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Showing posts from 2012

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

अमवा के बारी में बोले रे कोयिलिया ,आ बनवा में नाचेला मोर| पापी पपिहरा रे पियवा पुकारे,पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर     निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर||........... छलकल .... सुगवा के ठोरवा के सुगनी निहारे,सुगवा सुगिनिया के ठोर, बिरही चकोरवा चंदनिया निहारे, चनवा  गईले कवने ओर निरमोहिया रे, . छलकल .... नाचेला जे मोरवा ता मोरनी निहारे जोड़ीके सनेहिया के डोर, गरजे बदरवा ता लरजेला मनवा भीजी जाला अंखिया के कोर    निरमोहिया रे, . छलकल .... घरवा में खोजलीं,दलनवा में खोजलीं ,खोजलीं सिवनवा के ओर , खेत-खरिहनवा रे कुल्ही खोज भयिलीं,     पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे,     छलकल ....

भारत में वैश्विक आर्थिक मंदी बेअसर क्यों.

अभी हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक रिपोर्ट में कहा की वैश्विक मंदी का असर भारत पर इसीलिए नहीं हुआ,क्योंकि भारत की बैंकिंग व्यवस्था का बड़ा हिस्सा इन्टरनेट से नहीं जुड़ा था|कम से कम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मनमोहन को अप्रत्यक्ष रूप से सराहा|यद्यपि मैं इससे कतई सहमत नहीं हूँ|भारत की अर्थव्यवस्था वस्तुतः जटिल अर्थ व्यवस्था है|या यूँ कहे भारत एक मात्र ऐसा देश है ,जहाँ विनिमय और व्यापार क े सभी स्वरुप प्रचलित हैं|यह ऐसा देश है जहाँ सरकारी,अर्ध सरकारी ,सहकारी,सार्वजनिक और निजी सभी प्रकार की व्यवस्थाएं एक साथ चल रही हैं|सभी सरकारी संस्थाओं में आउटसोर्सिंग के जरिये निजी क्षेत्र सक्रिय है|और सभी निजी क्षेत्र सरकारी ऋणों और अनुदान पर चल रहे हैं|सब्सिडी निजी क्षेत्र को उपकृत करने का ही एक माध्यम है|सभी चलते संस्थान घाटे में लाकर निजी हाथों में बेचे जाते हैं, और सभी निजी संस्थाओं के घाटे में जाने पर सरकार टेक ओवर करती है,ऋण माफ़ करती है,बेल आउट जारी करती है| इस प्रकार यहाँ राष्ट्रीयकरण और निजीकरण एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है| लेकिन मेरा मूल उद्देश्य उन बिन्दुओं को खोजना था की भ

हिंदी के सो काल्ड चिन्तक!

हिंदी को कमजोर बताने वाले बहुत हैं| वे इसी में खुश हैं की हिंदी को बेचारी,कमजोर ,जीविका हीन भाषा बताकर हिंदी भाषियों पर एहसान कर दिया| उन्हें अपने वक्तव्य पर ताली सुनकर गर्वानुभूति होती है|होनी भी चाहिए|आखिर वे जस्टिस काटजू के अनुयायी जो  ठहरे|उन्होंने पोस्ट बॉक्स का अनुवाद पत्रघुसेड़ लिखा था| जबकि पत्र-पेटी,पत्र-पेटिका या पत्र-मञ्जूषा जैसे अनेक विकल्प थे|ऐसे हिंदी के शुभ चिंतकों से ही हिंदी का उन्नयन होना है तो राम बचाए|हिंदी में मूल शब्द पचास हज़ार से अधिक हैं जबकि अंग्रेजी में मात्र दस हज़ार मूल शब्द हैं|भाषा की मजबूती उसकी शब्द संख्या -बल है|अंग्रेजी या अंग्रेजों ने विदेशी भाषाओँ से शब्द ग्रहण किये|आज उनके पास भारतीय भाषाओँ के लगभग एक लाख शब्द हैं|उनका शब्दकोष छः लाख के करीब है|हम हिंदी को सरल और सुग्राह्य बनाने की बजाय शुद्ध और क्लिष्ट करने में उर्जा व्यय कर रहे हैं|मैं हिंगलिश को या उनके पैरोकारों को धन्यवाद देता हूँ की वे हिंदी को सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना रहे हैं|मैं उर्दू का, भारतीय सिनेमा का भी ऋणी हूँ की उन्होंने हिंदी को लोकप्रिय बनाने में पूर्ण योगदान दिया ह

मेरी दो कवितायेँ .....

