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Showing posts from November, 2023
 हनुमान दलित थे या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन वे शासक वर्ग थे ,यह पता है।सुग्रीव, बालि , नल,नील आदि सब शासक थे।एक  सज्जन ने कहा कि वे मल्लाह थे।मैंने पूछा- सो कैसे? उनका उत्तर था- मल्लाह भोली कौम है ज़रा सा कोई पुचकार दे , ये लोग उसके प्रेम में पागल हो जाते हैं।और इतने पागल कि सामने वाले के प्यार में तीसरे पक्ष का घर भी फूँक  डालते हैं। आज भी राम के नाम पर सबसे ज्यादा यही समाज जान देने को उतारू रहता है।
 बड़ी उम्मीद थी जिससे किनारा कर गया इक दिन। सहारा बन के हमको बेसहारा कर गया इक दिन।। जो कहता था तुम्हें संग ले चलूंगा कहकशांओं में वही किस्मत का गर्दिश में सितारा कर गया इक दिन ।। सुरेश साहनी
 तूफ़ां के रुख़ मोड़ रही हैं। सांसें जो दम तोड़ रही हैं।। जीस्त कहाँ तक इनसे लड़ती तक़दीरें   मुंहजोर  रही हैं।। हालातों की ज़ुर्रत देखो जूना कफ़स झिंझोड़ रही हैं।। ग़म के बोझ दबाते कैसे जब महफिलें हंसोड़ रही है।। टूट गए होते हम कबके  कुछ उम्मीदें जोड़ रही हैं।। वहशत ने सीमाएं लांघी लाजें पांव सिकोड़ रही हैं।। अब अदीब बिकना चाहे है आतें ऐंठ मरोड़ रही हैं।। #सुरेशसाहनी-अदीब
 आप ईश्वर को नकार सकते हैं।किंतु समय और प्रकृति को क्यों नकारते  हैं।समय और प्रकृति दोनों का अस्तित्व है। दोनों की प्रतीति है। एक को हम आंखों से देख पाते हैं और एक को नहीं किंतु दोनों के गर्भ में अनन्त रहस्य हैं।इन दोनों का समन्वय सृष्टि है।सृष्टि जिसे हम नकार नहीं सकते।आप सब कुछ नकार दीजिये।क्या होगा ,आप पृथक हो जाएंगे,अलग थलग पड़ जाएंगे।आप में अहंकार आ जायेगा।आप अपनी बात सब पर थोपेंगे।बहुत से लोग आपकी बात सुन सकते हैं।किंतु उससे भी अधिक आपकी बातों से निस्पृह रहते हैं।उनकी उदासीनता से आपका मन बढ़ता है।आपमें श्रेष्ठता बोध आता है।यह #सोSहम  वाली अनुभूति नहीं है।यह स्वयं को ईश्वर बताने का छद्म प्रयास है।जब आप स्वयं को सर्वोच्च मानने लगते हैं ,तब सृष्टि आपके अस्तित्व को नकार देती है।इसलिए विग्रह बोध से बचें।आप और समस्त चराचर प्रेम और अस्तित्व के समान अधिकारी हैं।यह सत्य है, शिव है ,और सुंदर भी है। #समन्वयवाद
 दो हजार के नोट मोदी जी की दूरदर्शिता है।वरना हजार-पाँच सौ के साढ़े चौदह लाख करोड़ मूल्य के नोट छापने में हालत खराब हो जाती।चीन से एटीएम मशीन और कलपुर्जे मंगा लिए ,चीन भी खुश,।जर्मनी और जापान से कागज मंगाएं दोनों खुश ।डॉलर के दाम बढ़े ,अमेरिका भी खुश।अब विकास दर गिरने से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ेगा।फुटकर के अभाव से भिखारी भी कम होंगे। आटा-दाल के दाम बढ़ेंगे,परचून वाले खुश।ऑनलाइन दूध ,साग-सब्जी मिलने से गृहिणीयाँ खुश।अनाज के दाम बढ़ने से किसान खुश, बॉर्डर पर तनाव बढ़ने से आर्म्स-डीलर खुश।अमीरों का धन निकलने से गरीब खुश।सब खुश हैं हमारी बकरी मरी तो कोई दुःख नहीं पड़ोसी की दीवार तो गिरी। कुल मिलाकर देश में विकास ही विकास दिखाई दे रहा है।      लोग मोदी जी के समर्थन में लाइनों में लगे हुए हैं।बैंकों में सर्वर नाम का कोई कर्मचारी अजगर की गति से कार्य कर रहा है।जनता जय जयकार कर रही हैं।बैंक कर्मचारी काला धन जमा करते करते जब श्याम वर्ण के होने लगते हैं,तब उनकी पत्नियां गलत आदमी से ब्याह करने के उलाहने देती हैं।वहीँ नए नोट वितरण में लगे चेहरों पर गुलाबी आभा आने से उनकी घरवालियां बहुत प्रसन्न हैं,आ
 सुना है तुमको अब फुर्सत नहीं है। हमारे वास्ते मोहलत नहीं है।। हमें वो लोग दिल से चाहते हैं हाँ उन के पास धन दौलत नहीं है। चलो माना तुम्हे सब जानते हैं ये बदनामी कोई शोहरत नहीं है।। बदल जाते हो मौसम की तरह तुम मगर ये तो भली आदत नहीं है।। मुझे वो कल भला चंगा मिला था सुना है आज वो जीवित नहीं है।। हवाओं में जहर है जानते हैं शहर वालो को अब हैरत नहीं है।। किसी से इत्तेफ़ाक हो भी तो कैसे वो अपने आप से सहमत नहीं है।।
 अदा उल्फ़त की अपनी इक तरह है। उसी से इश्क़ है जिससे गिरह है।। जो इक दूरी है मुझमें और उसमें यही नजदीकियों की इक वज़ह है।।साहनी
 फिर अदब का वही उसूल चले। दौरे-हाज़िर में जिस को भूल चले।।  जैसे उस दौर में ग़ज़ल के लिए   मीर के  दाग़ के  स्कूल चले।। बेहतर हैं चलें उसी जानिब जिस तरफ़ थे मेरे रसूल चले।। जिस जगह प्रेम की बजे मुरली मन उसी भानुजा के कूल चले।। क्या ज़रूररत वहां रुका जाये बात कोई जहाँ  फिजूल चले।। क्या ज़रूरी मुबाहिसे में पड़ें बात जब कोई ऊलजलूल चले।। साहनी अब है इश्क़ की जद में अब तो पत्थर पड़े कि फूल चले।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पाँच हो चार हो कि तीन रहे। जो रहे बस तमाशबीन रहे।। कुल मिलाकर यहीं कहेंगे हम ज़िंदगानी के दिन हसीन रहे।। पेंचोखम हो कि ज़ेरो बम सब थे हश्र से फिर भी मुतमईन रहे।। होश आते ही बोझ लाद लिए उम्र भर हम कोई मशीन रहे।।
 अगर पढ़ लिए होते तुमने  मेरे ख़त तुम मेरे होते।। तुमने जब भी देखा मुझको मुझमें कोई अज़नबी देखा मेरा अंतर्मन कब देखा मेरा बाह्यरूप ही देखा अगर देख पाते अंतर्मन विधि सम्मत तुम मेरे होते।। बाहर से श्रीकृष्ण भी दिखे माखनचोर छिछोरे छोरे समय देख दे गयीं गोपियाँ उन्हें हृदय के कागद कोरे होते यदि उस छलिया जैसे खुशकिस्मत  तुम मेरे होते।। Suresh Sahani
