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Showing posts from November, 2022
 मेरा दुश्मन तो आस्तीन में हैं। आपका घर कहाँ ज़मीन में है।। जबकि क़ातिल को जानते हैं सब महकमा अब भी छानबीन में है।। क़त्ल करके अज़ीज़ है ज़ालिम बात कोई तो उस हसीन में है।। डेमोक्रेसी है दे मोये कुरसी आज जनमत का दम मशीन में है।। उनके जलवे उन्हें मुबारक हों बन्दा तेरह में हैं न तीन में है।। सुरेश साहनी,  कानपुर 9451545132
 क्या कहें हम फिर मसूरी रास्ते में आ गयी। दिल की फिर दिल्ली से दूरी रास्ते में आ गयी।।  हमने चाहा था मुक़म्मल प्यार से देखें तुम्हें वक़्ते-फुरक़त खानापूरी रास्ते मे आ गयी।।  हाय रे ये उम्र भर की पेट की मज़बूरियां ज़िम्मेदारी फिर ज़रूरी रास्ते मे आ गयी।। उसका मेरा प्यार यूँ परवान चढ़ते रह गया कुछ अनायें कुछ गुरूरी रास्ते मे आ गयी।। हम अदब की मंजिलों पर जा रहे थे बेखबर आड़े अपनी बेशऊरी रास्ते मे आ गयी।। मेरा परमोशन अचानक होते होते रुक गया ये कि उनकी जी हुजूरी रास्ते मे आ गयी।। जान देने में हमें दिक्कत न कोई थी मगर वस्ल की हसरत अधूरी रास्ते मे आ गयी।।  Suresh sahani, kanpur
 ये न पूछो किधर गया पानी। उसकी आँखों का मर गया पानी।। जेहन से ही उतर गई नदिया इस तरह कुछ उतर गया पानी।। प्यास से कोई मर गया सुनकर सबकी आंखों में भर गया पानी।। सिर्फ उतना उधर नदी घूमी बह के जितना जिधर गया पानी।। झील बनकर उदास रहता है उस नदी का ठहर गया पानी।। आख़िरी सांस ली नदी ने फिर अपनी हद से गुज़र गया पानी।। मोती मानुष के साथ  चूना भी क्या  बचेगा अगर गया पानी।। जाने कितने शहर गयी गंगा जाने कितने शहर गया पानी।। सुरेश साहनी, अदीब कानपुर
 फकीरों जैसी उसकी बानगी थी। मेरे राजा में इतनी सादगी थी।। न जाने कौन सा मजहब था उसका फितरत में तो उसके बंदगी थी।। सियासत तो अज़ल से ऐबगर है मगर उसके जेहन में ताजगी थी।। तेरे आने से कुछ बेहतर हुआ था वगरना हर तरफ चोरी ठगी था।। हुकूमत अब गरीबों की बनेगी तेरे आने से ये आशा जगी थी।। चलन जिसका नहीं था उस समय भी तेरी लौ देश सेवा में लगी थी।। Suresh Sahani
 अगर पढ़ लिए होते तुमने  मेरे ख़त तुम मेरे होते।। तुमने जब भी देखा मुझको मुझमें कोई अज़नबी देखा मेरा अंतर्मन कब देखा मेरा बाह्यरूप ही देखा अगर देख पाते अंतर्मन विधि सम्मत तुम मेरे होते।। बाहर से श्रीकृष्ण भी दिखे माखनचोर छिछोरे छोरे समय देख दे गयीं गोपियाँ उन्हें हृदय के कागद कोरे होते यदि उस छलिया जैसे खुशकिस्मत  तुम मेरे होते।। Suresh Sahani
 एहसासे-वस्ल से ही तबियत सँवर गयी। गोया बहार ज़ीस्त को छूकर गुज़र गयी।। एहसासे -गम से कोई तआरुफ़ कहाँ हुआ वो हुस्ने दिलफ़रेब ये आयी उधर गयी।। जो इश्क़ दायरे में रहे इश्क़ ही नहीं मजनू कहाँ रुका कहाँ लैला ठहर गयी।।
 बदल गए सुर ताल सभी के। हुए हाल बेहाल सभी के ।। तानाशाह रहे हैं जितने बिगड़े आखिर हाल सभी के।। अपना लाल शहीद न होवे बनें भगत सिंह लाल सभी के।। धनीराम भर गांव के जीजा सार भिखारीलाल सभी के।। कहाँ जिंदगी ठहर रही है बदल रहे दिन साल सभी के।। मौत आखिरी सच है जिससे कटते हैं जंजाल सभी के।।                       -सुरेश साहनी
 कुछ इतने ज़ेर-ओ-बम हो गए हैं। बहुत कमज़ोर से हम हो गए हैं।। तुम्हारा ग़म है यह भी नीम सच है अगरचे चश्म कुछ नम हो गए हैं।। ये बासन्ती बयारों का असर है पुराने ज़ख्म मरहम हो गए हैं।। रियाज़ों में रवानी है मुसलसल मेरे नाले भी सरगम हो गए हैं।। मेरे आंसू तुम्हारे सर्द रुख से लरज कर आज शबनम हो गए हैं।। उधर आये हो तुम होकर रक़ीबां इधर हम और बेदम हो गए हैं।। तेरे बाज़ार में क्या कुछ नहीं है फ़क़त इंसान कुछ कम हो गए हैं।।               -सुरेश साहनी
 #धूप हमें तुम यूँ लगती हो  जैसे इक यादों की चादर  या माँ की थपकी के जैसी हौले हौले सारा तन मन गर्माहट से पुलकित करती हर थकान को हर लेती हो और तुम्हारा होना जैसे किसी दोस्त के साथ बैठना या जैसे माँ के आँचल में बच्चे जैसा दुबके रहना या फिर बापू के कंधे पर चढ़कर ज्यों दुनिया  पा लेना या फिर नर्म रजाई लेकर  बिस्तर में ही आड़े तिरछे काफी की फरमाइश करना फिर काफी के साथ तुम्हारा थोड़ा सकुचाते शरमाते मेरे पहलू में आ जाना और बहुत धीरे से  कहना छोड़ो! बच्चे देख रहे हैं,  धूप सेकना ही लगता है धूप तुम्हारी कितनी परतें ओढ़ी और बिछाई मैंने पर तुम अनासक्त प्रेमी सा हाथ छुड़ाकर चल देती हो ऐसा करना ठीक नहीं है साथ मेरा देना जाड़े भर.....
