काहे की इंसानियत काहे का कानून। बुलडोजर से हो रहा लोकतंत्र का खून।। लोकतन्त्र का खून खेलते सत्ताधारी। मजहब मजहब खेल रहे हैं अत्याचारी।। पक्षपात से रहित अतिक्रमण को सब ढाहे ऐसा हो यदि न्याय मनुजता रोये काहे।।
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एक तो कविताई का रोग ऊपर से चार मित्रों की वाह वाह । पूरी तरह बिगड़ने के लिए इतना बहुत है। जहीर देहलवी कहते हैं कि - ",कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनू के आसार और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं।।" मैं संकोच में पड़ जाता हूं जब कुछ युवा कवि मुझे अपना प्रेरणा स्रोत कहने लगते हैं।ऐसे में मुझे लगता है कि उन सभी कवि मित्रों को अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत कराया जाए। और यह उचित भी है क्योंकि मैं काव्यकला से कत्तई अनभिज्ञ हूं। यमाताराजभानसलगा और रुकनोबहर के लगभग सभी नियम कायदों से अपरिचित।मुझे लगता है कि मेरे सभी युवा मित्रों को अपने अपने शहर/तहसील के उन वरिष्ठ कवियों का सानिध्य प्राप्त करना चाहिए जिन्हें प्राचीन और अर्वाचीन काव्य साहित्य की समझ हो अथवा जो कविता के व्याकरण से भली भांति परिचित हों। ये और बात कि आजकल स्वनामधन्य गुरुओं की बाढ़ सी आयी हुई है। एक दिन शहर की एक प्रतिष्ठित गोष्ठी में एक सज्जन मिलें। वरिष्ठता के नाते मैंने उन्हें प्रणाम भी किया। वैसे मैं सभी को यथोचित सम्मान देता हूँ। और अपनी कोशिश भर पहले अभिवादन करता हूँ। तो मैंने जैसे ही उन्हें प्रणाम किया उन्होंने कह
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वफ़ा की राह वाले ही मिले हैं। हमें परवाह वाले ही मिले हैं।। जहां मिट्टी खंगाली है बशर ने वहाँ अल्लाह वाले ही मिले हैं।। कहाँ मिलते हैं सच्चे दीन वाले हमें तनख्वाह वाले ही मिले हैं।। ये दो अक्षर बचाने को ग़मों से सहारे काह वाले ही मिले हैं।। कहाँ मिलते हैं अब वो पीरो- मुर्शिद फ़क़त दरगाह वाले ही मिले हैं।। ख़ुदा वाले कहाँ दरवेश हैं अब गदाई शाह वाले ही मिले हैं।। यही हासिल है अपने साहनी का सफ़र जाँकाह वाले ही मिले हैं।। काह- तिनका दरवेश- संत ,फकीर गदाई- फकीर जाँकाह- जानलेवा , भयावह सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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वो पीपल का पेड़ देखे हैं? मझौली चौराहे पर जिसकी छाँव तले जानवर और आदमी कोई भी आता जाता यात्री, थके हारे मज़दूर और किसान पनघट से लौटती पनिहारिने और गाँव के बच्चे भी आराम कर लेते हैं और तो और उसी की छाँव में मैंने देखा है जुम्मन चाचा को नमाज़ पढ़ते हुए जिस की जड़ों में रखे शिव बाबा पर राम लग्गन पंडित जी नित्य जल चढ़ा कर परिक्रमा करते मिलते हैं। मैंने देखा है रग्घू चमार वहीँ सुहताता है और जब राम अचरज बाबा बताते हैं क्षिति जल पावक गगन समीरा पांच तत्व मिलि रचत शरीरा।। तब वह बड़े भाव से बरम बाबा को हाथ जोड़ कर परनाम करता है। वैसे तो किसिम किसिम की चिरई उप्पर बैठती हैं घोंसला बनायी हैं लेकिन उ कौवा बड़ा बदमाश है बाबा पर छिड़क दिया था रग्घू डरते डरते पोछे थे।
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जब कभी भी यक़ीन पर लिखना। कुछ न कुछ आस्तीन पर लिखना।। आज धोखा फरेब मज़हब है क्या किसी और दीन पर लिखना।। आसमां के ख़ुदा से क्या मतलब तुम जो लिखना ज़मीन पर लिखना।। जो भी आता है भूल जाओगे छोड़ दो उस हसीन पर लिखना।। खुर्दबीनों ने ज़िन्दगी दी है व्यर्थ था दूरबीन पर लिखना।। जब कलम थामना तो याद रहे क़ाफ़ लिखना तो सीन पर लिखना।। साँप से भी गिरा मैं समझूंगा तुम ने चाहा जो बीन पर लिखना।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कौन मुहब्बत के अफ़साने लिखता है। नफ़रत है दुनिया के माने लिखता है।। खुशियां जैसे दो कौड़ी की होती हैं वो ग़म को अनमोल ख़ज़ाने लिखता है।। वीरानों को ग़म की महफ़िल कहता है महफ़िल को ग़म के वीराने कहता है।। साथ रक़ीबों के वो मेरी तुर्बत पर गीत वफ़ा के मेरे साने लिखता है।। यार मेरे शायर को कोई समझाओ जब देखो दुनिया पर ताने लिखता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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भटकने की खातिर सराबें तो लाओ। मैं सो जाऊंगा पर किताबें तो लाओ।। मेरे पांव के खार कम हो न जाएं जरा बेड़ियों की जुराबें तो लाओ।। चला जाऊंगा घर खुदा के भी लेकिन मैं बेहोश हूं कुछ शराबें तो लाओ।। चलो मुझको लेकर के सूली की जानिब मैं हाज़िर हूं हंसकर अजाबें तो लाओ।। बना दो मेरे घर को दोजख चलेगा मगर ज़न्नतों की शराबें तो लाओ।। सराब/मृगतृष्णा खार/कांटा जुराब/मोजा जानिब/तरफ अजाब/काटें दोजख/नर्क जन्नत/ स्वर्ग सुरेश साहनी कानपुर
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यह एक प्रकार का भाव प्रवाह है। इस नज़्म को ग़ज़ल की शक्ल मिल गयी है। लेकिन इसे नज़्म के तौर पर ही पढ़ें। मुझको मुझमें ढूंढ रहे हो पागल हो। किस दुनिया में घूम रहे हो पागल हो।। अपने अपने दिल के अंदर बसते है तुम तो बाहर खोज रहे हो पागल हो।। पलकें मूंदो मैं दिल मे दिख जाऊँगा तुम तो बाहर देख रहे हो पागल हो।। कहते हो संसार तुम्हारा जब मैं हूँ फिर भी मुझसे रूठ रहे हो पागल हो।। तुम न रहोगे क्या तब मैं जी पाऊंगा किसको तनहा छोड़ रहे हो पागल हो।। कैसे मिलना होगा तुमसे ख्वाबों में क्यों रातों में जाग रहे हो पागल हो।। सिवा तुम्हारे कौन है मेरा दुनिया में ये सुरेश से पूछ रहे हो पागल हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अब समन्वयवादियों का चल पड़ा है कारवाँ एक दिन वह आएगा हम जीत लेंगे ये जहाँ।। हमने सब को साथ लेकर चलने की बातें करीं लोग अकेले भागते थे लेके अपनी गाड़ियां।। जाने कैसे और कितने हाई फाइ लोग थे जो कि हम पर बन के बौद्धिक सेकते थे रोटियां।। आओ मिलकर काट दें मतभेद की सारी जड़ें और मिटा डालें जो सारे फासले हैं दरमियाँ।।
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सुब्ह उठना कहाँ कमाल हुआ। मुर्ग पहले अगर हलाल हुआ।। क्या वरक इक लहू से लाल हुआ। उसकी ख़ातिर कहाँ बवाल हुआ।। दिल मुहब्बत का पायेमाल हुआ। हुस्न को कब कोई मलाल हुआ।। हुस्न के चंद दिन उरूज़ के थे क्या हुआ फिर वही जवाल हुआ।। उनसे बरसों बरस उमर पूछी हर बरस सोलवाँ ही साल हुआ।। हासिले-इश्क़ सिर्फ़ ये आया ना मिला रब ना तो विसाल हुआ।। इश्क़ करना गुनाह था गोया जो हके-हुस्न इन्फिसाल हुआ।। साहनी ने सवाल उठाए थे साहनी से ही हर सवाल हुआ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ज़िन्दगी झूठ तो नहीं फिर भी झूठ जितनी ही है हसीं फिर भी।। ताब उतना नहीं रहा जबकि प्यास बाकी है कुछ कहीं फिर भी।। दर वो काबा नहीं न काशी था हैफ़ झुकती रही जबीं फिर भी।। उस गली से तो कब के उठ आये रह गया दिल मग़र वहीं फिर भी।। जबकि उम्मीद आसमां से थी साथ देती गयी ज़मीं फिर भी।। क्या अजब है कि हम भी आशिक थे पर रहे हुस्न की तईं फिर भी।। ज़िन्दगी खुल के जी गयी जबकि हसरतें हैं कि रह गईं फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पता नहीं क्यों नहीं पसंद मुझे तुम्हारा यह बिंदास अंदाज़ तुम्हारा हर किसी से बेबाक होकर बोलना,बतियाना और तुम्हारा स्लीव कट पहन कर घर के बाहर निकलना या जीन्स पहनना उस लड़की की तरह जिसे देखकर मेरी आँखों की चमक बढ़ जाती थी जिसका शोख अंदाज मुझे पसंद था और पसन्द था उसका मुस्कुराते हुए हैल्लो कहके मुझसे हाथ मिलाना और मेरे साथ बोलना बतियाना पता नहीं क्यों पसन्द आता था उसका हर वो अंदाज जिसे शरीफ मतलब तथाकथित भले लोग अच्छा नहीं मानते क्या मैं भी हो गया हूँ तथाकथित भला आदमी यानि सो कॉल्ड शरीफ .. .... सुरेश साहनी कानपुर