 ख़्वाब अपने आसमानी ही रहे। तुम मेरी ख़ातिर कहानी ही रहे।। मैंने चाहा दिल की बस्ती में रहो तुम अना में राजधानी ही रहे।। उनके दावे थे हवाई और क्या कुल जमा खर्चे जुबानी ही रहे।। लुट रही थी मेरी दुनिया और तुम चाहते थे शादमानी ही रहे।।Q
 एहसासे-वस्ल से ही तबियत सँवर गयी। गोया बहार ज़ीस्त को छूकर गुज़र गयी।। एहसासे -गम से कोई तआरुफ़ कहाँ हुआ वो हुस्ने दिलफ़रेब ये आयी उधर गयी।। जो इश्क़ दायरे में रहे इश्क़ ही नहीं मजनू कहाँ रुका कहाँ लैला ठहर गयी।।
 क्या कह दें मनमाना है क्या। दुख का भी पैमाना है क्या। सच्चा सुख पहचाना है क्या।। क्षण में रोना क्षण में हँसना पगला या दीवाना है क्या।।
 बेशक़ तुम  इल्ज़ाम लगाओ। कुछ सर पर इनाम लगाओ।। माना मेरा मोल नहीं है कुछ तो सच का दाम लगाओ।। अब तुम सत्ता में बैठे हो सच पर खूब लगाम लगाओ।। डर क्या सैया कोतवाल है मजलिस सुबहो शाम लगाओ।।
 मर चुकी अमृत कथाओं पर लिखो। कुछ व्यथा जीवित शिलाओं पर लिखो।। राजप्रासादों के दुख यदि लिख चुके कुछ त्रसित जन की व्यथाओं पर लिखो।।गीतांश-साहनी
 मुसलसल कर रहे हो बदज़ुबानी। कहाँ से सीख ली ये तर्जुमानी।। भले पहली दफा हम सुन रहे हैं लगे है खूबियाँ ये खानदानी।।साहनी
 अब जामुन को आम कहेंगे। और सुबह को शाम कहेंगे। हम अंधे हो चुके इस कदर अब रावण को राम कहेंगे।।
 एक निर्भया और मर गयी लेकिन बहुत बड़ा अंतर है इसके या उसके होने में क्योंकि यह है उसी वंश की जिसके वाहक वेदव्यास थे फिर ऐसे लोगों की इज़्ज़त इज्ज़त नहीं हुआ करती है इनको कहदो मौन रहें ये पीड़ा को चुपचाप सहन कर आसानी से जी सकती हैं या फिर कायरता से प्रेरित होकर जौहर कर सकती हैं हो सकता है फिर प्रधान की आंखों में आंसू आ जाये.....
 इस देश का एक बहुत बड़ा मजदूर वर्ग नौका चालन, मछली पालन,मछली का आखेट ,झींगा व्यवसाय,कमलगट्टा सिंघाड़ा उत्पादन ,सीप-मोती  आदि तथा पानी पहुंचाने के कार्य से जुड़ा हुआ है।इनका कार्य क्षेत्र हमेशा ही शहरी मुख्यालयों से दूर ताल-पोखर,नदी-नाले कछार अथवा समुद्र के तटीय अंचलों में  रहा है। अधिक दिनों  तक जलीय क्षेत्रों में काम करने अथवा आवास-प्रवास होने से हाइड्रो-जेनरेटेड डिसीज अथवा माइक्रोफंगल इंफेक्शन से यह लोग अधिक प्रभावित रहते हैं।इसके साथ ही सुदूर क्षेत्रों में रहने के कारण इनकी पीढियां अशिक्षित अथवा कम शिक्षित रह जाती हैं।    देश को लगभग आठ प्रतिशत राजस्व देने वाले इन साढ़े छह करोड़ जल श्रमिकों का कोई माई बाप नहीं हैं।इसका एक बड़ा कारण है आज तक इनके कार्यो  को श्रम मंत्रालय ने अथवा केंद्र सरकार ने मान्यता नहीं दी है।  जबकि इस समुदाय को फिशरमैन और #वाटरवर्कर्स के रूप में सरकार द्वारा मान्यता देकर इनके इएसआई कार्ड,परिचय पत्र दे देना चाहिए था।इस बार की केंद्र सरकार इनके कार्यों के लिए #एक्वाकल्चर एंड फिशरीज़ मंत्रालय और रेगुलट्रीज़ बनाने का वादा करके मुकर गई।इनके क्षेत्रीय और ढांचागत विकास के लिए
 तुमसे किसने कहा निभाओ। चाहे जहाँ बेझिझक जाओ ।। हम क्यों तुम पर बंदिश डालें तुम क्यों हम पर अश्क़ बहाओ।। प्यार स्वयं इक पागलपन है प्यार में पागल मत बन जाओ।। मैं भी अपनी ज़िम्मेदारी तुम भी अपना धर्म निभाओ।। कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें है इन पर मत जाओ।। वालिदैन हैं रूप ख़ुदा के ख़िदमत करो दुआयें पाओ।। तुम सुरेश को समझ गए ना जाओ दुनिया को बतलाओ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 किसको बेबस भूखे नंगे याद रहे। सबको झंडे रंग बिरंगे याद रहे।। जनता ने झेला पर जनता भूल गयी नेताओं को लेकिन दंगे याद रहे।। कल तुम कैसे बीच हमारे आओगे तुम बहरे हो हम हैं गूँगे याद रहे।। हम कृषकों को कैसे भिखमंगा बोला तुम हो वोटों के भिखमंगे याद रहे।। खुद को एलीट क्लास समझ बैठे हो तुम फिर क्यों  देहाती बेढंगे याद रहे।। कल तुमको हम ही औकात बताएंगे किससे ले बैठे हो पंगे याद रहे।।
 कहो तुम याद आओगे कहाँ तक। मुहब्बत आजमाओगे कहाँ तक जो ख्वाबों में मुसलसल आ रहे हो यूँ आ आ कर जगाओगे कहाँ तक।। सुरेश साहनी
 कविता कहने के लिए अगणित है तैयार। पर श्रोता के नाम पर मिलते बस दो चार।। दोहा
 मैं कोई आज़ाद परिन्दा थोड़ी हूँ। जिंदा दिखता हूँ पर जिंदा थोड़ी हूँ।। तुम दौलत की दुनिया के रहवासी हो मैं उस दुनिया का वाशिंदा थोड़ी हूँ।। मुझसे मिलकर कर तुमको  ज़िल्लत लगती है इन बातों से में शर्मिंदा थोड़ी हूँ।। आज गया जो उठकर तेरी महफ़िल से  आने वाला मैं आईन्दा थोड़ी हूँ।।
 इश्क़ अगर पर्दे में है  रानाई है। इसके आगे जहमत है रुसवाई है।। झूठ बोलकर क्यों ज़मीर मारेगा पर सच बोलेगा किसकी शामत आयी है।। जीवन समझो एक अधूरी सी लड़की मौत समझ लेना उसकी कुड़माई है।।
 हँसते गाते दिल को पीरें दे दी  है। बीमारे-दिल को अक्सीरें दे दी हैं।। जग ने प्यार मुहब्बत करने वालों के शानों पर गिरती शहतीरें दे दी हैं।। प्यार की ताकत है जो अक्सर शाहों ने दिल की दौलत पर जागी रे दे दी हैं।। इश्क़ में हर नामुमकिन मुमकिन होता है इश्क़ ने ख्वाबों को ताबीरें दे दी हैं।। नाहक आईना तोड़ा है कुछ समझे तुमने सच को सौ तस्वीरें दे दी हैं।।  सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हम जब भी उस राह चले हैं। हम खुद से ही जुदा मिले हैं।। किसकी किससे करें शिकायत सारे अपने ही निकले हैं।। अंधियारों से कौन जूझता दीपक बनकर हमीं जले हैं।। हमें बुझाने को आंधी ने उलटे सीधे दांव चले हैं।। लेकिन जितनी हवा चली है हम उससे ज्यादा मचले हैं।। हमें डराता है तो सुन हम- तूफानों में बढ़े पले हैं।। सुरेश साहनी
