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Showing posts from July, 2023
 बला से नाम वाला हो गया हूँ। मगर कितना अकेला हो गया हूँ।। तकल्लुफ एक हद तक ही भली है इसी से तो अलहिया हो गया हूँ।। तुम्हे ही आज मैं लगता हूँ पागल तुम्हारा ही दीवाना हो गया हूँ।। सुख़न की महफ़िलें फिर से सजेंगी अदब का मैं इदारा हो गया हूँ।।
 उस का सुमिरन भूल न जाना कुछ भी सुनना और सुनाना काम कलुष में ऐसा लिपटा काया हुयी कामरी काली अब चादर क्या धुल पायेगी घड़ी आ गयी जाने वाली बिगड़ा तन का तानाबाना।। कई हक़ीक़त दफ़्न हो गए एक कहानी के चक्कर में बचपन से आ गया बुढ़ापा रहा जवानी के चक्कर में अब क्या खोना अब क्या पाना।। मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रार तक जा सकता था  मानव जन्म लिया था इसमें मैं भी प्रभु को पा सकता था ज्ञानी होकर रहा अजाना।।
 आज कुछ हम भी सेल्फियाये हैं। खुद ही देखे हैं खुद लजाये हैं।। हम पे इतना यक़ीन ठीक नहीं हम अभी खुद को आजमाये हैं।। तुम पे कुर्बान हो नही सकते और भी चाहतें दबाये हैं।। दूर कितनों से हो गए जबसे हम तुम्हारे करीब आये हैं।। अपनी आदत से तंग हैं हम भी पर न क़ाफ़िर से छूट पाये हैं।।
 तुमको गुल या गुलाब क्या लिखते। फस्ले-गुल पर क़िताब क्या लिखते।। हुस्न लिखने में स्याहियां सूखीं इश्क़ था बेहिसाब क्या लिखते।। तुम हमारा बदल न ढूंढ़ सके हम तुम्हारा ज़बाब क्या लिखते।। तेरे शीशे में ग़र नहीं उतरे हम तुम्हे लाज़वाब क्या लिखते।। तुम नहीं थे तुम्हारी यादें थीं और खाना ख़राब क्या लिखते।। होश आये तो कुछ लिखें तुमपर  हुस्न सागर शराब क्या लिखते।। ज़िन्दगी को नहीं समझ पाये ज़िन्दगी का हिसाब क्या लिखते।।
 दिल की सब बीमारियां जाती रहीं। इस तरह रूसवाइयां जाती रहीं।। दर्द हैं, कुछ रंज़ है, यादें भी हैं तुम गये तनहाइयाँ जाती रही।। ख़्वाब थे कुछ नर्मदिल आते रहे नींद थीं हरजाईयाँ जाती रहीं।। शामें-हिज़्रां ने अनलहक़ कर दिया झूठ थीं परछाईयाँ जाती रहीं।। नेकियों के फल हमें ऐसे मिले क़ल्ब की अच्छाइयां जाती रहीं।। ऐ खुदा तेरा भी घर वीरान है अब तो अपनी दूरियाँ जाती रहीं।।
 मैं अच्छा कवि होता/ यदि मैं गिद्ध को बाज/ और बाज़ को कबूतर कहता/ वर्तमान से आंख मूंद लेता /और बुरे हालात को /अच्छे दिन का आगाज़ कहता मैं बेशक़ अच्छा होता/ यदि तुम्हारे झूठ की ताईद करता मैं और अच्छा होता/ यदि मैं कहता/ बकरे मुल्क़ के लिए नुकसानदेह हैं पर अफ़सोस मैं ....
 दुनिया में कुछ भी हैरतअंगेज नहीं। ऐसा क्या है जो कुछ मानीख़ेज़ नहीं।। इन हालातों में जीना कुछ मुश्किल है वरना मरने से किसको परहेज़ नहीं।।
 नफ़रत सिखाने के इतने इदारे।। सीखें मुहब्बत कहाँ से बिचारे।। ज़माना है आँधी या तूफान कोई कहाँ बच सकेंगे ये छोटे शिकारे।। ये लाज़ो-हया सब हैं माज़ी की बातें निगाहों में होते थे पहले इशारे।। ज़माना मुनाफागरी पे फिदा है मुहब्बत के धंधे में खाली ख़सारे।। हमें भी डूबा ले मुहब्बत में अपनी बहुत रह लिए हम किनारे किनारे।। तेरे साथ के चार दिन ही बहुत है न कर और लम्बी उमर की दुआ रे।। सुरेशसाहनी कानपुर
 #पीड़ामुजफ्फरपुर हाकिम अंकल जब आते थे बड़े प्यार से समझाते थे कपड़े क्या हैं इक बन्धन हैं बन्धन के आगे जीवन है बन्धन खोलो मुक्ति मिलेगी पहले थोड़ी दिक़्क़त होगी फिर ज्यादा आराम मिलेगा उप्पर से पैसा बरसेगा तब मालिक को काम मिलेगा फिर हम काठ करेजा हाकिम क्रूर जानवर हो जाते थे हम जीकर फिर मर जाते थे जब हाकिम अंकल आते थे... सुरेश साहनी,कानपुर
 खुशियों के आलम भी होते। खुश अपने बरहम भी होते।। ये सचमुच अनजान सफर है तुम होते तो हम भी होते।। होते हैं जब गुल कांटों में शोलों में शबनम भी होते।। सब्र क़यामत तक रखते तो वादे पर क़ायम भी होते।। सचमुच का मौला होता तो हौव्वा -औ- आदम भी होते ।। हम ज़िंदा होते तो बेशक़ अपने खून गरम भी होते।। पेंचोखम उनकी ज़ुल्फ़ों  के हम होते तो कम भी होते।। मुल्क़ अगर जिंदा होता तो आवाज़ों में बम भी होते।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 सोचा था हम तन्हा तन्हा रो लेंगे। क्या मालुम था आँसू खुल कर बोलेंगे।। चेहरा राज़ बता देगा मालूम न था सोचा था चुपके से आँसू धो लेंगे।। सोचा  था ख्वाबों में मिलने आओगी बस यूँही इक नींद जरा हम सो लेंगे।। कब ये सोचा था इस दिल के गुलशन में अपने हाथों ही हम काटें बो लेंगे।। यार कभी तो धरती करवट बदलेंगी बेशक़ नफरत के सिंहासन डोलेंगे।। तुम ही दूर गए हो मुझसे मेरा क्या   जब आओगे साथ तुम्हारे हो लेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 भीगते हो बारिशों में धूप में भी जल रहे हो ओ पथिक कितने अराजक हो  सड़क पर चल रहे हो
 तुम तो मजबूर भी नहीं थे फिर। इतने मग़रूर भी नहीं थे फिर।। बेवफ़ाई की कुछ वज़ह तो हो दिल से तुम दूर भी नहीं थे फिर।। तर्ज़े-इबलीस तुम चले तो क्यों हम तो मंसूर भी नहीं थे फिर।। दिल जो मिस्मार कर दिये तुमने बुत से मामूर भी नहीं थे फिर।। कैसे रुसवा हुआ कोई आशिक़ हम तो मशहूर भी नहीं थे फिर।। इश्क़ अंधा है बात यूँ तय है वो कोई हूर भी नहीं थे फिर।। हमने नज़रों के ताज बख़्श दिए तुम कोई नूर भी नहीं थे फिर।। मग़रूर/ घमंडी तर्ज़े-इबलीस/शैतान की तरह मन्सूर/ ग़ैब वाला,ईश्वरीय शक्ति युक्त, एक सूफी संत मिस्मार/ ध्वस्त बुत/ मूर्ति या महबूब मामूर/ आबाद सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बच्चियों ने आपबीती सब कही रोते हुये। अफसरों ने लिख दिया सब ठीक है हँसते हुये।। नोच कर शैतान ने उनको सयाना कर दिया जिस्म उनके छिल गए सब जानवर ढोते हुये।। सैकड़ों रातें क़यामत अनगिनत दिन दहर के ऐ खुदा सब कुछ सहा मैंने तेरे होते हुये।। क्या करें फरियाद मुंसिफ भी कोई अंकल न हों ज़िन्दगी तुझसे भरोसा उठ गया लड़ते हुये।। लड़कियां अब भी डरी सी थीं पुलिस के सामने वो दरिंदा हँस रहा था हथकड़ी पहने हुए।। सुरेश साहनी मुज़फ्फरपुर
 हुई बारिश तो ये क्या हो गया। शहर धुल कर के गंदा हो गया।। इधर चीजों की कीमत तो बढ़ी उधर बाजार मंदा हो गया।। तमन्नाये जवाँ तो हो गईं  कोई लाचार  बूढ़ा हो गया।। तुम्हारे हुस्न में जलवा तो है हमारा इश्क़ अन्धा हो गया।। किसी के दाग धोये और फिर मेरा क़िरदार मैला हो गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तुम्हें जितना अदावत पे  यक़ीं है। हमें उतना मुहब्बत पे  यक़ीं है।।  हमें किस्मत पे है बेशक़ भरोसा मगर उतना ही मेहनत पे यक़ीं है।।  मुसीबत में हमारा साथ देगा हमें उस नेकनीयत पे यक़ीं है।।  तुम्हे हक़ है किसी रस्ते से जाओ हमें  तो आदमियत पे यक़ी है।। ख़ुदा पर छोड़ देते है नतीज़ा हमें अपनी अक़ीदत पे यक़ीं है।।  यक़ीन उतना ख़ुदा पर रख के देखो तुम्हें जितना कि नफ़रत पे यक़ीं है।।  तुम्हें इबलीस की दुनिया मुबारक़ हमारा नेक सोहबत पे यक़ीं है।।  सुरेश सहनो, कानपुर
 जो अख़बार  निजी होते थे अब वो सरकारी होते हैं।।
 हमारे बाद क्या बाकी रहेगा। तेरा होना न होना ही रहेगा।। किसी की जान ले लेना सरल है मगर क्या बिन मरे तू भी रहेगा।। तेरी हर बात मैं मानूँगा वाईज अगर वां मैकदा साकी रहेगा।। बड़े दावे से धमकी दे रहा है मगर ये सोच क्या तू भी रहेगा।। सुरेश साहनी
 मैं किस गफलत में ऐसा कर रहा हूँ। भरोसा कातिलो पर  कर रहा हूँ।। यहाँ फरियाद का मतलब नहीं हैं फ़क़त अपना तमाशा कर रहा हूँ।।
 अपनों से ही जख़्म मिलेंगे। एक नही हर कदम मिलेंगे।। एक अदद दिल के चक्कर में पत्थर के सौ सनम मिलेंगे।।
 मुश्किल एक सहल लगती हो। दिल का एक अमल लगती हो।। इतनी शोखी ऐसी रंगत मीठा कोई फल लगती हो।। तुम पर ग़ज़ल  लिखें तो कैसे तुम ख़ुद एक ग़ज़ल लगती हो।। मरमर सा शफ्फाक बदन है बेशक़ ताजमहल लगती हो।। मैं जैसे बेचैन भ्रमर हूँ तुम ज्यों खिला कंवल लगती हो।। मेरी हर मुश्किल -उलझन का तुम्ही आख़िरी हल लगती हो।। सुरेश साहनी
 चलो बारिश में फिर से भीगते हैं। कोई बचपन का साथी ढूंढते हैं।। चलो फिर लाद लें कंधे पे बस्ता पकड़ लें फिर वही मेड़ों का रस्ता जिधर से हम घरों को लौटते थे उन्ही रस्तों पे बचपन खोजते हैं।। चलो फिर कागजी नावें बनाएं चलो कुछ चींटियाँ उसमे बिठाये अभी घुटनों तलक पानी भरा है चलो कॉपी से पन्ने फाड़ते हैं।।  भले हम देर कितना भीगते थे भले घर लौटने में कांपते थे भले माँ प्यार में ही डाँटती थी चलो बारिश में माँ को खोजते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या मुझको बिसरा पाओगे। मेरे गीत तुम्ही गाओगे।। मुझसे प्रेम करो जी भर कर वरना भूल नहीं पाओगे।। रोग सरल यह प्यार नहीं है पीड़ा का उपचार नहीं है आने के अगणित कारण हैं जाने का आधार नहीं है इसके वैद्य हकीम नहीं हैं वापस मुझतक ही आओगे।। कारण दोगे कौन  सखे तुम तब फिर रहना मौन सखे तुम इधर उधर आना छूटेगा पड़े रहोगे भवन सखे तुम नज़र झुकाए सुध बिसराये पनघट भी कैसे जाओगे।।
 यूँ तो लबों पे ज़ाम मचलते रहे मगर। हम थे कि बार बार सम्हलते रहे मगर।। तौबा के बाद उनसे कहाँ वास्ता रहा उनकी गली से रोज़ निकलते रहे मगर।। मैंने तो क़द का ज़िक्र कहीं भी नहीं किया बौने तमाम उम्र उछलते रहे मगर।। सहरा में अपनी प्यास ने झुकने नहीं दिया चश्मे शराब ले के उबलते रहे मगर।। मक़तल के  इर्द गिर्द  बिना एहतियात के शहादत का शौक लेके टहलते रहे मगर।। ।S
 बारिश में भीगा अखबार पढा मैंने थोड़ी तकलीफ़ हुई पर खबरें  भी सूखी सूखी कहाँ मिलती हैं अक्सर सामान्य घटनाये चटपटी बनाकर छाप दी जाती हैं जिन्हें पढ़ते हैं लोग  चटखारे लेकर झूठ में पगी,खून से सनी दहशत भरी या आंसुओं से भीगी खबरें सूखी नहीं होतीं सच कहें ! आज के दौर में जब  आंख का पानी भर चुका है जब अखबार अपनी स्याही के लिए धनकुबेरों के मोहताज हों तब अखबार भले सूखे मिलें खबरें झूठ से सराबोर ही मिलेंगी।।
 अच्छी कविता क्या होती है झूठ सत्य के वेश बनाये भावों की चाशनी लपेटे कुछ शब्दों की गुटबाजी है कुछ अच्छा लिखने की ख़ातिर ऐसा क्या करना पड़ता है जब कोई कविता गढ़ता हूँ तब मैं अच्छे शिल्पकार के जैसा दिखलाई पड़ता हूँ किन्तु मेरी कविताएं  लोकरंजक तो होती हैं जन सरोकार  से जुड़ाव नहीं रखती तुम्हें पता है ! जन सरोकारों की बात लिखते समय मैं अच्छा कवि नहीं रहता  देखो ना यह कविता भी मेरी तरह बदसूरत लग रही है।। Suresh sahani kanpur
 मेरी आँखों के आगे तैरती हैं कई यादें मैं जिनमें डूबता हूँ।।सुरेश साहनी
 कुछ हवाओं में ज़हर है कुछ फ़िज़ाओं में ज़हर। किस क़दर फैला हुआ है दस दिशाओं में ज़हर।। सिर्फ धरती ही नहीं अब आसमां भी ज़द में है  चाँद तारों में ज़हर है कहकशाँओं में ज़हर।। इस क़दर से आदमी की सोच ज़हरीली है अब प्रार्थनाओं में ज़हर है अब दुआओं में ज़हर ।। एक अच्छा आदमी उसके ज़ेहन से मर गया आदमी ने भर लिया जब भावनाओं में ज़हर।। वो बहारों के लबादे में ज़हर फैला गया लोग गाफ़िल कह रहे हैं है खिज़ाओं में ज़हर।। सुरेश साहनी कानपुर
 माता और पिता क्या कल समझाने आएंगे। पढ़ लो मौका है कल और ज़माने आएंगे।। पहले तो जितना ले लो तालीम ज़रूरी है वरना तुमको लोग बहुत भटकाने आयेंगे।। तुम्हें आँख वाली दुनिया का राजा बनना है अन्धो की दुनिया के राजा काने आयेंगे।। कल तुमसे ख़ुद नैन लड़ाने वाले आएंगे।।
 सुनो हम तुम्हें पढ़ाना चाहते हैं नहीं किताब कॉपी  वाली पढ़ाई नहीं उस पढ़ाई से  तुम बिगड़ चुके हो क्योंकि जब तुम कहते हो ,  तुम्हें मानव मात्र से प्यार है तो दुख होता है कि कैसे सीख गए तुम प्यार करना आख़िर हम जहां रहते हैं वहां प्रेम अपराध ही तो है तो हम तुम्हें पढ़ाएंगे कि कैसे की जाती है नफरत और कैसे हो सकता है एक धर्म  दूसरे धर्म का का सनातन शत्रु कैसे कर सकते हो सफल घृणा उनके प्रति  जिन्होंने हेरोदस की संतानों को वर्षों दबाकर रखा  और कैसे नहीं मिला हेलेना को राजमाता का पद  अगली दस पीढ़ी तक तुम्हें आने चाहिए नफरतों के गुणा भाग पता होना चाहिए नफरतों का इतिहास भूगोल और पता होना चाहिए कि तुम्हारे माता पिता तुम्हारी ज़िन्दगी बिगाड़ रहें हैं पढा लिखा कर उस एक कागज के लिए जिसके बगैर भी तुम जी सकते हो ज़िन्दगी और कर सकते हो  नफरत जितनी चाहे उतनी वह नफरत जो सनातन है नफरत करने के लिए  पढ़ना भी ज़रूरी नहीं जबकि प्रेम के लिए ढाई अक्षर पढ़ना पहली शर्त है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दिन भी जब रात की तरह निकले। हम भी खैरात की तरह निकले।। यूँ सजाओ मेरे जनाजे को ठीक बारात की तरह निकले।। रात रो रो के काट ली हमने दिन न बरसात की तरह निकले।। बात कहना तो बात में दम हो बात भी बात की तरह निकले।। दिल की बाज़ी थी शान से खेले शह दिया मात की तरह निकले।। हम तेरे ग़म में इस कदर खोये दर्द नगमात की तरह निकले।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 छोड़ कर तुम मुझे गये जब से। मैं भी मुझसे नहीं मिला तब से।।
 ये मुलाकात भी ज़रूरी थी। आपसे बात भी ज़रूरी थी।। हम जिसे आज तक नहीं भूले वो हंसी रात भी ज़रूरी थी।। जब कि खुशियों की हो उठी अर्थी गम की बारात भी ज़रूरी थी।। क्यों कफ़न के लिए हुआ चंदा क्या ये खैरात भी जरूरी थी।। हम जो दामन निचोड़ कर रोए एक बरसात भी ज़रूरी थी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अश्क  हंस ह‌ंस के बहाए मैने। दर्द  ऐसे  भी   छुपाए  मैने।। होठ तक लाके कभी लौटाए लिख के अल्फाज़ मिटाए मैने।। सुरेश साहनी
 इश्क़ व्यापार तो नहीं ही है। हुस्न बाज़ार तो नहीं ही हैं।। फिर ज़माने को क्यों दिखाते हो ख़त है अख़बार तो नहीं ही है।।
 साँकल साँकल दी आवाज़ें बन्द मिले सारे दरवाजे किसको फुर्सत थी जो सुनता सारे थे राजे महाराजे।। बना रहा यौवन का प्रहरी साँझ सबेरे दिन दोपहरी कमल करों हित वन वन भटका ज्यूँ श्रम - स्वेदासिक्त गिलहरी किसे सुनाई दे पुकार जब  सब सुनते हैं गाजे बाजे।। तुम पर जादू चढ़ा हुआ था अपने रूप रंग यौवन का मैं भी पागल था जो समझा तुमको ही अभीष्ट जीवन का देर हुयी तब निद्रा टूटी तब तक थी हो चुकी पराजय।।  किन्तु योग हठ प्रिय हूँ मैं भी अलख निरंजन की यह दीक्षा निर्विकार मन से पुकारना कैसे नहीं मिलेगी भिक्षा सांकल पिघलेगी माया की खोलेगी दिल के दरवाजे।।.....