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बेवज़ह के बवाल से निकलो। उस के ख़्वाबो-ख़याल से निकलो।। इश्क़ तो सीरतों पे मरता है हुस्न के ख़द-ओ-खाल से निकलो।। दिल की दुनिया उजाड़ डालेगी प्यार में एहतिमाल से निकलो।। या तो इन मुश्किलों के हल खोजो या तो हर इक सवाल से निकलो।। इश्क़ में ग़म भी पुरसुकूं होगा बस कि नफ़रत के जाल से निकलो।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
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आज और कल कन्याओं का पूजन होगा। छोटी छोटी बच्चियों को जिनमें कुछ समर्थ भी होंगी, हम उन्हें हलवा पूरी दही जलेबी खिलाकर उन के पैर धोकर कन्या पूजन की इतिश्री कर लेंगे। इसके पश्चात वर्ष भर उन कन्याओं में उभरते विकास को देख देख कर उन की स्वच्छन्दताओं पर प्रतिबंध लगाते फिरेंगे। बहुत से लोग उन कन्याओं में उभरती नारी शक्ति के स्थान पर एक पुष्ट होती युवती देख देख अन्य प्रकार की संभावनाएं तलाशते फिरेंगे। यह वहीं समाज है जहां "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता"-. जहाँ नारी की पूजा होती है,वहाँ देवताओं का निवास होता है।, का उद्घोष बड़े जोर शोर से किया जाता है किंतु आचरण विपरीत रखा जाता है। क्या हम कुछ आर्थिक रूप से कमजोर कन्याओं के वर्ष पर्यंत शिक्षा और पालन पोषण की जिम्मेदारी लेते हैं? क्या हम उन बच्चियों के पढ़ने लिखने ,खेलने कूदने और यत्र तत्र विचरण के अनुकूल वातावरण बनाने में पहल करते हैं?क्या हम अपने बच्चों को कन्या सम्मान की नैतिक शिक्षा देते हैं? शायद नहीं।और यदि नहीं तो कन्या पूजन की औपचारिकता बेमानी है। या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्
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कहने को तनहा हूँ मैं। बहुतों का अपना हूँ मैं।। झरने सा गिरता हूँ मैं। बादल बन उठता हूँ मैं।। जीवन भर का सोया मन मरघट में जागा हूँ मैं।। सर्व सुलभ हूँ मैं फिर भी कितनों का सपना हूँ मैं।। उतना नहीं मुकम्मल हूँ जैसा हूँ जितना हूँ मैं।। भीड़ नहीं ये दुनिया है इसका ही हिस्सा हूँ मैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हुस्न ने फिर भी एक घर पाया। इश्क़ लेकिन कहाँ उबर पाया।। उस को दिल ने जिधर जिधर देखा दिल को मैंने उधर उधर पाया।। ज़ुल्फ़ बिखरी सँवर ही जाती है दिल उजड़ कर न फिर सँवर पाया।। उस ख़ुदा की तलाश आसां थी क्या मैं ख़ुद को तलाश कर पाया।। सब तो हैं कब्रगाह गांवों की आपने क्या कोई शहर पाया।। कर्ज़ हैं वालिदैन के मुझ पर मैं जिन्हें आजतक न भर पाया।। साहनी किस मलाल के चलते चैन से जी सका न मर पाया।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
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जला है आज फिर बाजार बढ़िया। चलेगा दल का कारोबार बढ़िया।। हमारे वोट नफरत से बढ़ेंगे बताओ किस तरह है प्यार बढ़िया।। बताकर झूठ को सच छाप डाले वही है आजकल अखबार बढ़िया।। दिलों में प्यार बढ़ना ठीक है क्या उठाओ मज़हबी दीवार बढ़िया।। लड़ो लूटो जला डालो दुकानें यही है आज कल रुजगार बढ़िया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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चौंक उठता हूँ सिहर जाता हूँ। चलते चलते मैं ठहर जाता हूँ।। तुम नहीं हो तो यही दीवारें काटती हैं जो मैं घर जाता हूं।। दिन गुज़र जाता है जैसे तैसे रात आँखों में गुज़र जाता हूँ।। जब संवरता हूँ तेरी बातों से तेरी यादों से बिखर जाता हूँ।। ध्यान है घर से निकलता तो हूँ ये नहीं ध्यान किधर जाता हूँ।। सुरेश साहनी ,
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तोड़ हीरामन अगर तन पींजरा है। जो बचा है वह तो केवल मकबरा है।। हारना है हार ले इक कक्ष अपना तोल पंखों को फुला ले वक्ष अपना देख इस आकाश का क्या दायरा है।। मोह या संकोच में मत पड़ निकल ले चीथड़ों को मुक्ति दे काया बदल ले ब्रम्ह का बाज़ार कपड़ों से भरा है।। है विविध मल मूत्र का आगार यह तन मुग्ध होकर भूल मत हरि से समर्पण और इस जर्जर भवन में क्या धरा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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शब्द प्रकृति है शब्द विष्णु है शब्द ब्रम्ह है पर सीमित है यह अपनी क्षमताओं से भी भावों परिभाषाओं से भी इनसे भी पहले अक्षर है अक्षर ही किंचित ईश्वर है ईश्वर भी तो निराकार है अक्षर से स्वर हैं व्यंजन हैं स्वर ऊर्जा है व्यन्जन द्रव्य है दोनो की युति शिव शक्ति है शिव शक्ति ही परम ब्रम्ह है परमब्रह्म ही स्वयम सृष्टि है स्वयम सृष्टि के चरणों से ही अगणित धारायें निकली हैं धाराओं के पंथ आज हम धर्म समझ कर भृमित दिशा ले धाराओं में बह जाते हैं और स्वयम को श्रेष्ठ समझ कर जाने क्या क्या कह जाते हैं हमें समझना होगा यह हम केवल कवि हैं ब्रम्ह नहीं हैं हमसे भी पहले अक्षर थे हम न रहेंगे, अक्षर होंगे.... सुरेश साहनी
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ये महज़ दर्द की तर्जुमानी नहीं। रंज़ोग़म ही ग़ज़ल के मआनी नहीं।। इतनी रोशन जबीं है ग़ज़ल दोस्तों नूर का इसके कोई भी सानी नहीं।। इसकी तारीख़ है खूबसूरत बहुत आंसुओं से भरी ये कहानी नहीं।। मौत को ज़िन्दगी में बदलती है ये राह देती है ये बदगुमानी नहीं।। खूबसूरत है इसकी ठहर चाल सब है हवा में भी ऐसी रवानी नहीं।। ये ज़मीं पर जुबां है ज़मीं की तो क्या आसमानी से कम आसमानी नहीं।। मीर संजर ओ ग़ालिब सभी ने कहा ये महज़ साहनी की जुबानी नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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ख़्वाब जागे टूटने की हद तलक। हम भी सोये जागने की हद तलक।। मेरे हरजाई में कुछ तो बात थी याद आया भूलने की हद तलक।। यकबयक जाना क़यामत ही तो है रूठते पर रूठने की हद तलक।। प्यार को अन्जाम देना था मुझे बात डाली ब्याहने की हद तलक।। अक्स दर्दे-दिल के उभरे ही नहीं हमने देखा आइने की हद तलक।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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पूछती है ये ज़िन्दगी अब भी। क्या तुझे चाह है मेरी अब भी।। झोलियों भर दिए हैं ग़म तुझको क्या तुझे है कोई कमी अब भी।। सूख कर दिल हुआ कोई सहरा सिर्फ़ आंखों में है नमी अब भी।। हैफ़ मेरे ही साथ रहता है कोई तुम जैसा अजनबी अब भी।। ढूंढ़ता है तुम्हें ये आइनां दिल की आदत नहीं गयी अब भी।। अब भी यादों के ज़ख़्म देते हो इसमें मिलती है क्या खुशी अब भी।। तुम गये तो चली गयी कविता यूँ तो लिखता है साहनी अब भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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सब कहते हैं सुख ढकने को मैंने दर्द उधार लिया है। जबकि पीड़ाओं ने खुद को दब कर और उभार लिया है।। उसे खुशी देने की ख़ातिर खुद को कुछ इस कदर छला है मेरे हिस्से का सूरज भी उसके हिस्से में निकला है कह सकते हो मैंने निज पद खुद कुठार पर मार लिया है।। साथ चली कुछ दिन छाया सी फिर बदली बन मुझे ढक लिया मेरा बन कर अपनाया फिर मुझको मुझसे अलग कर दिया मेरे निश्छल मन ने हँस कर यह छल भी स्वीकार लिया है।। चाँद जला है सर के ऊपर सूरज ने छायाएं दी हैं सूखे दृग रहकर सहरा ने उस को जल धाराएं दी हैं उसने कब एहसान किये हैं मैंने कब उपकार लिया है।। जीत जीत कर गही पराजय हार हार कर मालायित तुम मैं हूँ नित्य हलाहल पाई अमृत घट के लालायित तुम मैं हूँ जन्म मरण से ऊपर घट घट गरल उतार लिया है।।
