जिसको सुनने की साध रही
जिसकी लालसा अगाध रही
वह बात नहीं तुम कह पाये
वह बात कहाँ हम सुन पाये।।
ऐ काश कभी हम चल पाते
उस पथ पर जिस पर चल न सके
मिलने की चाह लिए बिछुड़े
ऐसे बिछुड़े फिर मिल न सके
तुमने थामी विपरीत डगर
हम भी भटके दूजे पथ पर
किंचित इसकी थी यही नियति
कब कुसुम टूट कर खिल पाये
दो कदम चले हम तुम साथ
पर जग को साथ नहीं भाया
जाने क्यों अपनों को अपना
हाथों में हाथ नहीं भाया
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