 सब कहते हैं इतना ज्यादा लिखना  ठीक नहीं। कविता में इतना भी डूबा रहना ठीक नहीं।। सब कहते है घर समाज धन सब से जाओगे थोड़े सी संतुष्टि   समर्पण इतना ठीक नहीं ।। सब कहते हैं अब दुनिया झूठे लोगों की है कड़वा सच है सच की खातिर लड़ना ठीक नहीं।। सब कहते हैं बेटी को दूजे घर जाना है बेटी को बेटे का दरजा देना ठीक नहीं।। सब कहते हैं सुन सुन मेरे कान खराब हुए हमने सोचा है इतना भी सुनना ठीक नहीं।। सुरेश साहनी
 ऋतु हुई सावनी सावनी। बज उठी प्यार की रागिनी।  तुम यहाँ पर नहीं हो सजन लग रहा पर यहीं हो सजन मेघ के हाथ सन्देश है देख पढ़ लो कहीं हो सजन आस पर ना गिरे दामिनी...ऋ आप नैनों में क्या आ बसे तीर दिल मे कई आ धँसे मन पे काबू न तन पे रहा कौन अब जीन मन की कसे तन हुआ दर्द की अलगनी....ऋतु सुरेश साहनी
 समस्या सच में कोरोना नहीं है। कमी बस जागरूक होना नहीं है ।। वजू जितना ज़रूरी है समझिये मुसलसल हाथ मुंह धोना नहीं है।। किसी को राह पर लाना है सुन्नत यक़ीनन उम्र भर ढोना नहीं है।। बुलंदी है तुम्हारी शक़ के क़ाबिल  मेरा कद आज भी बौना नहीं है।। कहाँ रक्खें तुम्हारी हसरतों को मेरे दिल मे कोई कोना नहीं है।। मुहब्बत गैब है बस यूँ समझ लो   कोई जादू कोई टोना नहीं है।। तुम्हें हंसते नहीं देखा किसी ने मेरी फ़ितरत कभी रोना नहीं है।। हमारा ज़िस्म फ़ानी है यक़ीनन तुम्हारा भी बदन सोनां नहीं है।। तुम्हारी ज़िन्दगी मुझसे है जानम मेरा होना फ़क़त होना नहीं है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 ज़ख्म जो भर चुके उधड़ते हैं। ज़िन्दगी जब भी तुझको पढ़ते हैं।। तब खयालों में तू नहीं होता जब भी तस्वीर तेरी गढ़ते हैं।। कुछ सहम जाता है समन्दर भी सू-ए-गिर्दाब हम जो बढ़ते हैं।। ये कलेजा है इश्क़ वालों का मुस्कुरा कर सलीब चढ़ते हैं।। हुस्न वालों को क्या अदा ठहरी तोहमतें इश्क़ पर ही मढ़ते हैं।। ज़हमतें दी हैं जिंदगानी ने मौत से ख्वामख्वाह लड़ते हैं।। उनके ख़्वाबों के हम मुसव्विर थे जिनकी नज़रों को आज गड़ते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अक्सर तुम  तक जाते जाते। लौट गये हम आते आते।। आवाजें दे दे कर हारे खुद को कितनी देर बुलाते।। ख़ुद से कह ली ख़ुद ही सुन ली किससे कहते किसे सुनाते।। हम बहला सकते हैं खुद को पर दिल को कैसे बहलाते।। इश्क़ मुहब्बत दुनियादारी तुम होते तब तो समझाते।। रिश्तों की अपनी कीमत है कैसे खाली हाथ निभाते।। वो सुरेश नादान बहुत है रो पड़ता है गाते गाते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 क्यों तुम्हे स्मृत रखें हम प्यार में। छोड़कर तुम चल दिए मझधार में।। तुमने यारी गांठ ली थी और से हम भ्रमित थे व्यर्थ की मनुहार में।। चल दिए चुपचाप आखिर किसलिए हर्ज क्या था नेहमय तकरार में।। हम प्रतीक्षारत हैं आ भी जाओ प्रिय कोई सांकल भी नही हैं द्वार में।। तुम कहीं भी हो हमें विश्वास है लौट कर आओगे फिर परिवार में।। घर वही है जिस जगह अपनत्व है वरना कोई घर नही संसार में।। सुरेश साहनी,कानपुर
 तर्के-मुहब्बत किसकी ख़ता थी इक मैं ज़िम्मेदार नहो था। क्या मिल जाता तेरे बदले तुझ से कम स्वीकार नहीं था।।SS
 दिलों की जुबानी ठहरने लगी है। हमारी कहानी ठहरने लगी है।। किधर लेके जायेगी हमको सियासत ग़ज़ल की रवानी ठहरने लगी है।। उधर हौसले झूठ के बढ़ रहे हैं इधर हक़बयानी ठहरने लगी है।। मंत्री के साले की ससुराल है ये तभी राजधानी ठहरने लगी है।। वतन चल रहा था कभी जिसके दम पे  वही नौजवानी ठहरने लगी है।। सुरेश साहनी , कानपुर
 छोड़ो !कविता बहुत लिख चुके इससे पेट नहीं भरता है जाकर कुछ सब्जी ले आओ बिटिया के प्रोजेक्ट के लिए जाकर कुछ चीजें दिलवा दो बच्चे को संग लेते जाना उसकी टीचर का बड्डे है कोई अच्छा गिफ्ट दिला दो ज्यादा महंगा मत ले लेना टीचर है तो उससे क्या है पांच सितंबर भी सिर पर है जो भी लेना सोच समझकर बहुत फिसलना ठीक नहीं है ध्यान रहे बीबी घर पर है...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 तेरी ज़ुल्फ़ों में पेंचों खम बहुत है। हमें इस बात का भी ग़म बहुत है।। न इतना याद आओ जी न पायें तुम्हारी याद का इक दम बहुत है।। हमारे हिज़्र में भी खिल रहे हो मगर कहते हो तुमको ग़म बहुत है।। मुहब्बत नाम ही है ताज़गी का फ़क़त इस ज़ीस्त का संगम बहुत है।। हुई मुद्दत हमें बिछुड़े हुए भी हमारी आँख लेकिन अब भी नम है।। चलो अब झूठ के स्कूल खोलें सुना है झूठ में इनकम बहुत है।। सुरेश साहनी,कानपुर
 बहा रहे हो दीन जनों की ख़ातिर क्यों घड़ियाली आँसू। जो ग्लिसरीन लगाकर तुमने बना लिए रूमाली आँसू।। उसकी नज़रों में शायद हो मेरे आँसू के कुछ मानी जिसकी आंखों से टपकाये मैंने ख़्वाबख़याली आँसू।। मातम पुर्सी में आये हो दौलत भी मानी रखती है माना उनसे प्रेम बहुत है किन्तु बहाये खाली आँसू।।   मुझे पता है पाँच बरस जो दिखते नहीं बुलाने पर भी यही चुनाओं में अक्सर हो जाते हैं टकसाली आँसू।। अलग अलग रोने के ढब हैं अलग ठठा कर हंसने के भी बहुत कठिन है खुद पर हंसना बहुत सरल हैं जाली आँसू।। पैसे वाले हँस देते हैं अक्सर निर्धन के रोने पर उनके अपने कब रोते हैं रोते मिले रुदाली आँसू।। जब गरीब की हाय लगी है बड़े बड़े बर्बाद हुए हैं विक्रम बन ढोती हैं उनकी सन्ततियाँ बेताली आँसू।। सुरेश साहनी कानपुर
 सूर सूर हैं चन्दर तुलसी। भान ज्ञान रत्नाकर तुलसी।। राम नाम को ओढ़ लपेटे राम नाम की चादर तुलसी।। रोम रोम तन मन अन्तस् तक भरी नाम की गागर तुलसी।। राम ग्रन्थ अवतार हुआ जब हुलसी माँ पद पाकर तुलसी।। हुए  राम  घर घर   स्थापित  सदा प्रतिष्ठित घर घर तुलसी।। तुलसी जैसे पूजी जाती पाते  वैसा  आदर तुलसी।। हे कवि कुल सिरमौर गुसाईं कर लो अपना चाकर तुलसी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तमाम दर्द कहे कुछ मज़ाहियात लिखूँ। कमाल लिखने से बेहतर है वाहियात लिखूँ।। हमेशा आप को लिखता हूँ खूबसूरत मैं कभी तो हक़ दो मुझे रात को मैं रात लिखूँ।।
 साथ तुम्हारे मंज़िल तो क्या कुछ भी मुझसे दूर नहीं था। पर क्या करता हार गया मैं नीयति को मंजूर नहीं था।। साथ चले थे हम तुम दोनों जीवन के पथरीले पथ पर किन्तु प्रतीत रही जैसे हम आरुढ़ रहे सजीले रथ पर रहे गर्व से किन्तु हमारे दिल मे तनिक गुरुर नही था।। आत्मीयता थी हममें पर शर्तों का सम्बंध नहीं था रिश्ता था फिर भी स्वतंत्र थे बंधन का अनुबन्ध नहीं था रुचियों की सहमति थी कोई सहने पर मजबूर नहीं था।।
 अभी मैं इश्क में डूबा नहीं हूं अभी से लोग पागल कह रहे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 मेरी आंखों में ख़्वाब किसका हैं। फूल जैसा शबाब किसका है।। खूबसूरत सवाल के जैसा इतना प्यारा जवाब किसका है।।
 तुम्हे पता है? मेरे पास बहुत से अनगढ़ शब्द है मध्ययुगीन सिक्कों जैसे मेरे पास  कारूँ का खजाना  नहीं है बड़ा सा शब्दकोश भी नहीं है जो भी है मैं उन्हें ही सहजता से परोस देता हूँ। तुम चख कर बताओ ग़ज़ल है या कविता!!!!! *सुरेशसाहनी
 एही रहिया हो,गईलें ललनवा हमार। साथे रहली जी, जनक दुलारी सुकुमार।। एही रहिया हो...  हेनिये से हमरा ललन चलि गईलें सियाजी आ रामलखन चलि गईलें लागतारे दूनो नयन चलि गईलें चलि गईलें हो हमरे परान अधार।। एही रहिया हो....... सुरेशसाहनी, कानपुर
 ज़ौक़ ग़ालिब हैं ज़फ़र हैं मुझ में। शेर कहने का हुनर है मुझ में।। अब भी आंखों में हया है मेरी अब भी मां बाप का डर है मुझ में।। Suresh Sahani
 बात मत करना किसी अधिकार की। कब्र तुमने अपनी ख़ुद तैयार की।। क्या ज़रूरत है तुम्हारी मुल्क को क्या ज़रूरत है तुम्हें  सरकार की।। जानना अपराध है इस राज में सूचनाएं गुप्त हैं दरबार की।। भ्रष्ट सारे कर्म अब नैतिक हुए देख लो खबरें सभी अखबार की।। आज का रावण समय का रत्न है सिर्फ़ सीता ने हदें सब पार की।। जो उन्होंने कह दिया वह सत्य है क्या ज़रूरत है किसी यलगार की।। झूठ है वीज़ा समय के स्वर्ग का  सत्य सीढ़ी है नरक के द्वार की।। झूठ से हमको भला क्या हर्ज़ है झूठ जब फितरत है अपने यार की।। झूठ ही इस दौर की तहज़ीब है झूठ ही बुनियाद है संसार की।। सुरेश साहनी
 ज़िंदगी उनकी राह ले आयी धर उम्मीदों की बांह ले आयी।। जिक्र मेरे फकीर को लेकर कौन से खानकाह ले आयी।। लग रहा है कि दिल की दुनिया में फिर से करने गुनाह ले आयी।। या फकीरों के बीच में मुझको  कह के आलम पनाह ले आयी।। या कि मेरे सुकून से जलकर मुझको करने तबाह ले आयी।। सुरेश साहनी
 बस अपने आप से टूटा हुआ है। ये मत समझो कि वो बहका हुआ है।। उसे हरगिज़ मुहब्बत में न डालो बहुत मुश्किल से वो अच्छा हुआ है।।
 शुरुआत में मुझे जैसे फेसबुकमीनिया ने जकड़ लिया था। फेसबुक पर बड़े बड़े नाम के लोग ,उनकी लम्बी चौड़ी प्रोफ़ाइल देख कर मैं उनसे जुड़ना चाहता था। जुड़े भी और कई बार मित्र संख्या 5000 हुई।फिर निष्क्रिय आईडीज हटा कर संख्या कम भी करते थे।कई बार लाइक कमेन्ट नहीं करने वालों से खिन्न होकर उन्हें अमित्र करता रहा। ऐसे में एक बार शहर के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर एक कार्यक्रम में मिले। कार्यक्रम समाप्ति के बाद मैँ आयोजनस्थल से बाहर निकल रहा था। उन्होंने कंधे पर हाथ रख दिया।स्वभावतः मैंने रुककर उन्हें पुनः प्रणाम किया।उन्होंने चलते चलते कहा,' सुरेश तुम जानते हो ! फेसबुक पर मैं  तुम्हें और कमलेश ( Kamlesh Dwivedi) को निरन्तर पढ़ता हूँ।बहुत अच्छा लिखते हो। और उन्होंने मेरी कुछ रचनायें भी उधृत की।   मैं अवाक था। क्योंकि उनको मैने कभी लाइक या कमेन्ट करते नहीं देखा था। अब धारणा बदल चुकी थी।  वास्तव में हमें लम्बी चौड़ी मित्र सूची की ज़रूरत नही है।अपितु हमें केवल उन मित्रों की ज़रूरत है जो एक दूसरे की भावनाओं को सम्मान देते हों। एक दूसरे का केअर करते हों और एक दूसरे के सुखदुख को अपना सुख और दुख समझते हैं।  आज इस
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 दो कौर क्या ठूँसा दिया बवाल हो गया। हमारे  सांसद बड़े धार्मिक हैं। वे कोई ऐसा वैसा काम नहीं करते ,जिससे पार्टी को फायदा ना मिले। वैसे काम ही करना होता तो सांसद काहे बनते?काम करने के लिए तो भैय्या(यूपी-बिहार वाले) लोग हैं ही।हम खाने में यकीन रखते हैं,इसीलिए इस धंधे में हैं। हमारे यहाँ सब खाते हैं। हम माल खाते हैं। अल्पसंख्यक भय खाते हैं। भैय्या लोग मार खाते हैं। गुरूजी ने पढाया था कि भूखे को भोजन कराना पुन्य का काम है।यही सोच के निवाला ठुंसाया  था कि इस भूखे के पापी पेट में भी रोटी के दो निवाले चले जायें। लेकिन लोग है कि बात का बतंगड़ बनाने में लगे हैं। अब जितना दर्द उस भूखे को  रोटी के एक कौर से नहीं हुआ होगा (वैसे दर्द नहीं सुख लिखना चाहिए   )उससे ज्यादा दर्द विरोधियों को हो रहा है। अरे मैं तो कहता हूँ ,तुम्हारे राज में भूखों को भोजन मिला होता तो तुम्हारी सरकार नहीं जाती।ऑडिट वालों का पेट भर देते तो तुम्हारे विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप ही नहीं लगते। सौ सांसदों की भूख ही उन्हें पार्टी छोड़ने को मजबूर कर गयी।अभी हमारी सरकार फलाने स्टेट में आने तो दो ।किसी भकुए को भूखा नहीं रहने देंगे।भूखा