 दूर जाता है खूब जाया कर। पर बुलाऊँ तो लौट आया कर।। दिल चुरा ले कोई गुरेज़ नहीं  यार नज़रें तो मत चुराया कर।।SS
 सब फरिश्ते सब मलायक हों ये मुमकिन है तो कह। उज़्र क्या तेरी नज़र में रात भी दिन है तो कह।। तब मुवक्किल कह रहा था गाय गाभिन थी तो थी आज मुंसिफ़ कह रहा है बैल गाभिन है तो कह।। हमने माना इश्क़ फ़ानी है कहाँ इन्कार है फिर भी दिल पर हाथ रख के हुस्न साकिन है तो कह।। तेरा दावा है कि दुनिया आज की ख़ुदगर्ज़ है मान लेंगे हम तुझे पर तू जो मोहसिन है तो कह।। मुझको तेरे झूठ पर भी है बला का ऐतबार पर मेरी उल्फ़त पे तुझको अब भी लेकिन है तो कह।। मैंने कब बोला तुझे क़ायम हूँ मैं ईमान पर  उस बुते-काफ़िर पे मर के  भी तू मोमिन है तो कह।। सुरेश साहनी, कानपुर     साकिन/ स्थिर, वाशिंदा ज़ामिन / ताबीज़ , ज़मानत लेने वाला मोहसिन/ सहायक, परोपकारी बुते-क़ाफ़िर/ भटकाने वाला सौंदर्य मोमिन/ विश्वास करने वाला,मुसलमान
 उसे जो रोशनी से उज़्र होगा। तो सच की पैरवी से उज़्र होगा।। मौजें सर पटकती हैं मुसलसल हमारी तिश्नगी से उज़्र होगा।। हमारे घर मे चाँद उतरा हुआ है हमें क्यों चांदनी से उज़्र होगा।। वो कारोबारे-नफ़रत में लगा है उसे क्यों तीरगी से उज़्र होगा।। खुशी के अश्क़ हम पहचानते हैं भला क्यों शबनमी से उज़्र होगा।। छुपाते हैं ये अहले हुस्न वरना किसे दीदावरी से उज़्र होगा।। अज़ीयत होगी अहले हुस्न से भी उन्हें जो आशिक़ी से उज़्र होगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मौत हिन्दू मुसलमा नहीं देखती। मौत आदम ओ हव्वा नहीं देखती।। मौत आती है सबको बराबर सनम मौत अदना कि आला नहीं देखती।। आज उनकी हुई और तुम हँस दिए कल तुम्हारी हुई वे हँसेंगे सनम आज तुम हो फंसे मौत के जाल में कल इसी जाल में वे फँसेंगे सनम मौत इनका कि उनका नहीं देखती। मौत अपना पराया नहीं देखती।। एक से एक आला कलंदर हुए जाने कितने ही भैरव मछिन्दर हुए लाख कारूँ हुए हाथ खाली गए वे हलाकू हुए या सिकन्दर हुए जिन्दगी के बड़े थे मदारी ये सब मौत लेकिन तमाशा नहीं देखती।। कोई आलिम बड़ा है तो फ़ाज़िल कोई है कोई पीर-ओ- मुर्शिद तो कामिल कोई कोई घर तो कोई राह में मर गया कुछ सफ़र में मरे पा के मंज़िल कोई मौत हसरत या हासिल नहीं देखती मौत खोया कि पाया नहीं देखती।।
 सिर्फ हमारे लड़ने से क्या बदलेगा यही सोचकर हमने लड़ना छोड़ दिया चींटी दीवारों पर चढ़ती है गिरती है क्या गिरने से उसने चढ़ना छोड़ दिया दशरथ मांझी भी तो इक इंसान ही था जिसने पर्वत का भी सीना तोड़ दिया इसी धरा पर राँझा जैसा वीर हुआ जिसकी जिद ने दरिया का रुख मोड़ दिया हम भी सोचें क्या यह निर्णय उचित रहा हमने आखिर कैसे लड़ना छोड़ दिया दो रोटी और थोड़े से सुख की ख़ातिर बड़े युद्ध को कितना अधिक सिकोड़ दिया।।
 चर्चा है  घर चौबारे में  । क्या बोलूं उसके बारे में।। घुप्प अंधेरे में सहमत थे मुकर गए जो उजियारे में।। इसको प्यार कहाँ से कह दे स्वार्थ निहित है जब प्यारे में।। निष्ठा इस युग मे ऐसी है ठंडक गोया अंगारे में।। अम्मा टूट गयी है दिल से बेटे खुश हैं बँटवारे में।। सुरेश साहनी
 एक मुहब्बत से हटकर क्या लिखता मैं। फिर अपने हद से बाहर क्या लिखता मैं।। तुम थे ,गुलअफसां थे और बहारें थी इन से ज़्यादा भी सुन्दर क्या लिखता मैं।। ले देकर इक दिल था वो भी पास नही बेदिल रहकर दिल दिलवर क्या लिखता मैं।। ख़्वाबों और ख़्यालों में तुम आते हो होश में गायब है पैकर क्या लिखता मैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 हमसे उल्फ़त की कहानी पूछ मत। बात गैरों की जुबानी पूछ मत।। हम जहाँ पहुँचे वहीं पर रह गए हमसे  दरिया की रवानी पूछ मत।। रेत पर बनना बिगड़ना आम है रेत पर उसकी निशानी पूछ मत।। वो मेरे पीछे चलेगी उम्र भर मौत की आदत पुरानी पूछ मत।। सिर्फ चेहरे की शिकन महसूस कर क्या हुआ आंखों का पानी पूछ मत।। चार दिन की ज़िंदगी मे थक गए और लम्बी ज़िन्दगानी पूछ मत।। दर्द दिल मे लेके हँसना क्या कहें खुद की खुद से बेईमानी पूछ मत।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुझको पाने की दुआ क्या करते। सिर्फ़ हम करके वफ़ा क्या करते।। हम खिजाओं से गिला क्या करते। हम बहारों का पता क्या करते।। ज़िन्दगी तुझको पता था सब कुछ मर न जाते तो भला क्या करते।। हुस्न को इश्क़ अता कर न सके बाखुदा और ख़ुदा क्या करते।। मुन्तज़िर ही रहे  ताउम्र  तेरे हम भला इसके सिवा क्या करते।। तेरे बीमार का मरना तय था तुम भी आते तो दवा क्या करते।।  दिल मेरा टूट गया टूट गया प्यार पत्थर से हुआ क्या करते।। मेरे क़ातिल ने बड़ी हसरत से जान मांगी थी मना क्या करते।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मेरे दुश्मन सभी ख़ुद्दार निकले । फरेबी तो  पुराने यार निकले।। दवा लेते कहाँ से आशिक़ी की शहर में सब तेरे बीमार निकले।। ज़रूरत क्या है हम दुश्मन तलाशें अज़ल से आप ही गद्दार निकले ।। मेरी आँखों में ये महसूस कर लो ये मुश्किल है ज़ुबाँ से प्यार निकले।। कभी ऐसा न हो ये हक़बयानी मुहब्बत के  लिए तलवार निकले।। क़लम कर देंगे वो सबकी जुबानें न भूले से कभी यलगार निकले।। हिकारत थी मुझे ग़ैरों से लेकिन मेरे क़ातिल मेरे सरकार निकले।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मुझको मै भी नहीं बदल पाया। वक़्त रहते नहीं सम्हल पाया।। याद करके कोई बताओ ज़रा दो कदम कौन साथ चल पाया।। तेरी यादों से क्या बहलता दिल साथ तेरे न जो बहल पाया।। आसमां का गुरुर वाज़िब है मैं वहाँ तक कहाँ उछल पाया।। मौत पीछे थी उम्र भर लेकिन मैं ही आगे नहीं निकल पाया।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मेरे गीतों में कौन रहा  जिसने स्वप्नों में आ आकर मन के भावों को देकर स्वर गूंगे शब्दों को किया मुखर यह अलग बात मैं मौन रहा..... वह था यौवन का सन्धि-काल या उम्मीदों का  मकड़जाल जितने सपने उतने बवाल मन यती व्रती का भौन रहा..... सब उसको पूछा करते हैं अगणित अनुमान लगाते हैं गीतों की तह तक जाते हैं अब किसे बता दें कौन रहा.... मेरे गीतों में कौन रहा...... सुरेश साहनी
 बेशक़ प्यार मुहब्बत वाली बातें कर। लेकिन किसने बोला ख़ाली बातें कर।। है मेरी औकात महज दो कौड़ी की फिर भी मत कर हीलहवाली बातें कर।।