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एक अपूर्ण ग़ज़ल थे उल्फ़त के मारे हम। दिल के हाथों हारे हम।। फ़ितरत के ध्रुव तारे हम। किस्मत से बंजारे हम।। सूरज चन्दा तारे हम। अम्मा के थे सारे हम।। तब जितने थे न्यारे हम। अब उतने बेचारे हम।। गंगा जल से प्यारे हम। आज हुए क्यों खारे हम।। घर के राजदुलारे हम। जाते किसके द्वारे हम।। उल्फ़त के उजियारे हम। फिर भी रहे अन्हारे हम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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जबकि घर जैसा घर नहीं लगता। फिर सफ़र भी सफ़र नहीं लगता।। जंग इक ज़िन्दगी से क्या लड़ ली अब किसी से भी डर नहीं लगता।। उसने देखा अजीब नज़रों से क्या मैं सचमुच बशर नहीं लगता।। कोई दैरोहरम हुआ गोया मयकदा सच मे घर नहीं लगता।। हुस्न तेरा लिहाज़ है वरना इस ज़माने से डर नहीं लगता।। इस जगह लोग प्यार करते हैं ये कहीं से शहर नहीं लगता।। ऐंठ कर इश्क़ साहनी इसमें कोई ज़ेरोज़बर नहीं लगता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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वक़्त को बेरहम नहीं कहते। हर किसी को सनम नहीं कहते।। आशिक़ी में भरम तो होते हैं आशिकी को भरम नहीं कहते।। क्या हुआ कुछ हमें बताओगे ज़ख्म दिल के सितम नहीं कहते।। मुस्कुरा कर नज़र झुका लेना यार इसको रहम नहीं कहते।। वो मसीहा है इस ज़माने का सब को कहने दो हम नहीं कहते।। आपके ग़म हैं इश्क़ के हासिल और हासिल को ग़म नहीं कहते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इस ग़ज़ल पर आपकी नज़रे-इनायत चाहूंगा। समाअत फरमायें। ******* कितना रोयें हम कितनी फरियाद करें। हद होती है दिल कितना नाशाद करें।। कोई भंवरा जाता है तो जाने दो हम दिल का गुलशन क्यों कर बर्बाद करें।। उन्हें उरीयाँ होने में जब उज़्र नहीं हम बापर्दा जलसे क्यों मुनकाद करें।। चाँद सितारों के पीछे क्यों भागे हम क्यों ना ख़ुद में ही तारा इज़ाद करें।। एक गया तो और कई आ जाएंगे उनसे प्यार मुहब्बत ईद मिलाद करें।। कौन किसी की ख़ातिर रोता है ऐसी ख़्वाब ख़्याली से ख़ुद को आज़ाद करें।। दिल का मरकज़ हम दिल्ली ही रक्खेंगे क्यूँ दिल को लाहौर फैसलाबाद करें।। सुरेश साहनी, कानपुर उरीयाँ / अनावृत उज़्र/ आपत्ति मुनकाद/आयोजन मरकज़/ केंद्र इज़ाद/ खोज
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पगडंडी तक तो रहे अपनेपन के भाव। पक्की सड़कों ने किए दूर हृदय से गाँव।। शीतल छाया गाँव मे थी पुरखों के पास। एसी कूलर में मिले हैं जलते एहसास।। टीवी एसी फ्रीज क्लब बंगला मोटरकार। सब साधन आराम के फिर भी वे बीमार।। किचन मॉड्यूलर में नहीं मिलते वे एहसास। कम संसाधन में सही थे जो माँ के पास।। बढ़ जाती थी जिस तरह सहज भूख औ प्यास। फुँकनी चूल्हे के सिवा क्या था माँ के पास ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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लिखिए पर कुछ मानी भी हो। पढ़ने में आसानी भी हो।। मक़्ता भी हो मतला भी हो बेहतर ऊला सानी भी हो।। शेर बहर से बाहर ना हों उनमें एक रवानी भी हो।। महफ़िल भीड़ न शोर शराबा खलवत हो वीरानी भी हो।। पा लेना ही इश्क़ नहीं है उल्फ़त में क़ुरबानी भी हो।। थोड़ी सी हो ख़्वाबखयाली और हक़ीक़तख़्वानी भी हो।। ताब भले हो रुख पर कितना पर आंखों में पानी भी हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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उम्र ने आज़मा लिया मुझको। वक़्त ने भी सता लिया मुझको।। ज़िन्दगी से तो बारहा रूठा दिल ने अक्सर मना लिया मुझको।। मयकदे में गया था मय पीने मयकदे ने ही खा लिया मुझको।। और तुमने भी कब सुना दिल से सिर्फ़ जी भर सुना लिया मुझको।। लाश से अपनी दब रहा था मैं पर कज़ा ने उठा लिया मुझको।। मुझसे शायद ख़फ़ा न था मौला और कैसे बुला लिया मुझको।। हुस्न भटका किया नज़ाकत में साहनी ने तो पा लिया मुझको।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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विप्र धेनु सुर सन्त धरा को सुख अविराम दिया।। उस जननी को नमन जगत को जिस ने राम दिया।। हुए अवतरित जिस आँचल में उसको कोटि नमन धन्य धन्य कौशल्या माई तुमको सतत नमन दिया राम को जन्म नृपति को चारों धाम दिया।। जिस माँ ने ममता के टुकड़े होने नहीं दिए राम काज हित जिसने दो दो बेटे सौंप दिये। पल दो पल हित नहीं अहर्निश आठो याम दिया।। उन्हें नीति से सकल जगत के त्रास मिटाना था कड़ी साधना से सुत को श्रीराम बनाना था यूँही नहीं था नृप ने उनको आसन वाम दिया।। मातु सरस्वति का आग्रह माँ टाल नहीं पायी जग को लगा हुई रानी से कितनी अधमाई हुई कलंकित स्वयं किन्तु रघुकुल को नाम दिया।। कभी कभी निज सुत को मायें आँख दिखाती हैं डांट डपट बालक को सच्ची राह दिखाती हैं इसी ताड़ना को ने वही किया माँ ने
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पंचवटी में राम बिराजे कमल नयन सुखधाम विराजे आठ प्रहर चैतन्य निरंतर जहां लखन निष्काम विराजे वीराने आबाद हुए यूं जंगल में ज्यों ग्राम विराजे सोहे सीय संग रघुवर ज्यों साथ कोटि रति काम विराजे सहज लब्ध है चहुं दिसि मंगल जहां राम का नाम विराजे कण कण तीरथ हुआ प्रतिष्ठित जब तीरथ में धाम बिराजे सुरेश साहनी कानपुर
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सूर सूर हैं चन्दर तुलसी। भान ज्ञान रत्नाकर तुलसी।। राम नाम को ओढ़ लपेटे राम नाम की चादर तुलसी।। रोम रोम तन मन अन्तस् तक भरी नाम की गागर तुलसी।। राम ग्रन्थ अवतार हुआ जब हुलसी माँ सुत पाकर तुलसी।। हुए राम घर घर स्थापित सदा प्रतिष्ठित घर घर तुलसी।। तुलसी जैसे पूजी जाती पाते वैसा आदर तुलसी।। हे कवि कुल सिरमौर गुसाईं कर लो अपना चाकर तुलसी।। सुरेश साहनी, कानपुर
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धम्म एहसास को हम भूल गए हैं शायद अपने हर खास को हम भूल गए हैं शायद आज बच्चों को नहीं याद हैं सम्राट अशोक अपने इतिहास को हम भूल गए हैं शायद।। वह सम्राट अशोक हैं मानवता की शान।। जिनके शासन में रहा तिगुना हिंदुस्तान।। दक्षिण में मैसूर तक उत्तर सिंचुवान। पूरब में वर्मा तलक पश्चिम में तेहरान।। एक तिहाई विश्व तक गूंजा जिसका नाम। स्वयं बुद्ध अवतार को सौ सौ बार प्रणाम।। जिनके शासन में रहा कोई रोग न शोक। इसीलिए तो देवप्रिय घोषित हुए अशोक।।
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हुस्न माया है जिस्म फानी है। फिर गृहस्थी का क्या मआनी है।। मौत माना कि सबको आनी है। जीस्त क्या सच में बेमआनी है।। फिर फ़साने किसे सुनाते हो जीस्त के बाद क्या कहानी है।। क्या करेंगे बहिश्त में पीकर हर खुशी जब यहीं मनानी है।। हूर, जन्नत,शराब की नहरें शेख़ कुछ तो ग़लत बयानी है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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रउरे बिना लागे नहीं मनवा हो रामा आवS ना सजनवा। सूना लागे सगरो भवनवा हो रामा आवS ना सजनवा।। नीक नाही लागे बाबा अंगना दुवरवा लोरवा में रुके नाही पावेला कजरवा कईसे कईसे कटलीं फगुनवा हो रामा आवS ना सजनवा।। हमरा के छोड़ी सइयाँ भइलें कलकतिया केसे कहीं चढ़ली उमिर के साँसतिया टूटि जाला चोली के बन्धनवा हो रामा आवS ना सजनवा।। रउरे बिना लागे नहीं मनवा हो रामा आवS ना सजनवा। चैती गीत - सुरेश साहनी
