सिर्फ़ दैरोहरम से निस्बत है।
या हमारे भी ग़म से निस्बत है।।
क्या तुम्हें सच में हम से निस्बत है।
जब तुम्हें हर वहम से निस्बत है।।
सिर तो झुकता है मयकशों का भी
पर सुराही के ख़म से निस्बत है।।
साथ करता है क्यों यज़ीदों का
जब हुसैनी अलम से निस्बत है।।
कैसे माने उसे फकीरों में
क्या उसे कम से कम से निस्बत है।।
ज़ेर भी तो हैं मर्जियाँ रब की
क्यों तुझे सिर्फ़ बम से निस्बत है।।
साहनी खुश है मयकदे आकर
शेख़ को ही अदम से निस्बत है।।
सुरेश साहनी , कानपुर
9451545132
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