 तुम्हे अंदाज़-ए-उल्फ़त नहीं है। ये कहने में कोई उज़रत नहीं है।। कभी तो हाले-दिल मेरा समझते तुम्हें क्या इतनी भी फुरसत नहीं है।। चलो तुम खुश रहो अपनी बला से हमें भी अब कोई दिक्कत नही है।। जहाँ एहसास है हाज़िर सुखन के अमीरी है  वहां  गुरबत नही है।। मुहब्बत और अपनापन भी है धन  के दौलत ही कोई दौलत नही है।। Suresh Sahani
 मेरे गीतों में कौन रहा  जिसने स्वप्नों में आ आकर मन के भावों को देकर स्वर गूंगे शब्दों को किया मुखर यह अलग बात मैं मौन रहा..... वह था यौवन का सन्धि-काल या उम्मीदों का  मकड़जाल जितने सपने उतने बवाल मन यती व्रती का भौन रहा..... सब उसको पूछा करते हैं अगणित अनुमान लगाते हैं गीतों की तह तक जाते हैं अब किसे बता दें कौन रहा.... मेरे गीतों में कौन रहा...... सुरेश साहनी
 यार कुछ मस्तियों की बात करो। हमने माना कि रोज़गार नहीं नापने के लिए सड़क तो है क्रीज़ अपनी कड़क नहीं तो क्या अपनी हालत ज़रा कड़क तो है सर छुपाने को छत नहीं तो क्या चाँद पर बस्तियों की बात करो.... साहिलों पर बहुत चले लेकिन साहिलों पर गुहर नहीं मिलते डूब कर देखते हैं मुस्तकबिल यह किनारे अगर  नहीं मिलते नाव पर ज़िन्दगी कटी होगी डूबती किश्तियों की बात करो..... इस जवानी को कुछ नहीं दिखता घरऔ,परिवार की दशा क्या है सब नशा करते हैं कोई न कोई धर्म इससे बड़ा नशा क्या है मन्दिरों-मस्ज़िदों की बात करो हुस्न की हस्तियों की बात करो.....  Suresh Sahani , Kanpur
 मेरी ज़िन्दगी में तू है कोई दूसरा नहीं है। कि मैं तुझको चाहता हूं तुझे क्यों पता नहीं है।।  तेरे अंजुमन में ऐसा शायद ही कोई गुल हो  जिससे मेरा तआरुफ़ मेरा राब्ता नहीं है।।SS
 तुम गए तो ये घर उदास हुआ। रोई तुलसी शज़र उदास हुआ।। कमरे कमरे में याद बन बिखरे दिल तुम्हें याद कर उदास हुआ।। रोया आँगन सहन में चुप सी है दिन कोई रात भर उदास हुआ।। तुम गए सिर्फ़ चार दिन के लिए और दिल उम्र भर उदास हुआ।। अपने बीमार का भरम रख ले और कह चारागर उदास हुआ।। तेरी रुसवाईयों का डर लेकर मेरे मन का शहर उदास हुआ।। जिस्मे-फ़ानी भी साथ है कब तक मैं यही सोचकर उदास हुआ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हरी सब्जियां त्याग दें, छोड़ें आलू प्याज। सादा भोजन कीजिये चौचक रहे समाज।। रोटी चावल छोड़िए तजिये महंगी दाल। घी अरु तेल न खाइए बढ़ता कोलेस्ट्रॉल।।
 जब देखो तब दिल की बातें करते हो। कैसी बहकी बहकी बातें करते हो।। दौलत से तुम दिल पर शासन कर लोगे कितनी हल्की फुल्की बातें करते हो।। तुम भी धोखा देने वाले हो शायद तुम भी अक्सर मन की बातें करते हो।। डर लगता है इस सर्दी में भी तुमसे  क्यों तुम दहकी दहकी बातें करते हो।। अच्छे दिन अब आएंगे नामुमकिन है नाहक़ अच्छे दिन की बातें करते हो।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 हम विकासशील देश हैं।हमारे यहाँ इंटरनेट सुविधाएँ   विकसित राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम हैं।कितना भी बढ़िया सेट और महंगे से महंगा नेटपैक हो ,काम नहीं करता। क्योंकि गति पर हम भारतीयों का नियंत्रण हैं।हमारी रफ़्तार कम ही रहेगी।जग सुधर जाए  हम नहीं सुधरेंगे ।हम सोचते थे कि इंटरनेट के सुचारू रूप से काम नहीं करने से केवल नुकसान ही होता है।लेकिन अब पता चला कि इसके  लाभ भी हैं।इसका पता तब चला जब हमारी श्रीमती जी ने मुझे वीडियो काल करने का प्रयास किया।नेट नहीं होने से संपर्क नहीं हो पा रहा था । साधारण ऑडियो कॉल किया।मैं मित्रों के साथ आउटिंग पर था।और मैंने फोन पर बोल दिया ,मैं ऑफिस में हूँ।धन्यवाद इंटरनेट वालों का ।सोचिये कितने लोग बाहर वाले बॉस या घर वाले बॉस के कहर से बच जाते हैं।इस तरह कितनी नौकरियां और कितने परिवार सुरक्षित रह लेते हैं।इंटरनेट ठीक से काम करता तो क्या यह सम्भव हो पाता। फिर सरकारी उपक्रमों के कितने अधिकारी बेमौत मरने से बच जाते हैं।आखिर इतने कम रूपये में परिवार कहाँ चल पाता है।वो तो भला हो वोडाफोन आईडिया और अन्य प्राइवेट कंपनियों का जो अपने पे-रोल पर सरकारी अधिकारियों का भला
 हम कहाँ इस कदर पराये थे। हम तो इक दूसरे के साये थे।। और शिकवे-गिले कहाँ करते आप ही ने तो ज़ुल्म ढाये थे।। हम गुनहगार है तो किसके हैं आपके नाज़ ही उठाये थे।। आपने आज भी कहाँ माना आप तब भी समझ न पाये थे।। मेरे रोने पे रोईं थी महफ़िल सिर्फ इक आप मुस्कुराये थे।। अब वो दिन लौट के न आएंगे आपने संग जो बिताये थे।। आप ही अब जबाब दे दीजै आप ही ने सवाल उठाये थे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 धूप हमें तुम यूँ लगती हो  जैसे इक यादों की चादर  या माँ की थपकी के जैसी हौले हौले तन मन गर्माहट से पुलकित करती हर थकान को हर लेती हो और तुम्हारा होना जैसे किसी दोस्त के साथ बैठना या जैसे माँ के आँचल में बच्चे जैसा दुबके रहना या फिर बापू के कंधे पर चढ़कर सारी दुनिया सा पा लेना या फिर नर्म रजाई लेकर  बिस्तर में ही आड़े तिरछे काफी की फरमाइश करना फिर काफी के साथ तुम्हारा थोड़ा सकुचाते शरमाते मेरे पहलू में आ जाना फिर धीरे से यह भी कहना छोड़ो! बच्चे देख रहे हैं,  धूप सेकना ही लगता है धूप तुम्हारी कितनी परतें ओढ़ी और बिछाई मैंने पर तुम अनासक्त प्रेमी सा हाथ छुड़ाकर चल देती हो ऐसा करना ठीक नहीं है साथ मेरा देना जाड़े भर.....
 यार की मस्तनिगाही का भरम क्या रखता। सर्द से रिश्तों में जज़्बात गरम क्या रखता।। उससे नफ़रत से भरी बात नहीं की मैंने ऐसे हालात में रुख इससे नरम क्या रखता।। ज़हर देने की जगह उसको दवा दी मैंने उसके हाथों में भला इतना भी कम क्या रखता।। उसने पहले ही मुझे अपनी कसम दे दी थी उसके आगे मैं कोई और कसम क्या रखता।। बोझ दिल पर लिए फिरने की कोई बात नहीं पर दिले-मोम में पत्थर का सनम क्या रखता।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मैं तुम को लिखने की कोशिश करता हूँ तुम भी कुछ कहने की कोशिश किया करो मैं तुमको पढ़ने की कोशिश करता हूँ तुम किताब के पन्नों जैसा खुला करो.... कितनी बातें आज तलक अनसुलझी हैं  तुम मेरी हर उलझन सुलझा सकती हो  और अगर चाहो तो इस यायावर मन को   तुम अपनी जुल्फों में उलझा  सकती हो मुझे पता है केवल तुम दे सकती हो इस बैरागी भटकन को ठहराव नया इन शब्दों के ढेरों को दे सकती हो नीरसता से हटकर कोई भाव नया तुम गूंगी आवाज़ों को दे सकती हो सुन्दर सुर संगीत नया अंदाज़ नया पंख कटे भावों को भी दे सकती हो तुम हँस कर आकाश नया परवाज़ नया मैं तुमको फिर फिर पुकारना चाहूँगा तुम केवल सुनने की कोशिश किया करो प्रश्न नहीं पर इस मन की अकुलाहट को बस उत्तर देने की कोशिश किया करो......