 सुना है बड़े लोग तेरे सगे हैं। हम तो तेरे साथ नाहक़ लगे हैं।। जो ख़्वाब दिखला के उसने ठगा था वही ख़्वाब दिखला के तू भी ठगे है।।SS
 कोई मेरी कहानी कह रहा है। मगर किसकी ज़ुबानी कह रहा है।। मेरा माज़ी मुझे कल याद रखे मुझें यादें सुहानी कह रहा है।।
 घर के अंदर घर की चारदीवारी में। सीमायें टूटी हैं आपसदारी में।। वो वर्षों के रिश्ते नाते भूल गया ऐसा क्या है उस दो दिन की यारी में।। ज़र ज़मीन का बँटना कोई बात नहीं दिल क्यों बाँटा सबने हिस्सेदारी में।। महल सरीखी खुशी दिखी है कुटिया में कुटियों का खालीपन महल अटारी में।। दिल के चोरी होने पर अफसोस नहीं आखिर कब तक रखता पहरेदारी में।। नदिया इठलाकर सागर से मिलती है आख़िर क्या मीठापन है उस खारी में।। ज़ीस्त भले  आलस दिखलाया करती है मौत हमेशा रहती है तैयारी में।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जो हम न् मुँह में जुबान रखते। तो ओहदा आलीशान रखते।। न आन रखते न बान रखते। ज़मीर बिकता   दुकान रखते।। हमारे  शाने से तीर चलते वे हाथ अपने कमान रखते।। तुम्हारे हाथों भी तेग होती जो उसके कदमों में म्यान रखते।। नसीब होते तुम्हें भी मोती   जो तुम न् ऊंची उड़ान रखते।। शहीद होने से कुछ मिला क्या जहान मिलता जो जान रखते।। ज़रा जो  गिरते नज़र में अपनी तमाम ऊँचे मकान रखते।। सुरेश साहनी कानपुर 94515451
 इश्क़ था जबकि छलावा तेरा। दिल को भाता था दिखावा तेरा।। झूठ था फिर यकीं लायक था दरदेदिल का वो मदावा तेरा।। आजमाऊँ तो ख़ुदा झूठ करे  जाँनिसारी का ये दावा तेरा।। मैं नहीं कोई बहक सकता था इतना सुंदर था भुलावा तेरा।। जबकि मक़तल ही था मंज़िल अपनी इक बहाना था बुलावा तेरा।। ऐ ख़ुदा तू है अगर कुजागर तो ये दुनिया है कि आँवा तेरा।। साहनी ही तो गुनहगार नहीं उसमें पूरा था बढ़ावा तेरा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पहले मुर्गी या अंडे की बातें करते लोग। सैटरडे के दिन संडे की बातें करते लोग।। जिसने मजदूरों का वेतन मार लिया बेखौफ उस से मंदिर के चंदे की बातें करते लोग।। पैसे वाले बहुत दुखी हैं सचमुच चिंता है पर गरीब पर दे डंडे की बातें करते लोग।। अब सीधे सादे रस्तों पर किसे भरोसा है रोज नए छल हथकण्डे की बातें करते लोग।।
 जो कह रहा था तो सुनने की ताब भी रखता। सवाल उसने किया था जवाब भी रखता।। बिखेर देता भले ही वो ख़ार गुलशन में बराये रस्म चमन में गुलाब भी रखता।। कि एतराज किसे है उठाये गंगाजली अगरचे साकिया उसमें शराब भी रखता।।
 कभी दिल किसी का दुखाना न प्यारे। किसी जीव को भी सताना न प्यारे।। कभी दिल का मन्दिर ढहाना न् प्यारे। भले काबा काशी को जाना न् प्यारे।।
 धुंध इक ग़म का आसपास रहा। कल न जाने क्यूँ मैं उदास रहा।। बादलों में लुका छिपी शब भर गोया महताब बदहवास रहा।।
 पुष्प पथ में बिछाये हैं रख दो चरण। आपसे स्नेह का है ये पुरश्चरण।।   प्रीति के पर्व का यह अनुष्ठान है दृष्टि का अवनयन लाज सोपान है सत्य सुन्दर की सहमति है शिव अवतरण।। कुछ करो कि स्वयम्वर सही सिद्ध हो सिद्धि हो और रघुवर सही सिद्ध हो शक्ति बन मेरे भुज का करो  प्रिय वरण।।
 अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ा। बेवज़ह मुझको बड़ा होना पड़ा।। बिक के अहले रोकड़ा होना पड़ा। फिर वजीरे- केकड़ा  होना  पड़ा।। तेरी दुनिया किस क़दर तक़सीम है मुझको भी यकसू खड़ा होना पड़ा।। देश है या फिर कबीलों का हुजूम अंततः मुझको धड़ा होना पड़ा।। बोझ अपनों का उठाने के लिए मुझको खच्चर खड़खड़ा होना पड़ा।। लोग अच्छा जानकर के खा न् लें मुझको नेचर का  सड़ा होना पड़ा।। साफ करने थे ज़माने के गटर बेबसी में बेवड़ा होना पड़ा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 झूठे  और  लबार  नहीं हैं। हम सहिये  हुशियार नहीं हैं।। हमें हिकारत से ना देखो जनता हैं,लाचार नहीं हैं।। हुआ काम मुंह फेर रहे हो हम कल के अखबार नहीं हैं।। वक्त पड़े पर काम न आएं इतने भी बेकार नहीं हैं।। बहरे कान नहीं हैं अपने हम दिल्ली दरबार नहीं हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 क्यों सबको दिखलाते हो। नाहक़ रोये जाते हो ।। गेहूं-चावल महंगे हैं! ब्रेड क्यों नही खाते हो।। थोड़ी सी तकलीफ तो है क्यों इतना चिल्लाते हो।। देश हवा में उड़ता है तुम्ही रेल से जाते हो ।। पुरस्कार क्या पाओगे उलटी कलम चलाते हो।। Suresh Sahani
 नदी तालाब सागर झील झरने तरक्क़ी हैं इन्हीं सब की कतरनें।। हमारे गांव लंगर नाव घर सब तुम्हारे ठाठ हैं इनकी उजड़नें।। अँगूठा द्रोण ने काटा गलत है व्यवस्था ही अंगूठा काटती है। कि गुरुता द्रोण बन कर बेबसी में किसी अन्धे के तलवे चाटती है।। तुम्हारे महल ये अट्टालिकायें हमारी संस्कृति के मकबरे हैं। तुम्हारे शहर तब विकसित हुए जब हमारे लाभ हित घुट कर मरे हैं।। हमारे द्रोण को आज़ाद कर दो तुम्हारी राजतंत्रीय बेड़ियों से। छुड़ा लेगा धरा को एकलव्य तब  विदेशी पूंजीवादी भेड़ियों से।। सुरेश साहनी , कानपुर
