अक्सर जब विद्यालय खुलने लगते हैं।

कुछ बच्चों के  ख़्वाब मचलने लगते हैं।।

पर फांके की आहट उन्हें जगाती है

वे फिर कूड़ा करकट बिनने लगते हैं।।


माँ की खांसी में बेबस आशाएं  हैं

आशाओं में द्वंद पिघलने लगते हैं।।

भूखे भाई बहनों की अकुलाहट में

ये चिंतन से बूढ़े लगने लगते हैं।।


बाप नशेड़ी सीधा डंडा रखता है

जब वे आड़ा-तिरछा चलने लगते हैं।।

नियति उन्हें अहसास दिलाने लगती है

उनके ख़्वाब उन्हें ही छलने लगते हैं।।


सभ्य लोग और गांव गली के कुत्ते भी

उन्हें देख तत्काल भौकने लगते हैं।।

क्या ये भी अपने भारत की थाती हैं

मन मे कई सवाल कौंधने लगते हैं।।

Suresh Sahani

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