 जब अंतस्थल के  कोने में प्रेम अंकुर कोई फूट पड़े तब तुम्हें याद मैं आऊंगा। दिल की गहराई से आकर हसरत कोई अंगड़ाई ले तब तुम्हें याद मैं आऊंगा।। यदि मैंने कभी हृदयतल से चाहा तो तुमको चाहा था यदि तुमने कभी स्वप्न में भी मेरे बारे में   सोचा था यदि क्षणिक स्नेह का छोह तुम्हें  दो पल भी भावाकुल कर दे तब तुम्हें याद मैं आऊंगा।। मैं कितनी रातें जागा हूँ मैं कितनी नींदें सोया हूँ अगणित तारे गिन डाले हैं अगणित सपनों में खोया हूँ यदि मेरी असफलताओं के अहवाल तुम्हें व्याकुल कर दें तब याद तुम्हें मैं आऊंगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब मन के मानसरोवर पर तुम कमल सदृश अवतरित हुई। तब स्वप्न लोक से  कविता की निर्मल धारा प्रस्फुटित हुई।।
 कोई कह रहा मयकशी में मज़ा है। कोई कह रहा तिश्नगी में मज़ा है।। जो कहते थे लाएंगे हम ही उजाला वो कहते हैं अब तीरगी में मज़ा है।। अज़ब उसके बीमार हैं कह रहे हैं उन्हें उसकी चारागरी  में मज़ा है।। ग़मे-इश्क़ की लज़्ज़तें हम से पूछो असल तो यही आशिक़ी में मज़ा है।। तुम्हें मौत से उज़्र है भी तो क्यों है बताओ कहाँ ज़िन्दगी में मज़ा है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कुछ भी ज़्यादा कि कम मिलो मुझको। जो हो जैसे हो तुम मिलो मुझको।। यूँ सताओगे कौन चाहेगा और अगले जनम मिलो मुझको।। सर्द रिश्ते बहुत नहीं चलते होके गरमा गरम मिलो मुझको।। यूँ भी अब ताबे-इन्तिज़ार नहीं जानेमन एकदम मिलो मुझको।। दम न टूटे तेरे सराबों में  तोड़कर हर भरम मिलो मुझको।।
 इश्क़ मुहब्बत की बीमारी ले लूँ क्या। दिल देकर के दर्द उधारी ले लूँ क्या।। बदनामी तो है इसमें पर नाम भी है आज शहर से रायशुमारी ले लूँ क्या।। उन की मस्त निग़ाहें तीर चलाती हैं मैं भी बरछी ढाल कटारी ले लूँ क्या।। डर लगता है जब वो माइल होता है तब कहता है जान तुम्हारी ले लूं क्या।। प्यार वफ़ा के चार कदम चल पाओगे वरना बोलो शान सवारी ले लूं क्या।। सुरेश साहनी कानपुर
 जाने क्या सोचकर नही लौटा । छोड़कर घर वो घर नही लौटा।। कुछ नए लोग आ गए लेकिन जाने वाला इधर नही लौटा।। और माँ बाप जी के क्या करते जब वही उम्रभर  नही लौटा।। उस परिंदे में कोई बात तो है फिर से उस पेड़ पर नहीं लौटा।। हाल सुन कर मेरा वो रो देता पर वो लेने ख़बर नही लौटा।। कितना रोते हम और क्यों रोते जाने वाला अगर नही लौटा।। सच यही है कि कोई भी पत्ता टूटकर शाख पर नही लौटा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 पूछ मत कैसे कटी कितनी कटी कैसी कटी। ज़िन्दगी जैसे कटी जितनी कटी अच्छी कटी।। हमने चाहा वक्त काटेंगे तुम्हारे साथ कुछ वक़्त कटने से रहा बस ज़िन्दगी अपनी कटी।।SS
 आपका दिल ही स्याह है साहब। फिर मेरा क्या गुनाह है साहब।। नज़्म होती तो दाद ले लेते ये मेरे दिल की आह है साहब।। शादमानी कहाँ से ले आयें अपनी दुनिया तबाह है साहब।। बेवफाई को भूल जाये हम बेतुकी सी सलाह है साहब।। और किस्सा तवील मत करिए ज़ीस्त अपनी कोताह है साहब।। अपनी मंज़िल ही मुझको याद नहीं राह तो फिर भी राह है साहब।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तीरगी से गुज़र गया होगा। पर उजालों से डर गया होगा।। अजनबीयत से भर गया होगा। जब वो अपने शहर गया होगा।। सर हथेली में ले लिया अपना इश्क़ वालों के घर गया होगा।।  हुस्न को इश्क़ से अज़ीयत है कोई गुमराह कर गया होगा।। यार को अपने सामने पाकर आईना भी सँवर गया होगा।। कैसे ढूंढूं वजूद को अपने राम जाने किधर गया होगा।। उसके चेहरे से आदमी गुम है तय है एहसास मर गया होगा।। मेरी ग़ज़लों से मिल के लगता है मुझमें ग़ालिब उतर गया होगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कभी वो भी नही मिलते कभी हम मिल नहीं पाते। वो रिश्ते ढो रहे हैं हम जो खुद से चल नहीं पाते।। यहाँ छोटा बड़ा क्या है बराबर का ये सौदा है अगर वो दिल नहीं देते हमारा दिल नहीं पाते।। सुरेश साहनी
 ख्वाबों पे संजीदा मत हो टूट गये तो दिक्कत होगी। फिर ग़म से बाहर आने में तुमको बड़ी मशक्कत होगी।। यादों के अनगिनत झरोखे आठो पहर खुले रहते हैं। अच्छी और बुरी यादों के प्रतिफल सदा एक रहते हैं स्मृति अमरबेल होती हैं भूलोगे फिर स्मृत होगी।। ख्वाबों...... मन के अश्व मचलने मत दो प्रेम पथिक बनने की ख़ातिर व्यसन आदि की सहज अधिकता पतन मार्ग पकड़ेगी आखिर अभी बहुत मनभावन है पर आगे यही मुसीबत  होगी।।ख्वाबों.... सुरेश साहनी ,कानपुर
 क्या तुझे पता है तेरी माँ के प्राण तुम्हीं में बसते हैं एक पिता के स्वप्न और  अरमान तुम्ही में बसते हैं अगर पता है तो सम्हाल ले जो घर की मर्यादा है क्यों उनके यक़ीन को तू खो देने पर आमादा है क्या तेरी माता से बढ़कर  प्यार दूसरा दे देगा और पिता से अधिक तुझे उपहार दूसरा दे देगा क्या घर वालों से अधिक कोई अपनापन दूजा दे देगा यह लाड़-दुलार-सनेह और तन मन धन दूजा दे देगा यह प्रेम नहीं जो घर से छिप कर वन उपवन में रोती है इस काम वासना के सागर में निज अस्तित्व डुबोती है रोना है माँ के सम्मुख रो जो साथ तेरे खुद रोयेगी दुख-पीड़ा-व्यथा पिता से कह खुशियों घर चलकर आएंगी जा बेटी घर जा लिख पढ़ कर कुल और समाज का गौरव बन इन छलनाओं पर भ्रमित न हो जा घर आंगन की शोभा बन जब तन मन से जीवन के प्रति वे तुमको विकसित पाएंगे माँ बाप स्वयं तेरी पसन्द के साथी  तक ले जाएंगे.....