 होश खोने दो लड़खड़ाने दो। अपनी आंखों में डूब जाने दो।। इन किनारों को दूर जाने दो। दिल की किश्ती को डूब जाने दो।। तुम कोई गीत बन के आ जाओ मेरे होठों को गुनगुनाने दो।। अपने पहलू में फिर सुलाओ मुझें मेरे ख़्वाबों को जाग जाने दो।। आओ घूंघट उठाओ महफ़िल में ताब वालों को आजमाने दो।।   सुरेश साहनी, कानपुर
 द्रोण जन का पक्षधर क्यों कर हुआ है जबकि राजा ही व्यवस्था कर रहा है हो सुनिश्चित कोई गुरुकुल पक्षधर जनशक्ति का होने न पाए। एकलव्यों को धरा पर ज्ञान का अधिकार है क्या कल अगर सक्षम हुए ये लोग तब हम क्या करेंगे मूर्ख हो तुम द्रोण जिसकी मूर्खता से राजपथ को आज जन का पथ बनाकर निर्धनों की शांत लेकिन धुर अराजक भीड़ का गर्जन सुनाई दे रहा है और अंधे कान के परदे फ़टे से जा रहे हैं हाँ हमें कुछ कुछ दिखाई दे रहा है हस्तिनापुर का सिंहासन हिल रहा है और कुरुकुल पांडु पुत्रों के सहित  इतिहास बनने की दिशा में अग्रसर है ज्ञान की मंथर हवायें  आंधियां बनने न पायें हो सके तो ज्ञान के इन संकुलों को बंद  कर दो आज शिक्षा सिर्फ धनिकों  राजपुत्रों के लिए है यह बता दो   दक्षिणा में हो सके तो प्राण मांगो खेत घर खलिहान सब बंधक बना लो द्रोण या तो राजगुरु पद त्याग कर दो अन्यथा इन गुरुकुलों को बंद कर दो सुरेश साहनी, कानपुर
 जब कभी ख़ुद से ऊब जायें हम। तुम कहो कैसे कैफ़ लायें हम।। और किस के क़रीब जायें हम। किस को अपना यहां बनायें हम।। बेवफ़ाई तो यार ने की है फिर भला अश्क़ क्यों बहायें हम।। दिन उसी वक़्त का तो हिस्सा है वक़्त काटें कि दिन बितायें हम।। बेहतर है कि मयकदे चल दें होश में जब भी लड़खड़ायें हम।।
 खा लेंगे हम जो भी चना चबैना है। खुशियों से अपना क्या लेना देना है।। भारत जीता मैच खुशी की बात तो है फिर छूटा रॉकेट खुशी की बात तो है भाई बना प्रधान विलायत का भईया झूम रहा है देश खुशी की बात तो है पर चाची को हिस्सा एक न् देना है। हमें विलायत से क्या लेना देना है।।....... आयी दीवाली बज़ार में रौनक है खूब मजा मा मोटा भाई शौनक है दौलत है तो रोज मनाओ दीवाली दौलत गाड़ी बंगला चम्मक धम्मक है हम मज़दूरों की छेनी ही छेना है। बस बच्चों के खील बतासे लेना है।।...... सुरेश साहनी कानपुर
 हम तो मशरूफ़ हैं तेरे ग़म में इतनी फुरसत कहाँ  के हम खुश हों।।
 करूँगा क्या मैं ले कर चाँद तारे  मेरा किरदार रोशन हो बहुत है।।साहनी
 इश्क़ के पैरोकार हैं हम भी। आशिकों में शुमार हैं हम भी। हुस्न का नाम ज़ालिमों में है और उसका शिकार हैं हम भी।। दिल किसी ग़ैर को न् दे बैठें उन से कह दो निसार हैं हम भी।। वो हमारा सुकूने दिल है तो उसके दिल का करार हैं हम भी।। गुल का ख़ुद पर यूँ रश्क़ ठीक नहीं उससे कह दो बहार हैं हम भी।। तोड़ कर दिल उन्हें क़रार मिला तो कहाँ सोगवार हैं हम भी।। उनको आने ही दो अयाँ होकर आज कुछ बेक़रार हैं हम भी।। सुरेश साहनी कानपुर
 जब अस्थाना जी आते थे कितने चेहरे खिल जाते थे उनमे कुछ कुछ तो ऐसे थे अब मत पूछो वो कैसे थे पर उन पर नज़रे पड़ते ही ये भी कुछ कुछ खिल जाते थे  कपड़े भी बढ़िया क्रीचदार सॉफिस्टिकेटेड होशियार सब देख इन्हें खुश होते थे ये देख उन्हें मुस्काते थे बेशक़ ये सुघर सजीले थे पर उतने ही शर्मीले थे पर सबको बहन बोलने से इनके रिश्ते कट जाते थे एक बार रिश्ते के लिए लड़की देखने गए तो लड़की से पूछ बैठे थे  बहिन जी आपकी हॉबिज क्या क्या हैं। परिणाम आप समझ सकते हैं इक बार मिली मेरी भाभी उनको माता जी बोल गए जल्दी में भूल गए थे ये जो चश्मा सदा लगाते थे कोई बाला तो शायद ही  इनके ख्वाबों में आई हो ये सपनों की चर्चा में भी अम्मा की बातें लाते थे।। अस्थाना जब भी आते हैं अम्मा बाबू याद आते हैं मुझसे ज्यादा माँ बाबू के अस्थाना जी मन भाते थे।। एक बार टीचर ने बताया नेक काम करने वाले स्वर्ग जाते हैं तुममें कौन कौन स्वर्ग जायेगा एक बच्चे ने उत्तर दिया मैं नहीं जाऊंगा। माँ कहती है सीधे घर आया करो। जानते हैं वो बच्चा कौन था  एक बार टीचर ने पूछा , मंगल सिंह को सौ रुपये के फल लाने के लिए 500 दिए। वो कितने वापस करेगा। इन्होंने कहा
 कृष्ण सबके दिलों में बसता है उसकी मुरली से रस बरसता है उसकी मुस्कान में सरसता है विश्व हँसता है जब वो हँसता है जाने किस वंश का उजाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है......
 वे भगवा वे नीला परचम लेकर दौड़ रहे हैं। हम हैं एक तिरंगे का दम लेकर दौड़ रहे हैं।। वे गर्दन तक डूब गए हैं नफ़रत के सागर में हम लहरों के ज़ेरो बम को लेकर दौड़ रहे हैं।। वे दिन रात पिये जाते हैं पर संतोष नहीं है हम हैं सिर्फ़ सुराही का खम लेकर दौड़ रहे हैं।। आलम दौड़ रहा है अपनी ख़ातिर अंधा होकर  पर हम किसकी ख़ातिर आलम लेकर दौड़ रहे हैं।। नफ़रत फुर्तीला करती है हम मज़हब वालों को ये त्रिशूल ताने वो बल्लम लेकर दौड़ रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या मुहब्बत धूप है  जो रोशनी में साथ है या मुहब्बत घटती बढ़ती चांदनी का साथ है या मुहब्बत तीरगी में अनछुआ एहसास है या मुहब्बत वो है जो केवल तुम्हारे पास है पास रहना ही तुम्हारा खुशनुमा एहसास है साथ होते हो तो लगता है मुहब्बत पास है पर मुहब्बत तब भी रहती है हमारे जेहन में डूबते हैं जब कभी  ऐ दोस्त यादे-कुहन में सिलसिले यादों के  थमते ही नहीं हैं रात भर ख़्वाब आंखों में  उतरते ही नहीं हैं रात भर लोग कहते हैं मुहब्बत का यही अंदाज़ है जिसको दुनिया जानती है आशिक़ी वो राज़ है.....
