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Showing posts from February, 2017
इन गहरी चालों में फंसकर सत्ता के जालों में फंसकर अपना दुःख पीछे करती है जनता ऐसे ही मरती है।। तुम बसते हो इसका कर दो तुम हँसते हो इसका कर दो तब जनता खुद पर हंसती है जनता ऐसे ही मरती है ।। अब नोट नए ही आएंगे कुछ नोट नहीं चल पाएंगे फाके में फिर भी मस्ती है जनता ऐसे ही मरती है।। जाएगा उनका जाएगा आएगा अपना आएगा ये सपने देखा करती है जनता ऐसे ही मरती है।। कोई राजा बन जाता है जनता को क्या दे जाता है जनता जनता ही रहती है जनता ऐसे ही मरती है।।

ग़ज़ल

हम से कहता है इबादत में रहो। साफ कह देता कि खलवत में रहो।। तय हुआ हम अपना इमां बेच दें तुमको रहना है तो गुरबत में रहो।। आदमी  से जानवर हो जाओगे और कुछ दिन उसकी सोहबत में रहो।। तुमको भी ऎयारियां आ जाएंगी चन्द दिन तुम भी सियासत में रहो।। यूँ न रो उसकी जफ़ाओं के लिए किसने बोला था कि उल्फ़त में रहो।। साफगोई भी बवाले-जान है सब ये कहते हैं शराफत से रहो।।

वो औरों की तरह

ये औरों की तरह नहीं है। अपने दिल में गिरह नहीं है।। पत्ते टूटे हैं शाखों से मौसम ही इक वज़ह नही है।। रात और दिन हैं एक बराबर मेहनतकश की सुबह नहीं है।। क्या लड़ना ऐसी बातों पर जिनकी कोई सुलह नहीं है।। तुम बिन मैं रह सकूँ कहींपर ऐसी कोई जगह नहीं है।।
अनहद नाद सुना दे कोई। मन के तार मिला दे कोई।। खोया खोया रहता है मन सोया सोया रहता है तन तन से तान मिला दे कोई।। कितने मेरे कितने अपने सबके अपने अपने सपने जागी आँख दिखा दे कोई।। जनम जनम की मैली चादर तन गीली माटी का अागर आकर दाग मिटा दे कोई।। साजन का उस पार बसेरा जग नदिया गुरु ज्ञान का फेरा नदिया पार करा दे कोई।।
तू कैसी भी नजर से देख जालिम तेरा हर तीर दिल पर ही लगे है। ये कैसी बेखुदी है,क्या नशा है कि तू ही तू नज़र आती लगे है।।  गली आबाद हो जिसमे तेरा घर बहारों की गली जैसी लगे है।। तेरा नज़रे-करम जबसे हुआ है तू अपनी है नही अपनी लगे है।। किसी भी गैर के पहलू में दिखना हमारी जान जाती सी लगे है।। हया हो ,शोखियाँ हो या लड़कपन तुम्हारी हर अदा अच्छी लगे है।।
वो सलामे-इश्क़ था या और कुछ। शोर महफ़िल नें मचाया और कुछ।। यकबयक उठ कर निगाहें झुक गयी वज्म ने मतलब लगाया और कुछ।। जल उठे नाहक़ रकाबत में सभी था मेरे हिस्से में आया और कुछ।। हमने अर्जी दी थी गोशे-यार की वक्त ने हमको थमाया और कुछ।। वो उम्मीदन मेरी मैयत में मिलें वक्त हम करते हैं ज़ाया और कुछ।। लोग जो कहते हैं कैसे मान लें हमको उसने है बताया और कुछ।
उसे जो शान-ओ-शौकत मिली है। रईसी ये बिना मेहनत मिली है।। कोई तो नेकियाँ उसकी बताओ उसे किस बात की शोहरत मिली है।। करें क्या इसको ओढ़ें या बिछाएं हमें जो आपसे इज्ज़त मिली है।। करेगा क्या किसी से वो रकाबत जिसे पैदाईशी गुरबत मिली है।। बिना मांगे उसे वो सब मिला है हमें जिनके लिए हसरत मिली है।। मेरे माँ-बाप हैं दौलत हमारी उसे माँबाप की दौलत मिली है।।
मुझे खोई दिशाओं का पता दो। मुझे बहकी हवाओं का पता दो।। मैं अपने आप से कैसे मिलूंगा मुझे मेरी अदाओं का पता दो।। मेरा महफ़िल में दम घुटने लगा है कोई आकर ख़लाओं का पता दो।। गुनाहे-इश्क़ का मुजरिम हूँ यारों मुझे मेरी सज़ाओं का पता दो।। मुझे क्यूँकर बचाया डूबने से मुझे उन नाखुदाओं का पता दो।। दुआओं की ज़रूरत होगी तुमको मुझे लाकर बलाओं का पता दो।। मेरा बचपन मुझे लौटा सको तो मुझे ममता की छाँवों का पता दो।। तुम्हारा शहर हो तुमको मुबारक मुझे तुम मेरे गाँव का पता दो।।
ये ग़ज़ल कितनी पुरानी है । हाँ मगर अब भी सुहानी है।। हम इसे कैसे सही ,माने इसमें राजा है न रानी है।। मैं ज़रा आश्वस्त हो जाऊँ आपको कब तक सुनानी है।। इश्क़ में जां तक लुटा देना मर्ज़ अपना ख़ानदानी है।। ये मेरी तुरबत नहीं यारों ज़िन्दगी की राजधानी है।। दोस्ती से आजिज़ी क्यों हो ज़िन्दगी भर ही निभानी है।। आज सागर हाथ आया है आज मौसम शादमानी है।।