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जग नदिया के इस पार रहो। बेहतर है अपने द्वार रहो।। या अपमानों का विष पीकर शिव बनने को तैयार रहो।। छुप कर काटेंगे अश्वसेन तुम लाख परीक्षित बने रहो हैं जन्म जन्म के वे अशिष्ट तुम बेशक़ शिक्षित बने रहो या फणिधर भोले बन इनकी क्षण क्षण सुनते फुफकार रहो------ फिर अन्य किसी की महफ़िल में अवमानित हो क्यों रोते हो फिर तिरस्कार या मान मिले विचलित प्रमुदित क्यो होते हो इससे बेहतर है अपने घर ही रहो भले बेकार रहो------ साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
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अगर सचमुच वतन की फ़िक़्र होती। तो क्या फिर जानो-तन की फ़िक़्र होती।। उसे तर्ज़े कहन की फ़िक़्र होती। अगर उसमें सुखन की फ़िक़्र होती।। अगर हम लाश होते तो हमें भी नए इक पैरहन की फ़िक़्र होती ।। हमारा पासवां सैयाद ही है उसे वरना चमन की फ़िक़्र होती।। अगर दीवारों-दर पहचानते तो हमें भी अन्जुमन की फ़िक़्र होती।। अगर होता अदूँ में फ़िक़्र का फन यक़ीनन उसको फन की फ़िक़्र होती।। अदब आता तो बेशक़ साहनी को ज़माने के चलन की फ़िक़्र होती।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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तुम्हें कितने बहाने आ गये हैं। जुबाँ पर सौ फ़साने आ गये हैं ।। के लहजे में बदल से लग रहा है कहानी में फलाने आ गये हैं।। कभी इनसे कभी उनसे मुहब्बत ख़ुदारा क्या ज़माने आ गये हैं।। मुहब्बत क्या इसे इक रस्म कहिये रवादारी निभाने आ गये हैं।। क़यामत हुस्न और क़ातिल अदायें कोई मक़तल में याने आ गये हैं।। सुरेश साहनी
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दिल लगाने के लिए तेरी गली आया था। ज़ख़्म खाने के लिए तेरी गली आया था।। जां लुटाने के लिए तेरी गली आया था। तुझको पाने के लिए तेरी गली आया था।। मैं तो आया था तेरा हाथ मुझे मिल जाये कब ख़ज़ाने के लिए तेरी गली आया था।। दिल से चाहो तो ख़ुदाई भी मदद करती है ये बताने के लिए तेरी गली आया था ।। तुझसे मतलब है फ़क़त तेरी रज़ा से निस्बत कब ज़माने के लिए तेरी गली आया था।। तू अगर रूठ भी जाता तो मुनासिब होता मैं मनाने के लिए तेरी गली आया था।। मैं किसी और के कहने में भला क्या आता दिल दीवाने के लिए तेरी गली आया था।। ज़िन्दगी तूने मुझे क्यों दी ग़मों की दौलत ग़म मिटाने के लिए तेरी गली आया था।। साहनी मयकदे जाता तो सम्हल जाता पर डगमगाने के लिए तेरी गली आया था।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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कौन किससे कहे बेवफा कौन है कह रहे हैं सभी पर सफा कौन है आज भी तू ही तू है मेरी ज़ीस्त में पर नज़र में तेरी दूसरा कौन है जिसने तुमसे कहा हम बुरे हैं तो हैं पर पता तो चले वो भला कौन है कौन है हम भी देखें बराबर मेरे यां मुक़ाबिल मेरे आईना कौन है सरबुलन्दी को लेकर परेशान क्यों सब हैं बौने तो कद नापता कौन है पास मेरे मुहब्बत की तलवार है आज मुझसे बड़ा सिरफिरा कौन है।। सुरेशसाहनी
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रात बदली रही चाँद करता भी क्या। मन मचलता रहा और करता भी क्या।। रात ढलती रही वस्ल टलता रहा बस फिसलता रहा वक्त करता भी क्या।। मुन्तज़िर दिल के एहसास को क्या कहें लुत्फ बढ़ता रहा हैफ़ करता भी क्या।। हिज्र की गर्मियां जां जलाती रही ज़िस्म जलता रहा हाय करता भी क्या।। फिर सुबह हो गयी चाँद भी छुप गया यूँ तड़पता रहा इश्क़ करता भी क्या।। साहनी
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बेशक हमको ही सब करना चहिए था। मर तो रहे हैं कितना मरना चहिए था।। मौला से , शैतां से रहती दुनिया से क्या सबसे हमको ही डरना चहिए था।। चढ़ कर आदमजाद क़मर तक जा पहुंचा रब को भी इक रोज उतरना चहिए था।। मालिक तेरी भी कुछ जिम्मेदारी थी क्या ख़ाली इंसान सुधरना चहिए था।। आसमान वाले हम जिसमें जीते हैं इस दोजख से तुझे गुजरना चहिए था।। सुरेश साहनी कानपुर
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इश्क़ को सिलसिला मिले तब तो। हुस्न से भी रजा मिले तब तो।। दर्दे-दिल की दवा मिले तब तो। उस पे उनकी दुआ मिले तब तो।। माँगने से मिली तो क्या मतलब दिल से दादे-वफ़ा मिले तब तो।। दिल को तस्लीम है क़यामत भी वो अभी उड़ के आ मिले तब तो।। कैसे माने कि आप दिल मे हैं अपने दिल का पता मिले तब तो।। शेर क्या हम नई ग़ज़ल कह दें पर नया मजमुआ मिले तब तो।। साहनी भी पनाह ले लेगा आपका आसरा मिले तब तो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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कौन अब इंसान होना चाहता है। आदमी भगवान होना चाहता है।। सब्र की तालीम अपने पास रखिये साबरी सुल्तान होना चाहता है।। आ चुके सब ज़ेरोबम इस ज़िन्दगी के अब सफ़र आसान होना चाहता है।। भक्ति वाले छन्द रसमय हों कहाँ से क्या कोई रसखान होना चाहता है।। हुस्न की नादानियाँ तस्लीम करके इश्क़ भी नादान होना चाहता है।। बेशऊर आने लगे हैं जब से मयकश मयकदा वीरान होना चाहता है।। क्यों फ़क़ीरी ढो रहे हो साहनी जब हर कोई धनवान होना चाहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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वसुधैव कुटुम्बकम।सुनने में कितना अच्छा लगता है।किंतु जब इस सूक्तवाक्य के मानने वाले लोग ब्राम्हण ,क्षत्रिय, वैश्य शुद्र अथवा अन्यान्य जातियों के समागम करते दिखाई पड़ते हैं तो आत्मिक कष्ट भी होता है।यह दायरा यहीं छोटा नहीं होता।जातियों में भी उपजातियों के सम्मेलन आहूत किये जाते हैं। और हर सम्मेलन की एक ही भाव कि उस सम्मेलन में आहूत जाती/उपजाति का अन्य सबल जातियों या सरकारों ने अब तक शोषण किया है । अब सम्बंधित सम्मेलन के आयोजक ही उन्हें उनके अधिकार दिलाएंगे।या अधिकार दिलवाने के संकल्प लेते हैं, आदि आदि। फिर उनमें से कुछ जाति/उपजाति के नाम पर राजनैतिक दल भी बना कर स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन जाते हैं। लेकिन संकीर्णता तो संकीर्णता है।इस भाव से ग्रसित व्यक्ति या समाज अपने समाज और परिवार के प्रति भी उदार अथवा व्यापक दृष्टिकोण नही रखता। अभी कुछ दिन पहले मेरे वृहद परिवार के सदस्य किसी बड़े महानगर में मिले। किसी मित्र से बातचीत के क्रम में मैंने बताया कि वह मेरे अनुज हैं।मेरे चाचा जी के सुपुत्र हैं। पर उन्होंने मेरे व्यापक दृष्टिकोण पर वहीं पानी फेर दिया जब उन्होंने मित्र को बताया कि भैय
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ऐसा लगता है कि आने वाले समय मे सरकार नागरिकों के लिए विभिन्न आर्थिक और सामाजिक स्तर के ब्लॉक या वर्ग बनाने की कोशिश में हैं। आर्थिक असमानताओं की इस अवस्था मे निम्न श्रेणी के नागरिक को लगभग सभी मूलभूत आवश्यकताओं के लिये टैक्स देना आवश्यक होगा और इस व्यवस्था में उसे किसी भी प्रकार की रियायत नहीं मिलेगी। और अति उच्च आय वर्ग के लोगों को सभी तरह की सब्सिडीज , रियायतें ,ऋण सुविधाएँ और दोहरी तेहरी नागरिकता या मल्टीकन्ट्री सिटिजनशिप भी उपलब्ध रहेंगी। और सबसे बड़ी बात उच्चस्तरीय प्रशासनिक सेवाओं और समितियों में इनको कोलोजियम और लेटरल इंट्री भी मिला करेगी। यानी बढ़ते आर्थिक असमानता के कारण देश के 90प्रतिशत नागरिक आर्थिक बाड़ों या उन अदृश्य नाकाबंदी के शिकार होंगे ,जिनमें उसके मौलिक अधिकार नहीं के बराबर रह जाएंगे। सबसे बड़ी बात ऐसी व्यवस्था किसी मोनार्की से भी खतरनाक हो सकती है।क्योंकि इसमें सबसे पहले टॉर्च बीयरर्स,अव्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाने वाले , फिर निष्पक्ष पत्रकार फिर विपक्ष की आवाज को दबाया जाता है। और जब विपक्ष समाप्त हो जाये तो इकनोमिक ब्लॉक के नियम सख्ती से लागू किये जाते हैं। आप
