यलगार न ढूंढ़े मुझमें।। होंगे बेशक़ कई बीमार शहर में उसके हुस्न वैसा कोई बीमार न ढूंढ़े मुझमें।। इतनी मुश्किल से शफ़ा दी मेरे हरजाई ने अब कोई इश्क़ के आसार न ढूंढ़े मुझमें।। यूँ भी मजलूम हूँ मजदूर हूँ दहकां भी हूँ कोई परधान सा ऐयार न ढूंढ़े मुझमें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आदमी दो दिन इधर दो दिन उधर ज़िंदा रहा। किन्तु राक्षस आदमी में उम्र भर ज़िंदा रहा।। जिस किसी भी शख़्स की आंखों का पानी मर गया उसको ज़िंदा मान लें कैसे अगर ज़िंदा रहा।। एक अबला की किसी वहशी ने इज़्ज़त बख्श दी यूँ लगा उस शख़्स में इक जानवर जिन्दा रहा।। फिर से जिंदा हो न् जाये जानवर में आदमी हाँ यही डर रातदिन शामोसहर ज़िंदा रहा।। उम्र के हर मोड़ पर माँ बाप याद आते रहे मैं वो बच्चा था जो मुझमे उम्र भर जिन्दा रहा।। बंट चुके आँगन में दीवारों के जंगल उग गए फिर भी बूढ़े बाप की आँखों मे घर जिन्दा रहा।। दिल बियावां जिस्म तन्हा औ मनाज़िर अजनबी साहनी की सोच में फिर भी शहर ज़िंदा रहा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हनुमान दलित थे या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन वे शासक वर्ग थे ,यह पता है।सुग्रीव, बालि , नल,नील आदि सब शासक थे।एक सज्जन ने कहा कि वे मल्लाह थे।मैंने पूछा- सो कैसे? उनका उत्तर था- मल्लाह भोली कौम है ज़रा सा कोई पुचकार दे , ये लोग उसके प्रेम में पागल हो जाते हैं।और इतने पागल कि सामने वाले के प्यार में तीसरे पक्ष का घर भी फूँक डालते हैं। आज भी राम के नाम पर सबसे ज्यादा यही समाज जान देने को उतारू रहता है।
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तूफ़ां के रुख़ मोड़ रही हैं। सांसें जो दम तोड़ रही हैं।। जीस्त कहाँ तक इनसे लड़ती तक़दीरें मुंहजोर रही हैं।। हालातों की ज़ुर्रत देखो जूना कफ़स झिंझोड़ रही हैं।। ग़म के बोझ दबाते कैसे जब महफिलें हंसोड़ रही है।। टूट गए होते हम कबके कुछ उम्मीदें जोड़ रही हैं।। वहशत ने सीमाएं लांघी लाजें पांव सिकोड़ रही हैं।। अब अदीब बिकना चाहे है आतें ऐंठ मरोड़ रही हैं।। #सुरेशसाहनी-अदीब
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आप ईश्वर को नकार सकते हैं।किंतु समय और प्रकृति को क्यों नकारते हैं।समय और प्रकृति दोनों का अस्तित्व है। दोनों की प्रतीति है। एक को हम आंखों से देख पाते हैं और एक को नहीं किंतु दोनों के गर्भ में अनन्त रहस्य हैं।इन दोनों का समन्वय सृष्टि है।सृष्टि जिसे हम नकार नहीं सकते।आप सब कुछ नकार दीजिये।क्या होगा ,आप पृथक हो जाएंगे,अलग थलग पड़ जाएंगे।आप में अहंकार आ जायेगा।आप अपनी बात सब पर थोपेंगे।बहुत से लोग आपकी बात सुन सकते हैं।किंतु उससे भी अधिक आपकी बातों से निस्पृह रहते हैं।उनकी उदासीनता से आपका मन बढ़ता है।आपमें श्रेष्ठता बोध आता है।यह #सोSहम वाली अनुभूति नहीं है।यह स्वयं को ईश्वर बताने का छद्म प्रयास है।जब आप स्वयं को सर्वोच्च मानने लगते हैं ,तब सृष्टि आपके अस्तित्व को नकार देती है।इसलिए विग्रह बोध से बचें।आप और समस्त चराचर प्रेम और अस्तित्व के समान अधिकारी हैं।यह सत्य है, शिव है ,और सुंदर भी है। #समन्वयवाद
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दो हजार के नोट मोदी जी की दूरदर्शिता है।वरना हजार-पाँच सौ के साढ़े चौदह लाख करोड़ मूल्य के नोट छापने में हालत खराब हो जाती।चीन से एटीएम मशीन और कलपुर्जे मंगा लिए ,चीन भी खुश,।जर्मनी और जापान से कागज मंगाएं दोनों खुश ।डॉलर के दाम बढ़े ,अमेरिका भी खुश।अब विकास दर गिरने से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ेगा।फुटकर के अभाव से भिखारी भी कम होंगे। आटा-दाल के दाम बढ़ेंगे,परचून वाले खुश।ऑनलाइन दूध ,साग-सब्जी मिलने से गृहिणीयाँ खुश।अनाज के दाम बढ़ने से किसान खुश, बॉर्डर पर तनाव बढ़ने से आर्म्स-डीलर खुश।अमीरों का धन निकलने से गरीब खुश।सब खुश हैं हमारी बकरी मरी तो कोई दुःख नहीं पड़ोसी की दीवार तो गिरी। कुल मिलाकर देश में विकास ही विकास दिखाई दे रहा है। लोग मोदी जी के समर्थन में लाइनों में लगे हुए हैं।बैंकों में सर्वर नाम का कोई कर्मचारी अजगर की गति से कार्य कर रहा है।जनता जय जयकार कर रही हैं।बैंक कर्मचारी काला धन जमा करते करते जब श्याम वर्ण के होने लगते हैं,तब उनकी पत्नियां गलत आदमी से ब्याह करने के उलाहने देती हैं।वहीँ नए नोट वितरण में लगे चेहरों पर गुलाबी आभा आने से उनकी घरवालियां...
