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और कितनी कहानियाँ सुनता।। ग़ज़ल

किस लिए बदगुमानियाँ सुनता। और कितनी कहानियाँ सुनता।। झुर्रियां लौट तो नहीं जाती लाख उनकी जवानियाँ सुनता।। वो  ख़ुदा  है कहाँ रहमदिल जो इश्क़ वालों की बानियाँ सुनता।। कुछ तो कहता मिज़ाज़ की अपने कुछ हमारी जुबानियाँ सुनता।। चाँद ठहरे हुए समंदर की खाक़ रुक कर रवानियाँ सुनता।। मैं भी अब उठ चुका जनाज़ा था कैसे अर्ज़े- जनानियाँ सुनता।। बेसिर-ओ-पैर गुफ़्तगू चलती और फ़र्ज़ी बयानियाँ सुनता।। सुरेश साहनी, अदीब ,कानपुर

बेहतर होता

नहीं किया जो कर जाना ही बेहतर होता। सच दुनिया का डर जाना ही बेहतर होता।। इन कोरोनाई  रिश्तों  के संग जीने से तम हर कर नभ पर जाना ही बेहतर होता।।...... प्रेम कहाँ अब स्वार्थ कहो ज्यादा बेहतर है भ्रम ही आज यथार्थ कहो ज्यादा बेहतर है अपनी ख़ातिर जिओ और सुख से मर जाओ और इसे परमार्थ कहो ज्यादा बेहतर है जब तक जीये जो जो शौक अधूरे छूटे उनका पूरा कर जाना ही बेहतर होता।।....... बने बुलबुले सम्बन्धों के फुट गए फिर चलो प्रेम के तार जुड़े क्यों टूट गए फिर निश्चित ही सबने केवल अपने हित देखे हित साधा तो सधे नही सधा रूठ गए फिर जितने मोती उतने मनके एक सूत्र की माला सहज बिखर जाना ही बेहतर होता।।....... सम्बन्धों का मकड़जाल या ताना बाना है जाना पहचाना या जाना अनजाना पैर इसी ने बांध लिए हैं सहज प्रेम से कभी प्रेम था सहज मुक्ति का राग सुहाना तृप्ति नहीं तो मुक्ति नहीं मिलती है तब तो राग भोग में रम जाना ही बेहतर होता।।.... सुरेश साहनी, कानपुर