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मयकशी में हिसाब क्या रखते। क्या बचाते शराब क्या रखते।। हुस्न ही बेनकाब आया था हम भी आशिक थे ताब क्या रखते।। क्या शबे-वस्ल रोज आती है तिशनालब इज़्तराब क्या रखते।। हम तो ख़ुद चैन से न सो पाये उनकी पलकों पे ख़्वाब क्या रखते।। गुल नहीं है कोइ भी उस जैसा नाम उस का गुलाब क्या रखते।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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कैसी प्रीत निभाई तुमने। हर सूं की रुसवाई तुमने।। मनमन्दिर की पावनता को कितनी ठेस लगाई तुमने।। दिल के सनमकदे में गोया महफ़िल तक लगवाई तुमने।। राधे तुम ही रोक न् पाए कुछ तो करी ढिलाई तुमने।। ख्वाबों में जमुना तट आकर ब्रज की याद दिलाई तुमने।। अपना ही मंदिर तोड़ा है धोखे में हरजाई तुमने।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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मैं भी क़िरदार था कहानी में। वो मेरा प्यार था कहानी में।। उसने दिल मे उसे जगह दे दी क्या वो हक़दार था कहानी में।। सिर्फ़ सच बोलने की आदत से मैं गुनहगार था कहानी में।। छोड़ना साथ यकबयक उसका इक वही यार था कहानी में।। वो मिलेगा कभी तो पूछूँगा क्या ये दरकार था कहानी में।। उसने मुझको ही कर दिया खारिज़ क्या मैं दीवार था कहानी में।। साहनी फिर कहाँ उबर पाया ग़म का अम्बार था कहानी में।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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अमां तुम किसको ताना दे रहे हो। किसे जाकर उलहना दे रहे हो।। गदा को आस्ताना दे रहे हो। फकीरों को ठिकाना दे रहे हो।। कोई औक़ाफ़ है मेरी कमाई जताते हो ख़ज़ाना दे रहे हो।। अमां सरकार तुम मालिक नहीं हो कि अपने घर से खाना दे रहे हो।। न बोलो तुम चलाते हो ख़ुदाई किसे तुम आबोदाना दे रहे हो।। ख़ुदा भी क्यों रहे बूढ़े हृदय में अब उसको घर पुराना दे रहे हो।। ख़ुदा बेघर कहाँ है साहनी जी ये किसको आशियाना दे रहे हो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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साला बिना ससुराल कहाँ और साली बिना न हँसी न ठिठोली साली की मीठी सी बोली के आगे घरैतिन लागे है नीम निम्बोली साला बिना पकवान सुहाये ना साली बगैर सुहाए न होली आई गए ससुराल के लोग तो सोहे कहाँ होरियारों की टोली।। जैसे छछूंदर आवत जाति है तैसे ही वे छुछुवाय रहे हैं टेसू गुलाल अबीर जुटाने को सांझ से ही अकुलाय रहे हैं होली पे साली के आने की बात से फुले नहीं वे समाय रहे हैं सर की सफेदी छुपाने के लाने वो डाई खिजाब लगाय रहे हैं।। लागत है अस पूरी की पूरी अमराई बऊराय गयी है। महुवारी मह मह महके है फुलवारी भी फुलाय गयी है।। हम घर में हैं बाहर होरी में पूज के आग धराय गयी है कैसे बचें हम उनकी सहेली आय के रंग लगाय गयी है।। होली कहाँ जो न् खाये लठा ब्रजनारी सों और भिजाये न चोली कान्हा के रंग रँगी चुनरी अब दूसरो रंग अनंग न डारो निर्गुण ज्ञान की चाह नहीं गुणग्राही पे निर्गुण रंग न डारो रति काम विदेह हुए जिससे उस रास में काम प्रसंग न डारो प्रेम के रंग में अंग रँग्यो है छेड़ के रंग में भंग न डारो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरा किरदार मुझसे डर रहा है। कोई मुझमें अज़ीयत भर रहा है।। मेरे साये मेरे कद से बड़े हैं कोई माज़ी से रोशन कर रहा है।। मेरी यादों यहाँ से लौट जाओ कहाँ तक काफिला रहबर रहा है।। बुलाती हैं हमें भी कहकशांएँ मेरा परवाज़ हरदम सर रहा है।। मेरे हाथों में मरहम है ,शिफ़ा भी तुम्हारे हाथ मे नश्तर रहा है।। ज़फा के पल फ़क़त दो चार होंगे मुहब्बत से सबब अक्सर रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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हमारे प्यार की पहली घड़ी को याद करना। मेरी चाहत मेरी दीवानगी को याद करना।। कहीं रहना मेरी इतनी दुआ है कभी ये ना समझना दूरियां हैं अकेलापन तुम्हे होने न पाये तुम्हारे साथ मेरी दास्ताँ है कभी तुमको लगे मैं ही गलत था तुम सही हो तो निज आँखों से बहती पावनी को याद करना।। तुम्हे चाहा चलो मेरी खता थी मेरी तकदीर ही मुझसे खफ़ा थी तुम्ही बढ़ कर के हमको थाम लेते तुम्हारे पांव में कब बेड़ियाँ थी कभी राहों में जब तुम धूप से होना परेशां हमारे प्यार की मधुयामिनी को याद करना।। कहाँ जाओगे इस दिल से निकलकर हमारा साथ हैं क्या इस जनम भर कहीं भी यदि तुम्हे ठोकर लगे तो बढ़ कर थाम लेंगे हम वहीं पर भटकना मत न घबराना कभी मंजिल से पहले किसी भी मोड़ पर अनुगामिनी को याद करना।। जहाँ राधा वहीँ पर श्याम होंगे जहाँ सीता मिलेंगी राम होंगे अगर आगाज़ दिल से हो गया है यकीनन खुशनुमा अंजाम होंगे जो फूटी थी कभी समवेत स्वर में रासवन में वो बन्शी और उसकी रागिनी को याद करना।। सुरेश साहनी,कानपुर
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तुम सखी बनकर मिलो तो तुम सहज होकर मिलो तो हर अहम प्रिय दूर रख कर स्वत्व को खोकर मिलो तो...... चार दिन की ज़िंदगी मे हमने अवगुण्ठन न खोले चाह कर मैं कह न् पाया संकुचनवश तुम न बोले द्वार मनमंदिर के खोलो बन के सुख आगर मिलो तो..... क्या है राधा कृष्ण क्या है रास क्या है जानती हो प्रेम क्या है योग क्या है सच कहो पहचानती हो तुम मिलो तो गांव का ग्वाला बने नागर मिलो तो...... उम्र के इस मोड़ पर भी तुम नदी के उस किनारे आज मौका है बुलाते प्रेम की गंगा के धारे फागुनी संदर्भ लेकर आज इस तट पर मिलो तो........ सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ऋग्वेद में दो पक्षियों की कथा है। सुपर्ण पक्षी। दोनों एक ही डाल पर बैठे हैं। एक अमृत फल खाता है। दूसरा उसे फल खाते देखता है और प्रसन्न होता है। उसे लगता है कि वह ख़ुद फल खा रहा है। जितनी तृप्ति पहले पक्षी को फल खाने से मिल रही है, उतनी ही तृप्ति दूसरे को उसे फल खाते देखने से मिल रही है। दोनों के पास ही खाने की तृप्ति है। खाने पर भी खाने की तृप्ति और देखने पर भी खाने की तृप्ति। इसे ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखायौ’ कहा गया है। साभार-गीत चतुर्वेदी
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मैं अपने छोटे होने की हद तक छोटा हूँ। ख़ुद्दारी में आसमान जितना ही ऊँचा हूँ।। बेंत लचक कर नमन किया करता है नदिया को नदी और नीचे बहकर दिखलाती दुनिया को मैं भी नदिया की धारा सा बहता रहता हूँ।। नभ जितने ऊँचे होकर भी नग हैं धरती पर सागर को गहराई पर है दम्भ न रत्ती भर मैं भी जो हूँ वह रहने की कोशिश करता हूँ।। मेरा हासिल उनके हासिल यह तुलना ही बेमानी है वे सम्पन्न विरासत से ,गुरबत अपनी रजधानी है वे कुछ खोने से डरते हैं मैं जीवन जीता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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नौजवानों को ग़ज़ल क्या मालूम। इन दीवानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। सारे ज़रदार यहीं समझे हैं इन किसानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। धूप में तप के ग़ज़ल निखरी है सायबानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। किनसे फरियादे-मेहर करते हो बदगुमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। दर्द को सिर्फ़ ज़मीं पढ़ती है आसमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। इसमें इमानो-वफ़ा भी चहिए बेइमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। इश्क़ की हद है असल हुस्ने ग़ज़ल शादमानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। साफ लफ़्ज़ों में बगावत है ग़ज़ल हुक्मरानों को ग़ज़ल क्या मालूम।। सुरेश साहनी, कानपुर