 मंज़िलों  मरहलों  से  गुज़रते रहे। दमबदम दिनबदिन हम संवरते रहे।। जीस्त ढलती रही अपनी रौ में मग़र हम दमकते चमकते निखरते रहे ।। हम मिले जब जहाँ मुस्कराकर मिले लोग  रोते  रहे   आह  भरते  रहे।। आप चलते रहे इक तकल्लुफ़ लिए हम हबीबों के दिल में उतरते रहे।। वो हया बन के हममे सिमटती रही हम मुहब्बत थे उन पर बिखरते रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 बरसे मेरे मिज़ाज के बादल नहीं कभी। मैंने पसारा आस में करतल नहीं कभी।। ये था कि तुम मिलोगे तो चाहूंगा उम्र भर पर था तुम्हारे प्यार में पागल नहीं कभी।। माँ उम्र भर किसी की भी रहती नहीं मगर सर से हटा दुआओं का आँचल नहीं कभी।। मंगल नहीं किया ये भले बेबसी रही लेकिन किया किसी का अमंगल नहीं कभी।। क़िस्मत ने मुझको नाच नचाया बहुत मगर टूटी मेरे ज़मीर की पायल नहीं कभी।।   साभार Suresh Sahani
 आशना होने से पहले ही ख़फ़ा होता रहा। इस तरह हर दोस्त मिलते ही जुदा होता रहा।। उम्र भर इंसाफ पाने को फिरे हम दरबदर उन की ख़ातिर रात में भी फैसला होता रहा।। जितने अपने देवता हैं सब के सब हैं संगदिल बेवजह मैं इनकी ख़ातिर आईना होता रहा।। लोग डर से या अक़ीदत से उन्हें पूजा किये इस तरह हर एक पत्थर देवता होता रहा।। इस क़दर चाहा कि उसको बदगुमानी हो गयी मैं वफ़ा करता रहा वो बेवफा होता रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कहाँ जीने की अब आज़ादियाँ हैं। कि अब तो हर तरफ पाबंदियां है।। किसी की जान लेने पर तुले हो चुहलबाजी है या गुस्ताख़ियाँ हैं।। नारा–ए–दीन फिर लगने लगे हैं किसी कोहराम की तैयारियां हैं।। जिसे अपना समझ कर दिल लुटाया जेहन में उसके भी मक्कारियां हैं।। ये किस दुनिया में हम आये हैं ये तो ठगों और ताजिरों की बस्तियां हैं।। यहाँ बारूद पर बैठी है दुनियां ये आखिर किनकी कारस्तानियां है।। नई पीढ़ी तरक्की कर रही हैं मेरी आँखों में ही  कुछ खामियाँ हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मस्जिद की तामीर मुक़र्रर।    मन्दिर की प्राचीर मुक़र्रर।।       राजा साहब टिकट पा गए         राजा की जागीर मुक़र्रर।। ये गरीब पीढ़ी दर पीढ़ी पाते हैं तक़दीर मुक़र्रर।।     जो आएगा वो जायेगा     सबकी है तहरीर मुक़र्रर।। ख़्वाब न देखो कब होती है ख्वाबों की तदबीर मुक़र्रर।।     हर हिस्से की ख़्वाबख्याली     हर हिस्से की पीर मुक़र्रर।। आज हमारा कर ही देगा अब कल की तस्वीर मुक़र्रर।। सुरेश साहनी,कानपुर
 लोग आशंकित हैं बेशक रात से भयग्रसित हैं लोग पर किस बात से रात के होने से ढल जाने तलक अजनबी घड़ियों के टल जाने तलक लोग सूरज को लपकना चाहते हैं धूप की छतरी में रहना चाहते हैं लोग ऐसे भी हैं जो अपने लिए धूप को लॉकर में रखना चाहते हैं धूप सबके पास आना चाहती है धूप दो पल मुस्कुराना चाहती है धूप हंसना और खिलना चाहती है धूप अब उनसे ही मिलना चाहती है जो अंधेरों में  भी जीना जानते हैं जो निशा में भी चमकना जानते हैं सुरेश साहनी
 मैं अज्ञानी ही ठीक प्रभू!!! मैं अहंकार में सना रहूँ एक विश्वकोश सा बना रहूँ या ठूंठ ताड़ सा तना रहूँ ऐसे ज्ञानी से बेहतर है यह नादानी ही ठीक प्रभू!! यह दुनिया जैसे मेला है रिश्ते-नातों का रेला है उस पर ही प्राण अकेला है जब कोई साथ न जाता हो तो वीरानी ही ठीक प्रभू!! क्या हाथी घोड़े साथ गये क्या महल दुमहले साथ गये क्या बेटी बेटे साथ गये तब क्या होगा दानाई से है नादानी ही ठीक प्रभू!!!
 और यूँ ही देखते दिखाते गुम हो गई कथायें कितनी।..... मन यायावर तन बनजारा और विचार हुये आवारा इसे सहेजें उसे सँवारें जब उलझन में छूटा सारा क्यों बच गईं व्यथाएँ  इतनी।।... इसकी इनकी उसकी बारी इसी तरह से सबकी बारी सब अपने अपने पर रोये रो न सके सब अपनी बारी मृत्यु सुने विपदायें कितनी।।....... कुछ अपने कुछ रहे पराये कुछ अनजाने कुछ हमसाये जगत मंच पर सबने अपने  दिए गए किरदार निभाये दे दे गए व्यथाएँ कितनी।।... सुरेश साहनी चित्र Ashok Kumar Singh जी की वाल से
 अम्बानी कितने सरल,अवनी कितनी क्रूर। उस अवनि को मार कर बने शिकारी शूर।। बने शिकारी क्रूर डाभ मंत्री जी पीते मिला न पानी पर प्यासी बाघिन के जीते महाराष्ट्र सरकार छुपाती कारस्तानी। शासन हुआ गुलाम, और मालिक अम्बानी ।।  सुरेश साहनी
 सभी पकड़ना चाह रहे हैं घने वृक्ष की छाँव। कौन घूमता है ऐसे में  मेरे मन के गांव।। पैदा होते है स्टेटस  सिंबल लेकर बच्चे कितने होनहार ऐसे में रह जाते अधकच्चे शिक्षक भी हैसियत देख बदला करते हैं भाव।। कौन घूमता है..... अब अंधों की दूरदृष्टि का होता है गुण गायन इस अंधेर नगर की प्रतिभा करती नित्य पलायन चकाचौंध हो अंधियारों का जुगनू करें चुनाव।। कौन घूमता है...... सुरेश साहनी
 मेरे सवाल उठे वक्त का जवाब गया। नज़र झुकाये हुए ओढ़ कर नक़ाब गया।। मिटी है क्या कभी नस्लें किसी परिंदे की   गया तो हार के सैयाद या उक़ाब गया।। बुरी निगाह से उठ उठ के हाथ हार गए कहीं न खार गये ना कहीं गुलाब गया।। के ज़ुल्म सह के फरियाद की जुबां न थकी गया तो हार के ज़ुल्मी का इज़तेराब गया।। गया न कुछ भी कहीं इश्क़ के भटकने पर गयी तो शर्मो-हया हुस्न का हिज़ाब गया।। सुरेश साहनी
 ग़म के दरिया खंगाल आये हैं। ज़ीस्त अब तक निकाल आये हैं।। मौत कब कोशिशें नहीं करती हम ही ये वस्ल टाल आये हैं।। जितना हालात ने दबाया है हम में उतने उछाल आये हैं।। तीरगी में थी दिल की तन्हाई दीप यादों के बाल आये हैं।। हम भी डूबे थे इश्क़ में लेकिन ख़ुद को फिर भी सम्हाल आये हैं।। ये  नहीं  इश्क़ में  हमी  टूटे हुस्न पर भी जवाल आये हैं।। नेकियों का हिसाब वो जाने हम तो दरिया में डाल आये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आस का दीया बाले रख। दर्द दिलों में पाले रख।। जिनसे नफरत बढ़ती है उन बातों को टाले रख।। सबकी रात चरागाँ कर सबकी सिम्त उजाले रख।। मौला से बस एक दुवा सबके हाथ निवाले रख।। नरमी शबनम वाली रख तेवर तूफां वाले रख।। इसमें कोई फर्क न कर सब को देखे भाले रख।। मंजिल कब नामुमकिन है पहले पॉँव में छाले रख।।                --अदीब कानपुरी(suresh sahani)
