तूफ़ां के रुख़ मोड़ रही हैं।
सांसें जो दम तोड़ रही हैं।।
जीस्त कहाँ तक इनसे लड़ती
तक़दीरें मुंहजोर रही हैं।।
हालातों की ज़ुर्रत देखो
जूना कफ़स झिंझोड़ रही हैं।।
ग़म के बोझ दबाते कैसे
जब महफिलें हंसोड़ रही है।।
टूट गए होते हम कबके
कुछ उम्मीदें जोड़ रही हैं।।
वहशत ने सीमाएं लांघी
लाजें पांव सिकोड़ रही हैं।।
अब अदीब बिकना चाहे है
आतें ऐंठ मरोड़ रही हैं।।
#सुरेशसाहनी-अदीब
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