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सुना है तुमको अब फुर्सत नहीं है। हमारे वास्ते मोहलत नहीं है।। हमें वो लोग दिल से चाहते हैं हाँ उन के पास धन दौलत नहीं है। चलो माना तुम्हे सब जानते हैं ये बदनामी कोई शोहरत नहीं है।। बदल जाते हो मौसम की तरह तुम मगर ये तो भली आदत नहीं है।। मुझे वो कल भला चंगा मिला था सुना है आज वो जीवित नहीं है।। हवाओं में जहर है जानते हैं शहर वालो को अब हैरत नहीं है।। किसी से इत्तेफ़ाक हो भी तो कैसे वो अपने आप से सहमत नहीं है।।
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फिर अदब का वही उसूल चले। दौरे-हाज़िर में जिस को भूल चले।। जैसे उस दौर में ग़ज़ल के लिए मीर के दाग़ के स्कूल चले।। बेहतर हैं चलें उसी जानिब जिस तरफ़ थे मेरे रसूल चले।। जिस जगह प्रेम की बजे मुरली मन उसी भानुजा के कूल चले।। क्या ज़रूररत वहां रुका जाये बात कोई जहाँ फिजूल चले।। क्या ज़रूरी मुबाहिसे में पड़ें बात जब कोई ऊलजलूल चले।। साहनी अब है इश्क़ की जद में अब तो पत्थर पड़े कि फूल चले।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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अगर पढ़ लिए होते तुमने मेरे ख़त तुम मेरे होते।। तुमने जब भी देखा मुझको मुझमें कोई अज़नबी देखा मेरा अंतर्मन कब देखा मेरा बाह्यरूप ही देखा अगर देख पाते अंतर्मन विधि सम्मत तुम मेरे होते।। बाहर से श्रीकृष्ण भी दिखे माखनचोर छिछोरे छोरे समय देख दे गयीं गोपियाँ उन्हें हृदय के कागद कोरे होते यदि उस छलिया जैसे खुशकिस्मत तुम मेरे होते।। Suresh Sahani
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एक निर्भया और मर गयी लेकिन बहुत बड़ा अंतर है इसके या उसके होने में क्योंकि यह है उसी वंश की जिसके वाहक वेदव्यास थे फिर ऐसे लोगों की इज़्ज़त इज्ज़त नहीं हुआ करती है इनको कहदो मौन रहें ये पीड़ा को चुपचाप सहन कर आसानी से जी सकती हैं या फिर कायरता से प्रेरित होकर जौहर कर सकती हैं हो सकता है फिर प्रधान की आंखों में आंसू आ जाये.....
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इस देश का एक बहुत बड़ा मजदूर वर्ग नौका चालन, मछली पालन,मछली का आखेट ,झींगा व्यवसाय,कमलगट्टा सिंघाड़ा उत्पादन ,सीप-मोती आदि तथा पानी पहुंचाने के कार्य से जुड़ा हुआ है।इनका कार्य क्षेत्र हमेशा ही शहरी मुख्यालयों से दूर ताल-पोखर,नदी-नाले कछार अथवा समुद्र के तटीय अंचलों में रहा है। अधिक दिनों तक जलीय क्षेत्रों में काम करने अथवा आवास-प्रवास होने से हाइड्रो-जेनरेटेड डिसीज अथवा माइक्रोफंगल इंफेक्शन से यह लोग अधिक प्रभावित रहते हैं।इसके साथ ही सुदूर क्षेत्रों में रहने के कारण इनकी पीढियां अशिक्षित अथवा कम शिक्षित रह जाती हैं। देश को लगभग आठ प्रतिशत राजस्व देने वाले इन साढ़े छह करोड़ जल श्रमिकों का कोई माई बाप नहीं हैं।इसका एक बड़ा कारण है आज तक इनके कार्यो को श्रम मंत्रालय ने अथवा केंद्र सरकार ने मान्यता नहीं दी है। जबकि इस समुदाय को फिशरमैन और #वाटरवर्कर्स के रूप में सरकार द्वारा मान्यता देकर इनके इएसआई कार्ड,परिचय पत्र दे देना चाहिए था।इस बार की केंद्र सरकार इनके कार्यों के लिए #एक्वाकल्चर एंड फिशरीज़ मंत्रालय और रेगुलट्रीज़ बनाने का वादा करके मुकर गई।...
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तुमसे किसने कहा निभाओ। चाहे जहाँ बेझिझक जाओ ।। हम क्यों तुम पर बंदिश डालें तुम क्यों हम पर अश्क़ बहाओ।। प्यार स्वयं इक पागलपन है प्यार में पागल मत बन जाओ।। मैं भी अपनी ज़िम्मेदारी तुम भी अपना धर्म निभाओ।। कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें है इन पर मत जाओ।। वालिदैन हैं रूप ख़ुदा के ख़िदमत करो दुआयें पाओ।। तुम सुरेश को समझ गए ना जाओ दुनिया को बतलाओ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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किसको बेबस भूखे नंगे याद रहे। सबको झंडे रंग बिरंगे याद रहे।। जनता ने झेला पर जनता भूल गयी नेताओं को लेकिन दंगे याद रहे।। कल तुम कैसे बीच हमारे आओगे तुम बहरे हो हम हैं गूँगे याद रहे।। हम कृषकों को कैसे भिखमंगा बोला तुम हो वोटों के भिखमंगे याद रहे।। खुद को एलीट क्लास समझ बैठे हो तुम फिर क्यों देहाती बेढंगे याद रहे।। कल तुमको हम ही औकात बताएंगे किससे ले बैठे हो पंगे याद रहे।।
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हँसते गाते दिल को पीरें दे दी है। बीमारे-दिल को अक्सीरें दे दी हैं।। जग ने प्यार मुहब्बत करने वालों के शानों पर गिरती शहतीरें दे दी हैं।। प्यार की ताकत है जो अक्सर शाहों ने दिल की दौलत पर जागी रे दे दी हैं।। इश्क़ में हर नामुमकिन मुमकिन होता है इश्क़ ने ख्वाबों को ताबीरें दे दी हैं।। नाहक आईना तोड़ा है कुछ समझे तुमने सच को सौ तस्वीरें दे दी हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हम जब भी उस राह चले हैं। हम खुद से ही जुदा मिले हैं।। किसकी किससे करें शिकायत सारे अपने ही निकले हैं।। अंधियारों से कौन जूझता दीपक बनकर हमीं जले हैं।। हमें बुझाने को आंधी ने उलटे सीधे दांव चले हैं।। लेकिन जितनी हवा चली है हम उससे ज्यादा मचले हैं।। हमें डराता है तो सुन हम- तूफानों में बढ़े पले हैं।। सुरेश साहनी