 तू हमें नार हरदम नवेली लगे। अपने अंदाज़ की तू अकेली लगे।। जो कि भगवान से भी सुलझ न सके यार तू इक अनोखी पहेली लगे।।
 बनती और टूटती आशा। इतनी जीवन की परिभाषा।। अम्मा की गोदी का बचपन बाबू के कंधे पर बचपन चंदामामा वाला बचपन या गोली कंचे का बचपन कागज के नावों पर तैरी चार कदम पर डूबी आशा।।..... बनती और बिगड़ती आशा। क्या है जीवन की परिभाषा।। फिर आया बस्ते का बचपन स्कूली रस्ते का बचपन खुशियां कम होने का बचपन कुछ पाने खोने का बचपन धीरे धीरे छुटते जाना गुल्ली डंडा खेल तमाशा।।..... बनती और बिगड़ती आशा। क्या है जीवन की परिभाषा।।
 #देश तो कोठियों में रहता है। *********************** ख़ुदकुशी से किसान का मरना अब हमें आम बात लगती है।। और इस देश मे किसान कहाँ हर कोई हिन्दू या मुसलमां है या किसी जात खाप का हिस्सा जाति के साथ उसकी तकलीफें  पार्टियों के प्रभाव में आकर भिन्न रूपों में व्यक्त होती हैं।। और फिर एक किसान का मरना देश के वास्ते मुफ़ीद ही है आज इक खेत से कहीं ज्यादा देश को भूमि की जरूरत है देश के जल जमीन जंगल पर सिर्फ और सिर्फ देश का हक है देश जो सूट बूट धारी है देश जो कोठियों में रहता है...... #सुरेशसाहनी कानपुर
 फिर से मेरे करीब न आओ तो बात है। अपने कहे को कर के दिखाओ तो बात है।। तुमने हमें भुला दिया ये और बात है भूले से हमको याद न आओ तो बात है।। तंग आ चुके हैं आईना-ए-दिल सम्हाल कर जुड़ ना सके यूँ तोड़ के जाओ तो बात है।। आये हो और उठ के इधर जा रहे हैं हम अब अलविदा को हाथ उठाओ तो बात है।। क्यों हो उदास रोक लो आंसू फ़रेब के मैय्यत पे मेरी जश्न मनाओ तो बात है।।  सुरेश साहनी कानपुर
 आशाओं ने  पंख पसारे। भावों  ने  दे दिए हुलारे।। मन पहुँचा खुशियों के द्वारे किन्तु समय हँस पड़ा ठठा रे।। कुछ बीती बातों का रेला आया मैं रह गया अकेला सोचा वर्तमान संग रह लूँ पर भविष्य ने उधर धकेला उसी ओर चल पड़ा मुसाफ़िर उजियारा था जिधर अन्हारे।। वस्त्र पहन कर नए नवेले कुछ दिन खाये कुछ दिन खेले फिर दुनिया के मिले झमेले किसे सुहाते कपड़े मैले नया पहनने की खातिर अब किस पथ पर हम चले उघारे।। एक चदरिया झीनी झीनी पंच तत्व की बीनी बीनी ओढ़ पहिर कर दाग लगाकर कहना ज्यूँ की त्यों धर दीनी लाख खरच कर कुछ न कमाया खाक चलेगा अगम बजारे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कल रात मैंने श्रीमती जी से पूछा तुम्हारे लिए दूध रख दें? क्यो? मैंने कहा कल नाग पंचमी है बाज़ार में दूध की भारी कमी है कल गाड़ी भी नहीं आएगी  और वह मुँह घुमा कर सो गई अर्थात पूरी बात सुनने के पहले  गहरी नींद में खो गई आज मैं टिफ़िन नहीं ले जा पाया आज दोस्तों का प्यार फिर काम आया शाम को मैंने घर के लिए खरीदे ढोकले और समोसे इस तरह आज का दिन रहा पुरी तरह भगवान भरोसे भागवान भरोसे!!!
 कुछ  मुलाकात  के  बहाने दे। कुछ तो दिल के करीब आने दे।। मौत से कह कि इंतज़ार करे ज़िन्दगी को गले लगाने दे।। शक़ नहीं है तेरी इनायत पर कुछ तो अपनों को आज़माने दे।। रात  रंगीनियों  में  बीतेगी शाम तो सुरमई सजाने दे।। झूठी हमदर्दियों से बेहतर है मेरे ज़ख्मों को मुस्कुराने दे।। इसके साये में शाम करनी है अपनी जुल्फों के शामियाने दो।।  मौत मुद्दत के बाद आई है ज़िन्दगी अब तो मुझको जाने दे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जाने कैसे ये काम कर बैठे। दिल को उनका निजाम कर बैठे।। कह दो तनहायियों की आंधी में मेरी यादों को थाम कर बैठे।। कह दो नाहक ख़ुदा न रक्स करे बेखुदी में सलाम कर बैठे।। उसने बोला था इंतजार करो हम ही जल्दी कयाम कर बैठे।। एक बुत को बिठा लिया दिल में अपनी हस्ती हराम  कर बैठे।। सुरेश साहनी कानपुर
 दूर रहकर तलाश करता है। पास आकर तलाश करता है।। आईना रोज मेरी आंखों में जैसे इक डर तलाश करता है।। आशना है मगर न जाने क्या मुझमें अक्सर तलाश करता है।। इश्क़ सहराब तो नहीं दरिया क्यों समुंदर तलाश करता है।। ज़िन्दगी के सफ़र में जाने क्यों आदमी घर तलाश करता है।। हैफ़ मय को हराम ठहराकर शेख़ कौसर तलाश करता है।। इश्क़ करता था साहनी कल तक आज पैकर तलाश करता है।। सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 मेरी कविताओ को देखे हुए  एक अरसा हो गया आखिर देखता भी कौन और कविताएँ भी धूल गरदा फाँक फाँक कर दमा की मरीज हो गयी हैं। क्या तुम उन्हें सुनोगे? शायद नहीं लोग तो सांस के मरीज बाप को भी नहीं सुनते हैं। हम क्या है?हुंह सुरेशसाहनी,कानपुर
 हमें पेट भरना था उन्हें ईश्वर की ज़रूरत थी मैंने भर पेट खाकर ईश्वर उन्हें दे दिया वे आज भी सम्हाल रहे हैं भारी भरकम ईश्वर कहीं गिर न जाये इसलिए वे सब दबे हुये हैं यदि वे उठ गए तो ईश्वर कौन सम्हालेगा? सुरेशसाहनी, कानपुर
 देवता और जनता सब जुटे थे    मंथन में निकला हलाहल अब जनता पी रही है  लापता हैं शिव कोई विकल्प भी नहीं पुनः मंथन होगा किंचित इस बार निकल आये अमृत कलश तब विकल्प बहुत हैं।
 हमारे बीच कहीं कुछ छुपा छुपा न लगे। ख़याल मेरा तुम्हारा जुदा जुदा न लगे।। किसी भी रस्म ,तकल्लुफ ओ मस्लेहत से अलग हमारा प्यार कहीं से नया नया न लगे।।सुरेशसाहनी
 इस शहर में हूँ उन्हें मालुम है। हर नज़र में हूँ उन्हें मालुम है।। मेरी रुसवाई नई बात नहीं मैं ख़बर में हूँ उन्हें मालुम है।। लाख  नज़रें वो चुराए उनके चश्मेतर में हूँ उन्हें मालुम है।। हुस्न ढलने से डरेगा क्योंकर         मैं सहर में हूँ उन्हें मालुम है।। ज़ीस्त ठहरी थी उन्हीं की ख़ातिर अब सफ़र में हूँ उन्हें मालुम है।। मैं मकीं हूँ ये भरम था मुझको अब डगर में हूँ उन्हें मालुम है।। बेबहर लाख हो गज़लें मेरी मैं बहर में हूँ उन्हें मालुम हैं।।  सुरेश साहनी कानपुर
 तुम कहो हम और कबतक यूँ ही दीवाना फिरें। बेसरोसामां   रहें       हम  बेदरोदाना    फिरें।। दूर से ही कब तलक देखें उरूज़े-हुस्न को ऐ शमा हम किसकी ख़ातिर बन के परवाना फिरें।। तुम तो रुसवाई के डर से छुप के परदे में रहो और हम सारे शहर में बन के अफसाना फिरें।। तुम बनो अगियार ऐवानों की रौनक़ और हम अपनी गलियों में गदाई हो के बेगाना फिरें।।   तेरी ज़ुल्फ़ों के फतह होने तलक है ज़िन्दगी यूँ न हो हम लेके तेग-ओ-दिल शहीदाना फिरें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 बहुत से लोग पूर्वाग्रह ग्रसित हैं। बड़े हैं क्यों कहें वे दिग्भ्रमित हैं।। वो रहना चाहते है दूर मुझसे मुझे लगता है वे ही संक्रमित हैं।। है उनकी सोच पर पहरा किसी का वे अपनी सोच से भी संकुचित हैं।। किसी की जाति क्या है धर्म क्या है भला इसमें किसी के क्या निहित हैं।। वही होता है जो प्रभु की है मर्जी बताएं आप क्यों इतने व्यथित हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 बहती नदियां में हाथ धो  लें क्या।  इक ज़रा मैकदे में हो लें क्या।  क्या करें आज खूब रो लें क्या। ख़ुद को फिर दर्द में डूबो लें क्या।। जीस्त भर चैन से न सो पाये  आज मौका मिला है सो लें क्या।। इश्क़ करना है होठ सी लेना और बोलें तो उनसे बोलें क्या।।
 जो भी चाहो वही सज़ा देना। पर खताएं मेरी बता देना।। बददु आएं  भी रास आती है कब कहा है मुझे दुआ देना।। क्या ज़रूरत है तुमको खंजर की सिर्फ़ हौले से मुस्कुरा देना।। फिर से तुमको गले लगाना है एक हल्का सा फासला देना।। वो इसे इश्तेहार कर देंगे खत रकीबों को मत थमा देना।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सताये जब कभी यादे-मुहब्बत तो मेरी मुफलिसी भी याद करना।।SS
 अब अपना घरबार सम्हालो। खुशियों का संसार सम्हालो।। भूल भाल सब बात पुरानी छोडो बीती राम कहानी अब अतीत की गठरी फेको वर्तमान का भार सम्हालो।। अब अपना घरबार सम्हालो।। बचपन के सब खेल खिलौने घर आँगन के पिल्ले छौने गुड्डे गुड़िया सखी सहेली छोड नया परिवार सम्हालो।। अब अपना घर बार सम्हालो।। माना तुमने प्यार किया है पर समाज की मर्यादा है मात पिता घर लोक लाज की गिरती हुयी दीवार सम्हालो।। अब अपना परिवार सम्हालो।। सुरेशसाहनी
 इक उसे देवता बनाने में। ख़ूब रुसवा हुए ज़माने में।। वो मुझे और याद आता है मुश्किलें हैं उसे भुलाने में।। इश्क़ की आतिशी अदाएं हैं लोग जल जल गए बुझाने में।। बिजलियों को ये एहसास कहाँ वक्त लगता है घर बनाने में।। दिल में उसके कोई गिरह होगी जो झिझकता है आज़माने में।। सुरेशसाहनी
 क्या से क्या हो गया मैं तुम्हारे लिए। और होता भी क्या  मैं तुम्हारे लिए ।। सुन के भी अनसुना तुम जताते रहे जबकि गाता रहा  मैं तुम्हारे  लिए।। कुफ़्र थी बुतपरस्ती पता था मगर कुफ़्र करता रहा मैं तुम्हारे लिए।। सुरेशसाहनी
 तुम मिले ज़िन्दगानी ग़ज़ल हो गयी। शायरी ही  हमारा   बदल हो गयी ।। तुम को देखे बिना चैन आता नहीं जैसे तुम ज़िन्दगी का अमल हो गयी।। तुम भी निखरे हो इसमें कोई शक़ नहीं इक कली खिल के ताज़ा कंवल हो गयी।। तुम न थे मुश्किलें मुश्किलें थीं मग़र तुम मिले ज़ीस्त कितनी सहल हो गयी।। गोया मैं एक शायर का  दीवान हूँ तुम मेरी ज़िंदगी का रहल हो गयी।। तेरे कदमों ने घर को नवाजा मेरे घर मेरा कोठरी से महल हो गयी ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मौन कोई हर बार  सुनाई देता है जब रचना संसार दिखाई देता है ऐसा क्या है उस नीरज की मस्ती में जग सूफी दरबार दिखाई देता है।। --#सुरेशसाहनी
 तुम्हारी बेवफाई पर भला लिखते तो क्या लिखते तुम्हारे बाद भी कोई वफ़ा वाला नहीं आया।।
 लो यह गीत तुम्हारी ख़ातिर उन सपनों के नाम समर्पित जो हमने तुमने देखे थे उन राहों के नाम समर्पित  जिन पर हम तुम साथ चले थे जो पल साथ बिताये तुमने ओ मनमीत हमारी ख़ातिर लो यह गीत तुम्हारी ख़ातिर उन ख़्वाबों के नाम समर्पित जिनको चुन चुन तोड़ा तुमने उन राहों के नाम समर्पित जिन पर तनहा छोड़ा तुमने फिर बिन वज़ह बताये तुमने तोड़ी प्रीत किसी की ख़ातिर लो यह गीत तुम्हारी ख़ातिर जिस से तुम सुन्दर दिखती थी अब मेरी वह नज़र नहीं है जो तुमपे पागल रहती थी अब वह बाली उमर नहीं है टूट गये जो साज सजाते - थे संगीत तुम्हारी ख़ातिर लो यह गीत तुम्हारी ख़ातिर तोड़ी रीत तुम्हारी ख़ातिर सुरेश साहनी, कानपुर
 ख़बर ये आजकल लाइम बहुत है। तुम्हारे शह्रर में क्राइम बहुत है।। गिरह सब आज दिल की खोल डालो तसल्ली से कहो टाइम बहुत है।।सुरेश साहनी
 तुम भी इक खानकाह कर लोगे। दिल को आलम पनाह कर लोगे।। और आसान मंज़िलें होंगी  जब नई एक राह कर लोगे।। इक दफा आदमी तो बन जाओ फिर कहीं भी निबाह कर लोगे।। इश्क़ वालों के आसपास रहो कोई अच्छा गुनाह कर लोगे।। हुस्न वालों से सावधान रहो वरना दामन सियाह कर लोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इश्क़ करते तो ग़म में मर जाते। या खुशी के वहम में मर जाते।। मयकदे में बचा लिया वरना हम तो दैरो- हरम में मर जाते।। हुस्न जलवा नुमा न होता तो इश्क़ वाले शरम में मर जाते।। उन निगाहों की ताब हयअल्लाह आप तो ज़ेरोबम में मर जाते।। इक नज़र उसने डाल दी वरना हम निगाहों के ख़म में मर जाते।। हम तो फिर भी यहां चले आए आप पहले कदम में मर जाते।। तुम ने नाहक जतन किए इतने साहनी इससे कम में मर जाते।। सुरेश साहनी कानपुर