मेरी घटिया किन्तु मंचीय कविता आपके अवलोकनार्थ- 1.आम आदमी में जो एलिट क्लास बना है|  चोरी की कविता से कालिदास बना है|| जली झोपड़ी तब उनका आवास बना है| इसी तरह से वर्तमान इतिहास बना है|| चोरी,डाका,राहजनी,हत्या ,घोटाला, इस क्रम से परकसवा श्रीप्रकाश बना है|| बिरयानी के साथ रिहाई मांग रहा है, न्याय व्यवस्था का कैसा उपहास बना है|| कौन मिलाता है केसर,असगंध ,आंवला, घास फूस से मिलकर च्यवन पराश बना है|| जूता-चप्पल ,गाली-घूंसा ,मारा-मारी, लोकतंत्र का संसद में बनवास बना है|| संसद है ये,जंगल है या कूड़ाघर है, या असीम के शब्दों में संडास बना है|| बलवंत सिंह हो या अफजल हो ,या कसाब हो, हर चुनाव इनकी फांसी में फाँस बना है||  2. वेदनाओं को नया स्वर दे रहा हूँ. मृत्यु को अमरत्व का वर दे रहाहूं  नग्न होकर घुमती है राजपथ पर ; लोग जीवित लाश जिसको कह रहे हैं. हा यही है इस व्यवस्था की नियंता ' साठ वर्षों से जिसे हम सह रहे हैं. तंत्र को जन का कलेवर दे रहा हूँ....... कुछ तो काला है ,सवाली पूछता है, या है पूरी दाल काली पूछता है, तुमने ली या उसने ली या जिसने ली, किसने कितनी ली दलाली पूछता है. तु
हम तो यूँही भौक रहे हैं| आप मगर क्यूँ चौंक रहे हैं||  वादा करना और भूलना, आप के क्या-क्या शौक रहे हैं||  मेरा  दामन काला क्यूँ है| उसके घर उजिआला क्यूँ है|| कौन   हैं जो झोपड़ीकी  तरफ, बढ़ा  उजाला रोक रहे हैं|| एक  तरफ सड़ता अनाज है, बदले  में बेचनी लाज है, भूखे पेट की खातिर  अपना, तन  बाजार में झोंक रहे हैं|| आज तलक तो यही पढ़ा है, निजी स्वार्थ से देश बड़ा है, आज यही जब   पढ़ा रहा हूँ, नौनिहाल   क्यूँ टोक रहे हैं||

वर्ग-संघर्ष वर्ग-संघर्ष

तुम इतराते हो, कुचल कर एक मुट्ठी दूब और इतराता है तुम्हारा दर्प - या शासक होने का दंभ. किन्तु तुम नहीं जानते दूब दब-दब के भी हरियाती है. और तुम्हारे बूट? उनकी एक उम्र है उम्र! जिसकी मंजिल मृत्यु है, मृत्यु ! जो शाश्वत है.---सुरेश साहनी