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घर के अंदर घर की चारदीवारी में। सीमायें टूटी हैं आपसदारी में।। वो वर्षों के रिश्ते नाते भूल गया ऐसा क्या है उस दो दिन की यारी में।। ज़र ज़मीन का बँटना कोई बात नहीं दिल क्यों बाँटा सबने हिस्सेदारी में।। महल सरीखी खुशी दिखी है कुटिया में कुटियों का खालीपन महल अटारी में।। दिल के चोरी होने पर अफसोस नहीं आखिर कब तक रखता पहरेदारी में।। नदिया इठलाकर सागर से मिलती है आख़िर क्या मीठापन है उस खारी में।। ज़ीस्त भले आलस दिखलाया करती है मौत हमेशा रहती है तैयारी में।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जो हम न् मुँह में जुबान रखते। तो ओहदा आलीशान रखते।। न आन रखते न बान रखते। ज़मीर बिकता दुकान रखते।। हमारे शाने से तीर चलते वे हाथ अपने कमान रखते।। तुम्हारे हाथों भी तेग होती जो उसके कदमों में म्यान रखते।। नसीब होते तुम्हें भी मोती जो तुम न् ऊंची उड़ान रखते।। शहीद होने से कुछ मिला क्या जहान मिलता जो जान रखते।। ज़रा जो गिरते नज़र में अपनी तमाम ऊँचे मकान रखते।। सुरेश साहनी कानपुर 94515451
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इश्क़ था जबकि छलावा तेरा। दिल को भाता था दिखावा तेरा।। झूठ था फिर यकीं लायक था दरदेदिल का वो मदावा तेरा।। आजमाऊँ तो ख़ुदा झूठ करे जाँनिसारी का ये दावा तेरा।। मैं नहीं कोई बहक सकता था इतना सुंदर था भुलावा तेरा।। जबकि मक़तल ही था मंज़िल अपनी इक बहाना था बुलावा तेरा।। ऐ ख़ुदा तू है अगर कुजागर तो ये दुनिया है कि आँवा तेरा।। साहनी ही तो गुनहगार नहीं उसमें पूरा था बढ़ावा तेरा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पहले मुर्गी या अंडे की बातें करते लोग। सैटरडे के दिन संडे की बातें करते लोग।। जिसने मजदूरों का वेतन मार लिया बेखौफ उस से मंदिर के चंदे की बातें करते लोग।। पैसे वाले बहुत दुखी हैं सचमुच चिंता है पर गरीब पर दे डंडे की बातें करते लोग।। अब सीधे सादे रस्तों पर किसे भरोसा है रोज नए छल हथकण्डे की बातें करते लोग।।
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अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ा। बेवज़ह मुझको बड़ा होना पड़ा।। बिक के अहले रोकड़ा होना पड़ा। फिर वजीरे- केकड़ा होना पड़ा।। तेरी दुनिया किस क़दर तक़सीम है मुझको भी यकसू खड़ा होना पड़ा।। देश है या फिर कबीलों का हुजूम अंततः मुझको धड़ा होना पड़ा।। बोझ अपनों का उठाने के लिए मुझको खच्चर खड़खड़ा होना पड़ा।। लोग अच्छा जानकर के खा न् लें मुझको नेचर का सड़ा होना पड़ा।। साफ करने थे ज़माने के गटर बेबसी में बेवड़ा होना पड़ा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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नदी तालाब सागर झील झरने तरक्क़ी हैं इन्हीं सब की कतरनें।। हमारे गांव लंगर नाव घर सब तुम्हारे ठाठ हैं इनकी उजड़नें।। अँगूठा द्रोण ने काटा गलत है व्यवस्था ही अंगूठा काटती है। कि गुरुता द्रोण बन कर बेबसी में किसी अन्धे के तलवे चाटती है।। तुम्हारे महल ये अट्टालिकायें हमारी संस्कृति के मकबरे हैं। तुम्हारे शहर तब विकसित हुए जब हमारे लाभ हित घुट कर मरे हैं।। हमारे द्रोण को आज़ाद कर दो तुम्हारी राजतंत्रीय बेड़ियों से। छुड़ा लेगा धरा को एकलव्य तब विदेशी पूंजीवादी भेड़ियों से।। सुरेश साहनी , कानपुर
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द्रोण जन का पक्षधर क्यों कर हुआ है जबकि राजा ही व्यवस्था कर रहा है हो सुनिश्चित कोई गुरुकुल पक्षधर जनशक्ति का होने न पाए। एकलव्यों को धरा पर ज्ञान का अधिकार है क्या कल अगर सक्षम हुए ये लोग तब हम क्या करेंगे मूर्ख हो तुम द्रोण जिसकी मूर्खता से राजपथ को आज जन का पथ बनाकर निर्धनों की शांत लेकिन धुर अराजक भीड़ का गर्जन सुनाई दे रहा है और अंधे कान के परदे फ़टे से जा रहे हैं हाँ हमें कुछ कुछ दिखाई दे रहा है हस्तिनापुर का सिंहासन हिल रहा है और कुरुकुल पांडु पुत्रों के सहित इतिहास बनने की दिशा में अग्रसर है ज्ञान की मंथर हवायें आंधियां बनने न पायें हो सके तो ज्ञान के इन संकुलों को बंद कर दो आज शिक्षा सिर्फ धनिकों राजपुत्रों के लिए है यह बता दो दक्षिणा में हो सके तो प्राण मांगो खेत घर खलिहान सब बंधक बना लो द्रोण या तो राजगुरु पद त्याग कर दो अन्यथा इन गुरुकुलों को बंद कर दो सुरेश साहनी, कानपुर
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खा लेंगे हम जो भी चना चबैना है। खुशियों से अपना क्या लेना देना है।। भारत जीता मैच खुशी की बात तो है फिर छूटा रॉकेट खुशी की बात तो है भाई बना प्रधान विलायत का भईया झूम रहा है देश खुशी की बात तो है पर चाची को हिस्सा एक न् देना है। हमें विलायत से क्या लेना देना है।।....... आयी दीवाली बज़ार में रौनक है खूब मजा मा मोटा भाई शौनक है दौलत है तो रोज मनाओ दीवाली दौलत गाड़ी बंगला चम्मक धम्मक है हम मज़दूरों की छेनी ही छेना है। बस बच्चों के खील बतासे लेना है।।...... सुरेश साहनी कानपुर
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इश्क़ के पैरोकार हैं हम भी। आशिकों में शुमार हैं हम भी। हुस्न का नाम ज़ालिमों में है और उसका शिकार हैं हम भी।। दिल किसी ग़ैर को न् दे बैठें उन से कह दो निसार हैं हम भी।। वो हमारा सुकूने दिल है तो उसके दिल का करार हैं हम भी।। गुल का ख़ुद पर यूँ रश्क़ ठीक नहीं उससे कह दो बहार हैं हम भी।। तोड़ कर दिल उन्हें क़रार मिला तो कहाँ सोगवार हैं हम भी।। उनको आने ही दो अयाँ होकर आज कुछ बेक़रार हैं हम भी।। सुरेश साहनी कानपुर