 जाने कैसे ये काम कर बैठे। दिल को उनका निजाम कर बैठे।। कह दो तनहायियों की आंधी में मेरी यादों को थाम कर बैठे।। कह दो नाह ख़ुदा न रक्स करे बेखुदी में सलाम कर बैठे।। उसने बोला था इंतजार करो हम ही जल्दी कयाम कर बैठे।। एक बुत को बिठा लिया दिल में अपनी हस्ती हराम  कर बैठे।। सुरेश साहनी कानपुर
 चकमक और उजास रहा मन। जब तक अपने पास रहा मन।। बाबू के कंधे पर चढ़कर ऊंचा हरियर बांस रहा मन।। तन था सूखे अमलतास सा सेमर सोच पलाश रहा मन।। मिलने से पहले तो खुश था मिलकर बहुत उदास रहा मन।। सहज सखा भी हो सकता था क्यू कर  उसका दास रहा मन।।
 सहर हुई कि दियों का सफ़र भी ख़त्म हुआ। इसी के साथ अंधेरों का डर भी ख़त्म हुआ।। कि नफरतों की नई बस्तियों के बसने से मुहब्बतों का पुराना शहर भी ख़त्म हुआ।। वो अजनबी में भी इंसान देखने वाला शहर का तेरे यही इक हुनर भी  ख़त्म हुआ।। विरासतों को मेरी मुझ से जोड़ता था जो पुराने घर का वो बूढ़ा शज़र भी ख़त्म हुआ।। बसे हैं जानवर इन पत्थरों के जंगल में जहाँ गया मैं समझ लो बशर भी ख़त्म हुआ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जिस सनेह की मादकता में हम बौराये हैं। आम नहीं हैं वो सखि मेरे साजन आये हैं।। घिर आये हैं बादर करे रह रह शोर करें नाच रहे हैं पिक उछाह में दादुर शोर करें भरने को मन मानसरोवर   घन घहराये हैं ।।
 वो जो सचमुच कमाल लिखता है। वो रियाया का हाल लिखता है।। पद्मश्री पर नज़र फलाने की  हुक्मरां के ख़याल लिखता है।। लोग दैरोहरम के आदी है कौन अब भात दाल लिखता है।। हर कोई बह रहा है धारा में हर कोई भेड़चाल लिखता है।। हमने लिक्खा जो सल्तनत बहरी सब ये बोले बवाल लिखता है।। झूठ जिसका उरूज़ है तय है सच उसी का ज़वाल लिखता है।। अदीब कुछ भी मिले मिले न मिले कब कलम से मलाल लिखता है।। सुरेश साहनी , अदीब कानपुर
 एक दिन कविता-ग़ज़ल के नाम हो। रात भी ऐसी पहल के नाम हो।। छोड़ कारोबार सारे एक दिन रेडियो अखबार सारे एक दिन भूल कर नफ़रत अदावत दुश्मनी सिर्फ बांटें प्यार सारे एक दिन आबे-जमजम में नहाया एक दिन गीत की गंगा के जल के नाम हो।। भाव के विन्यास की धारा बहे आस की विश्वास की धारा बहे आह भी निकलें तो हों आनन्दमय तृप्ति ले उच्छवास की धारा बहे हार में जो जीत का आनन्द दे ज़िन्दगी ऐसी ही कल के नाम हो।। एक दिन कविता-ग़ज़ल के नाम हो।। सुरेश साहनी
 कविता तब प्रस्फुटित हुई थी  जब निषाद ने बाण चलाकर क्रौंच युगल के प्राण हरे थे जो प्रणयाकुल  मैथुनरत थे ऐसा विद्वद्जन कहते हैं किसी वियोगी की  कविता को  पहली कविता कहने वालों पहले पढ़ लो उस प्रसंग को फिर कवि के बारे में सोचो कवि से पहले वह ऋषि भी है उस को काहे का वियोग था जिसने जीता हो अनंग को ऐसे परम् तपस्वी ने जब घटना से आक्रोशित होकर उस निषाद को श्राप दिया था तब कविता प्रस्फुटित हुई थी तब से लेकर युगों युगों तक जाने कितने युग गुजरे पर कविता बंधक की बंधक थी  आराधन में  स्तुतियों में  अधोवस्त्र में कंचुकियों में कविता तब आज़ाद हुई जब भर्तहरी ने चार्वाक ने नीति वचन के श्लोक बनाये कविता तब आज़ाद हुई जब दरबारी भट गायन छूटा जब झूटी प्रशस्तियां छूटी जब कबीर ने अपनी धुन में  छेड़ी साखी शबद रमैनी कविता तब आज़ाद हुई जब एक निराले कवि ने आकर गुल को कैपिटलिस्ट कह दिया अब भी कविता तल पर आकर जब गाता है कोई दिनकर सिंहासन खाली करने को जनता उद्यत हो जाती है यह कविता है आह नहीं है.....
 माँ फ़क़त हाथ फेर दे सर पे इस से बढ़ कर कोई दवा क्या है।। जिसको जन्नत कहा करे हैं सब माँ तेरी गोद के सिवा क्या है।।SS
 बहुत बड़ा गुण भूल गए हैं। हम अपनापन भूल गए हैं।। बारिश, कागज़ सब हासिल है हम ही बचपन भूल गए हैं।। रोजी रोटी के चक्कर में हम घर आँगन भूल गए हैं।। लढ़िया बग्घी इक्का टमटम कितने साधन भूल गए हैं।। भूल हुयी जो प्यार कर लिया अपना तनमन भूल गए हैं।।   जबसे देखा उन आँखों में तबसे दर्पण भूल गए हैं।। दुनियादारी में क्या उलझे प्रभु का सुमिरन भूल गए हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हम ने खुद को खूब छला है। इसका ये परिणाम मिला है।। पहले अच्छे दिन के वादे अब उनको कहता जुमला है।। मैं ये भी हूँ मैं वो भी था यह गिरगिट से बड़ी कला है।। हम हैं जनम जात व्यापारी अब तो समझो क्या मसला है।। जीवन के आनंद मार्ग में शायद पत्नी बड़ी बला है।। लोग  चित्त है चारो खाने उस ने ऐसा दांव चला है।। सरकारी जी निगम हो गए यह विकास है या घपला है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 साँझ सबेरे बादल घेरे फिर भी मन तनहाई में। छनन छनन छन बूँदें बरसे आग लगे तरुणाई में।।.... सावन फिर भी सावन है प्यारा है मनभावन है कवि कोविद सारे कहते हैं सावन है तो जीवन है  मेरा सावन तब मैं जानूँ यार दिखे अंगनाई में।। साँझ सबेरे बादल घेरे फिर भी मन तनहाई में।।... सावन प्यास बुझाता  है सावन आग लगाता  है यार नहीं तो कैसा सावन यार बिना क्या भाता है आग लगे तो कौन बुझाये यार बिना पुरवाई में।। सांझ सवेरे बादल घेरे फिर भी मन तन्हाई में।।.... सखियां लौटी हैं  पीहर में खुशियां  टोले टब्बर में तन में रहकर बेतन हूँ मैं यार बिना बेघर घर में मन भूला है यार -गली में तन झूले  अमराई में।। सांझ सवेरे बादल घेरे फिर भी मन तन्हाई में।।.... सुरेशसाहनी
 दिल के जख्मों को करीने से सजा कर रखिये चीज नाज़ुक है ये अपनों से बचाकर रखिये।। शायरी क्या है मुहब्बत का उरीयाँ होना हो ही जाती हैं अयाँ लाख छुपा कर रखिये।।SS
 मैं वह गीत सुनाता लेकिन उसमें उसकी रुसवाई है। वो जिसने मेरे गीतों में इतनी पीड़ा उपजाई है।।SS
 तुमसे प्यार पुनः कर लेता यदि ऐसा सम्भव होता तो दिल में तुम्हे बसा ही लेता  यदि टूटा  दिल जुड़ पाता तो.... माना तुमको पछतावा है अपने पिछले बर्तावों पर मादक यौवन सुन्दरता पर अहंकार जैसे भावों पर बेशक़ उन्हें भुला देता मैं यदि सचमुच बिसरा सकता तो..... दर्पण जैसा टूटा था मैं टुकड़े टुकड़े किरचे किरचे अब खंडित निर्मूल्य हृदय को कौन समेटे किस पर खर्चे मैं इतना कमजोर न होता तुमने साथ दिया होता तो...... क्या खोया क्या पाया छोड़ो उन की चर्चा उचित नहीं है प्रेम कोई व्यापार नहीं था जीवन अपना गणित नहीं है हानि लाभ से परे प्रेम है तुमने जान लिया होता तो.....   Suresh sahani
 दिल को धड़कन सुनाने लगी रागिनी। ज़ीस्त लगने लगी कोई मधुयामिनी।। मन बसंती हुआ तन बसंती हुआ और मौसम हुआ फागुनी फागुनी।। यूँ निछावर हुए हम भ्रमर की तरह प्रेमपथ पथ पर बिछे गुलमुहर की तरह हाथ मे हाथ जब से मिला आपका एक प्यारी गजल की बहर की तरह खिल के मौसम गुलाबी गुलाबी हुआ डालियां हो गईं प्यार की अलगनी।। आपकी ज़ुल्फ़ लेकर घटा चल पड़ी ले शराबी कदम हर अदा चल पड़ी तिश्नगी तोड़ कर बांध क्या बह चली मरहबा मरहबा की सदा चल पड़ी फिर शराबी घटाएं बरसने लगीं दिल की महफ़िल हुई सावनी सावनी।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जी रहा हूँ ये ज़िन्दगी लेकर। दिल की बस्ती लुटी पिटी लेकर।। उसके ग़म के ज़हर में कुछ तो है पी रहा हूँ खुशी खुशी लेकर।। क्या करूँगा शराब के चश्मे कौन आएगा तिश्नगी लेकर।। हुस्न बैठा हुआ है महलों में मैं हूँ सड़कों पे आशिक़ी लेकर।। कौन आया है मेरे अपनों में मेरे क़ातिल की पैरवी लेकर।। अब भी उसके ख़याल आते हैं मेरे गीतों में ताज़गी लेकर।। रोशनी मैंने बाँट दी उनको अपने हिस्से में तीरगी लेकर।। मुन्तज़िर हूँ तो किस तमन्ना में अपनी साँसे बुझी बुझी लेकर।। आओ हम तुम अदीब चलते हैं सू ए मक़तल रवानगी लेकर।। सुरेश साहनी, अदीब  कानपुर
 जब भी होता है रुला देते हो। किसलिए अपना पता देते हो।। दर्द कुछ और बढ़ा देते हो। जब भी जीने की दुआ देते हो।। याद करते हैं तुम्हें रो रोकर और तुम हँस के भुला देते हो।। तुमसे ख़्वाबों में भी मिलना तौबा बात हर इक से बता देते हो।। इक दफा यूँ ही ज़हर भी दे दो जिस तकल्लुफ़ से दवा देते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 रेवड़ी किस तरह से खतरनाक है। क्या हमारी वजह से खतरनाक है।। जो गया दरअसल देश का माल था जाए अपनी गिरह से खतरनाक है।।
 कुछ नए तर्ज़ की कहन तो हो। क्या कहें कोई हम सुखन तो हो।। आप पर क्या ग़ज़ल कहें जानम कुछ अदाओं में बांकपन तो हो।। बस गलेबाजियों पे दादे - सुखन एक भी शेर में  वजन  तो हो।।
 मौत ने उम्र भर रियायत की। ज़िंदगी ने कहां मुरव्वत की।।  बेवफ़ा जीस्त के लिए हमने मौत से बेवजह अदावत  की।।  चल दिया हमको छोड़कर ऐसे हम ही पागल थे जो मुहब्बत की।।
 पोखर ताल तलैया नदिया सागर तक आज सभी रोये नीरज के जाने पर धरती पर्वत बादल बिजली अम्बर तक  सब दुख में डूबे नीरज के जाने पर सुरेशसाहनी
 धीरे धीरे प्यार मुहब्बत बढ़ने दो। धीरे धीरे ही अकुलाहट बढ़ने दो।। शाम सुहानी धीरे धीरे आती है रात की रानी धीरे धीरे आती है धीरे धीरे प्यास की शिद्दत बढ़ने दो।। दो।। धीरे धीरे अंधियारा गहराता है धीरे धीरे भोर  का सूरज आता है धीरे धीरे दिन की ताकत बढ़ने दो।।
 धीरे धीरे प्यार मुहब्बत होने दो। धीरे धीरे इन आँखों में खोने दो।। शाम सुहानी धीरे धीरे जाती है रात मिलन की हौले हौले आती है हौले हौले ख़्वाब कोई सँजोने दो।। धीमे धीमे ही अंधियारा ढलता है
 सिर्फ़ अपनी खुशी समझते हो। क्या मेरी बेबसी समझते हो।। वो मेरी मौत के बराबर है तुम जिसे ज़िन्दगी समझते हो।। सिर्फ़ पाना ही कुछ नहीं इसमें खाक़ तुम आशिक़ी समझते हो।।
 आईना भी कमाल करता है। मुझसे मेरे सवाल करता है।। प्यार करता है ध्यान रखता है हर घड़ी देखभाल करता है।। जब कभी मैं उदास होता हूँ आईना भी मलाल करता है।। हर कोई अपने आप मे है गुम  कौन किसका ख़याल करता है।। यार मशगूल है रक़ाबत में मेरे शीशे में बाल करता है।। आईना है कि हमनफस मेरे हर जुनूँ पर जवाल करता है।। रोज़ करता है मुतमईन मुझको यूँ तो सबको निहाल करता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 आपने जो भी कहा ठीक नहीं। हमपे इल्ज़ामे-वफ़ा ठीक नहीं।।
 कुछ भी दीजै मगर  इल्ज़ाम-ए-जफ़ा  मत दीजै। टूट कर चाहने की ऐसी सज़ा  मत     दीजै।। आप चाहे कहीं रह लें किसी के साथ रहें पर मेरी पाक मुहब्बत को शुबा  मत दीजै।। मेरी हर नफ़्स सनम अब भी दुआ ही देगी आप बेशक़ मेरे जीने की दुआ  मत दीजै।। अपनी चाहत कोई तशहीर का सामान नहीं  इसको अखबार का उनवान बना मत दीजे।। उठ न पाऊँ कभी मैं अपनी नज़र से ज़ालिम अपनी नज़रों से मुझे इतना गिरा  मत दीजै।। सुरेश साहनी,कानपुर
 ****महाकवि नीरज को श्रद्धांजलि**** आज हमें रो लेने दो कवि कल गुबार ही रह जायेगा आज चरण धो लेने दो कवि कल कारवां गुज़र जाएगा .. ....... जिसे पुकारा वो न चला पर कोटि अन्य चल पड़े सफर में जिसे निहारा वो न मिला पर कोटि अन्य दृग बिछे डगर में आज विदित हो लेने दो कवि कल यह कौन बता पायेगा........ कल तक पीड़ाओं को तुमने शब्द अल्पनाओं में ढाला मूक वेदनाओं को तुमने स्वर देकर मुखरित कर डाला चरण धूल तो लेने दो कवि अब मिलना कब हो पायेगा....... जब जब ताल सजल होंगे तब नीरज तुम्हें नज़र आएंगे जब जब मंच सजाओगे कवि नीरज याद सहज आएंगे अब सब कुछ खो लेने दो कवि कल क्या खोना रह जायेगा.....