 दूज तीज छठ अब भी है। गंगा का तट अब भी है।। अरबों रुपये फूंक दिए कूड़ा करकट अब भी है।। नैतिकता के मानी क्या नेता लम्पट अब भी है ।। किसको फुर्सत सुनने की जो था बतकट अब भी है।। बच्चों की पहली ख्वाहिश टॉफी कम्पट अब भी है।। मानसरोवर जाने में उतनी झंझट अब भी है।। चित तो तब भी अपनी थी  अपनी ही पट अब भी है।। इस शमशानी संसद से बेहतर मरघट अब भी है।। तुम सुरेश को क्या जानो सच्चा मुँहफट अब भी है।। Suresh sahani
 आज  मैंने उसे  पढ़ा खुलकर । आज ही वो मुझे मिला खुलकर।। कोई मधुमास हो गया खुलकर। और सावन बरस पड़ा खुलकर।। इश्क़ में गाँठ था पुरानापन हो गया फिर नया नया खुलकर।। आज की रात क्या क़यामत थी आज की रात मैं जिया खुलकर।। अल सुबह  गुनगुना उठा कोई आज सूरज भी था खिला खुलकर।। ख़ुश्क होठों का नीम पलकों से कोई किस्सा बयां हुआ खुलकर।। साहनी भी कमाल करता है जो न कहना था कह दिया खुलकर।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ताउम्र अपने दरमियाँ  जो फासले रहे। हैरत है इसके बाद भी रिश्ते बने रहे।। गैरों ने हर कदम पे सहारा दिया मगर हम उनको क्या कहेंगे जो अपने बने रहे।।SS
 दमदार ग़ज़लगो है क़ता ढूंढ़ रहा है। किस दौर में वो अहले वफ़ा ढूंढ़ रहा है।। तहज़ीबो-तमद्दुन जहाँ लाचार पड़े हैं इस दौर में वो शर्मो-हया ढूंढ़ रहा है।। उम्मीद को बुझने नही देती है यही बात वो स्याह अंधेरों में शमा ढूंढ़ रहा है।। वो मुल्क में बीमारी-ए-नफ़रत का पसरना वो मर्ज़ की जड़ और दवा ढूंढ़ रहा है।। दामन है तारतार गरीबी की वजह से अब मीडिया उसमे भी मज़ा ढूंढ़ रहा है।। क्यों अपनी बहन देख के होटल में खफ़ा है गर अपने लिए जिस्म नया ढूंढ़ रहा है।। शायद कि किसी काम तेरे आ सके #अदीब क्या है जो तू औरों से सिवा ढूंढ़ रहा है।।                           -- सुरेशससाहनी 'अदीब"
 क्षतियाँ स्वाभाविक हैं फसलें भी तैयार होने तक तीस प्रतिशत नष्ट हो जाती हैं यह सहज है हर पदार्थ की अर्धायु होती है जीवन मे सारा समय उपयोग में नहीं गुज़रता हमनें देखा है आग जलने पर पूरी ऊर्जा  का उपयोग नहीं हो पाता बिजली, बरसात ,धूप और जीवन के सभी हासिल कभी पूरी तरह  इस्तेमाल नहीं हो पाते और तो और  कुछ भी पूरी तरह नष्ट भी नहीं होता यह सब सत्य है,  सहज है ,फिर भी  हम सहज नहीं हो पाते पूरी तरह....... Suresh Sahani
 चलो विजय पथ पर चलते हैं आशा के रथ पर चलते हैं।। हम हारे या मन हारा है क्या अपना जीवन हारा है यह पड़ाव है उस मंज़िल तक हम अपने कथ पर चलते हैं।। कांटे कंकड़ पत्थर क्या है फिर साहस से बढ़कर क्या है चलों लिए विश्वास आज फिर मन के सारथ पर चलते हैं।। जीवन तो फिर भी जीना है अमृत सा हर विष पीना है यदि शिवत्व अपना अभीष्ट है इसी मनोरथ पर चलते हैं।। रम्भा जैसी सुर बालायें कितना ही मन को भटकायें एक लक्ष्य है विजय प्राप्ति कर रतिपति मन्मथ पर चलते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आये थे घिर के शाम को बादल कहाँ गये। लेकर के मेरी आँख से काजल कहाँ गये।। मेरी गली ही आज लगी अजनबी मुझे जाने मेरे मिजाज के पागल कहाँ गये।। वो अहले हुस्न जाने-बहारों के काफिले  आख़िर वो होके आँख से ओझल कहाँ गये।। अक्सर इसी दयार से गुजरा किया था में यां थे कई हरे भरे जंगल कहाँ गये।।
 इश्क़ के दर्द जो पाले होते। हम भी खुशियों के हवाले होते।। उनके पांवों में भी छाले होते। जो तेरे चाहने वाले होते।। मेरे अफसानों में तुम हो वरना ख़ाक़  यादों में उजाले होते।। सर हथेली पे लिए आते हम तुमने नेजे तो निकाले होते।। उनके परदे का ख़याल आता है वरना अपने भी रिसाले होते।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हम किसी को दोष क्या दें। क्यूँ न हम खुद को सम्हालें।। उन पे अंगुली क्या उठायें हम स्वयं में क्यों न झाकेँ आईना  मैला  नहीं हैं धूल  चेहरे पर है  झाड़ें।। मंदिरो-मस्जिद से पहले दिल में इक दीपक जलाएं।। एक दिन दौलत से ज्यादा काम आती हैं सदायें।। क्यों न लें अपनी गरज है दीन दुखियों से दुवाएं।।
 हुलस के उससे मैं मिलने गया था राजभवन लिबास देख के निगाह फेर ली उसने। वो कह रहा था दवा देगा एक दिन लेकिन मैं बेक़रार जो ठहरा अभी लगा मरने।।
 इस कहानी को सिलसिला मत दो दिल को यादों का वास्ता मत दो।। कुछ सलीके से भी रहा करिये तोड़कर दिल ये मशविरा मत दो।। दौड़ कर वो गले न लग जाये प्यार को इतना फासला मत दो।। लोग पत्थर के हो गए हैं अब हो सके इन को आईना मत दो।। भूल जाये तो भूल जाने दो दिल की गलियों में रास्ता मत दो।। इक दफा दिल को मर्तबा देकर फिर ख़ुदा को भी मर्तबा मत दो।। सुरेश साहनी
 दूर रहकर भी नदी के  हृदय में तुम नित उतरते यह नदी की जीत है या प्रेम से अभिभूत होकर तुम समर्पण नित्य करते.... पर नदी भी प्यार में डूबी हुई है