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जब अस्थाना जी आते थे कितने चेहरे खिल जाते थे उनमे कुछ कुछ तो ऐसे थे अब मत पूछो वो कैसे थे पर उन पर नज़रे पड़ते ही ये भी कुछ कुछ खिल जाते थे कपड़े भी बढ़िया क्रीचदार सॉफिस्टिकेटेड होशियार सब देख इन्हें खुश होते थे ये देख उन्हें मुस्काते थे बेशक़ ये सुघर सजीले थे पर उतने ही शर्मीले थे पर सबको बहन बोलने से इनके रिश्ते कट जाते थे एक बार रिश्ते के लिए लड़की देखने गए तो लड़की से पूछ बैठे थे बहिन जी आपकी हॉबिज क्या क्या हैं। परिणाम आप समझ सकते हैं इक बार मिली मेरी भाभी उनको माता जी बोल गए जल्दी में भूल गए थे ये जो चश्मा सदा लगाते थे कोई बाला तो शायद ही इनके ख्वाबों में आई हो ये सपनों की चर्चा में भी अम्मा की बातें लाते थे।। अस्थाना जब भी आते हैं अम्मा बाबू याद आते हैं मुझसे ज्यादा माँ बाबू के अस्थाना जी मन भाते थे।। एक बार टीचर ने बताया नेक काम करने वाले स्वर्ग जाते हैं तुममें कौन कौन स्वर्ग जायेगा एक बच्चे ने उत्तर दिया मैं नहीं जाऊंगा। माँ कहती है सीधे घर आया करो। जानते हैं वो बच्चा कौन था एक बार टीचर ने पूछा , मंगल सिंह को सौ रुपये के फल लाने के लिए 500 दिए। वो कितने ...
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वे भगवा वे नीला परचम लेकर दौड़ रहे हैं। हम हैं एक तिरंगे का दम लेकर दौड़ रहे हैं।। वे गर्दन तक डूब गए हैं नफ़रत के सागर में हम लहरों के ज़ेरो बम को लेकर दौड़ रहे हैं।। वे दिन रात पिये जाते हैं पर संतोष नहीं है हम हैं सिर्फ़ सुराही का खम लेकर दौड़ रहे हैं।। आलम दौड़ रहा है अपनी ख़ातिर अंधा होकर पर हम किसकी ख़ातिर आलम लेकर दौड़ रहे हैं।। नफ़रत फुर्तीला करती है हम मज़हब वालों को ये त्रिशूल ताने वो बल्लम लेकर दौड़ रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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क्या मुहब्बत धूप है जो रोशनी में साथ है या मुहब्बत घटती बढ़ती चांदनी का साथ है या मुहब्बत तीरगी में अनछुआ एहसास है या मुहब्बत वो है जो केवल तुम्हारे पास है पास रहना ही तुम्हारा खुशनुमा एहसास है साथ होते हो तो लगता है मुहब्बत पास है पर मुहब्बत तब भी रहती है हमारे जेहन में डूबते हैं जब कभी ऐ दोस्त यादे-कुहन में सिलसिले यादों के थमते ही नहीं हैं रात भर ख़्वाब आंखों में उतरते ही नहीं हैं रात भर लोग कहते हैं मुहब्बत का यही अंदाज़ है जिसको दुनिया जानती है आशिक़ी वो राज़ है.....
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दूज तीज छठ अब भी है। गंगा का तट अब भी है।। अरबों रुपये फूंक दिए कूड़ा करकट अब भी है।। नैतिकता के मानी क्या नेता लम्पट अब भी है ।। किसको फुर्सत सुनने की जो था बतकट अब भी है।। बच्चों की पहली ख्वाहिश टॉफी कम्पट अब भी है।। मानसरोवर जाने में उतनी झंझट अब भी है।। चित तो तब भी अपनी थी अपनी ही पट अब भी है।। इस शमशानी संसद से बेहतर मरघट अब भी है।। तुम सुरेश को क्या जानो सच्चा मुँहफट अब भी है।। Suresh sahani
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आज मैंने उसे पढ़ा खुलकर । आज ही वो मुझे मिला खुलकर।। कोई मधुमास हो गया खुलकर। और सावन बरस पड़ा खुलकर।। इश्क़ में गाँठ था पुरानापन हो गया फिर नया नया खुलकर।। आज की रात क्या क़यामत थी आज की रात मैं जिया खुलकर।। अल सुबह गुनगुना उठा कोई आज सूरज भी था खिला खुलकर।। ख़ुश्क होठों का नीम पलकों से कोई किस्सा बयां हुआ खुलकर।। साहनी भी कमाल करता है जो न कहना था कह दिया खुलकर।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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दमदार ग़ज़लगो है क़ता ढूंढ़ रहा है। किस दौर में वो अहले वफ़ा ढूंढ़ रहा है।। तहज़ीबो-तमद्दुन जहाँ लाचार पड़े हैं इस दौर में वो शर्मो-हया ढूंढ़ रहा है।। उम्मीद को बुझने नही देती है यही बात वो स्याह अंधेरों में शमा ढूंढ़ रहा है।। वो मुल्क में बीमारी-ए-नफ़रत का पसरना वो मर्ज़ की जड़ और दवा ढूंढ़ रहा है।। दामन है तारतार गरीबी की वजह से अब मीडिया उसमे भी मज़ा ढूंढ़ रहा है।। क्यों अपनी बहन देख के होटल में खफ़ा है गर अपने लिए जिस्म नया ढूंढ़ रहा है।। शायद कि किसी काम तेरे आ सके #अदीब क्या है जो तू औरों से सिवा ढूंढ़ रहा है।। -- सुरेशससाहनी 'अदीब"
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क्षतियाँ स्वाभाविक हैं फसलें भी तैयार होने तक तीस प्रतिशत नष्ट हो जाती हैं यह सहज है हर पदार्थ की अर्धायु होती है जीवन मे सारा समय उपयोग में नहीं गुज़रता हमनें देखा है आग जलने पर पूरी ऊर्जा का उपयोग नहीं हो पाता बिजली, बरसात ,धूप और जीवन के सभी हासिल कभी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो पाते और तो और कुछ भी पूरी तरह नष्ट भी नहीं होता यह सब सत्य है, सहज है ,फिर भी हम सहज नहीं हो पाते पूरी तरह....... Suresh Sahani