 किधर लेके जायेगी हमको सियासत ग़ज़ल की रवानी ठहरने लगी है।।
 अंधेरों से लड़ना   ज़रूरी नहीं है । दिया बन के जलना ज़रूरी नहीं है।। अभी हर तरफ भेड़िये घूमते हैं बेटियों मत जनमना ज़रूरी नहीं है।। ये बाबा ,ये मुल्ले ये मज़हब के दल्ले इन्हें भाव देना ज़रूरी नहीं है।। अगर नँगई सोच में आ गयी है तो रहना बरहना ज़रूरी नहीं है।। कहने लगे हैं भले लोग यह भी सियासत में रहना जरूरी नहीं है।। Suresh Sahani, Kanpur
 आईने को आज ये सच है पता। टूट जाता वो अगर सच बोलता।।SS
 इतिहास सदियों का समेटे  घूमता हूँ  एक घटना का महज अवसर नहीं हूँ| मिलन की खुशियाँ हमेशा बांटता हूँ मैं विरह के धुप की चादर नहीं हूँ| व्यर्थ मत समझो परख लो,जाँच भी लो, मत गिराओ धूल में कंकर नहीं हूँ| ठोकरों पर तौलते हो किसलिए तुम मैं किसी की राह का पत्थर नहीं हूँ| जन्म से विषपान का अभ्यास है पर , भाग्य की है बात मैं शंकर नहीं हूँ|| -सुरेश साहनी.
 अभी तलक तो हमारा ज़मीर बाक़ी है। तुम्हारे पास अभी कितने तीर बाक़ी हैं।। मिटा दिया हमें शायद तुम्हे ये धोखा हो हमारे दोस्त हमारे असीर बाक़ी है।। हमारे बाद भी ये राह चलती जायेगी हमारी राह का हर राहगीर बाक़ी हैं ।। किसी भी कौम को कोई मिटा नहीं सकता फटा  है दूध अभी तो  ख़मीर   बाकी है।। सुरेशसाहनी
 बादल को चेतावनी पर एक गीत.... तुम्हें ड्यूटी मिली है गरजना तो पड़ेगा। भले चमको न चमको बरसना तो पड़ेगा मेरे घर खेत आंगन सभी सूखे पड़े हैं विटप वन बाग उपवन अभी रूखे पड़े हैं तुम्हें सावन की लय पर थिरकना तो पड़ेगा।। वो जलता भी है दिन भर वो थकता भी है निस दिन भले अलसाये सूरज मगर उगता है निस दिन तुम्हें भी मेरे नभ में घहरना तो पड़ेगा।। तुम्हारा दर्प आखिर कहां तक साथ देगा जो सावन में न सम्हले कन्हैया नाथ देगा तो फिर भादों में नीचे उतरना ही पड़ेगा ।।
 ज़ुबाँ शीरी   निगाहों में अना थी। कि उसकी कैफ़ियत कितनी जुदा थी।। कोई उसकी तरह हो तो बताएं ज़माने से अलग उसकी अदा थी।। वो झोंका था कोई ताज़ा हवा का हँसी उसकी बहारों का ज़िया थी।। नज़र उसकी क़ज़ा थी दुश्मनों पर तो अपनों के लिए उठती दुआ थी। ज़माना ज़िक्र मेरा भी करेगा   कहेगा साहनी भी क्या बला थी।। सुरेशसाहनी
 आने को क़ज़ा हरदिन दर पे मेरे आती है। इस दिल में तुम्हे पाकर आके चली जाती है।। जब तुम ही नहीं होंगे फिर चाहे कोई आये तुम से ही अंधेरों में दिल के दिया बाती है।।सुरेशसाहनी
 धीरे धीरे सबकी बारी आएगी। ये मत बोलो सिर्फ तुम्हारी आएगी।। कौन कहेगा बढ़कर राजा नँगा है जब राजा की शान सवारी आएगी।। तुम चुप हो हम चुप हैं ज़ालिम कहता है इसीलिए सरकार हमारी आएगी।। जितना चाहे मींच ले आंखें मक़तल में गर्दन पे तलवार दुधारी आएगी।। मेरे जैसे इस आशा में जीते हैं सुबह कभी तो न्यारी न्यारी आएगी।। सुरेश साहनी,कानपुर
 आपने प्यार का एहसास जगाया क्यों था। टूटना था जिसे वो ख़्वाब दिखाया क्यों था।। भूलना ही था तो फिर प्यार न करते मुझसे याद आना था तो फिर मुझको भुलाया क्यों था।। दिल बड़ा होगा तभी दिल में जगह दी होगी तंगदिल थे तो हमें दिल मे बसाया क्यों था।। हम जिसे  सुन के सनम ख़ुद से जुदा रहते हैं आपने राग हमें  ऐसा  सुनाया क्यों था।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 किस मन की बात सुनें क्या मन की बात करें। सावन में तुम बिन क्या  सावन की बात करें।। सर्पों से लिपटे ज्यों चंदन की बात करें। विरहानल में जलते दो तन की बात करें। घावों पर मरहम के लेपन की बात करें।। मिश्री सी बात सुनें माखन की बात करें आओ हम राधा और मोहन की बात करें। ग्वालों की गोपियन की गैय्यन की बात करें।। बंशी की धुन पर सुध रीझन की की बात करें गुंजन की बात करें, मधुवन की बात करें।। किस मन से यशुदा के नन्दन की बात करें।।
 कुछ दर्द  मेरे अच्छे बुरे वक्त के साथी हैं मैं किनको ज़ुदा कर दूँ दो चार सुखों ख़ातिर ये साथ नहीं होंगे  तब नींद न आएगी जागेगा कोई फिर क्यों रातों को मेरी ख़ातिर उन हिज़्र की रातों के ये दर्द ही साथी हैं तुम ग़ैर नहीं हो पर ये दर्द तो अपने हैं ये हैं तो मेरी आँखों के ख़्वाब भी ज़िंदा हैं खोने के अंदेशों में पाने की तमन्ना है अब इनसे जुदा होकर ऐसा न हो मिट जाये जीने की उम्मीदें की जीने की तमन्ना भी........
 अब नहीं जागते हैं लोग वे जानते हैं जागते रहो की आवाज लगाकर चौकीदार कह रहा है तुम सब सोते रहो कल किसने देखा है दरवाजे पर रम्भाने वाली गाय रवाण्डा जा चुकी है और भारतीय रेल सिर्फ संग्रहालय तक जाती है। सुरेशसाहनी
 कोई अदम नहीं है मेरी ज़िंदगी मुझे।। उनका करम नहीं है मेरी ज़िंदगी मुझे।। तूफाने-बहरे-ग़म से उबर ही न पायें हम इतना भी ग़म नहीं है मेरी ज़िंदगी मुझे। मेरे बग़ैर जी न सकेंगे मेरे हबीब ये भी वहम नहीं है मेरी ज़िंदगी मुझे।। दो दिन मिले हैं वस्ल के दो दिन बहार के दिन चार कम नहीं है मेरी ज़िंदगी मुझे।।
 ले दे के एक दिल है इसे ही सम्हाल लें। ये इश्क़ लाइलाज है हम क्यों बवाल लें।। उसकी फँसी में डाल दिया है जो हमने पाँव बेहतर है पाँव कटने से पहले निकाल लें।। हम दिल के मसअलों में फिसड्डी बने रहे क्या इक जवाब के लिए सौ सौ सवाल लें।। सुरेशसाहनी
 फिर तेरे ख्वाब नज़र आये हैं। फिर कई ज़ख़्म उभर आये हैं।। शाखो-गुल झूम उठे हैं फिर से फिर मुहब्बत के समर आये हैं।। यां उसी रोज़ से आयी है बहार आप जिस रोज़ से घर आये हैं।। हसरतें अब न करेंगी बेज़ार उनके हम पंख कतर आये हैं।। आज मक़तल में दिखी है रौनक आज हम होके उधर आये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इश्क़ की राह ढूँढ लोगे जब। प्यार की थाह ढूँढ लोगे जब।। हम दुआओं में तब भी रक्खेंगे कोई हमराह ढूँढ लोगे जब।। मान लेंगे गुनाहगार हैं हम नुक्स कोताह ढूँढ लोगे जब।। ख़ुद ही सूली कुबूल कर लेंगे इक ज़रा आह ढूँढ लोगे जब।। हर अना तब पनाह मांगेंगी सच मे मिस्बाह ढूँढ लोगे जब।। मेरे हाथों को खाक़ थामोगे ग़ैर की बाँह ढूँढ लोगे जब।। साहनी तब भी कुछ न मांगेगा उसमें इक ख़्वाह ढूंढ लोगे जब।। सुरेश साहनी ,अदीब कानपुर 9451545132
 ख़ुदा कुछ काम ऐसे कर गया था। भरोसा आदमी का मर गया था।। हमें पूँजीपरस्ती भा रही है इबादत से तेरी मन भर गया था। तेरा मकसद समझ में आ रहा है मैं नाहक इस कदम से डर गया था।। वो बस्ती क्यों जली इतना पता है कोई मज़हब का सौदागर गया था।। बड़े लोगो से कम उम्मीद रखो यज़ीदी जंग में असगर गया था।। उसे राहत मिली है मैक़दे में बशर दैरोहरम होकर गया था।।
 जप तप ध्यान योग से काया दिव्य देह में ढल जाती है। कामजीत मन हो जाता है अवधारणा बदल जाती है।। जीवन का सर्वस्व होम कर ख़ुद को बिसराना होता है क्या लगता है ऋषि को यूँ ही कोई अप्सरा मिल जाती है।।
 पहले  घर में घर ढूंढ़ें हम। उसके बाद डगर ढूंढ़ें हम।। शहरों से जब वापस लौटें अपने गाँव नगर ढूंढ़ें हम।। पहले ढूंढ़े खोया बचपन  फिर पनघट पोखर ढूंढ़ें हम।। अम्मा के आंचल में छुपकर बाबूजी का डर ढूंढ़ें हम।। काका-बाबा की डांटों में अपनेपन के स्वर ढूंढ़ें हम।। मुसकाती भउजी के मुख से कुछ फूहर पातर ढूंढ़ें हम।। सोनवा को दिल खोजे जैसे धरती पर अम्बर ढूंढ़ें हम।। पाँव पसर जाते थे जिनमें पुरखों की चादर  ढूंढ़ें हम।।  रिश्तों के ककहरे मिट गए क्या अक्षर वक्षर  ढूंढ़ें हम।। बाबा का हुक्का खोजें फिर दादी का कम्बर ढूंढ़ें हम।। हम भी आउटडेट हो चुके अब अपना नम्बर ढूंढ़ें हम।। सुरेश साहनी कानपुर  9451545132
 ज़िन्दगी बीत गयी कोशिश में। प्यार के रंग मिले कब उस में।। होंगे अल्फ़ाज़ बहर में उनके मेरे जज़्बात नहीं बंदिश में।।  दुश्मनों में तो न थी ताब कोई वक्त शामिल था मगर साजिश में।। दिल ने ताउम्र सजा क्यों भोगी उनकी नज़रों से हुई लग्ज़िश में।। ज़ख़्म दिल के हैं सजाने काबिल कोई रहता जो दिले बेहिस में।। मिल के कुछ और तमन्ना जगती ख्वाहिशें  खत्म हुई ख्वाहिश में।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 सभी दूर से ही भगाएंगे जो गले लगोगे तपाक से कि कोरोना रोग के दौर में ज़रा फासले से मिला करो।।
 हमारा अपनों में नाम कर लो। हमें भी अपना गुलाम कर लो।। सलाम तुमको किया है मौला तो वालेकुम अस्सलाम कर लो।। पनाह मांगेगी मौत तुमसे तुम अपनी हस्ती को राम कर लो।। हमारे दिल की जला दो लंका तुम इसमें अपना निज़ाम कर लो।। पनाह में ले लो अपनी हमको या आके दिल में क़याम कर लो।। सुरेश साहनी,अदीब  कानपुर
 दद्दा महान, दद्दा महान। कुछ चिंताओं के मूल तुम्हीं कुछ शंकाओं के समाधान।। तुम विपदाओं के सूत्रधार तुम ही संकट में राहत हो  तुम मित्रों के हो मित्र किन्तु तुम बिना बुलाई आफत हो मंगल हो मंगल के समान तुम स्वयं शनि की मूरत हो तुम हौ प्रसन्न तो सब प्रसन्न तुम रूठे तो संकट महान।।
 इश्क़ में कौन मिटा करता है। दर्द में कौन दुआ करता है।। एक महबूब का ग़म साथ लिये अब कहाँ कौन जिया करता है।। अब किसे वक़्त है फुर्सत किसको आजकल कौन वफ़ा करता है।। अब ग़में - इश्क़ गयी बात हुई कौन अब शिक़वा- गिला करता है।। कौन लेगा ये पुराने सिक्के अब भिखारी भी मना करता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आभासी दुनिया से  बाहर भी निकलें कुछ अपनों से मिलें जुलें संवाद करें आभासी दुनिया में भूले रहने से बेहतर है हम कुछ अपनों को याद करें कुछ अपनों को ढूंढे उनसे बात करें ख़ैर ख़बर लें उनका हाल चाल पूछें अगल बगल के मित्रों के सुख दुख समझें दुख को साझा करें और खुशियां बांटें बाहर निकलें कभी कभी मोबाइल से कभी हकीकत की दुनिया में भी टहलें घर परिवार समाज सभी के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें निर्वाह करें वरना आभासी दुनिया तो वह दुनिया है हुआ एक भी बैन शून्य हम हो जायेंगे मौके पर जब ट्विटर फेसबुक साथ न होंगे काम हमारे मित्र वास्तविक ही आयेंगे...... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कोई भंवरा कोई पंछी कोई बादल कहता है। कोई आवारा कहता है कोई चंचल कहता है सब जिसके पीछे पागल हैं में उसका दीवाना हूं हैरत है इस दीवाने को वो भी पागल कहता है।।
