अब वो ख़्वाब नहीं आते हैं
जो तरुणाई में आते थे।
नहीं सुनाई देते जो स्वर
जीवन राग सुना जाते थे।।
कला अवतरित होकर जैसे
स्वप्न सुंदरी बन जाती थी
स्नेह समर्पण की प्रतिमा
बन अमृत रस बरसा जाती थी
उस अमृत से नीरस दिन भी
रसमय सुखमय हो जाते थे।।
वे दिन भी सपनों जैसे थे
सब कुछ परी कथाओं जैसा
नाना नानी दादा दादी
जीवन था राजाओं जैसा
दस पैसे भी मिल जाने पर
हम कुबेर सा इठलाते थे।।
सुरेशसाहनी, कानपुर
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