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चलो विजय पथ पर चलते हैं आशा के रथ पर चलते हैं।। हम हारे या मन हारा है क्या अपना जीवन हारा है यह पड़ाव है उस मंज़िल तक हम अपने कथ पर चलते हैं।। कांटे कंकड़ पत्थर क्या है फिर साहस से बढ़कर क्या है चलों लिए विश्वास आज फिर मन के सारथ पर चलते हैं।। जीवन तो फिर भी जीना है अमृत सा हर विष पीना है यदि शिवत्व अपना अभीष्ट है इसी मनोरथ पर चलते हैं।। रम्भा जैसी सुर बालायें कितना ही मन को भटकायें एक लक्ष्य है विजय प्राप्ति कर रतिपति मन्मथ पर चलते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इश्क़ के दर्द जो पाले होते। हम भी खुशियों के हवाले होते।। उनके पांवों में भी छाले होते। जो तेरे चाहने वाले होते।। मेरे अफसानों में तुम हो वरना ख़ाक़ यादों में उजाले होते।। सर हथेली पे लिए आते हम तुमने नेजे तो निकाले होते।। उनके परदे का ख़याल आता है वरना अपने भी रिसाले होते।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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इस कहानी को सिलसिला मत दो दिल को यादों का वास्ता मत दो।। कुछ सलीके से भी रहा करिये तोड़कर दिल ये मशविरा मत दो।। दौड़ कर वो गले न लग जाये प्यार को इतना फासला मत दो।। लोग पत्थर के हो गए हैं अब हो सके इन को आईना मत दो।। भूल जाये तो भूल जाने दो दिल की गलियों में रास्ता मत दो।। इक दफा दिल को मर्तबा देकर फिर ख़ुदा को भी मर्तबा मत दो।। सुरेश साहनी
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तुम्हारे रुख की रंगत कम हुई है। कहो किस से मुहब्बत कम हुई है।। इधर कुछ कम हुईं हैं शोखियाँ भी निगाहों की शरारत कम हुई हैं।। गले मिलने लगे हैं लोग फिर से दिलों के बीच नफ़रत कम हुई है।। ज़रूरत हो गयी है आज हावी तो है तस्लीम ग़ैरत कम हुई है।। हुआ करती थी कल तक आज लेकिन कलमकारों की अज़मत कम हुई है।। जवानी में हुआ करते थे चर्चे कहें क्या जब कि शोहरत कम हुई है।। उन्हें हम कर चुके हैं माफ लेकिन वो कहते हैं मुरौवत कम हुई हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हाँ उन्हें हर्फ़े वफ़ा याद नहीं। मुझको भी उनकी जफ़ा याद नहीं।। आदतन वो ये कहा करते हैं ये उन्हें पहली दफा याद नहीं।। इश्क़ सौदा था कोई उनके लिए मुझको नुकसान नफा याद नहीं।। दर्दे दिल कब से हैं कैसे बोलें जब उन्हें इसकी शिफा याद नहीं।। हाँ वो दुनिया से ख़फ़ा हैं लेकिन कोई उनसे है ख़फ़ा याद नहीं।। दिल के ज़ख्मों को सजा लें बेहतर हमको तरकीबे-रफ़ा याद नहीं।। झूठ क्यों बोलें छिपाएं क्यों कर बात कहते हैं सफा याद नहीं।। सुरेश साहनी,कानपुर
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अन्धे युग मे अंधा होकर जीना सीख रहा हूँ। हद से ज्यादा सीधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। पूरा होना मुश्किल होकर जीना भी मुश्किल है आधे से भी आधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। इतनी ज़िम्मेदारी लेकर आया हूँ इस जग में बचपन मे ही बूढ़ा होकर जीना सीख रहा हूँ।। आदत डाल रहा हूँ मैं हर हालत में चल पाऊँ मैं जूता चमरौधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सीधे चलकर देख लिया दुनिया उल्टा चलती है मैं ऐसे में औंधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। मस्ती में जब झूम रहे हैं शैतानों के प्यारे मैं मालिक का बन्दा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
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जो ना समझे पीर पराई नेता जी। कैसे उसकी करें बड़ाई नेता जी।। उनके घर होटल से खाना आता है वो क्या समझेंगे महगाई नेता जी।। तुम बिलियन ट्रिलियन की बातें करते हो हमको मुश्किल हुई दहाई नेता जी।। फांके करवा देती है जब बढ़ती है जीएसटी में आना पाई नेता जी।। बातों से तुम करुणा सागर लगते हो किन्तु कर्म से हुये कसाई नेता जी।।
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लो दाँत हमारे अंदर हैं नाखून भी हमने समेट लिए अब कुछ दिन तक आसानी से तुम हमपे यकीं कर सकते हो... यूँ भी घर के जल जाने तक हम घर की हिफाज़त करते हैं हम उनमें हैं जो उम्मत से बेलौस मुहब्बत करते हैं पर वस्ल मुकम्मल होने तक फिलहाल इलेक्शन होने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।। हाँ प्यासों के मर जाने पर हमने भी कुयें खुदवाए हैं कुछ भूखों के मर जाने पर हमने लंगर चलवाये हैं कुछ भूखे प्यासे मरने तक अपनी साँसों के चलने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।।
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हम ज़ुल्म के खिलाफ क्या लड़ते लड़ते तो मारे जाते क्योंकि समर्थ पर ज़ुल्म नहीं होते हम कभी विद्रोही कभी नक्सली और कभी आतंकी कहकर सताए जाते आख़िर हम अपनी हद में क्यों नहीं रहते उनकी सुविधाओं के रास्ते मे आने का हमें क्या हक़ है ये गांव,ये शहर,ये आलीशान हवेलियां ये बीच ये रिसॉर्ट्स ये कॉटेज और ये इठलाती हुईं सड़कें और ये कोयला पत्थर,बालू, मोरंग उगलती खानें ये खेत ये खलिहान और इन पर उगे सपने हमें क्या हक़ है ये तहसीलें, ये अदालतें ये दफ्तर ये फाइलें ये बाबू ये अफसर और वो राजपथ से जुड़ी इमारतें हमें क्या हक है कि हम इन पर अपना हक जताएं और ऐसा भी नहीं है कि हमें हक़ ही नहीं हमको हक़ है कि किसी हक़ के लिए अपनी हद में बड़ी ख़ामोशी से हो रहे ज़ुल्म को सहते जायें और इंसाफ को इतना समझें ये हमारे लिए होती ही नही.....