 मैं बाँधे हुए सर पे कफ़न लौट रहा हूँ। मैं अपने वतन से ही वतन लौट रहा हूँ।। मै कृष्ण नहीं फिर भी ग़रीबउलवतन तो हूँ पीछे है कई कालयवन लौट रहा हूँ।। सैयाद ने दे दी है हसरर्तों  को रिहाई अर्थी लिए उन सब की चमन लौट रहा हूँ।। हसरत नहीं,उम्मीद नहीं फिर भी यक़ी है महबूब से करने को मिलन लौट रहा हूँ।। बरसों की कमाई यही दो गज की जमीं है धरती को बिछा ओढ़ गगन लौट रहा हूँ।। सुन ले ऐ करोना तुझे मालूम नही है तू चीन जा मैं करके  हवन लौट रहा हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इन तीनों का ध्यान किधर है। देख रहे हैं जान किधर है।। घर से निकले तुलसी उपवन पूछ रहे जापान किधर है।। सूरत से अच्छे लगते हैं सीरत की पहचान किधर है।। एक बड़ा योगी है इनमें योगी का परिधान किधर है।। इनसे पूछो इन तीनो का डोल रहा ईमान किधर है।। सुरेश साहनी
 ये माना कि कोई मुरव्वत न दोगे। हमें ग़ैर समझोगे अज़मत न दोगे।। ये सौदागरी है भला किस किसम की  मुहब्बत के बदले मुहब्बत न दोगे।। तुम्हें दिल दिया है मुकर क्यों रहे हो बयाना उठाया था बैयत न दोगे।। तुम्हें चाहिए सिर्फ दौलत की दुनिया मेरे जैसे मुफ़लिस को सिंगत न दोगे।। कोई मर भी जाये तुम्हारी बला से बिना कुछ मिले कोई राहत न दोगे।। हमें भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं है हमें जिंदगी भर की दौलत न दोगे।। करें क्या मुहब्बत का ओढ़ें- बिछाएं फ़क़त दिल ही दोगे नियामत न दोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम अगर भूल गए हो तो बता दे तुमको भूल से याद मेरी आये  तो बिसरा देना दिल तो बच्चा है जो बहकेगा सम्हल जाएगा लड़खड़ाओ जो कभी खुद को सहारा देना। ।    सुरेश साहनी
 सब तो चेहरे पे लिखा रहता है। दिल गरीबों का खुला रहता है।। हाँ मेरे दिल के सनमखाने में कोई पत्थर का ख़ुदा रहता है।। हो सके चार कदम साथ चलो हौसला कुछ तो बना रहता है।। तुम मेरी खोज खबर क्या लोगे क्या तुम्हे अपना पता रहता है।। दर्देदिल जख्मे जिगर कुछ तो दो इस तरह प्यार बना रहता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कुएं में ही भाँग पड़ी है । सकल व्यवस्था गली-सड़ी हैं ।।  व्यापम की माया से तौबा वरना सर पर मौत खड़ी है।। सभी लीक पर हांफ रहे हैं किसने नई राह पकड़ी है।।
 दिले-अय्याश से मन भर गया है। अभी इजलास से मन भर गया है।। मेरा क़िरदार कोई अजनबी है इसी एहसास से मन भर गया है।। ज़माना बेख़ुदी से बेख़बर है के महवेयास  से मन भर गया है।। हुई जाती है हरजाई  मुहब्बत हमारे पास से मन भर गया है।। अना मेरी मुझे फटकारती है मेरा उस ख़ास से मन भर गया है।।
 चिड़ियाघर ख़त्म होते जा रहे हैं और ख़त्म होते जा रहे हैं शहर भी अब बच्चे शेर को पहचानते हैं उन्होंने लॉयन किंग और जूमाँजी देखी है वे डिस्कवरी और वाइल्डलाइफ भी देखते हैं वे पहचानते हैं लेपर्ड कोब्रा जिराफ़ और क्रोकोडायल भी वे पहचान सकते हैं हर जानवर पर उनकी मासूम आंखें नहीं पहचान पाती इंसान में छुपे शैतान को उस भेड़िये को जो दिन के उजाले में आता है आदमी बनकर और उस मासूम को बनाता है अपना शिकार जो इतना भी नहीं जानती  कि भँवरे फूलों पर क्यों मंडराते हैं वो भागती है तितलियों के पीछे इस बात से अनजान कि आदमखोर अब जंगलों में नहीं रहते.....
 याद आ आ के मुझे भूल गया। हैफ वो पा के मुझे भूल गया।। साथ देने की कसम भी खाई फिर कसम खा के मुझे भूल गया।। और हैरत तो इसी बात पे है ख़्वाब में आ के मुझे भूल गया।। गाँव मे था तो मेरा था दिल से पर शहर जा के मुझे भूल गया।। भूल जाना भी अदा है शायद ख़्वाब दिखला के मुझे भूल गया।।
 अपने कमरे से निकल कर देखो। सिर्फ़ आँगन में टहलकर देखो।। प्यास सावन में बुझानी है तो पहली बरसात में जल कर देखो।। मुर्दा सांचों में न ढालो खुद को मेरी साँसों में पिघलकर देखो।। कुछ को अपनी भी नज़र लगती है तुम भी आईना सम्हलकर देखो।। मेरी आगोश है महफूज़ जगह मेरे रहने पे फिसलकर देखो।। चाँद तारे भी हंसी लगते हैं  आसमानों को मचलकर देखो।। टूट सकती है वो अमिया खट्टी कोशिशों और उछलकर देखो।। मेरे हासिल को समझ पाओगे मेरे हालात में पलकर देखो।। और उलझा हूँ मैं सुलझाने में हो सके तुम भी सहल कर देखो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 अहले - कद हैं वो वहम रहने दे। सब्र रख ख़ुद को ही ख़म रहने दे।। उस ख़ुदा को कोई दरकार नहीं नाखुदाओं के अलम रहने दे।। पुल ए सिरात की बातें न बता मयकदे में तो अदम रहने दे।। क्या ज़रूरी है जुबां दरपन को हुस्न को अहले भरम रहने दे।। खैर प्याला तो दिया है उसने आज मय कम है तो कम रहने दे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 इश्क़ में क्या क्या सीख गए हम क्या बोलें। होश कहाँ है पी पी कर ग़म क्या बोलें।। पहले जैसा ख़ुश रहना हम भूल गए ख़ुद पर हो जाते हैं बरहम क्या बोलें।।
 ज़ख़्म फिर से हरे हो गये। सामने  वो  मेरे   हो गए।। आपकी आदतें सीखकर हम भी कुछ सिरफिरे हो गए।। इश्क़ पर बंदिशें क्या हुईं ख़त्म सब दायरे हो गये।। फिर हवाएं बसंती चलीं आम तक बावरे हो गये।। तुम से हम कब हुए क्या पता हम तो कब के तेरे हो गए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मिलना है तो दिल से मिल। कुछ खोकर हासिल से मिल।। आईने में दिखता है तू तेरे क़ातिल से मिल।। मैं तेरा सैदायी हूँ आ अपने बिस्मिल से मिल।। रस्ता रस्ता भटका है अब अपनी मंज़िल से मिल।। हक़ ख़ुद बोलेगा क्या है एक ज़रा बातिल से मिल।। तुझको क़ाबिल बनना है अपने से क़ाबिल से मिल।। क़ामिल होना चाहे है मुर्शिद -ओ-आमिल से मिल।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 क्या होगा केवल प्रमाद से यह सोने का वक्त नहीं है। हटो, हमारी राह न रोको अब रुकने का वक्त नहीं है।। कोई जन्म से दास नहीं है कोई प्रभु का खास नहीं है ईश्वर का प्राकट्य प्रकृति है क्या तुमको आभास नहीं है यूँ भी गढ़े हुए ईश्वर से अब डरने का वक्त नहीं है।। नियम प्रकृति के अखिल विश्व में अब तक एक समान रहे हैं भेदभाव या वर्ग विभाजन कुटिल जनों ने स्वयं गढ़े हैं आज विश्व परिवार बनाना-- है, लड़ने का वक्त नहीं है।। कर्म योग है योग कर्म है सामाजिकता श्रेष्ठ धर्म है प्रकृति संतुलित रहे यथावत मानवता का यही मर्म है इससे भिन्न किसी चिन्तन में अब पड़ने का वक्त नहीं है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 यार जितना जलाल है इनमें। उससे ज्यादा कमाल है इनमें।। इनकी संज़ीदगी से लगता है कोई गहरा सवाल है इनमें।। उनसे बिछड़ी तो खूब रोई हैं तुम न मानो मलाल है इनमें।। इनकी मासूमियत पे मत जाओ अक्ल के साठ साल है इनमें।। राहते-रूह हैं यही फिर भी भर ज़हां का बवाल है इनमें।। इनकी औक़ात क्या समझते हो उससे ज्यादा का माल है इनमें।। ये न समझो कोई दबा लेगा गेंद जैसा उछाल है इनमें।। सुरेश साहनी कानपुर
 इस नज़्म पर तवज्जह चाहूंगा।समाअत फरमायें-- तुम अगर याद न आते तो कोई बात न थी याद आ आ के मेरे दिल को सताते क्यूँ हो। मैं तुम्हे भूल गया हूँ ये भरम है मेरा तुम मुझे भूल गए हो तो जताते क्यूँ हो।। चंद दिन मेरे रक़ीबों के यूँ ही साथ रहो चंद दिन और मुझे खुद को भुला लेने दो। चंद दिन और मेरे ख़्वाब में मत आओ तुम तुरबते-ग़म में तेरे मुझ को सुला लेने दो।। एक मुद्दत से तेरी याद में सोया भी न था सो गया हूँ तो मुझे आ के जगाते क्यों हो।। यूँ रक़ाबत में सभी रस्म ज़रूरी है क्या जानते बूझते पै- फातेहा आते क्यूँ हो। एक काफ़िर को तेरे बुत से भी नफ़रत है अगर संग अगियार के आ आ के जलाते क्यूँ हो।। इतनी उल्फ़त थी अगर मुझको भुलाया क्यों था और नफ़रत थी तो फिर सोग मनाते क्यूँ हो।। सुरेश साहनी कानपुर
 जीते जी मत मरने लगना। हमसे प्यार न करने लगना।। दुनियादारी के दलदल में अपने पाँव न धरने लगना।। आगे नाथ न पीछे पगहा उनको मत अनुसरने लगना।। नज़रों को काबू में रखना नज़रों से मत गिरने लगना।। साकी की क़ातिल नज़रों से शीशे में न उतरने लगना।। उस हरजाई की आदत है कहना और मुकरने लगना।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हुश्न की प्यास जगाने वाले। तिशना लब छोड़ के जाने वाले।। आह की आग में जल जाएगा बेजुबां दिल को सताने वाले।। घर तेरा भी है इसी बस्ती में दिल की दुनिया को जलाने वाले।। जिस्म शीशे का है घर शीशे के दिल को पत्थर का बताने वाले।। छोड़ जाते हैं अना की ख़ातिर प्यार से घर को बनाने वाले।। डूब जाते हैं वफ़ा के हाथों इश्क़ में हाथ बढ़ाने वाले।।
 सूने सूने से नयनों को  उसने अगणित स्वप्न दे दिए। मानो प्रभु ने किसी दीन को  झोली भर भर रत्न दे दिए।।
 कभी फुर्सत मिले तो याद करना।  नहीं तो वक़्त मत बरबाद करना।।  कहाँ गुजरे हुए पल लौटते हैं जहाँ जाना वो घर आबाद करना।। तुम्हारे वार में तासीर कम है तरीका कुछ नया इज़ाद करना।। जहाँ आवाज पे पहरे लगे हों वहां बेकार है फरियाद करना।। न करते चाक सीना-ए-मुहब्बत अगर था मुल्क को आज़ाद करना।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कुछ तुम्हें भी उलझने हैं ,हम भी कुछ मजबूर हैं। अब तो लगता है यही इस राह के दस्तूर हैं।। ज़िन्दगी की राह में ये इश्क के इनाम हैं मरहले कुछ बढ़ गए हैं, मंज़िलें भी दूर हैं।। ग़म के बादल इस क़दर छाये हैं अपने हाल पर चाँद भी मद्धिम हुआ ,सूरज भी अब बेनूर है।। सुरेशसाहनी
 इक आपसे मुहब्बत कितनी बड़ी ख़ता है। खोजें कहाँ पे ख़ुद को इक दिल भी  लापता है।। वो दुआयें दे रहे हैं सौ साल तक जियें हम छोटी सी इस ख़ता  की कितनी बड़ी सज़ा है।। उनके बग़ैर जीना इसे यूँ समझ ले कोई कभी उनमें मरने वाला मर मर के जी रहा है ।। सुरेश साहनी कानपुर
 वो दुआयें दे रहे हैं सौ साल तक जियें हम छोटी सी इक ख़ता की कितनी बड़ी सज़ा है।।SS
 ये हुस्न है बेहिसाब लेकिन तुम्हीं नहीं लाज़वाब लेकिन तुम्हारी ख़्वाहिश थी दिल की महफ़िल हमारा घर था ख़राब लेकिन ये डर था कांटों से क्या निभेगी चुभे हैं हमको गुलाब लेकिन के डगमगाए हैं उनसे मिलकर सम्हालती है शराब लेकिन भरोगे दामन में चांद तारे दिए हैं तुमने अज़ाब लेकिन गुरुर करने का तुमको हक़ है  ढलेगा इकदिन शबाब लेकिन  Suresh sahani
 मुद्दत के बाद आये हो तुम। आज नज़र शाद आये हो तुम।। तुमको हिचकी आयी है क्या फिर मुझको याद आये हो तुम।।
 हर अना चूर चूर होने दो। ख़त्म दिल के फितूर होने दो।। कुछ इज़ाफ़ा तो इश्क़ में होगा इक ज़रा दिल से दूर होने दो।। तोहमतें बाद में लगा लेना पहले मुझसे कुसूर होने दो।। हुस्न इतरा लिया नज़ाकत से इश्क़ को भी गुरुर होने दो।। आशिक़ी में अभी अनाड़ी हैं कुछ हमें  बाशऊर  होने दो।। इश्क़ में कोर्निश बजा लेंगे उन को मेरे हुज़ूर होने दो।। उनकी तल्खी भी इक अदा समझो उनको गुस्सा ज़रुर होने दो।। आज रूठे हैं कल तो मानेंगे सिर्फ़ गुस्सा कफूर होने दो।। आज चेहरे पे इक तबस्सुम है कल उन्हें नूर नूर होने दो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 रात कितना चमक रहे थे तुम। हुस्न पाकर हुमक रहे थे तुम।। रात कुछ बादलों ने बोला क्या मस्त होकर ठुमक रहे थे तुम।। रात तुम कुछ नशे में थे शायद बादलों में बहक रहे थे तुम।।