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हम चलें तो कारवां लेकर चलें। साथ अपने आसमां लेकर चलें।। उँगलियाँ उठने से बेहतर है कि हम साथ जख़्मों के निशां लेकर चलें।। कल ख़ुदा पूछे तो हम बतला सकें कुछ तो आमाले-ज़हाँ लेकर चलें।। इस ज़हाँ में पुरसुकूँ कुछ भी नहीं तुम कहो तुमको कहाँ लेकर चलें।। हमजुबाँ समझे न मेरी बात तो साथ हम कितनी ज़ुबाँ लेकर चलें।। बहरे कानों से करें फरियाद जब क्यों न कुछ संगे-फुगां लेकर चले।। मौत आनी है तो आ ही जायेगी लाख रहबर पासवां लेकर चलें।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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प्यार के कुछ पल मिले तो रात में। फूल मुरझाये खिले तो रात में।। वो सुबह से शाम तक संग में रही फिर भी हम उससे मिले तो रात में।। चौका बासन भजन भोजन सब दिए कुछ किये शिकवे गिले तो रात में।। फागुनी मस्ती बही भर दोपहर अधर पत्तों से हिले तो रात में।। द्वार आँगन कोठरी से देहरी कुछ शिथिल पड़ते किले तो रात में सुरेशसाहनी, कानपुर
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बेशक ऐसा मंजर होगा। सबकी आंखों में डर होगा।। फिर उसके अहबाब बढ़े हैं फिर ईसा सूली पर होगा।। उम्मीदें वो भी सराय में इक दिन तो अपना घर होगा।। दौलत होगी चैन न होगा नींद न होगी बिस्तर होगा।। बेटा हो जब आप बराबर बेटा बनना बेहतर होगा।। प्रेम गली कितनी संकरी है अंदाज़ा तो चलकर होगा।। पत्थर कब सुनता है प्यारे ऐसा ही वो ईश्वर होगा।। दबे पाँव आती है चलकर मौत को भी कोई डर होगा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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फाग चलत बा फागुन में रंग जमत बा फागुन में देवरो दूसर खोजत बा घात करत बा फागुन में भैया बाड़े दुबई में गांव बहत बा फागुन में तुहउँ अईबू सावन ले देहिं जरत बा फागुन में अमवो तक बौराईल बा सब गमकत बा फागुन में रउरे अइसे ताकी जिन मन बहकत बा फागुन में देहिं थकल मन मातल बा भर असकत बा फागुन में।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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होरी है मस्तन की होरी होरी है निरे अलमस्तन की होरी सब रँगन की होरी होरी है अबीर गुलालन की होरी है पढ़े निपढ़े सब की होरी है अदीब गँवारन की होरी नहिं सन्त असन्तन की होरी है निरे होरियारन की होरी है तो मधुबन है हर सूं होरी है तो यौवन है हर सूं यौवन है जो प्रेम में भीगा हुआ तब होरी है फागुन है हर सू होरी है तो गोकुल धाम है मन ब्रज है वृंदावन है हर सूं होरी है तो राधा दिखे हर सुं होरी है तो मोहन है हर सूं।। बड़े बूढ़े लगे लरिका जइसे अरु जेठ निगाह से घात करे है अब सास ननद परिहास करे अरु देवर काम को मात करे है यह फागुन जेठ समान लगे अरु रंग की आग अघात लगे है अब होरी कहाँ मोहे भाए सखी पिय जाने कहाँ दिन रात करे है सुरेश साहनी, कानपुर
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ज़माने भर का वसील होना। है जुर्म अपना क़तील होना।। हमारी आदत सी पड़ गयी है सबाब करना ज़लील होना।। तमाम रिंदों की इक वज़ह है तुम्हारी आँखों का झील होना।। के दौरे हाज़िर में लाज़मी है गुलों की ख़ातिर फ़सील होना।। तमाम अपनों को खल रहा है जनाजा अपना तवील होना।। जिन्हें चुना उनको दोष क्यों दें हमें पड़ेगा कफ़ील होना।। सुरेश साहनी,कानपुर वसील/ मित्र या साथ निभाने वाले क़तील/जिसका क़त्ल हुआ हो फ़सील/ चारदीवारी, सुरक्षा घेरा तवील/लम्बा होना कफ़ील/ दायित्व लेने वाला, जिम्मेदार
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आप मेरी पसंद थे वरना। और भी दर बुलंद थे वरना।। यूँ मसावात अपने हक़ में थे यां कमानो-कमंद थे वरना।। मेरे जैसे हज़ार मत कहिए आप जैसे भी चंद थे वरना।। ख़ैर करिये कि हमनवां हैं हम अनगिनत बा-ग़ज़न्द थे वरना।। सिर्फ़ रिश्ता था आपसे दिल का और भी दर्द-मन्द थे वरना।। थी गज़ाला के साथ ख्वाहिश अस्तबल में समन्द थे वरना।। आपके इश्क़ में हुए रुसवा साहनी अर्जुमंद थे वरना।। मसावात/समीकरण हमनवां/सुख दुख में सहभागी, समान विचार वाले बा-ग़ज़न्द/ दुखी कमानो-कमन्द/ धनुष और रस्सी का फंदा दर्दमंद/ सहानुभूति रखने वाले ग़ज़ाला/ हिरनी, सुन्दर स्त्री समन्द/बादामी घोड़ा अर्जुमंद/ सम्मानित, प्रतिष्ठित सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आप नत्थू के लख्त हैं शायद। हो न हो अंधभक्त हैं शायद।। पंछियों की भी जात पूछे है आप वो ही दरख़्त हैं शायद।। सिर तवारीख पे जो धुनते हैं दौरे हाज़िर वो वक़्त हैं शायद।। आप भी थे तमाशबीनों में आप मौकापरस्त हैं शायद।। मुल्क की फ़िक्र कौन करता है सब सियासत में मस्त हैं शायद।। आज् कोई पुलिस न पकड़ेगी आज हाकिम की गश्त है शायद।। सुरेश साहनी
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श्याम छलिया समझ लिया है क्या। ख़ुद को राधा समझ लिया है क्या।। चाँद कहते हो ख़ुद को जायज है मुझको अदना समझ लिया है क्या।। मोल बिन मिल गया हूँ इतने से कोई सौदा समझ लिया है क्या।। क्या कहा फूँक कर उड़ा दोगे शुष्क पत्ता समझ लिया है क्या।। इतना अधिकार क्यों जताते हो सच मे अपना समझ लिया है क्या।। फिर मैं हर बार क्यों कसम खाऊं मुझको झूठा समझ लिया है क्या।। मैं न टूटूंगा सिर्फ़ छूने से इक खिलौना समझ लिया है क्या।। तुम तो पत्थर हो मान लेता हूँ मुझको शीशा समझ लिया है क्या।। साहनी खुश है अपने जीवन से तुमने तन्हा समझ लिया है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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अगर हम लड़ रहे हैं तीरगी से। उन्हें परहेज क्यों है रोशनी से।। कहीं रह लेंगे हम अल्लाह वाले यतीमों को गरज़ है आरफी से।। तख़य्युल में है जिसके धूप यारों कहीं वो जल न् जाये चाँदनी से।। उन्हें कह दो न मक़तल से डराएं हम आते हैं मुहब्बत की गली से।। भले मुन्सिफ़ कचहरी झूठ की थी जो हम हारे तो सच की खामुशी से।। तो जाए घर बना ले आसमां पर अगर डरने लगा है बन्दगी से।। क़मर-ओ-शम्स की यारी से बचना तआरुफ़ है अगर आवारगी से।। छुपे रहते कभी रसवा न होते जो हम खुल के न् मिलते हर किसी से।। ग़ज़लगो मुत्तफ़िक़ हैं आज इस पर बचाना है अदब को साहनी से।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कुछ सलीके के कारोबार करें। अब मुहब्बत को दरकिनार करें।। दिल लगाकर तो बेक़रार हुये आप कहते हो फिर क़रार करें।। किसके दौलतकदे पे सर रख दें किसकी सरमा से जाके प्यार करें।। और किसके लिए अदावत लें जब वो गैरों पे दिल निसार करें।। और फिर किसकी राह देखें हम और किस किसका इंतज़ार करें।। अपनी सांसों पे एतबार नहीं आप पर भी क्यों एतबार करें।। हम भी ग़ालिब को बोल दें चच्चा सिर्फ़ तसदीक़ जो ख़ुमार करें।। उन से कहिए नये अदीबों में साहनी को भी तो शुमार करें।।