गजल

सत्य यही है सत्य शाह है। झूठ किन्तु अब शहंशाह है।। सच्चे अब फिरते हैं दर-दर झूठों को मिलती पनाह है।। अब सच कहते डर लगता है गोया सच कहना गुनाह है।। जो था कल लंका का रावण आज अवध का बादशाह है।। शकुनि हैं जितने सम्मानित धर्मराज उतने तबाह है।। अब दलाल एजेंट कहाते बिचौलियों की वाह वाह है।। कैशलेस है कैश कहाँ है मेहनतकश की आह आह है।।
नियति ने रंग कुछ ऐसे समेटे भी बिखेरे भी। सुनहली धूप से दिन भी कभी बादल घनेरे भी।। कभी भर नींद हम सोये सजीले ख़्वाब भी देखे कभी भर रात हम जगे कभी खुद में रहे खोये हमारी पटकथा के हम ही नायक थे चितेरे भी।। हमें अपना पता कब था हमे पहचान उसने दी बनाकर वो बिगाड़ेगी हमें किसने कहा कब था अभी तो एक लगते हैं उजाले भी अँधेरे भी।। इसे तकदीर कहते हैं ये बनती है बिगड़ती है लकीरों से न बन पायी तेरी तस्वीर कहते हैं उभरती है इन आँखों में जो  सन्ध्या भी सबेरे भी।।

गजल

कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।।

ग़ज़ल

कौन कहता है किसे चाँद और सूरज चाहिए। जगह आख़िर में सभीको सिर्फ़ दो गज चाहिए।। हश्र में आमाल के काग़ज़ तो मैं पहचान लूँ लिखने वाले हमको तक़दीरों के काग़ज़ चाहिए।। हम जहाँ चाहे रहें मरकज़ मेरी मोहताज़ है यूँ सहारे के लिए हरएक को मरकज़ चाहिए।। सादगी और साफगोई अब किसे स्वीकार है हर किसी को अब दिखावा और सजधज चाहिए।।

छेड़ मत बातें

छेड़ मत बातें पुरानी अनकही । फिर न जग जाएँ तमन्नायें वही।। आज उन बातों के कुछ मतलब नहीं वो सही या तुम सही या हम सही।।