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चुप जो रहती है उसकी खामोशी। कुछ तो कहती है उसकी खामोशी।। वो नही बोलती किसी शय से बोल पड़ती है उसकी खामोशी।। तंज़ उसके कभी नहीं अखरे पर अखरती है उसकी खामोशी।। उस तबस्सुम को गौर से देखो खूब जँचती है उसकी खामोशी।। कहकहे सब बिखर गए उसके सिर्फ़ दिखती है उसकी खामोशी।। जब कभी वो उदास होता है खूब हँसती है उसकी खामोशी।। साहनी फूट फूट रोता है जब उभरती है उसकी खामोशी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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दर्द जाकर किसे सुनाते हम। लोग हंसते तो मर न जाते हम ।। उस मसीहा से क्या छुपाते हम। या बताते तो क्या बताते हम।। जब तुम्हीं ने यक़ीन तोड़ दिया फिर भला किस को आज़माते हम।। फिर ठिकाना कोई कहाँ मिलता उस ख़ुदा को अगर भुलाते हम।। आसमानों की ओर आना था क्या ज़मीनों पे घर बनाते हम।। जो मुअज्जिन की तू नहीं सुनता फिर भला किस तरह बुलाते हम।। साहनी पहले से ज़मीन पे है और कितना उसे गिराते हम।। साभार Suresh Sahani SiR
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जैसे जैसे ज़िन्दगी जाती रही। मौत की परवाह भी जाती रही।। उम्र ने जैसे कहीं ठहरा दिया और फिर आवारगी जाती रही।। ख़ुश्कियाँ सहरा को पाकर कम हुई और लब से तिश्नगी जाती रही।। अहले दिल आये अना के नूर में इश्क़ वाली रोशनी जाती रही।। अब भी है इब्लीस ग़ालिब चारसू कैसे माने तीरगी जाती रही।। फिर किरायेदार ढूढेंगे नया याद दिल से आपकी जाती रही।। साहनी अब आदमी हैं काम के वक़्त रहते आशिक़ी जाती रही।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जब हम आते हैं तरंग में। रस बरसाते हैं तरंग में।। सब कहते हैं जादू सा है जो हम गाते हैं तरंग में।। नहीं सुना तो क्यों यह माने लोग बुलाते हैं तरंग में।। कुछ कहते हैं भाव न् खाओ हम तो खाते हैं तरंग में।। और कहीं सचमुच दुर्लभ है जो हम पाते हैं तरंग में।। आओ इसमे तब जानोगे क्यों सब आते हैं तरंग में।। अज्ञानी पूछा करते हैं क्या समझाते हैं तरंग में।। ख़ुद अज्ञात रहा करते है वे जो लाते हैं तरंग में।। हम सुरेश कब रह जाते हैं जब रंग जाते हैं तरंग में।। सुरेश साहनी कानपुर
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चुप न बैठो आज प्रिय कुछ बोल दो कुछ बोल दो। आज अवगुंठन हृदय के खोल दो कुछ बोल दो।।....... क्या समय की वर्जनाओं ने कभी रोका तुम्हें या कि दुनिया की प्रथाओं ने कभी रोका तुम्हें हर प्रथा हर वर्जना को तोड़ कर प्रिय बोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... प्रेम की बहती नदी में कल रवानी हो न हो आज हम तुम साथ हैं कल ज़िंदगानी हो न हो अपनी नीरस ज़िन्दगी में शादमानी घोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... आज हाथों से निकलने का न कल अफ़सोस हो आज का अमृतकलश कल सिर्फ़ सूखा कोष हो आज ही हर शब्द को स्वर्णाक्षरों का मोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।....... सुरेश साहनी,कानपुर
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तुम्हें देखना था अगर देखना था। तुम्हारे सिवा फिर किधर देखना था।। तुम्हारी गली से गुजरने का मक़सद ख़ुदारा तुम्हे इक नज़र देखना था।। मेरे चाँद को फ़िक्र थी चांदनी की सितारों को शायद सहर देखना था।। कभी छाँव में जिसकी हम तुम मिले थे मुझे आज फिर वो शज़र देखना था।। चलो राख उन हसरतों की कुरेदें मुझे इश्क़ का वो शरर देखना था।। कहो तो तुम्हारी निगाहों से देखें मुझे मेरे ख़्वाबों का घर देखना था।। सुरेश साहनी कानपुर
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आखिर मुझसे इतनी बातें क्यों करती हो। अपने दिल के कोने में कुछ तो रखती हो।। ऐसा हूँ मैं, वैसा हूँ मैं, कैसा हूँ मैं तुम बतला दो जैसा भी सोचा करती हो।। आखिर तुम को कौन उड़ा कर ले जायेगा जाने क्यों दिन में सपने देखा करती हो।। छोड़ के चल दोगी एकदिन औरों के जैसे नाहक़ साथ निभाने वाले दम भरती हो।। Suresh Sahani Kanpur
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अल्लाह नहीं था जब भगवान नहीं थे जब।। क्या था तेरी दुनिया में इंसान नहीं थे जब।। नफ़रत के तलातुम कभी ऐसे नहीं उठते थे मज़हब की सियासत के तूफान नहीं थे जब।। हद से भी कहीं ज़्यादा तब होगी हसीं दुनिया अलक़ाब न थे इतने उनवान नहीं थे जब।। तुझको तो पता होगा कैसी थी मेरी दुनिया ये रीत धरम दीनो-ईमान नहीं थे जब।। क्या तब भी तेरी दुनिया इतनी बड़ी दिखती थी ये रेल नहीं थी जब वीमान नहीं थे जब।। जो बात करो दिल से वो दिल को पहुंचती थी मुश्किल थे कहाँ रस्ते आसान नहीं थे जब।। क्या तब नहीं करते थे बातें वे ग़ज़ल जैसी दुनिया में तेरी रुक्न-ओ-अरकान नहीं थे जब।। क्या इश्क़ तेरी दुनिया मे तब भी रहा होगा इस ख़ल्क़ में नफ़रत के सामान नहीं थे जब।। ये शेखो बरहमन क्या तब भी थे भले इतने मौला तेरी दुनिया में शैतान नहीं थे जब।। सुरेश साहनी ,अदीब कानपुर