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किसी के तीर पे अपनी कमान मत लादो। मैं बोल सकता हूँ अपने बयान मत लादो।। शुआयें शम्स की मेरा ख़याल रखती हैं सफर में मुझपे कोई सायबान मत लादो।। कहाँ लिखा है कि मज़हब बहुत ज़रूरी है ज़रा से दिल पे तुम अपना जहान मत लादो।। कहाँ से मैं तुम्हें फिरकापरस्त लगता हूँ मेरी जुबान पे अपनी जुबान मत लादो।। ये ज़िन्दगी भी कहाँ इम्तेहान से कम है सो मुझ पे और कोई इम्तेहान मत लादो।। जरा ज़मीन को करने तो दो कदमबोसी अभी से सर पे मेरे आसमान मत लादो।। खुशी से मर तो रहा है उस एक वादे पर कि साहनी पे नए इत्मिनान मत लादो।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
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हमको इंग्लिश के रूल क्या मालूम। उनको देशी उसूल क्या मालूम।। वो तो हमको कबूल हैं हरदम हम हैं उनको कबूल क्या मालूम।। प्रेम पूजा है कारोबार नहीं क्यों गये लोग भूल क्या मालूम।। आज गोभी का फूल ले आये रोज़ डे फूल वूल क्या मालूम।। एक दिन किस डे एक दिन हग दे हमको ये ऊलजलूल क्या मालूम।। फ्रेंड्स शिप बैंड दे बहिन जी ने क्यों कहा हमको फूल क्या मालूम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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आसमानों को कद से क्या लेना। आशिक़ी को हसद से क्या लेना।। छुप के रहता है आसमानों में हम को उस ना-बलद से क्या लेना।। दिल्लगी है अगर तो हुज़्ज़त क्यों दिल को जद्दोजहद से क्या लेना।। हुस्न को ख़ुद अबद बनाता है इश्क़ है तो समद से क्या लेना।। फिर सनद की किसे ज़रूरत है इश्क़ को मुस्तनद से क्या लेना।। हुस्न हद में रहे रहे न रहे इश्क़ वालों को हद से क्या लेना।। तुम न मजनूँ हुए न समझोगे इश्क़ को ख़ाल-ओ-ख़द से क्या लेना।। हम हैं नाकिद-परस्त कुछ समझे हम को अहले-हमद से क्या लेना।। साहनी को यकीन है उस पर हम को उस की ख़िरद से क्या लेना।। हसद-ईर्ष्या, ना-बलद - विदेशी, अपरिचित, ईश्वर हुज़्ज़त- बहस, जद्दोजहद- यत्न, संघर्ष अबद- अमर समद - बेनयाज, अल्लाह, परवाह न करने वाला सनद-प्रमाणपत्र मुस्तनद- प्रमाण देने वाला , मान्य मजनूँ- दीवाना प्रेमी ख़ाल-ओ-ख़द - चेहरा मोहरा रूप नाकिद - आलोचक अहले-हमद - प्रशंसा करने वाला ख़िरद - बुद्धि सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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क़यामे-मुख़्तसर में ख़ाक़ लिखता।। ये किस्सा इक ठहर में ख़ाक़ लिखता।। तेरी ज़ुल्फ़े-परीशां की कहानी भला छोटी बहर में ख़ाक़ लिखता।। कहानी ज़िन्दगी के ज़ेरोबम की कोई फँस के भंवर में ख़ाक़ लिखता।। मुहब्बत को न आयी तंगनज़री तो नफ़रत के असर में ख़ाक़ लिखता।। ग़ज़लगोई तसल्ली मांगती है उधर उलझन थी सर में ख़ाक़ लिखता।। मेरा शायर गदायी था मिज़ाजन न् तुलना था गुहर में ख़ाक़ लिखता।। सुरेश अपनी कहानी कह रहा था भला मैं रात भर में ख़ाक़ लिखता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जब कभी आसमां निहारा कर। अपने पंखों को भी पसारा कर।। हुस्न ख़ुद को जहां संवारा कर। इश्क़ की राह भी बुहारा कर।। ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी हैं अपने सपनों को यूँ न् मारा कर।। मंजिलें चल के पास आएंगी रास्तों की नज़र उतारा कर।। ख़्वाब ऊँचे ज़रूर रख लेकिन अपनी चादर में दिन गुज़ारा कर।। अपने होने पे नाज कर प्यारे अपनी हस्ती से मत किनारा कर।। फिर तकल्लुफ की क्या ज़रूरत है नाम लेकर मुझे पुकारा कर।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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अब वो अपने सनम नहीं फिर भी। बेवफ़ाई का ग़म नहीं फिर भी।। तेरा कूचा अदम नहीं फिर भी। जान देने को कम नहीं फिर भी।। आशिक़ी में नहीं मिले तगमे ज़ख़्म सीने पे कम नहीं फिर भी।। जब मिलोगे गले लगा लोगे मुझको ऐसा वहम नहीं फिर भी।। कैसे कह दें कि अब सिवा तेरे और होंगे सनम नहीं फिर भी।। यूज़ एंड थ्रो का अब ज़माना है ऐसा कोई भरम नहीं फिर भी।। जाने क्यों साहनी को पढ़ते हैं उसकी ग़ज़लों में दम नहीं फिर भी।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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जिसको सुनने की साध रही जिसकी लालसा अगाध रही वह बात नहीं तुम कह पाये वह बात कहाँ हम सुन पाये।। ऐ काश कभी हम चल पाते उस पथ पर जिस पर चल न सके मिलने की चाह लिए बिछुड़े ऐसे बिछुड़े फिर मिल न सके तुमने थामी विपरीत डगर हम भी भटके दूजे पथ पर किंचित इसकी थी यही नियति कब कुसुम टूट कर खिल पाये दो कदम चले हम तुम साथ पर जग को साथ नहीं भाया जाने क्यों अपनों को अपना हाथों में हाथ नहीं भाया
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कवि Suresh Sahani जी की कलम से बेहद खूबसूरत, उत्कृष्ट, अतुलनीय, अनुपम सृजन .... रामायण भी पढ़ते हो। भाई से भी लड़ते हो।। सदा भरत को गुनकर भी पद के लिए झगड़ते हो।। ब्रम्ह सत्य समझाते हो धन के पीछे पड़ते हो।। ठाठ धरे रह जाने हैं किस के लिए अकड़ते हो।। कभी स्वयं को ताड़े हो बस औरों को तड़ते हो।। दीनों हीनों दुखियों का क्या तुम हाथ पकड़ते हो।। इसी धरा पर आओगे सुत सुरेश सम उड़ते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
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बस यही बात भूल जाता हूँ। आज भी जात भूल जाता हूँ।। रात को तू तो याद रहता है हर सुबह रात भूल जाता है।। यूँ तो सारे जवाब हाज़िर हैं बस सवालात भूल जाता हूँ।। जीत कर मुझ से तू अगर खुश है मैं मिली मात भूल जाता हूँ।। तेरे ग़म भी बड़ी इनायत हैं क्यों ये खैरात भूल जाता हूँ।। माफ़ करना सुरेश उल्फत में फ़र्ज़-ओ- ख़िदमात भूल जाता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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छोड़कर राहों में अक्सर कारवाँ जाते रहे। करके सूरज के हवाले सायबाँ जाते रहे।। हो गये फौलाद हम अपने इरादों की तईं लोग जो समझे थे हमको नातवां जाते रहे।। बदगुमां थे कद को लेकर जाने कितने सरबुलन्द पर ज़मीने-दोगज़ी में आसमाँ जाते रहे।। बरकतें सब जाने किसकी बदनिगाही खा गई अब नहीं आते हैं सारे मेहमां जाते रहे।। सायबान- छाया देने वाले कारवां- काफिला नातवां- कमज़ोर बदगुमां- भ्रमित सरबुलन्द- ऊँचे लोग ज़मीने-दोगज़ी - कब्र बदनिगाही - बुरी निगाह सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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एगो भोजपुरी ग़ज़ल... फेर जनउरी छब्बिस वइसन आयी का? निम्मन दिन के आशा फेर धराई का।। रमरतिया के बेटी नींद में चिहुंकल बा गांव में फेनियो नेता कवनो आयी का? गाँव मे केहु काहें रुपया बांटत बा अबकी खेती भी रेहन रखवाई का।। का अब केहु गाँव मे महुआ बीनेला अब्बो गांव में महकेले अमराई का? ए बाबू उ जून जमाना बीत गइल अब अपने घर बाटे उ अंगनाई का? अब होली में रंग कहाँ से आई हो पटिदारी में का देवर भउजाई का? जवन लजात रहे उ रधिया कहाँ गइल केहू ओकरे जइसन आज लजाई का? ढेर बरिस पर गांवें में लउकल बानी ए सुरेश जी रउरो खेत बिकाई का? सुरेश साहनी कानपुर #भोजपुरी