 प्यार से तुमने देखा मुझे एक पल जिंदगी बन गयी इक मुकम्मल गजल हो न हो कोई जादू तेरे पास है मुश्किलें मेरी होने लगी हैं सहल  सुरेश साहनी
 अपना दर्द छुपाये रखना  गैरों ख़ातिर रोते रहना। अपने दुख को पीकर औरों- के हित नैन भिगोते रहना।। फितरत अपनी काली जैसी जीवन मिला रुदाली जैसा सपने मिले गृहस्थों जैसे परिणत हुआ कपाली जैसा इनसे परे भाग्य को अपने  दोनों हाथ संजोते रहना।। यादों की आवाजाही से स्मृति ने अवकाश ले लिया एकाकीपन ने जीवन मे स्थायी आवास ले लिया जीवन जैसे शेष समय मे अपना ही शव ढोते रहना।। Suresh Sahani
 खिज़ां की भी कोई निशानी नहीं थी। क़यामत भी भी तर्जुमानी नहीं थी।। अमां यार तुम चल दिये जाने कैसे ये दुनिया अभी इतनी फ़ानी नहीं थी।। यक़ी कैसे आये कि अब तुम नहीं हो चले आओ चुपचाप बेशक़ कहीं हो।। सुरेश साहनी,कानपुर
 हम हर इक रस्मो-रवायत से अलग चलते हैं। दीनो-मज़हब से ,क़यादत से अलग चलते हैं।। अपनी आदत है हवाओं के मुख़ालिफ़ चलना हम नियाबात की आदत से अलग चलते हैं।। सुरेश साहनी
 कुछ वक्त मुझे देना कल तुमपे लिखूंगा कुछ। कल तुम भी सुनाना कुछ कल मैं भी सुनूंगा कुछ।। जीने की तमन्नाएं दम तोड़ चुकी हैं पर तुम साथ अगर दोगे मैं और जियूँगा कुछ।। तनहाई में काटे हैं दिन रात बहुत मैंने इस दर्द को समझो तो मैं तो न कहूंगा कुछ।। नाराज़ रहो लेकिन पहलू में बने रहियो तुम पास बने रहना मैं दूर रहूंगा कुछ।। जब रात के आंगन में वो चाँद नज़र आये शरमा के सिमटना तुम मैं और खुलूँगा कुछ।। दिखता है तुम्हे मुझमे रूखा सा कोई चेहरा दुनिया के लिए कुछ हूँ मैं तुमको मिलूंगा कुछ।। हो लाख उमर लम्बी, पर उसकी वज़ह तुम हो तुम साथ नही दोगे तो ख़ाक जियूँगा कुछ।। सुरेश साहनी,कानपुर
 देश में निषाद संस्कृति अथवा फिशरमैन कम्युनिटी भारत की जनसंख्या में एक अच्छी भागीदारी रखती रही है।अकेले उत्तर प्रदेश में ही देखा जाए तो कहार,गोंड, तुरैहा,  सोरहिया,निषाद, केवट , बिन्द, मांझी मंझवार,नागर,धीवर,किसान  ,धुरिया कश्यप और मल्लाह वर्माआदि अनेक जातियों उपजातियों में बँटा हुआ यह समाज लगभग 10.5 प्रतिशत है। यदि संख्या में लोधी राजपूत भी जोड़े जाएं तो यह संख्या बढ़कर 14%चली जाती है।लगभग यही स्थिति बिहार में भी है  । जो किसी भी राजनैतिक दल की गणित को आसानी से बना बिगाड़ सकती है।पौराणिक सन्दर्भों में राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करने वाले श्रृंगी ऋषि निषाद ही थे।कालांतर में उनके पुत्र निषादराज गुह्य मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम के मित्र बनें और राज्य कोलियवन तथा श्रृंगबेरपुर को काशी की भाँति अयुद्ध क्षेत्र अथवा अयोध्या का मित्र राज्य माना गया।  महाभारत काल मे राजमाता सत्यवती और उनके विद्वान पुत्र भगवान वेदव्यास के साथ साथ अंगराज कर्ण के पिता अधिरथ, राजा हिरण्यधनु और वीर एकलव्य,कश्यप राजा हिडिम्ब और घटोत्कच, मत्स्यराज विराट, अवन्ति के बिन्द ,महिष्मति के अनुविन्द ,   मगधराज जरासं
 जिसकी वंशी ने दिल  चुराया है जिसपे दिल गोपियों का आया है जिसने राधा का दिल चुराया है कृष्ण जो गोपियों को भाया है सुन रहे हैं कि नन्दलाला है कैसे मानें वो एक ग्वाला है..... जबकि गैयो को भी चराता है जम के माखन दही चुराता है जबकि इतना शरीर है मोहन फिर भी है गोपियों का मनमोहन हर तरफ जिसका बोलबाला है कैसे माने वो सिर्फ़ ग्वाला है...... ब्रज उसे हाथोंहाथ लेता है मान देता है माथ लेता है जब वो ग्वालों को साथ लेता है कालिया को भी नाथ लेता है सब ये कहते हैं मुरली वाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है....  गोपियों संग  रास करता है मुझसे ज्यादा विलास करता है काम भी ऐसे खास करता है हर हृदय में निवास करता है सिर्फ़ मेरे ही दिल का छाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है..... सुन रहे हैं वो मुझको मारेगा पाप हर लेगा जग को तारेगा मोक्ष पाकर के उनके हाथों से  कौन कहता है कंस हारेगा वो जो मथुरा में आने वाला है कैसे मानें वो सिर्फ़ ग्वाला है..... सुरेश साहनी,कानपुर
 मेरा माजी मुझे पहचानता है। मुस्तकबिल मगर अनजान सा है।। हमारी ख्वाहिशें सहमी हुयी हैं इधर ईमान कुछ बहका हुआ है।। बोझिल सी हुयी जाती हैं पलकें तसव्वुर में तेरे कितना नशा है।। समय के संतरी सोये हुए हैं कोई इतिहास वापस आ रहा है।। सुरेश साहनी
 मेरे आने पे खुश रहना मेरे जाने पे चुप रहना कोई तो फर्क पड़ता है मेरे होने न होने से। हमारी प्यास दरिया सी तुम्हारी आस नदिया सी हमारी पूर्णता है खुद को एक दूजे में खोने से तुम्हें ढूंढा बहुत बाहर  पुकारा जब भी अकुलाकर तेरी आवाज आई है हमारे दिल के कोने से मुहब्बत क्या है पूछो तो हमें कुछ भी नही मालुम मिटा मैं मेरे होने से मिला तो खुद को खोने से सुरेश साहनी
 उस बुत की परस्ती कहीं ईमान न ले ले। डरते हैं मुहब्बत मेरी पहचान न ले ले।। पत्थर के पिघलने में बड़ा वक़्त लगेगा आईना तेरा इश्क़ तेरी जान न  ले ले।। मुज़रिम मेरा ज़रदार है कमज़र्फ है मुंसिफ वो अपने मुताबिक नया मीज़ान न ले ले।।  मुमकिन तो नहीं है मगर इक कैफ़ की खातिर दिल उनके इनायात के एहसान न ले ले।। इक चोर को अरकान बनाना भी गलत है  वो देके शहर कोई  बियावान न ले ले।। अल्लाह भी डरता है धरती पे उतरने से के उसकी जगह कोई इंसान न ले ले।। बेकार की हर बात को उठते ही दबा दो बढ़कर वो कहीं शक्ल-ए-तूफान न ले ले।।   सुरेश साहनी,कानपुर