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अक्सर जब विद्यालय खुलने लगते हैं। कुछ बच्चों के ख़्वाब मचलने लगते हैं।। पर फांके की आहट उन्हें जगाती है वे फिर कूड़ा करकट बिनने लगते हैं।। माँ की खांसी में बेबस आशाएं हैं आशाओं में द्वंद पिघलने लगते हैं।। भूखे भाई बहनों की अकुलाहट में ये चिंतन से बूढ़े लगने लगते हैं।। बाप नशेड़ी सीधा डंडा रखता है जब वे आड़ा-तिरछा चलने लगते हैं।। नियति उन्हें अहसास दिलाने लगती है उनके ख़्वाब उन्हें ही छलने लगते हैं।। सभ्य लोग और गांव गली के कुत्ते भी उन्हें देख तत्काल भौकने लगते हैं।। क्या ये भी अपने भारत की थाती हैं मन मे कई सवाल कौंधने लगते हैं।। Suresh Sahani
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आप बरहम हैं तो क्या हम मुस्कुराएं भी नहीं। गीत गाना छोड़ दें हम गुनगुनाएं भी नहीं।। पास रहने पर उन्हें गोया बड़ी तकलीफ है और उस पर उज़्र यह हम दूर जाएं भी नहीं।। उन की चाहत है कि उनके ज़ुल्म हम हँस कर सहें और वो ऐंठे रहें हम कुनमुनाये भी नहीं।। वो ये चाहें हैं कि सब आवाज अपनी घोट लें जानवर बोलें न् पंछी चहचहायें भी नहीं।। और हम अपनों के हक़ में सोचना भी छोड़ दें यूँ कि अपनों के लिए मांगे दुआयें भी नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर
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मैं सोच रहा हूँ कि हमारा समाज सत्य में जाग गया है या जागने का दिखावा कर रहा है।लेकिन यह सत्य है कि प्रदेश सरकार जाग रही है।उसके मंत्री जाग रहे हैं।उसके समर्थक जाग रहे हैं।मीडिया सुविधानुसार जागता या सोता है। अब प्रदेश में किसी के मरने पर अंतिम संस्कार की चिन्ता नहीं होती। अभी अख़लाक़ का अंतिम संस्कार किया गया।दनकौर में आबरू का विसर्जन हुआ।अब ताजा घटना मऊ जनपद में ग्राम बैजापुर दक्षिण टोला में घटी है।यहाँ एक गरीब निषाद युवती एक दबंग यादव ग्राम प्रधान की हवस का शिकार नहीं बनने पर जिन्दा फूंक दी गयी।आज मेरी उस गांव में 13 साल के साक्षी चंदन से बात हुयी है।चन्दन के अनुसार उस महिला का बयान रिकार्ड किया गया था।मजिस्ट्रेट के बयान में तीन नाम थे।थाने में सपा समर्थक प्रधान और उसके साथी का नाम हटा दिया गया ।केवल उक्त महिला के एक पट्टीदार का नाम रिपोर्ट में रखा गया । प्रशासन संतुष्ट है कि उस गरीब के अंतिम संस्कार का खर्चा बच गया।वरना उसका पति कहाँ से उसका अंतिम संस्कार कर पाता।वह तो बेचारा खुद अपने भरण पोषण के लिए परदेश में मजदूरी करने गया है।प्रशासन चिंतित तब होता जब वह किसी सबल जाति की...
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खुद को खोया ,खुद को पाया। तब मैंने क्या ख़ाक कमाया।। हुए अरबपति श्री संत जी समझाते हैं सब है माया।। जन्मजात मैं रहा बावरा या ज्ञानी हो कर बौराया ।। कैसे बात समझ में आती कहाँ किसी ने कुछ समझाया।। अनपढ़ था तो लिख लेता था और पढ़ा तो लिखा लिखाया।। प्राण नहीं तो तैर रहा है प्राण रहे तो तैर न पाया।। जाना था जब हाथ झार कर नाहक़ इतना समय गंवाया।। Suresh sahani, kanpur
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कभी कभी सच ऐसे भी जिन्दा रखा है। बोला है पर चेहरे पर पर्दा रखा है।। तुम मेरी पहचान के लिए व्याकुल क्यों हो क्या मेरे चेहरे पर सत्य लिखा रखा है।। क्या चेहरा दर चेहरा सच बदला करता है आखिर ऐसे बदलावों में क्या रखा है।। अब उसकी बातों को सारे सच मानेंगे उसने अपना नाम तभी बाबा रखा है।। साथ चलो यदि चल न सको तो मिल कर बोलो अपना और पराया क्या फैला रखा है।।
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जहां नजदीकियां बढ़ने लगी हैं। दिलों में दूरियां बढ़ने लगी हैं।। जमीं के लोग छोटे दिख रहे हैं मेरी ऊंचाईयां बढ़ने लगी हैं।। हम अपनी खामियां देखें तो कैसे नज़र में खामियां बढ़ने लगी हैं।। हमारा ताब ढलना चाहता है इधर परछाईयाँ बढ़ने लगी है।। सम्हलने के यही दिन है मेरी जां बहुत बदनामियाँ बढ़ने लगी हैं।। हमें मालूम है तौरे-ज़माना मग़र हैरानियाँ बढ़ने लगी हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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ज़ीस्त अपनी निकल गयी आख़िर। मौत आयी थी टल गई आख़िर।। आरज़ू कब तलक जवां रहती उम्र के साथ ढल गयी आख़िर।। नौजवानी ढलान पर आकर बचते बचते फिसल गई आख़िर।। आपने भर निगाह देख लिया इक तमन्ना मचल गयी आख़िर।। हुस्न होता भले बहक जाता पर मुहब्बत सम्हल गयी आख़िर।। उम्र के इस पड़ाव पर आकर ज़िंदगानी बदल गयी आख़िर।। Suresh Sahani,kanpur