 उसे न याद करो फिर भी याद आता है। वही जो कह के कोई बात भूल जाता है।।   वो दूर रह के भी हरदम मेरी निगाह में है करीब हो के जो मुझसे नज़र चुराता है।। न जाने क्यों मुझे लगता है मैं खयाल में हूं भला वो किसलिए रह रह के मुस्कुराता है।। कोई तो बात उसे सालती ज़रूर होगी कोई तो राज वो हर एक से छुपाता है।। वो मेरा है कभी ऐसा नहीं कहा मुझसे मगर हर एक से अपना मुझे बताता है।। कि दुश्मनों को तो अब भी यकीन है मुझ पर ये कौन है जो मुहब्बत में आजमाता है।। बहुत सी खामियां तुमने सुरेश की कह दीं कभी सुना है उसे जब वो गुनगुनाता है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 यादें तेरी आ आ के कुछ ऐसे सताती है जगने भी नहीं देतीं सोने भी नहीं देतीं।। तासीर तेरे गम की है खूब मसीहाई मरने तो नहीं देती जीने भी नहीं देती।।SS
 घिरे हैं आज भी बादल घनेरे। मांझी!अब तो लंगर डाल दे रे।। तेरी आवाज़ शहरों तक तो पहुंचे नदी नालों से हटकर डाल डेरे।। सुना है राम जी तुझसे मिले थे लगाता क्यों नहीं दिल्ली के फेरे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आज है रसहीन जीवन छंद नीरस हो चले हैं क्या कोई कविता कहे जब भाव बेबस हो चले हैं।।आज है रस.... अर्थ शब्दों में नहीं है शब्द भावों में नहीं हैं रिक्तता अभिव्यक्ति में है रस गिराओं में नहीं हैं खोखले संवाद दावा - है कि समरस हो चले हैं।।आज है रस... अब सिसकती हैं व्यथायें अंक भर तन्हाइयों के अश्क बह बह सूखते हैं ओट में रुसवाईयों के कौन दे आलम्ब जब सम्बन्ध परवश हो चले हैं।।आज है रस... आज रोना भी कठिन है मौन रहना ही उचित है मृदुल स्मितमुख रहो अब लाख मनमानस व्यथित है शब्द शर से बेध देंगे मित्र तरकश हो चले हैं।।आज है रस.... सुरेशसाहनी, कानपुर न्
 तुमने सीमायें तय कर दी देहरी दीवारें घर आंगन बंधक यौवन के बदले में  मैंने खोया मेरा बचपन खेल खिलौने गुड्डे गुड़िया घोंघे सीपी कंकड़ पत्थर ना कुछ पाने का हवशीपन ना कुछ खो जाने का था डर कैसे कह दूं उस सावन से यह सावन है बेहतर सावन यह खिड़की भर का सावन है वह था मुक्त गगन का सावन संग संघाती थे हम जैसे राहें थीं जानी पहचानी पगडंडी बतियाने वाली गांव गली अपनी रजधानी कैसे कह दे उस जीवन से कैसे बेहतर है यह जीवन तब थी दसो दिशाएं अपनी अब पिंजरशुक जितना नर्तन सुरेशसाहनी, कानपुर (अवध बिहारी श्रीवास्तव जी से प्रेरित)
 उस समय देहरादून में रोबिन शॉ "पुष्प, विद्यासागर नौटियाल गिरिजा शंकर त्रिवेदी विजय गौड़ और ओम प्रकाश वाल्मीकि की गिनती वहां के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में होती थी।ओमप्रकाश वाल्मीकि जी हमारी निर्माणी में होने के कारण आसानी से सुलभ थे।नई निर्माणी होने के कारण अधिकारी/कर्मचारी अधिकतर युवा ही थे।इनमें नई ऊर्जा से भरे नवोदित कवि भी शामिल थे।बहुत सारी युवा लड़कियां भी हमारी निर्माणी का हिस्सा थीं।निर्माणी में जैसे विश्वविद्यालय का आभास होता था।ऐसे में कई शौकिया कवि भी इस गिनती में शामिल होना चाहते थे।उनदिनों वाल्मीकि जी और अनिल कुमार सिंह जी जो अब कानपुर में हैं ,पूरी तन्मयता से हिंदी की सेवा में लगे थे।लगभग सभी रचनाकार इन दोनों महानुभावों को अपनी रचनायें दिखाकर मुतमईन होना चाहते थे।हमारे एक साथी कवि कुछ अधीर या अतिउत्साही कवि थे।उनकी रचनाधर्मिता जबरदस्त थी।वे दस बजे एक कविता ग्यारह बजे तक दूसरी कविता और ग्यारह बज के बीस मिनट की द्रुत गति से बीस पच्चीस बार लिख लेते थे। और वाल्मीकि जी को दिखाने पहुंच जाते थे।    ऐसे ही एक दिन वाल्मिकी जी अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ एक उत्पादन अनुभाग में
 तू ख़ुदा है तो ये संसार अधूरा क्यों है। कुछ खबर है कि समाचार अधूरा क्यों है।। तेरा बन्दा हूँ मुझे तूने बनाया तो फिर मेरी हस्ती मेरा क़िरदार अधूरा क्यों है।। आसमानों से भी ऊँचे हों इरादे जिनके तू बनाता उन्हें हर बार अधूरा क्यों है।। सब तो जोड़े से हैं बच्चे भी हैं घरबार भी है तू अधूरा तेरा घर बार अधूरा क्यों है।। इतनी रक़बत है तो फिर खुल के अदावत कर ले या मुहब्बत है तो कर प्यार अधूरा क्यों है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 इसे शिकवा समझ लें तुम कहो तो। तुम्हें अपना समझ लें तुम कहो तो।। तुम्हारे दिल मे क्या है तुम समझना तुम्हें अच्छा समझ लें तुम कहो तो।। तुम्हारे प्यार में हम डूब जायें तुम्हें दरिया समझ लें तुम कहो तो।। ये पत्थर दिल चटकना चाहता है तुम्हें शीशा समझ लें तुम कहो तो।। नज़र तुमने झुका ली है हया से इसे हम क्या समझ लें तुम कहो तो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मैंने तुम्हारे ख़त तो जलाए नहीं कभी। अश्क़ों में बह गए थे बहाये नहीं कभी।। तुमने कभी जो भूल के पूछा नहीं हमें, तुम भी यहां ख्याल  में आये नहीं कभी।। तुम जो हमारी याद में जागे नहीं सनम हम भी तुम्हारे ख़्वाब में आये नहीं कभी।। तुम और हमारे ख़्वाब में आते तो किस तरह हमने तुम्हारे ख़्वाब सजाये नहीं कभी।। तुमने ही तो बनाये थे वो रेत के महल वो खुद ढहे हैं हमने ढहाए नहीं कभी।। तेरे जवाब थे यहाँ आयत मेरे लिए तुमने मेरे सवाल उठाए नहीं कभी।। तुमने तो खुद को ख़ुद ही पशेमाँ किया अदीब हमने किसी को ज़ख़्म दिखाये नहीं कभी।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 जब मुझको पहला खत लिखना पहले ही अपना मत लिखना।। मुझको अपना कहने वाला फिर दूजा कोई खत लिखना।।
 तीन दिन से सोच रहा हूं कुछ लिखूं1। लेकिन घूम फिर के दो पंक्ति से आगे की स्थिति ही नहीं बनती। घूम फिर के दिमाग में वहीं कचरा। नया कुछ मिलता ही नहीं। सोचते हैं कि कुछ ब्रेकिंग न्यूज टाइप धमाकेदार लिखें।ससुरा मिलता ही नहीं। कई बार तो ऐसा लगता है कि साहित्य के हाट में भी आर्थिक मंदी जैसी साहित्यिक मंदी छाई हुई है।आप यकीन नहीं मानेंगे मेरे सैकड़ों जानने वालों के कविता संग्रह , कहानी संग्रह या अन्य किताबें आईं पर मजाल जो साहित्य के हाट में कोई हलचल मची हो। हाट इसलिए कह रहा हूं कि हिंदी साहित्य की स्थिति मार्केट वाली अभी तक तो नहीं बनी है।मार्केट या साहित्य का बाजार आज भी अंग्रेजी के कब्जे में हैं। और नोबेल से लेकर बुकर तक यही स्थिति है।चाहे इतिहास उठाकर देख लीजिए। गीतांजलि को भी सम्मान तभी मिला था, जब वह अंग्रेजी में छपी। नहीं तो मुंशी प्रेमचन्द और मंटो की हर कहानी नोबल प्राइज के लायक है। पर उनको नोबल पुरस्कार के छींटे भी नहीं मिले।    फिर यह सोचकर मन को समझाने की कोशिश करते हैं कि यार ऐसी मंदी तो टीआरपी बाजार में भी छाई है। नहीं तो मलाइका अरोड़ा की शादी की खबर दिन भर ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर
 दौरे हंगाम तक नहीं पहुंचे। हम लबे बाम तक नहीं पहुंचे।। इससे पहले कि दम निकल जाए बात आराम तक नहीं पहुंचे।।
 तुम्हारे साथ ये शब खुशगवार गुज़री है। लगा कि जैसे यहीं से बहार गुज़री है।। तमाम उम्र तमन्नाओं के तले गुज़री ये ज़ीस्त आज किसी हद से पार गुज़री है।।
 लगता है दुश्मन को पूरा सबक सिखाना होगा। सन 65 का युद्ध हमें फिर से दोहराना होगा।। थी अब्दुल हमीद ने इनको नानी याद दिलाई पैंटन टैंकों की अजेयता को जब धूल चटाई इनसे भी लाशें गिनवा दो इनकी औलादों की खाल खींचनी ही होगी अब ऐसे जल्लादों की अब सेना को रावलपिंडी भी कब्जाना होगा।। सन 65 का युद्ध हमें फिर से दोहराना होगा।।
 मैं न हिन्दू न मुसलमान रहा। पर मुक़द्दस मेरा ईमान रहा।। जात थी और मेरी रोजी और ये गनीमत है मैं इंसान रहा।। ये तो तय है कि उसके आँखें हैं मेरा अल्लाह निगेहबान रहा।। मैं भी शामिल हूँ उसकी कुदरत में मुझपे उसका ये एहसान रहा।।
 धीरे धीरे मौत के मुंह में जाना ही है। कारण सारे उसका एक बहाना ही है।। नहीं पिए जो उनका भी मरना तय है खाते पीते मरो अगर जाना ही है।।
 तुम्हारे साथ ये शब खुशगवार गुज़री है। लगा कि जैसे यहीं से बहार गुज़री है।। तमाम उम्र तमन्नाओं के तले गुज़री ये ज़ीस्त आज किसी हद से पार गुज़री है।।
 कब कहा है कि दोस्ती रखिये। दुश्मनी है तो दुश्मनी रखिये।। लीजिये हाल एक दूजे का तल्ख़ रिश्तों में ताजगी रखिये।। या तो रिश्ते न हो तकल्लुफ़ के या तो जमकर तनातनी रखिये।। शोला-ए-इश्क़ को हवा दीजै नफरतों की बुझी बुझी रखिये।। तिश्नगी मेरी इक समंदर है अपने होठों पे इक नदी रखिये।। लोग सुनकर हंसी उड़ाएंगे दिल की बातों को दिल मे ही रखिये।। साफ गोई उसे पसंद नहीं आप भी झूठ की डली रखिये।। सुरेश साहनी कानपुर
 शहरों में कल चलते हैं। छोड़ो जंगल चलते हैं।। आँगन में दीवार उगी सीनों पर हल चलते हैं।। दिल पर दस्तक है सुनकर खोलो सांकल चलते हैं।। कब बोला है सांसों ने बस अगले पल चलते हैं।। खुश रहना है तो फिर चल जैसे पागल चलते हैं।। घुँघरू को आवाजें दो बांधो पायल चलते हैं।। मधुवन में मन भावन है अबकी मंगल चलते हैं।। नदिया है खामोश मगर धारे कलकल चलते हैं।। राधा तुम क्यों चुप चुप हो रोको सांवल चलते है।। * सुरेशसाहनी, कानपुर *
 हम समाचार हो गए होते। छप के अख़बार हो गए होते।। बच गए हम ख़ुदा की रहमत है वरना मिस्मार हो गए होते।। वक़्त की मार से बचे वरना दो बटे चार हो गए होते।। हम तेरे ग़म से कामयाब हुए वरना बेकार हो गए होते।। उम्र कुछ दुश्मनों की बढ़ जाती हम जो बीमार हो गए होते।। काश जुल्फ़े-सियाह में तेरे हम गिरफ्तार हो गए होते।। आज कुछ और दास्ताँ होती तुम जो तैयार हो गए होते।।
 आज की रात सो न पाएंगे। आज बस तुमको गुनगुनायेंगे।। आज की रात ज़ीस्त की ख़ातिर मौत के दर से लौट आएंगे।। आज की रात की सहर है क्या रात बीतेगी तब बताएंगे।। शेख जन्नत तुझे मुबारक हो मयकदे से तो हम न जाएंगे।। मौत तुझको भी  एक दिन देंगे हम तुझे भी गले लगाएंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 लोग चेहरे की धूल देखेंगे। क्या सफ़र के उसूल देखेंगे।। देन कांटों की कौन समझेगा देखने वाले फूल देखेंगे।। हम नमाज़ी हैं या के पाज़ी हैं सब खुदा के रसूल देखेंगे।। अपनी निस्बत है नूर से उसके क्या किसी को फ़िज़ूल देखेंगे।। याद रखना है नफ़्से-आख़िर तक कैसे जाते हो भूल देखेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुहब्बत की जुबां मै बोलता हूँ  वो हिंदी है के उर्दू राम जाने! मेरा मजहब मेरी इंसानियत है, मुसलमान हूँ की हिन्दू राम जाने!