 तुम्हारे रुख की रंगत  कम हुई है। कहो किस से मुहब्बत कम हुई है।। इधर कुछ कम हुईं हैं शोखियाँ भी निगाहों की शरारत कम हुई हैं।। गले मिलने लगे हैं लोग फिर से दिलों के बीच नफ़रत कम हुई है।। ज़रूरत हो गयी है आज हावी तो है तस्लीम ग़ैरत कम हुई है।। हुआ करती थी कल तक आज लेकिन कलमकारों की अज़मत कम हुई है।। जवानी में हुआ करते थे चर्चे कहें क्या जब कि शोहरत कम हुई है।। उन्हें हम कर चुके हैं माफ लेकिन वो कहते हैं मुरौवत कम हुई हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हाँ उन्हें हर्फ़े वफ़ा याद नहीं। मुझको भी उनकी जफ़ा याद नहीं।। आदतन वो ये कहा करते हैं ये उन्हें पहली दफा याद नहीं।। इश्क़ सौदा था कोई उनके लिए मुझको नुकसान नफा याद नहीं।। दर्दे दिल कब से हैं कैसे बोलें जब उन्हें इसकी शिफा याद नहीं।। हाँ वो दुनिया से ख़फ़ा हैं लेकिन कोई उनसे है ख़फ़ा याद नहीं।। दिल के ज़ख्मों को सजा लें बेहतर हमको तरकीबे-रफ़ा याद नहीं।। झूठ क्यों बोलें छिपाएं क्यों कर बात कहते हैं सफा याद नहीं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 अन्धे युग मे अंधा होकर जीना सीख रहा हूँ। हद से ज्यादा सीधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। पूरा होना मुश्किल होकर जीना भी मुश्किल है आधे से भी आधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। इतनी ज़िम्मेदारी लेकर आया हूँ इस जग में बचपन मे ही बूढ़ा होकर जीना सीख रहा हूँ।। आदत डाल रहा हूँ मैं हर हालत में चल पाऊँ मैं जूता चमरौधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सीधे चलकर देख लिया दुनिया उल्टा चलती है मैं ऐसे में औंधा होकर जीना सीख रहा हूँ।। मस्ती में जब झूम रहे हैं शैतानों के प्यारे मैं मालिक का बन्दा होकर जीना सीख रहा हूँ।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
 जो ना समझे पीर पराई नेता जी। कैसे उसकी करें बड़ाई नेता जी।। उनके घर होटल से खाना आता है वो क्या समझेंगे महगाई नेता जी।। तुम बिलियन ट्रिलियन की बातें करते हो हमको मुश्किल हुई दहाई नेता जी।। फांके करवा देती है जब बढ़ती है जीएसटी में आना पाई नेता जी।। बातों से तुम करुणा सागर लगते हो किन्तु कर्म से हुये कसाई नेता जी।।
 फासले से भी प्यार होता है इश्क़ नज़दीकियाँ नहीं होती।। हुक्मरां बन के यूँ न इतराओ मौत की अर्ज़ियाँ नहीं होती।।
 दिल के सहराओं में एहसास के चश्मे लेकर फिर से आया है कोई प्यार के वादे लेकर।।SS
 कैसे अपनी साख बचाएं। पेटीएम से काम चलायें।। मुफ़लिस अपनी गुल्लक फोड़ें देश को काला धन लौटाएं।। इससे यह शिक्षा मिलती है गिरहस्ती में कुछ न छिपाएं।। वरना मियां पूछ ही लेंगे कर्रे नोट कहाँ से आये।। फिर से फुटकर नोट चलेंगे उस ने अच्छे दिन लौटाए।। झोली भर पैसे ले निकले  मुट्ठी भर राशन ले आये।।
 सोच रहे होगे यह आफत भारी है। इसको कविता लिखने की बीमारी है।। चौबीस घण्टे यह लिखता ही रहता है क्या यह कविता का एन डी तीवारी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वक्त बे वक्त निकल पड़ता है। दर्द लफ़्ज़ों में मचल पड़ता है।। दिल तो पत्थर है मगर आंखों से कोई चश्मा सा उबल पड़ता है।। तेरे आने से निकल पड़ती हैं जां दिल न आने पे दहल पड़ता है।। बेवज़ह कब्र पे दस्तक मत दो नींद में अपनी ख़लल पड़ता है।। इस तरह याद न आया करिये अपनी पेशानी पे बल पड़ता है।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम उसे ऐसा कहो हम क्यों कहें! तुम उसे वैसा कहो हम क्यों कहें! हम जिसे जैसा कहें तुम क्यों कहो! झूठ या सच जो कहें तुम क्यों कहो! हम सही हैं तुम सही हो सब सही। पर अहम का रास्ता अच्छा नहीं।। सुरेश साहनी
 लो दाँत हमारे अंदर हैं नाखून भी हमने समेट लिए अब कुछ दिन तक  आसानी से तुम हमपे यकीं कर सकते हो... यूँ भी घर के जल जाने तक हम घर की हिफाज़त करते हैं हम उनमें हैं जो उम्मत से बेलौस मुहब्बत करते हैं पर वस्ल मुकम्मल होने तक फिलहाल इलेक्शन होने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।। हाँ प्यासों के मर जाने पर हमने भी कुयें खुदवाए हैं कुछ भूखों के मर जाने पर हमने लंगर चलवाये हैं कुछ भूखे प्यासे मरने तक अपनी साँसों के चलने तक तुम हमपे यकीं कर सकते हो।।
 हम ज़ुल्म के खिलाफ क्या लड़ते लड़ते तो मारे जाते क्योंकि समर्थ पर ज़ुल्म नहीं होते हम कभी विद्रोही कभी नक्सली और कभी आतंकी कहकर सताए जाते  आख़िर हम अपनी हद में  क्यों नहीं रहते उनकी सुविधाओं के रास्ते मे आने का हमें क्या हक़ है ये गांव,ये शहर,ये आलीशान  हवेलियां ये बीच ये रिसॉर्ट्स ये कॉटेज और ये इठलाती हुईं सड़कें और ये कोयला पत्थर,बालू, मोरंग उगलती खानें ये खेत ये खलिहान और इन पर उगे सपने हमें क्या हक़ है ये तहसीलें, ये अदालतें ये दफ्तर ये फाइलें ये बाबू ये अफसर और वो राजपथ से जुड़ी इमारतें हमें क्या हक है कि हम इन पर अपना हक जताएं और ऐसा भी नहीं है कि हमें हक़ ही नहीं हमको हक़ है कि किसी हक़ के लिए अपनी हद में बड़ी ख़ामोशी से हो रहे ज़ुल्म को सहते जायें और इंसाफ को इतना समझें ये हमारे लिए होती ही नही.....