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हुस्न ज़्यादा अमीर है शायद। इश्क़ अपना फक़ीर है शायद।। आज के इश्क़ का ख़ुदा जाने अब भी रांझा की हीर है शायद।। उसको तगड़ी सज़ा मुकर्रर है आदतन वो बशीर है शायद।। रोज आता है सह के मक़तल में वो यहीं का ख़मीर है शायद।। आशिक़ी में वो जां लुटा देगा कोई ज़िद है कि पीर है शायद।।दीन पर ऐतबार करता है आदमी बेनजीर है शायद।।SS
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जहाँ ताज़िर हुकूमत में रहेंगे। यकीनन लोग गुरबत में रहेंगे।। आवाज़ें मुसलसल देते रहना नहीं तो लोग दहशत में रहेंगे।। नई नस्लें अब हमसे पूछती हैं ये कब तक ऐसी हालत में रहेंगे।। ये सोने के कफ़स तुमको मुबारक हमे बेहतर है तुरबत में रहेंगे।। हमें भी बुतपरस्ती आ न जाये अगरचे तेरी सोहबत में रहेंगे।। बगावत एक दिन होकर रहेगी कहाँ तक लोग ज़ुल्मत में रहेंगे।। भुला बैठे हो वादा करके हमको कहाँ तक हम मुहब्बत में रहेंगे।। सुरेश
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युद्ध नहीं उन्माद चाहिए। बेशक़ व्यर्थ विवाद चाहिए।। दंगे बिना चुनाव न होंगे कुछ तो पानी-खाद चाहिए।। चलो झोपडी जलवाते हैं भव्य अगर प्रासाद चाहिए।। आप को हमने ही लूटा था वोटों आशीर्वाद चाहिए।। हाय हाय करती जनता से हमको जिंदाबाद चाहिए।। जनता भूखी हैं होने दो हमको भर भर नाद चाहिए।। एफडीआई बड़ी चीज है देश किसे आज़ाद चाहिए।। सुरेश साहनी, कानपुर
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यूँ तो मुश्किल है मनाओ मान जाए तो कहो। ये न हो तो रूठ जाओ आ न जाये तो कहो।। प्यार में सब है ज़रूरी रार भी मनुहार भी प्यार के प्रतिरूप ही हैं प्यार भी तकरार भी प्यार के ही गीत गाओ वो न गाये तो कहो।। यूँ तो... तुम न चाहो देखना पर दृष्टि जाएगी वहीं राह अनचाहे कदम को ले के जाएगी वहीं खूब ना में सिर हिलाओ हो न जाये तो कहो।।यूँ तो.... सुरेश साहनी
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कौन किसका असीर है साहब सबकी अपनी ही पीर है साहब बेवफ़ा क्यों कहें किसी को हम अपना अपना ज़मीर है साहब आज बेहतर है कल ख़ुदा जाने आदमी का शरीर है साहब हुस्न होता तो बदगुमां होता इश्क़ सचमुच फकीर है साहब इसकी किस्मत में सिर्फ जलना है हाँ यही काश्मीर है साहब पास माँ बाप थे तो लगता था पास अपने ज़गीर है साहब आपका प्यार मिल सके जिससे कौन सी वो लकीर है साहब आज दिल खोल कर सितम कर लो वो ख़ुदा भी अमीर है साहेब सुरेश साहनी, कानपुर
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ठीक है चाँद का ज़लाल रहे। आगे सूरज भी है ख़याल रहे।। जा तेरी आरज़ू नहीं करता अब न तुझको कोई मलाल रहे।। हुस्न के तज़किरे रहें बेशक़ इश्क़ का ज़िक्र भी बहाल रहे।। दुश्मनी की भी उम्र इक तय हो दोस्ती कब तलक सवाल रहे।। कुछ तो वो जिम्मेदारियां समझें कुछ तो उनके भी सर बवाल रहे।। बोझ मिलकर उठे तो बेहतर है एक क्यों उम्र भर हमाल रहे।। हुस्न बीमार कब हुआ यारब इश्क़ क्यों जाके अस्पताल रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मैं इससे तो सहमत हूँ की किसी भाषा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए|लेकिन हिंदी वाले किसी का मजाक उड़ाते हैं इससे सहमत नहीं हूँ ,क्योंकि उपहास भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है,अपितु परिहास और खिलंदड़ा पन भारतीय जीवन-शैली जरुर है|हमारे देश में हिंदी के विरोध का कारण दूसरी भाषाओं का अपमान करने की मूर्खता नहीं बल्कि वोट-बैंक वाली घटिया राजनीति है|और देश भाषा के कारण नहीं बल्कि जाति-धर्म और क्षेत्र की राजनीति के कारण बँटा हुआ है|पता नहीं क्या सोचकर ये तथाकथित भाषाविद हिंदी पर संकीर्ण और नस्लवादी होने का आरोप लगा रहे हैं|हिंदी भाषियों की उदारता पर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित नहीं|यह एक प्रकार का मानसिक दमन है जो कुछ निजी हित साधन का जरिया सिद्ध करता है|मैं तो हिंदी में समस्त भाषा -बोली के आवश्यक शब्दों का स्वतः-समावेशन का समर्थक हूँ,और मुझे गर्व है की हिंदी इन गुणों से स्वयं-विभूषित है|
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गजल धूँआ धाकड़ लीन दिवाली के मानत ई ग्रीन दिवाली जादव कुर्मी बाभन सोइत सभहँक भिन्ने भीन दिवाली सभठाँ नेता एकै रंगक भारत हो की चीन दिवाली छन छन टूटै नहिएँ जूटै सीसा पाथर टीन दिवाली देशक बाहर देशक भीतर सौंसे घिनमा घीन दिवाली सभ पाँतिमे 22-22-22-22 मात्राक्रम अछि दू टा अलग-अलग लघुकेँ दीर्घ मानबाक छूट लेल गेल अछि सुझाव सादर आमंत्रित अछि #आशीषअनचिन्हार