 ले अंधेरे शाम की मुंडेर पर बैठ जाती है उदासी घेर कर उसने मौके की नज़ाकत भाँप ली आस का सूरज गया मुँह फेर कर रोशनी की झिलमिलाहट क्या बढ़ी ये अंधेरे और गहरे हो गए फुलझड़ी तड़पी पटाखे रो दिए हर किसी के कान बहरे हो गए क्या करें फरियाद इस हालात में कौन दे देगा उजाला भीख में हाथ मेरे आज तक फैले नहीं किसलिए माँगू निवाला भीख में सुरेश साहनी , कानपुर
 मन्दिर चईये चईये ना। फिर क्या है चुप रइये ना।। मज़हब खाने को देगा दे ना दे चुप रईये ना।। धरती पे क्या रक्खा है सबको जन्नत चईये ना।। उधर शराबी नहरों संग हूर बहत्तर चईये ना।। हम उलमा हैं मालूम है हमको भी घर चईये ना।। राम पियारे बेघर हैं हरम बराबर चईये ना।। मुल्ला और पुजारी को  पीना मिलकर चईये ना।। नर्क ज़मीं को करना है इंसां को डर चईये ना।। SS 8/11/19
 कुछ नहीं धूप की छाँव लेकर चलो। हौसलों से भरे  पाँव लेकर चलो।। जिस शहर को नहीं गांव से वास्ता उस शहर की तरफ गाँव लेकर चलो।। छल फरेबों से दुनिया भरी है तो क्या  मन मे विश्वास का भाव लेकर चलो।। उस भँवर में कहीं फंस न जाये कोई उस भँवर की तरफ नाव लेकर चलो।। जिस जगह चार पल की तसल्ली मिले ज़िन्दगी को उसी ठाँव लेकर चलो।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 8/11/20
 उस पार चलो तो कविता हो इक बार मिलो तो कविता हो...... नयनों के मौन निमन्त्रण को स्वीकार करो तो कविता हो...... इस तन के सूखे कोटर से किंचित कोंपल अंगड़ाई ले इन झुर्रीदार त्वचाओं से विस्मित जीवन तरुणाई ले सूखे अधरों पर अधरों से रस धार भरो तो कविता हो...... इक बार मिलो तो कविता हो...... प्रणयाकुल की आकुलता को इक बार पढो तो बात बने सौ बार पहल हमने की तुम- इस बार बढ़ो तो बात बने लज्जातट का उल्लंघन कर इक बार बहो तो कविता हो.... उस पार चलो तो कविता हो..... Suresh Sahani
 यूँ अधरों पर धर दिये अधर मानो स्वीकृति पर लगी मुहर।। उसका दुस्साहस तो देखो मेरी सौ बार असहमति पर वह हठी न माना थका नहीं अनगिनती प्रणय निवेदन कर वह अपने तप मे सफल हुआ मुझ से पत्थर को पिघला कर।।.... हो लाख हृदय प्रणयाकुल पर कब भाव शब्द में प्रकट हुए नयनों ने भी इंकार किया तब कैसे हम सन्निकट हुए क्या इसमें मेरी सहमति थी कुछ देर नयन मुंद गए अगर।।.... कुछ हो मर्यादा का कोई तटबन्ध नहीं तोड़ा मैंने निभ सका जहाँ तक  निभा कोई अनुबन्ध नहीं तोड़ा मैंने हम पूर्ण संयमित होकर क्यो  थे विह्वल उच्छ्रंखलता पर।।.....
 गिनती भले अज़ीमो में है। शोहरत आम फहीमों में है।। सब तो हैं अहबाब हमारे बेशक़ नाम यतीमों में है।।
 नींद में  होके  चल रहा हूँ मैं। क्या कहूँ ख़ुद को छल रहा हूँ मैं।। ख़्वाब रोशन हैं किसलिए मेरे क्या चिरागों सा जल रहा हूँ मैं।। ज़िन्दगी कब उरूज़ पर होगी जिस्म कहता है ढल रहा हूँ मैं।। जाने तक़दीर की सुबह कब है देर से  आँख  मल  रहा हूँ मैं।। जबकि दुनिया हबीब है अपनी क्यों यतीमों सा पल रहा हूँ मैं।। और कितने रक़ीब हैं अपने और कितनो को खल रहा हूँ मैं।। सामने ले रहे हो अंगड़ाई फिर न कहना मचल रहा हूँ मैं।। किसकी यादो की गर्मियां हैं ये बर्फ जैसा पिघल रहा हूँ मैं।। उन की आंखों में मयकदा है क्या लड़खड़ा कर सम्हल रहा हूँ मैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 हमको लहरों का मचलना भा गया। उस समंदर का उबलना भा गया।। हांफना तूफान का अच्छा लगा इक शिकारे का सम्हलना भा गया।। कोई बिस्मिल क्यों कहेगा इश्क़ में तीर का दिल से निकलना भा गया।। हर तरफ गुल के दरीचे बिछ गए बाग को उनका टहलना भा गया।। चाँद का दीदार ही मकसूद था दफ़्फ़तन राहों में मिलना भा गया।। फिर तलातुम से मुहब्बत हो गयी बल्लियों दिल का उछलना भा गया।। जिस्म बाहों में सुलगते रह गया चाँद का ख़ामोश जलना भा गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 गर्दिशों से हम उबरना चाहते तो थे। वक्त के हम साथ चलना चाहते तो थे।। तुमने कब मौका दिया हम आखिरी दम तक तुमको जी भर प्यार करना चाहते तो थे।। हल कुदाल हमने उठाये हैं परिस्थिति वश वरना हम भी आगे बढ़ना चाहते तो थे।। मौन हो तुम लोक लज्जावश समझता हूँ मेरी खातिर तुम भी लड़ना चाहते तो थे।। अब हमें भी नींद आती है खुदा हाफिज संग वरना हम भी जगना चाहते तो थे।। सुरेश साहनी
 जिन मक़ामात से गुज़रा हूँ मैं। इम्तेहानात से गुज़रा हूँ मैं।। मैं न टूटा तो उन्हें हैरत है हाथ दर हाथ से गुज़रा हूँ मैं।। कैसे कैसे थे निगाहों में तेरी जिन सवालात से गुज़रा हूँ मैं।। जिस से बचने की तमन्ना पाली हाँ उसी बात से गुज़रा हूँ मैं।। बोझ से जिस्म दबा जाता है यूँ इनायात से गुज़रा हूँ मैं।। होने वाली थी क़यामत न हुयी वस्ल की रात से गुज़रा हूँ मैं।। सुरेश साहनी
 मौन किसी सीमा तक रखना आगे का मतलब है मरना।। तुम हो तो सब कुछ है प्यारे खेल तमाशे क्या है वरना।। घर की सोच रहे हो फिर क्या बंजारों में रिश्ता करना।। ग़ैरों से क्या मतलब लेकिन अपनों की नफ़रत से डरना।।
 तुम्ही बोलो तुम्हें कैसे मनाऊं। कहाँ से चाँद तारे तोड़ लाऊं।। ये तुम पर है हमें कितना झुकाओ मगर इतना नहीं कि टूट जाऊँ।। तुम्हें मेरी उदासी चुभ रही है तुम्हारी किस अदा पर मुस्कुराऊँ।। तुम्हें हर पल बदलते देखता हूँ तुम्हें क्या नाम दूँ कैसे बुलाऊँ।। अगर तुम पास होते भूल जाता तुम इतने दूर हो कैसे भुलाऊँ।।
 हम  अगर  बावरे नहीं होते। वो  मेरे सांवरे   नहीं होते।। फिर मेरी याद आ गयी होगी घाव  यूँ ही  हरे   नहीं होते।। प्यार हर एक से नहीं होता आम  पर  संतरे  नहीं होते।। प्यार चलता है सीधी राह लिए प्यार  में  पैतरे   नहीं  होते।। ग़ैर से ज़िक्र मत किया करिये इश्क़ पर मशवरे नहीं होते।। प्यार दीन-ए-ज़हान हो जाता हम अगर सिरफिरे नहीं होते।। इससे बढ़कर कोई शराब नहीं  वरना आशिक़ बुरे नहीं होते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुमने गद्दी तो दिल की पा ली है। क्या कभी सल्तनत सम्हाली है।। कांप उट्ठी है तीरगी दिल की एक कंदील ही तो बाली है।। ढूंढ कर एक मसीह ले आओ दर्द ने फिर जगह बना ली है।। हुस्न ही को गुरुर  है जायज़  इश्क़ हर हाल में सवाली है।। अपने बीमार को सताने की तुमने तरकीब क्या निकाली है।। वस्ल तूमसे है ईद हो जाना तुम  जहां हो  वहीं  दियाली है।। मुबारकबाद सुरेशसाहनी,कानपुर