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नींद गायब सुकून गायब है। जिस्मे-फ़ानी से खून गायब है।। किस की ख़ातिर जियें मरें किसपर सब तो अपनी रवानियों में हैं। और सच पूछिये वफ़ादारी सिर्फ किस्से-कहानियो में हैं फिर जो रह रह उबाल खाती थी अब वो जोशो जूनून गायब है।। कोई उम्मीद हो तवक्को हो कोई मन्ज़िल, तलाश हो कोई जिंदगी जीने की वजह तो हो कुछ बहाना हो आस हो कोई साथ जब तुम नही तो लगता है हासिले-कारकून गायब है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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सर पे जब अपने सायबान न था। लोग थे कोई हमज़बान न था।। आशना था मेरा शहर मुझसे पर शहर में मेरा मकान न था।। फेल होने का डर न था हरगिज़ इश्क़ था कोई इम्तेहान न था।। क्या ख़ुदा है ज़मीं की पैदाइश उससे पहले ये आसमान न था।। दूर होने की थी वज़ह इतनी फासला अपने दरम्यान न था।। शेख़ क्यों मैक़दे से लौट गया दीन वालों को इत्मिनान न था।। इतने ख़ाने बना दिये नाहक़ वो ख़ुदा भी तो लामकान न था।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
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क्या भूल गये हो कि मुझे याद करे हो। मैं ही हूँ अज़ल से जिसे बरबाद करे हो।। जैसे हो सताने में कहाँ चूक करे हो हर रोज़ तरीका नया ईजाद करे हो।। माहिर हो तग़ाफ़ुल में कोई जोड़ नही है बस इतना बता दो किसे उस्ताद किये हो।। किस किस पे चलाये हो सनम नैन के जादू कितनों को कहो प्यार में मुनकाद करे हो।। इस दिल पे सितम लाख करे जाओ हो लेकिन जब अपने पे आ जाय तो फरियाद करे हो।। अज़ल/सृष्टि का आरंभ, आदि, शुरुआत से ईजाद/ खोजना, अविष्कार माहिर/कुशल तग़ाफ़ुल/ उपेक्षा, ध्यान न देना मुनकाद/ वशीभूत, सम्मोहित सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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ज़िन्दगी का कारवाँ लुटता रहा। धीरे धीरे सब ज़हाँ लुटता रहा।। इस तरफ आबे-रवां लुटता रहा। उस तरफ कोहे-गिरां लुटता रहा।। गुल खिलें सब बुलबुलें गाती रहीं और मेरा आशियाँ लुटता रहा।। उनके हिस्से की ज़मीं बढ़ती गयी और अपना आसमां लुटता रहा।। लामकां सब चैन से सोते रहे इक मेरे मन का मकां लुटता रहा।। सब तमाशा देख कर खामोश थे मैं था गोया रायगां लुटता रहा।। चीखने पर कौन सुनता साहनी मैं भी बनकर बेजुबां लुटता रहा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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किरदार तो मुझ जैसे थे और ज़माने में। पर उनकी थी दिलचस्पी इक मुझको सताने में।। क्या खूब बहाना है सिजरे की तवीलाई कोताह सही कुछ तो तुम कहते फ़साने में ।। मैं याद न आया हूँ ऐसा तो नहीं होगा झिझके तो ज़रूर होंगे तुम मुझको भुलाने में।। गुलशन में हर इक गुल पर मँडराया किये भँवरे बदनाम रहे कांटें गुलशन को बचाने में।। सुरेश साहनी कानपुर
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दूसरों के वास्ते आख़िर कहाँ तक जान दें। अब ज़रूरी है कि कुछ अपने भी ऊपर ध्यान दें।। जो हमें आदर न दे परवाह उसकी व्यर्थ है जो न दे सम्मान उसको किसलिए सम्मान दें।। इनकी उनकी सबकी ज़िंदाबाद में हम खो गए बेहतर होगा कि हम ख़ुद को कोई पहचान दें।। अब तो गिव एंड टेक का ही है चलन चारो तरफ मान उनको चाहिए तो वो हमें भी मान दें।। सुरेश साहनी कानपुर
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कुछ मुक़म्मल कुछ अधूरी ज़िन्दगी। कट रही है यूँ ही पूरी ज़िंदगी।। जी चुके तो और जीने की हवस जबकि है श्रद्धा सबूरी ज़िन्दगी।। किसलिए आयी गयी में कट गयी थी अगर इतनी ज़रूरी ज़िन्दगी।। हम उमस वाले हैं कोई उपनगर आपकी ऊटी मसूरी ज़िन्दगी।। मौत ठण्डी छाँव जैसे नीम की और है साया खजूरी ज़िन्दगी।। ओढ़ लेंगे मर के तहज़ीबे-कफ़न मत सिखा नाहक़ शऊरी ज़िन्दगी।। तेरे बिन जीना क़यामत है सुरेश किस तरह है तुझ से दूरी ज़िन्दगी।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर 9451545132
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सिर्फ़ दैरोहरम से निस्बत है। या हमारे भी ग़म से निस्बत है।। क्या तुम्हें सच में हम से निस्बत है। जब तुम्हें हर वहम से निस्बत है।। सिर तो झुकता है मयकशों का भी पर सुराही के ख़म से निस्बत है।। साथ करता है क्यों यज़ीदों का जब हुसैनी अलम से निस्बत है।। कैसे माने उसे फकीरों में क्या उसे कम से कम से निस्बत है।। ज़ेर भी तो हैं मर्जियाँ रब की क्यों तुझे सिर्फ़ बम से निस्बत है।। साहनी खुश है मयकदे आकर शेख़ को ही अदम से निस्बत है।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
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हमने सोचा कि ये काम करते चलें। हर खुशी आपके नाम करते चलें। ज़िन्दगी आपकी मेरी है चार दिन एक दूजे से जय राम करते चले।। कुछ यूँही सबकी चलती रहे ज़िन्दगी संग हँसती मचलती रहे ज़िन्दगी अपने जयराम आशीष देते रहें सौ बरस और खिलती रहे ज़िन्दगी।। काव्य के पर्याय हैं जयराम जय नवगीत के अध्याय हैं जयराम जय। एक अंचल या शहर की बात क्या देश भर में छाए हैं जयराम जय।। सिर्फ मेरे और तेरे दिल मे नहीं सबके मन को भाये हैं जयराम जय।। शोर उठता है चलो सुनने चलें कार्यक्रम में आये हैं जयराम जय।।
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माना सब तेरे दीवाने बैठे थे। पर मुझको क्यों दुश्मन माने बैठे थे।। आईने लेकर अफ़साने बैठे थे। किस पत्थर को हाल सुनाने बैठे थे।। यारब उनको प्यार सिखाने बैठे थे। जो आदम का खून बहाने बैठे थे।। उनकी रक़ाबत भी क्या केवल मुझसे थी आख़िर वे सब किसको पाने बैठे थे।। थे तो इश्क़ के मज़हब वाले हैरत है फिर भी मुझ पर ख़ंजर ताने बैठे थे।। तू जिन जिन की उम्मीदों का क़ातिल था वे सब तुझको ईसा माने बैठे थे।। पूछेंगे मौला से क्यों ख़ामोश रहे या वो भी मुझको निपटाने बैठे थे।। तीरे निगाहे नाज़ से हम महरूम रहे क्या महफ़िल में और निशाने बैठे थे।। दैरोहरम से हार गदाई लौट गए अहले ख़ुदा जाकर मैखाने बैठे थे।। तुम सुरेश सुकरात बनोगे मालूम था क्यों दुनिया को सच समझाने बैठे थे।।
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अपने सरकार पढ़ नहीं पाते। हैं तो सरदार पढ़ नहीं पाते।। हम वो अशआर पढ़ नहीं पाते। सच के अखबार पढ़ नहीं पाते।। अब भी अहले क़लम की खुद्दारी अहले दरबार पढ़ नहीं पाते।। भर ज़हाँ की किताब पढ़ते हैं इक मेरा प्यार पढ़ नहीं पाते।। अबके मुंसिफ़ गुनाह करते हैं ये गुनहगार पढ़ नहीं पाते।। बातिलों को है डिग्रियाँ हासिल जबकि हक़दार पढ़ नहीं पाते।। आज भी एकलव्य कटते हैं अब भी लाचार पढ़ नहीं पाते।। आईने आदमी नहीं होते आईने प्यार पढ़ नहीं पाते।। साहनी को पढ़ा फकीरों ने सिर्फ़ ज़रदार पढ़ नहीं पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर 945154512
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छोड़कर अपने आशियानों को। आओ छूते हैं आसमानों को।। वक़्त कब आज़मा सका हमको हम बुलाते थे इम्तहानों को।। मेज़बां लापता है महफ़िल से खाक़ देखेंगे मेहमानों को।। अपने तकिए में चल के सोते हैं कितना देखें ख़राब खानों को।। सांस की धौंकनी में ही दम है कम जो समझे हो नातवानों को क्यों मशक्कत करे हैं खेतों में कौन समझाए इन किसानों को।।
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उफ़ ये ठण्डी धूप के दिन आदमी को क्या सुकूँ दें रात भी दहकी हुई ठिठुरन समेटे जिंदगी जैसे जलाकर राख करना चाहती है जेब इतनी ढेर सारी हैं पुरानी जैकेटों में पर सभी ठंडी गुफायें क्या हम अपने मुल्क में हैं!!!! कौन है यह लोग जो फिर लग्जरी इन गाड़ियों से होटलों में , रेस्तरां में जश्न जैसी हरकतों से रात में भी पागलों से शोर करते फिर रहे हैं।। सुरेशसाहनी