 अपनी केवल इतनी भूख। उनकी जाने कितनी भूख।। सबके अपने अपने सपने सबकी अपनी अपनी भूख।। कुछ की एक कटोरी भर है कुछ की थाली जितनी भूख।। लदी हुई है  मजदूरों पर  सेठ तुम्हारी वज़नी भूख।। आखिर तुमको क्यों लगती है इंसां की  बदचलनी  भूख।। आदमखोर तेरी फ़ितरत में कुटिल हवस की जननी भूख।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तीरगी छा गई है बस्ती में। नूर है किसकी सरपरस्ती में।। लोग कुछ मयक़दे नहीं आये आग लगनी है किसकी  मस्ती में।। एक दरवेश जो शहनशा है कितनी हस्ती है एक हस्ती में।। पास कुछ भी नहीं है खोने को सिर्फ़ मस्ती है तंगदस्ती में।। आप से इश्क़ माफ करिएगा हम हैं मशरूफ़ घर गिरस्ती में।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चुप जो रहती है उसकी खामोशी। कुछ तो कहती है उसकी खामोशी।। वो नही बोलती  किसी शय से बोल पड़ती है उसकी खामोशी।। तंज़ उसके कभी नहीं अखरे पर अखरती है उसकी खामोशी।। उस तबस्सुम को गौर से देखो खूब जँचती है उसकी खामोशी।। कहकहे सब बिखर गए उसके सिर्फ़ दिखती है उसकी खामोशी।। जब कभी वो उदास होता है खूब हँसती है उसकी खामोशी।। साहनी फूट फूट रोता है जब उभरती है उसकी खामोशी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेशक़ फ़ितरत से आवारा मैं ही था। घर के होते भी बंजारा मैं ही था।। तुमने जो मांगा था मन्नत  याद नहीं आसमान से टूटा तारा मैं ही था।। इन अश्कों के सागर किसने देखे हैं हैफ़ समुंदर जितना खारा मैं ही था।।
 दर्द जाकर किसे सुनाते हम। लोग हंसते तो मर न जाते हम ।। उस मसीहा से क्या छुपाते हम। या बताते तो क्या बताते हम।। जब तुम्हीं ने यक़ीन तोड़ दिया फिर भला किस को आज़माते हम।। फिर ठिकाना कोई कहाँ मिलता उस ख़ुदा को अगर भुलाते हम।। आसमानों की ओर आना था क्या ज़मीनों पे घर बनाते हम।। जो मुअज्जिन की तू नहीं सुनता फिर भला किस तरह बुलाते हम।। साहनी पहले से ज़मीन पे है और कितना उसे गिराते हम।।        साभार Suresh Sahani SiR
 घाव दिल पर मेरे लगा तो था  हाँ मुझे दर्द कुछ हुआ तो था।। हाल सबने मेरा सुना तो था। कौन रोया कोई  हँसा तो था।। जाल फेंका था फिर वही उसने मेरे जैसा कोई फँसा तो था।। मान लेते हैं तुम नहीं कातिल क़त्ल मेरा मगर हुआ तो था।। उसमें ढेरों बुराईयाँ भी थी साहनी आदमी भला तो था।। सुरेश साहनी कानपुर
 मन यायावर है यह सच है तन नाहक भटका करता है यत्र तत्र फैले रंगों में जहां तहां अटका करता है
 सिर्फ आना था और चलना था। क्या ख़ुदा पर कोई यक़ीन करे जब उसे आदमी को छलना था।। साँप जब आस्ती में पलना था।।sahni
 जैसे जैसे ज़िन्दगी जाती रही। मौत की परवाह भी जाती रही।। उम्र ने जैसे कहीं ठहरा दिया और फिर आवारगी जाती रही।। ख़ुश्कियाँ सहरा को पाकर कम हुई और लब से तिश्नगी जाती रही।। अहले दिल आये अना के नूर में इश्क़ वाली रोशनी जाती रही।। अब भी है इब्लीस ग़ालिब चारसू कैसे माने तीरगी जाती रही।। फिर किरायेदार ढूढेंगे नया याद दिल से आपकी जाती रही।। साहनी अब आदमी हैं काम के वक़्त रहते आशिक़ी जाती रही।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कौन इतना सँवर के आया है। चाँद है या कि उसका साया है।। डर सा लगता है उसको छूने में दिल ने भी किस से दिल लगाया है।। सच है सौ फीसदी मै उसका हूँ वो मेरे हक़ में कितना आया है।। चाँदनी से मैं जल गया होता धूप की   बर्फ ने   बचाया है।। चांदनी भी उसी से लिपटी है जिसने हरदम उसे सताया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब हम आते हैं तरंग में। रस बरसाते हैं तरंग में।। सब कहते हैं जादू सा है जो हम गाते हैं तरंग में।। नहीं सुना तो क्यों यह माने लोग बुलाते हैं तरंग में।। कुछ कहते हैं भाव न् खाओ हम तो खाते हैं तरंग में।। और कहीं सचमुच दुर्लभ है जो हम पाते हैं तरंग में।। आओ इसमे तब जानोगे क्यों सब आते हैं तरंग में।। अज्ञानी पूछा करते हैं क्या समझाते हैं तरंग में।। ख़ुद अज्ञात रहा करते है  वे जो लाते हैं तरंग में।। हम सुरेश कब रह जाते हैं जब रंग जाते हैं तरंग में।। सुरेश साहनी कानपुर
 चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो। आज अवगुंठन हृदय के  खोल दो कुछ बोल दो।।....... क्या समय की वर्जनाओं ने कभी रोका तुम्हें या कि दुनिया की प्रथाओं ने कभी रोका तुम्हें हर प्रथा हर वर्जना को  तोड़ कर प्रिय बोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... प्रेम की बहती नदी में कल रवानी हो न हो आज हम तुम साथ हैं कल ज़िंदगानी हो न हो अपनी नीरस ज़िन्दगी में  शादमानी घोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।...... आज हाथों से निकलने का न कल अफ़सोस हो आज का अमृतकलश कल सिर्फ़ सूखा कोष हो आज ही हर शब्द को  स्वर्णाक्षरों का मोल दो।। चुप न बैठो आज प्रिय  कुछ बोल दो कुछ बोल दो।।....... सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम्हें देखना था अगर देखना था। तुम्हारे सिवा फिर किधर देखना था।। तुम्हारी गली से गुजरने का मक़सद ख़ुदारा तुम्हे इक नज़र देखना था।। मेरे चाँद को फ़िक्र थी चांदनी की सितारों को शायद सहर देखना था।। कभी छाँव में जिसकी हम तुम मिले थे मुझे आज फिर वो शज़र देखना था।। चलो राख उन हसरतों की कुरेदें मुझे इश्क़ का वो शरर देखना था।। कहो तो तुम्हारी निगाहों से देखें मुझे मेरे ख़्वाबों का घर देखना था।। सुरेश साहनी कानपुर
 राजा साहब को चमचे ही घेरे हैं। वे सोचें हैं , जनता उनके पीछे है।। समय नहीं जनता ही यह बतलाएगी अब ज़मीन किसके कदमों के नीचे है।। Suresh Sahani
 सामने दिल की बात करते हो। और मुड़ते ही घात करते हो।। तोड़ कर इस तरह से नाज़ुक दिल खुद को महवे-नशात करते हो।।
 आखिर मुझसे इतनी बातें क्यों करती हो। अपने दिल के कोने में कुछ तो रखती हो।। ऐसा हूँ  मैं,    वैसा हूँ  मैं,    कैसा हूँ  मैं तुम बतला दो जैसा भी सोचा करती हो।। आखिर तुम को कौन उड़ा कर ले जायेगा जाने क्यों दिन में सपने देखा करती हो।। छोड़ के चल दोगी एकदिन औरों के जैसे नाहक़ साथ निभाने वाले दम भरती हो।। Suresh Sahani Kanpur