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

लेती नहीं दवाई अम्मा, जोड़े पाई-पाई अम्मा । दुःख थे पर्वत, राई अम्मा हारी नहीं लड़ाई अम्मा । इस दुनियां में सब मैले हैं किस दुनियां से आई अम्मा । दुनिया के सब रिश्ते ठंडे गरमागर्म रजाई अम्मा । जब भी कोई रिश्ता उधड़े करती है तुरपाई अम्मा । बाबू जी तनख़ा लाये बस लेकिन बरक़त लाई अम्मा। बाबूजी थे छड़ी बेंत की माखन और मलाई अम्मा। बाबूजी के पाँव दबा कर सब तीरथ हो आई अम्मा। नाम सभी हैं गुड़ से मीठे मां जी, मैया, माई, अम्मा। सभी साड़ियाँ छीज गई थीं मगर नहीं कह पाई अम्मा। अम्मा में से थोड़ी - थोड़ी सबने रोज़ चुराई अम्मा । घर में चूल्हे मत बाँटो रे देती रही दुहाई अम्मा । बाबूजी बीमार पड़े जब साथ-साथ मुरझाई अम्मा । रोती है लेकिन छुप-छुप कर बड़े सब्र की जाई अम्मा । लड़ते-लड़ते, सहते-सहते, रह गई एक तिहाई अम्मा। बेटी की ससुराल रहे खुश सब ज़ेवर दे आई अम्मा। अम्मा से घर, घर लगता है घर में घुली, समाई अम्मा । बेटे की कुर्सी है ऊँची, पर उसकी ऊँचाई अम्मा । दर्द बड़ा हो या छोटा हो याद हमेशा आई अम्मा। घर के शगुन सभी अम्मा से, है घर की शहनाई अम्मा । सभी पराये हो जाते हैं, होती नहीं पराई अम्मा । --अज्ञात

veekeleaks

जनरल साहेब ! इतने दिन से कुर्सी पर बैठ कर क्या कर रहे थे? हमारे यहाँ  मीडियापर बोलने  का चलन बढ़ रहा है . व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है. देश की सुरक्षा के  फैसलों पर  क्रियान्वयन देर से हो रहा है ,यह चिंता  का विषय है.कई बार इसमें २० से ३०  सालों का अंतराल  हो जाता है. इसके लिएजसवंत सिंह ,फर्नांडीस ,मुलायम सिंह अंटोनी ,ब्रिजेश मिश्र   UPA और  NDA सभी दोषी हैं . और सबसे अधिक दोषी हैं सेना और रक्षा से जुड़े अधिकारी गण.लेकिन  अब आरोप-प्रत्यारोप की बजाय गलतियाँ  दूर कर आगे बढ़ा जाये यही देश और समय दोनों  की मांग है. 
क्रंदन  में  आहात  
चाँद 

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है

र:  गोपालप्रसाद व्यास   » साली क्या है रसगुल्ला है तुम श्लील कहो, अश्लील कहो चाहो तो खुलकर गाली दो ! तुम भले मुझे कवि मत मानो मत वाह-वाह की ताली दो ! पर मैं तो अपने मालिक से हर बार यही वर माँगूँगा- तुम गोरी दो या काली दो भगवान मुझे इक साली दो ! सीधी दो, नखरों वाली दो साधारण या कि निराली दो, चाहे बबूल की टहनी दो चाहे चंपे की डाली दो। पर मुझे जन्म देने वाले यह माँग नहीं ठुकरा देना- असली दो, चाहे जाली दो भगवान मुझे एक साली दो। वह यौवन भी क्या यौवन है जिसमें मुख पर लाली न हुई, अलकें घूँघरवाली न हुईं आँखें रस की प्याली न हुईं। वह जीवन भी क्या जीवन है जिसमें मनुष्य जीजा न बना, वह जीजा भी क्या जीजा है जिसके छोटी साली न हुई। तुम खा लो भले प्लेटों में लेकिन थाली की और बात, तुम रहो फेंकते भरे दाँव लेकिन खाली की और बात। तुम मटके पर मटके पी लो लेकिन प्याली का और मजा, पत्नी को हरदम रखो साथ, लेकिन साली की और बात। पत्नी केवल अर्द्धांगिन है साली सर्वांगिण होती है, पत्नी तो रोती ही रहती साली बिखेरती मोती है। साला भी गहरे में जाकर अक्सर पतवार फेंक देता