हम ज़ुल्म के खिलाफ क्या लड़ते

लड़ते तो मारे जाते

क्योंकि समर्थ पर ज़ुल्म नहीं होते

हम कभी विद्रोही कभी नक्सली

और कभी आतंकी कहकर सताए जाते 

आख़िर हम अपनी हद में 

क्यों नहीं रहते

उनकी सुविधाओं के रास्ते मे

आने का हमें क्या हक़ है

ये गांव,ये शहर,ये आलीशान  हवेलियां

ये बीच ये रिसॉर्ट्स ये कॉटेज

और ये इठलाती हुईं सड़कें

और ये कोयला पत्थर,बालू, मोरंग

उगलती खानें

ये खेत ये खलिहान और इन पर उगे सपने

हमें क्या हक़ है

ये तहसीलें, ये अदालतें ये दफ्तर

ये फाइलें ये बाबू ये अफसर

और वो राजपथ से जुड़ी इमारतें

हमें क्या हक है कि हम

इन पर अपना हक जताएं

और ऐसा भी नहीं है कि हमें हक़ ही नहीं

हमको हक़ है कि किसी हक़ के लिए

अपनी हद में बड़ी ख़ामोशी से

हो रहे ज़ुल्म को सहते जायें

और इंसाफ को इतना समझें

ये हमारे लिए होती ही नही.....

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