 अल्लाह नहीं था जब भगवान नहीं थे जब।। क्या था तेरी दुनिया में इंसान नहीं थे जब।। नफ़रत के तलातुम कभी ऐसे नहीं उठते थे मज़हब की सियासत के तूफान नहीं थे जब।। हद से भी कहीं ज़्यादा तब होगी हसीं दुनिया अलक़ाब न थे इतने उनवान नहीं थे जब।। तुझको तो पता होगा कैसी थी मेरी दुनिया ये रीत धरम दीनो-ईमान नहीं थे जब।। क्या तब भी तेरी  दुनिया इतनी बड़ी दिखती थी ये रेल नहीं थी जब वीमान नहीं थे जब।। जो बात करो दिल से वो दिल को पहुंचती थी मुश्किल थे कहाँ रस्ते आसान नहीं थे जब।। क्या तब नहीं करते थे बातें वे ग़ज़ल जैसी दुनिया में तेरी रुक्न-ओ-अरकान नहीं थे जब।। क्या इश्क़ तेरी दुनिया मे तब भी रहा होगा इस ख़ल्क़ में नफ़रत के सामान नहीं थे जब।। ये शेखो बरहमन क्या तब भी थे भले इतने मौला तेरी दुनिया में शैतान नहीं थे जब।। सुरेश साहनी ,अदीब कानपुर
 अक्सर जब विद्यालय खुलने लगते हैं। कुछ बच्चों के  ख़्वाब मचलने लगते हैं।। पर फांके की आहट उन्हें जगाती है वे फिर कूड़ा करकट बिनने लगते हैं।। माँ की खांसी में बेबस आशाएं  हैं आशाओं में द्वंद पिघलने लगते हैं।। भूखे भाई बहनों की अकुलाहट में ये चिंतन से बूढ़े लगने लगते हैं।। बाप नशेड़ी सीधा डंडा रखता है जब वे आड़ा-तिरछा चलने लगते हैं।। नियति उन्हें अहसास दिलाने लगती है उनके ख़्वाब उन्हें ही छलने लगते हैं।। सभ्य लोग और गांव गली के कुत्ते भी उन्हें देख तत्काल भौकने लगते हैं।। क्या ये भी अपने भारत की थाती हैं मन मे कई सवाल कौंधने लगते हैं।। Suresh Sahani
 चली जब बात तुम फिर याद आये। दुखे जज़्बात तुम फिर याद आये।। सुकूँ से दिन कटा मशरूफ़ रहकर हुई जब रात तुम फिर याद आये।। सुरेश साहनी कानपुर।
 उम्र भर दरवेश जैसा ही रहा। भीड़ में रहकर भी तन्हा ही रहा।। वक़्त बदला लोग भी बदले मग़र एक मैं जैसा था वैसा ही रहा।।साहनी
 आप बरहम हैं तो क्या हम मुस्कुराएं भी नहीं। गीत गाना छोड़ दें हम गुनगुनाएं भी नहीं।। पास रहने पर उन्हें गोया बड़ी तकलीफ है और उस पर उज़्र यह हम दूर जाएं भी नहीं।।  उन की चाहत है कि उनके ज़ुल्म हम हँस कर सहें और वो ऐंठे रहें हम कुनमुनाये  भी नहीं।। वो ये चाहें हैं कि सब आवाज अपनी घोट लें जानवर बोलें न् पंछी चहचहायें भी नहीं।। और हम अपनों के हक़ में सोचना भी छोड़ दें यूँ कि अपनों के लिए मांगे दुआयें भी नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर
 शहर में आईने सस्ते हुए हैं।  न जाने लोग क्यूँ सहमे हुए हैं।। मुझे कुफे की बैय्यत देने वालों मुझे बख्शो बहुत धोखेे हुए हैं।। दिखाओ ख्वाब मत अच्छे दिनों के जो अच्छे थे ज़माने जा चुके हैं।। सुरेश साहनी
 मैं सोच रहा हूँ कि हमारा समाज सत्य में जाग गया है या जागने का दिखावा कर रहा है।लेकिन यह सत्य है कि प्रदेश सरकार जाग रही है।उसके मंत्री जाग रहे हैं।उसके समर्थक जाग रहे हैं।मीडिया सुविधानुसार जागता या सोता है। अब प्रदेश में किसी के मरने पर अंतिम संस्कार की चिन्ता नहीं होती। अभी अख़लाक़ का अंतिम संस्कार किया गया।दनकौर में आबरू का विसर्जन हुआ।अब ताजा घटना मऊ जनपद में ग्राम बैजापुर दक्षिण टोला में घटी है।यहाँ एक गरीब निषाद युवती एक दबंग यादव ग्राम प्रधान की हवस का शिकार नहीं बनने पर जिन्दा फूंक दी गयी।आज मेरी उस गांव में 13 साल के साक्षी चंदन से  बात हुयी है।चन्दन के अनुसार उस महिला का बयान रिकार्ड किया गया था।मजिस्ट्रेट के बयान में तीन नाम थे।थाने में सपा समर्थक प्रधान और उसके साथी का नाम हटा दिया गया ।केवल उक्त महिला के एक पट्टीदार का नाम रिपोर्ट में रखा गया । प्रशासन संतुष्ट है कि उस गरीब के अंतिम संस्कार का खर्चा बच गया।वरना उसका पति कहाँ से उसका अंतिम संस्कार कर पाता।वह तो बेचारा खुद अपने भरण पोषण के लिए परदेश में मजदूरी करने गया है।प्रशासन चिंतित तब होता जब वह किसी सबल जाति की महिला हो
 खुद को खोया ,खुद को पाया। तब मैंने क्या   ख़ाक कमाया।। हुए अरबपति श्री संत जी समझाते हैं सब है माया।। जन्मजात मैं रहा बावरा या ज्ञानी हो कर बौराया ।। कैसे बात समझ में आती कहाँ किसी ने कुछ समझाया।। अनपढ़ था तो लिख लेता था और पढ़ा तो लिखा लिखाया।। प्राण नहीं तो तैर रहा है प्राण रहे तो तैर न पाया।। जाना था जब हाथ झार कर  नाहक़ इतना समय गंवाया।। Suresh sahani, kanpur
 कभी कभी सच ऐसे भी जिन्दा रखा है। बोला है पर चेहरे पर पर्दा रखा है।। तुम मेरी पहचान के लिए व्याकुल क्यों हो क्या मेरे चेहरे पर सत्य लिखा रखा है।। क्या चेहरा दर चेहरा सच बदला करता है आखिर ऐसे बदलावों में क्या रखा है।। अब उसकी बातों को सारे सच मानेंगे उसने अपना नाम तभी बाबा रखा है।। साथ चलो यदि चल न सको तो मिल कर बोलो अपना और पराया क्या फैला रखा है।।
 कर सकते हो शक्ति से,मसिजीवी खामोश। कैसे कुचलोगे मगर ,जनता का आक्रोश।।SS
 जहां नजदीकियां बढ़ने लगी हैं। दिलों में दूरियां बढ़ने लगी हैं।। जमीं के लोग छोटे दिख रहे हैं मेरी ऊंचाईयां बढ़ने लगी हैं।। हम अपनी खामियां देखें तो कैसे नज़र में खामियां बढ़ने लगी हैं।। हमारा ताब ढलना चाहता है इधर परछाईयाँ बढ़ने लगी है।। सम्हलने के यही दिन है मेरी जां बहुत बदनामियाँ बढ़ने लगी हैं।। हमें मालूम है तौरे-ज़माना मग़र हैरानियाँ बढ़ने लगी हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ज़ीस्त अपनी निकल गयी आख़िर। मौत  आयी थी  टल गई आख़िर।। आरज़ू कब   तलक जवां  रहती उम्र के  साथ   ढल गयी आख़िर।। नौजवानी   ढलान  पर   आकर बचते बचते फिसल गई आख़िर।। आपने भर निगाह देख लिया इक तमन्ना मचल गयी आख़िर।। हुस्न होता भले बहक जाता पर मुहब्बत सम्हल गयी आख़िर।। उम्र के इस पड़ाव पर आकर ज़िंदगानी  बदल  गयी आख़िर।। Suresh Sahani,kanpur
 मैं कण कण में हूँ बतला भी सकते थे। मेरा मत जन तक पहुंचा भी सकते थे।। मेरे फेके सच के पत्थर डूब गए मेरे भक्त उन्हें तैरा भी सकते थे।। SS