 जियेंगे  खुल के  फिरकावार नही। हमको मज़हब पे एतबार नही।। तुझको जन्नत पे हैं यकीन मगर रहती दुनिया पे एतबार नही।। मैकदे में तू आके देख जरा इससे बढ़कर कहीं क़रार नहीं।। गर हमारा वो फ़िक्रमंद नही हमको भी उसका इंतज़ार नही।। शोहरतों पे गुरुर ठीक नही चार दिन से अधिक बहार नही।। सुरेशसाहनी
 भरी है सादगी उसकी अदा में। नज़र डूबी हुई है इक हया में।। जो दीवानी हुयी जाती है दुनिया कोई तो बात है उस बेवफ़ा में।। निगाहों से हमें गिरने न देना के रख लेना हमें अपनी दुआ में।। कभी तुमको हमारी याद आये बुला लेना हमें अगली सदा में।। अगर तुम साथ हो तो ज़िन्दगी है तुम्हारे बाद राहत है क़ज़ा में।। सुरेशसाहनी
 तुम्हारा फूल अब फरसा लगे है। तुम्हारी बात से डर सा लगे है।। हमारे मुल्क को तुम बेच दोगे तुम्हारी साज़िशी मंशा लगे है।। हमारे साथ कुछ धोखा हुआ है न जाने क्यों हमें ऐसा लगे है।। ग़रीबी भी बला की बेबसी है कि अपने आप पर गुस्सा लगे है।। लहू पीकर बड़ा नेता हुआ है कहाँ से वो तुम्हे इंसा लगे है।। गज़ब हैं आज के अख़बार वाले जिन्हें शैतान भी ईसा लगे है।। मेरी आँखों में कोई खोट होगा तुम्ही दिल से कहो कैसा लगे है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 लब सीने की बात न करना। विष पीने की बात न करना।। डर डर कर जीना क्या जीना यूँ जीने की बात न करना।। जागी आंखों पर पतियाना आईने की बात न करना।। देख के वो अनजान बना उस नाबीने की बात न करना।। सुरेश साहनी, कानपुर ऐश करो बिन्दास जियो तुम ना जीने की बात न करना।।
 कोई माने या ना माने क्या फर्क पड़ता है।तमाम मठाधीश हैं दूसरे की वाल पर आने में शरमाते हैं।एक ने अभी कुछ दिन पहले पोस्ट किया  मैंने तमाम कवि/शायर, लिखने वाले छोटे/बड़े कवियों को अनफ्रेंड किया है। अब उनके बड़े होने के भ्रम सॉरी अहम का क्या किया जाय।हमें शरद जोशी जी की बात ध्यान रहती है कि, "लिखते जाईये आपका गॉड फादर कोई नहीं पर लाल डिब्बा तो है। लिख लिख कर लाल डिब्बे में डालते जाईये, एक दिन पहचान बन जाएगी।; आज लाल डिब्बा नहीं है पर ईमेल है,ब्लॉग्स हैं ,फेसबुक है।पर्याप्त है। फिर कवि स्वान्तःसुखाय लिखता है।कवि स्थितिप्रज्ञ  है।    वैसे भी हिंदी पाठकों की स्थिति अलग है।उसके मूड की बात है। वह वो पढ़ना चाहता है जो उसे नहीं उपलब्ध है।सुलभ को साहित्य नहीं मानना उसकी बीमारी है। वो सीता में कमी निकाल कर राम को जस्टिफाइ कर सकता है।रावण को सच्चरित्र साबित कर सकता है। सनी लियोनी को आदर्श मान सकता है।फिर एक्सेप्ट तो तुलसीदास भी अपने समय मे नहीं रहे होंगे।आज का कवि किस खेत की मूली है।
 वे  चाकर जिन सेठ के, ये भी उनके दास। हर हालत में देश है गिरवी उनके पास।।सुरेश साहनी जी महाराज
 जब कहें अपनी कहानी या कि अफसाना तेरा। क्या बताये ख़ुद को अपना या कि बेगाना तेरा।। तुझको  फुरसत थी कहाँ समझे मेरी दीवानगी फिर भी मेरा सब्र था हो जाना दीवाना तेरा।। तू मुझे अपना तो कह दिलवर नहीं दुश्मन सही अपनी मंज़िल है किसी सूरत भी कहलाना तेरा।। ताज़ तो मुमकिन नहीं मुमताज़ अपनी ज़ीस्त में पर मुझे तस्लीम है अंदाज़ शाहाना तेरा।। तू शमा बन कर जले ये मैं न चाहूंगा कभी घर को रोशन तो करेगा हुस्न आ जाना तेरा।।   सुरेश साहनी,कानपुर
 और कुछ रख न रख ज़िगर तो रख। बदहवासी में भी ख़बर तो रख।। सीखना है अगर वफादारी साथ दो चार जानवर तो रख।।
 मस्ती भरी उमंग के मौसम नहीं रहे। उनके हमारे संग के मौसम नहीं रहे।। तन्हाइयों ने दिल  में मेरे घर बना लिए महफ़िल में राग रंग के मौसम नहीं रहे।। आयी नहीं बहार की फागुन चला गया आये नहीं अनंग के मौसम नहीं रहे।। वो सर्दियां वो गर्मियां वो बारिशें कहाँ पहले के रंग ढंग के मौसम नहीं रहे।। वो लोग वो अलम वो ज़माने गए कि अब वो झूमते मलंग के मौसम नहीं रहे।। वो सावनी फुहार वो बागों में झूलना वो पेंच वो पतंग के मौसम नहीं रहे।। उठती थी  देख के जो उन्हें  इस लिबास में दिल मे उसी तरंग के मौसम नहीं रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 काहे का अंधेर अब काहे का अन्याय। जज छुट्टी पर जाएंगे तंत्र करेगा न्याय।।साहनी
 हीरे सस्ते हो गये बढ़े कफन के रेट। अब गरीब ले सकेंगे महंगे महंगे फ्लैट।। महंगे महंगे फ्लैट खुले ऑफर निर्धन को यों फकीर ने पेंच कसो पैसे वालन को कह सुरेश कविराय जान होती महंगी रे। यासे महंगे कफन किए अरु सस्ते  हीरे।।
 यार भैया आप लोग मात्रा कैसे गिरा लेते हो। मैं तो मालूम और मालुम में कन्फ्यूजियाया रहता हूं। Hari Shukla भाई साहब आप कविता के सच्चे साधक हैं।  और वैसे भी हम लोग जिस विभाग से आते हैं वहां हिंदी या उर्दू नहीं हिंदुस्तानी बोली बोली जाती है। जो सर्वोत्तम है। नफीस भी और सुग्राह्य भी।  लोग तेरा को तिरा कहकर ग़ज़ल की बहर निबाह लेते हैं।एक मैं हूं जो बहर को उठाने के लिए मात्रा गिराने से बहुत डरता हूं।कई बार तो पूरी की पूरी ग़ज़ल लिख के मिटानी पड़ी। मगर मात्रा गिराने के चक्कर में मेरा को नहीं मारा। पर अबकी किसी गजल में मेरा को मिरा लिखना पड़ा तो मैं मरा लिखना कुबूल करूंगा, वरना ग़ज़ल को तीन बार तलाक कह दूंगा। आखिर अपने शायर को मेआर पे लाने के लिए कोई कितना गिरेगा। जो गिर गया समझो मर गया। मरा किरदार  समझा है किसी ने। मुझे कब यार समझा है किसी ने।। मरे सीने में भी इक दिल निहां है ये पहली बार समझा है किसी ने।। बहुत दिन तक मुझे प्यादा बताया अभी सरदार समझा है किसी ने।।  कोई खोलेगा पढ़ कर फेक देगा फकत अखबार समझा है किसी ने।। गुलामे -नफ्स है जिसमें हवस भी उसी को प्यार समझा है किसी ने।। सभी देखें हैं बस
 वे उर्दू के सूरमा ये हिंदी के वीर। दो पाटन के बीच में बचते कहां कबीर।। साहनी
 मेरे होने की बाते तो होती ही हैं पर मैं हूं यह बात उन्हें स्वीकार नहीं है मुझे पता है एक न एक दिन ऐसा होगा जब मैं होकर भी दुनिया में नहीं रहूंगा तब होंगे आयोजित मेरे खेल तमाशे कई बार मेरी हंसती तस्वीर लगाकर जबकि मैं भी कभी हँसा हूं यह खुद मुझको नहीं पता है चलो ठीक है इसी बात पर हंस लेते है किंतु बहुत से लोग अपरिचित और सुपरिचित मेरे बारे में सतही या झूठे सच्चे कितने ही प्रेरक प्रसंग ले भाव प्रवण हो अनुपस्थिति में मुझे उपस्थिति बतलाएंगे कुछ आंखों में आंसु के सैलाब उठाए मेरे बारे में मेरी रचनाओं पर भी बिना पढ़े ही लंबी लंबी बात करेंगे मुझे पता है मेरा होना नहीं मानकर उल्टा सीधा आए बांए कुछ भी बोलेंगे और कहेंगे रचनाकार सदा रहता है अपने बाद उपस्थित रचनाओं में और पाठकों से अपनी रचना के द्वारा  वो जब चाहे तब संवाद किया करता है अक्सर मैने देखा है ऐसे अवसर पर यह अपूरणीय क्षति है ऐसा कहने वाले उसी समय यह उसी मंच के दाएं बाएं समकालीनों की निंदा करते मिलते हैं मुझे पता है जिन्हें प्यार है मुझसे सचमुच उन आंखों में नमी रहेगी अश्रु न होंगे क्योंकि वे सारे अपनी भीगी पलकों से किसी शून्य में इस आशा से
 निज पिता की गोद से नीचे उतर कर  और चलकर के  पिया   का अंक पाना यह नियति  है और प्रकृति की मांग भी है  प्रिय अहम को छोड़कर नीचे गिरो तो प्रेम की खातिर न त्यागोगे अहम को पा सकोगे किस तरह तुम तब स्वयं को सोSहम है शिव  ये शिवता ही सृजन है सोSहम ही काम से रति का मिलन है  मात्र है यह देह आदिक धर्म  साधन  एक है हम एक वह शाश्वत चिरंतन जानकर अनजान फिर क्यों बन रहे हो यदि न गिरते क्या जटाओं में ठहरते अब जटाओं से पतन में डर रहे हो हो सहज अस्तित्व अपना भूल जाओ आओ प्रिय प्रिय की भुजाओं में समाओ..... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अब वो ख़्वाब नहीं आते  हैं जो तरुणाई में आते थे। नहीं सुनाई देते जो स्वर जीवन राग सुना जाते थे।। कला अवतरित होकर जैसे स्वप्न सुंदरी बन जाती थी स्नेह समर्पण की प्रतिमा बन अमृत रस बरसा जाती थी उस अमृत से नीरस दिन भी रसमय सुखमय हो जाते थे।।   वे दिन भी सपनों जैसे थे सब कुछ परी कथाओं जैसा नाना नानी दादा दादी जीवन था राजाओं जैसा दस पैसे भी मिल जाने पर हम कुबेर सा इठलाते थे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 वक़्त घूंघट उठाता रहा रात का रात मारे हया के सिमटती रही। चाँदनी चाँद का वस्ल होता रहा देख तारों को शबनम सिसकती रही।। हो गए तब गुलाबी गुलाबी कँवल धूप ने जब उन्हें छू लिया प्यार से शबनमी होठ उनके दहकने लगे ज्यूँ शरारे हुए सुर्ख़ अंगार से देख भंवरे हुए बावरे बावरे बेखबर एक तितली भटकती रही।। हर हृदय में हुआ प्यार का संक्रमण शुष्क मौसम हुआ सावनी सावनी दिन महकने लगे कामऋतु के सदृश सुप्त वीणा सुनाने लगी रागिनी किन्तु निस्पृह रहा एक उनका हृदय बात रह रह के दिल को खटकती रही।।  सुरेश साहनी , कवि और विचारक कानपुर
 अगर तुम याद आना चाहते हो। तो आओ क्या बहाना चाहते हो।। तुम्हें भी इक ज़रा तकलीफ होगी भले हमको सताना चाहते हो।। मेरे ख़्वाबों में आना ठीक है क्या बताओ क्या बताना चाहते हो।। ये क्यों लगता है कोई चोर हो तुम मेरी  नींदें  चुराना चाहते हो।। कि चोरी ऊँट की करना निहुर कर मुहब्बत को छुपाना चाहते हो।। मेरी आगोश में इक आग भी है बचो दामन जलाना चाहते हो।। मुहब्बत है तो फिर ईमान लाओ कि ये भी छल से पाना चाहते हो।। बहुत पछताओगे कल याद करके जिसे तुम भूल जाना चाहते हो।। सुरेशसाहनी, अदीब, कानपुर 9451545132
 अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं। यहाँ वहाँ सब जगह व्याप्त हैं।। कविता गुम है गुम रहने दो उन्हें अन्य सिद्धियां प्राप्त हैं।। रचित आहरित खुद प्रतिपादित वेदवाक्य सम पूर्ण आप्त हैं।।
 मैं देहरी तुम आंगन हो ना। तुम तन हो मन हो धन हो ना।। मैं तो स्याह अंधेरे में हूँ तुम तो रोशन रोशन हो ना।। माना मैं हूँ रात पूस की तुम हरियाया सावन हो ना।। मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ तुम तो उनका जीवन हो ना।। हैं तुमसे श्रृंगार महल के पायल चूड़ी कंगन हो ना।। दम घुटता था प्रेम गांठ से अब तो तुम बे बन्धन हो ना।।
 पार तट पर दिखी बावरी प्रीत की। नाव पर बज उठी बाँसुरी प्रीत की।। प्रीत पनघट पे गागर छलकती रही नेह आँचल सम्हलती ढुलकती रही भर उठी भाव से गागरी प्रीत की।। मेरे मांझी मुझे पार तो ले चलो स्वर उठा मैं गयी हार प्रिय ले चलो ओढ़ कर चल पड़ी चूनरी प्रीत की।। जब तलक तेरे हाथों में पतवार है डोलना डगमगाना भी स्वीकार है ला पिला दे मुझे मदभरी प्रीत की।।    इस तरह  बेसहारे सहारे हुए दो किनारे मिले एक धारे हुए नेह तरु पर चढ़ी वल्लरी प्रीत की।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आप जब हमसे किनारे हो गए। हम तभी से बेसहारे हो गए।। झील आंखों में ठहर कर रह गयी और हम टूटे शिकारे हो गए।।साहनी
 मैंने ख़ुद पर निगाह डाली कब। आईना भी रहा सवाली कब।। वो नहीं है तो उसकी यादें हैं दिल की दुनिया रही है खाली कब।। मुझको क्या होश कौन आया था किसने मैय्यत मेरी उठाली कब।। रार तुझसे मेरी मुहब्बत थी मेरी फ़ितरत रही बवाली कब।। झूठ पैदल कभी कभार चला सच ने गद्दी मगर सम्हाली कब।। ज़िन्दगी तुझ से क्या गिला शिक़वा दिल ने तुझ से उम्मीद पाली कब।। ताज किस पर सवाल करता है अपनी ख़ातिर जिये हैं हाली कब।। हाली/ किसान सुरेश साहनी, कानपुर सम्पर्क- 9451545132
 जो शैतां है पयंबर ख़ाक होगा। उसे अल्लाह का डर ख़ाक होगा।। कि जो अल्लाह का खादिम नहीं है मेरी मिल्लत का रहबर ख़ाक होगा।। कोई शिव द्रोह में यदि लिप्त है तो मेरे राघव का अनुचर खाक होगा।। भले ख़ुद को ख़ुदा कहता फिरे है कोई उस के बराबर ख़ाक होगा।। बड़ा होना है तो रख इंकिसारी अना वाला समुंदर ख़ाक होगा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 कभी कभी नहीं लिखने के लिए भी लिखना चाहिए।एक बहुत बड़े वाले ग़ज़लगो (जैसा कि उन्होंने बताया था) कि जनाब अपना मोबाइल नम्बर भेजिए। मैने उन्हें अपना नम्बर दे दिया। कुछ दिन बाद उन्होंने बताया कि एक साझा दीवान लाने की बात हुई है उसमें मुल्क के नामी गिरामी शायर और कवि शामिल हैं।मैने आपकी गजलें देखी हैं। माशाअल्लाह बेहद उम्दा हैं। हम चाहते हैं कि आप भी इसमें शिरकत करें तो बहुत अच्छा लगेगा।    वैसे सही मायने में देखा जाए तो ये कवि या शायर वाली  प्रजाति बहुत भोली होती है। लोग हल्की सी तारीफ़ कर दें तो ये क्या ना लुटा दें। कुछ बेवकूफ भी होते हैं जिनमें मेरा नाम आसानी से लिखा जा सकता है। और आप किसी भी कवि या शायर की अहलिया से पूछ कर इस बात की तसदीक कर सकते हैं। आप दुनिया भर के बुद्धिमत्ता और सम्मान के सर्टिफिकेट ले आइए, घर में सब बराबर।हमारे कवि मित्र कोकिल कंठी हैं । उनकी घरैतिन अपनी सहेली से बता रही थीं," अरे बहिन! क्या बताएं हमारे ये जिंदगी में हुशियार नहीं हो पाएंगे। चाय समोसा पर कविता पढ़ि आते हैं। जाने कब अकल आएगी। और अपनी स्थिति भी कवि मित्र से अलग कहां होती।उनकी तारीफ़ की शिद्दत से म