 कौन इतना सँवर के आया है। चाँद है या कि उसका साया है।। डर सा लगता है उसको छूने में दिल ने भी किस से दिल लगाया है।। सच है सौ फीसदी मै उसका हूँ वो मेरे हक़ में कितना आया है।। चाँदनी से मैं जल गया होता धूप की   बर्फ ने   बचाया है।। चांदनी भी उसी से लिपटी है जिसने हरदम उसे सताया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सोच रहा हूँ कि मैं भी कुछ विवादित लिखूं।फिर किसी धार्मिक या वैचारिक  विरोधी से सेटिंग करूँ। वैसे भी मेरी कई डायरी कविताएँ रद्दी में जा चुकी हैं। ससुरा रद्दी वाला भी पाँच रूपये किलो से ज्यादा देने को  तैयार नहीं होता हैं।अख़बार की रद्दी तो आठ रूपये में ले  लेता है। लेकिन लिखा क्या जाए।सोच रहा हूँ लिख दूँ कि ईसा प्रभु हमारे मुहल्ले में पैदा हुए थे।उनके पिता का नाम फलाने त्रिपाठी था। फिर सोचता हूँ कि बहिन जी न बुरा मान जाएँ और कहें कि सारे मसीहां सवर्णों के घर क्यों पैदा होते हैं।फिर लिखना था तो मिश्रा लिख देते। मिश्रा हमारे महासचिव भी हैं। फिर अचानक ध्यान आया कि कुरील जी बसपा छोड़ चुके हैं।वे नाराज हो जायेंगे।कल ही उन्होंने बयान दिया है कि बसपा दलित विरोधी है।  फिर लिखने के लिए किसी शोध या विज्ञान की जरूरत भी क्या है।लेखक की मर्जी भी तो कोई चीज होती है।क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी छीन लोगे।लेखक लिख दे कि पंडित नेहरू इंग्लैंड में पैदा हुए थे तो हुए थे।कोई क्या कर लेगा ।अब तो शासन भी नहीं है। लेकिन ये ससुरी अंतरात्मा का क्या करें!बार बार जाग जाती है।उसी के साथ ये ईमान भी बेईमानी पर उतर आता है।
 छुप कर अश्रु बहाना छोड़ो दुनिया सिर्फ दिखावे की है। खुद को ख़्वाब दिखाना छोड़ो चलती आज छलावे की है।। नन्हा बालक भी रोता है अपनी भूख बताने ख़ातिर माँ चन्दा को भैया कहती बालक को बहलाने ख़ातिर तुम भी सादा बाना छोड़ो अब महफ़िल पहनावे की है।। क्या तुमने ही प्रेम किया है या उसने स्वीकार किया है या इकतरफा प्रेम स्वयं ही तुमने अंगीकार किया है अब दिल पर पछताना छोड़ो  बात भले पछतावे की है।। Suresh Sahani ,kanpur
 तुम सत्ता की चरण वंदना तो  करते हो बे। फिर कबीर बनने का नाटक क्यों करते हो बे।। जाति धर्म को लक्ष्य बनाकर करते हो कविताई खलनायक को नायक कहकर जब प्रशस्तियाँ गायी फिर जनगायन का आडम्बर क्यों करते हो बे।।SS
 तुम अपना दीवाना कर दो। या दिल से बेगाना कर दो।। आज़िज़ हूँ इस लुकाछिपी से शोहरत आम फ़साना कर दो।। झूठे  मत दो  हमे  दिलासे  हाँ  सीधे सीधे  ना कर दो।। तर्क करो ये रस्मो-तकल्लुफ कुछ ऐसा याराना कर दो।। मेरी ख़ातिर अब तो अपने होठों को पैमाना कर दो।। इंतज़ार की हद होती है तुम क्या सिर्फ़ बहाना कर दो।। बंजारा हूँ नाम से मेरे दिल का दौलतखाना कर दो।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 देर से आया पशेमाँ भी हुआ चार दिन में चाँद कैसा हो गया।। प्यार पति से या अक़ीदा रस्म का भूख का एहसास दूना हो गया।। चाँद को था चाँद का यूँ इंतज़ार मैं वहां रहकर पराया हो गया।। उनका मुंह मीठा किया,पानी दिया खुश हुए वो और करवा हो गया।। मेरी एक पुरानी नज़्म
 प्यार में आजमा रहे हो तो। क्या ज़रूरी है जा रहे हो तो।। ये तिज़ारत नहीं मुहब्बत है मोल दिल का लगा रहे हो तो।। इश्क़ परवान चढ़ के मानेगा ख़ुद को शम्म,अ बता रहे हो तो।। उस से उम्मीदबर तभी होना तुम भी उतना निभा रहे हो तो।। सर तो बाहर उतार कर आओ घर मुहब्बत के आ रहे हो तो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 राउर भोली सुरतिया निहारल करीं। रउरे बतिया हमेशा विचारल करीं।। रउरे सजला संवरला से नाही बनीं रउआँ हमहुँ के तनिका संवारल करीं।।  रउरे मिनहा करब हम निहोरा करब मनवा बूड़ल करे हम उबारल करीं।। प्रीत के रीत का हS बताईं तनी रउआँ बोलल करीं हम तिखारल करीं।। रेत पर प्यार के एक महल प्यार से ऊ बिगारल करें हम सहारल करीं।।
 यदि कभी फुरसत मिले तो ख़्वाब में भी आईये क्या ख़्यालों में बने रहकर जगाना ठीक है।।सुरेश साहनी
 नाहक़ दुनिया वाले नफ़रत करते हैं। इक हम हैं जो सिर्फ़ मुहब्बत करते हैं।। जो बातें  हँसके टाली जा सकती हैं अक्सर लोग उन्हीं पर हुज़्ज़त करते हैं।। उन्हें ज़ियारत की कोई दरकार कहाँ वालिदैन की जो भी ख़िदमत करते हैं।।  हाफ़िज़  मौला है उनकी हर गर्दिश में जो अच्छे लोगों की सोहबत करते हैं।।  रिश्ते नाते बचपन मस्ती अल्हड़पन ये खोकर हम किसकी चाहत करते हैं Suresh Sahani, कानपुर
 दी थी  खूब  दुहाई मालिक । किसको पड़ा सुनाई मालिक।। बुधिया ने फरियाद नही की उसमें थी रुसवाई मालिक।। किसकी रपट दरोगा लिखता सब थे हाई  फाई  मालिक ।। वादा तो सबका था लेकिन किसने बात उठाई मालिक।। अच्छे दिन आने की सूरत देती नहीं दिखाई मालिक।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 छठ पूजा आस्था और प्रकृति के संगम के महापर्व हवे।हमन बचपन से देखत चलि आवत बानी। जीउतिया, तीज आ छठ ई तीन गो पर्व अईसन बाड़न जेमे मनई नहियो चाहे तब्बो ओकर गोड़ घाटे कोर घूमि जाला। एमे जे जईसे सुरुज भगवान के गंगा मैया के छठी माई के पूजा ध्यान सुमिरन क पावेला करेला।  अब ते घाटे पर लोग मूर्ती सजावत बाटे।नाही त एह महापर्व में कवनो मूरति , पण्डा पुरोहित, आ कवनो टिटिम्म कब्बो नाही लउकल।सोझे सोझे भक्त आ भगवान के संवाद होखेला। जइसे यजुर्वेद में लिखल गईल बा, 'तस्य प्रतिमा ना असि, तस्य किर्तिह असि।"अर्थात ओह परमपिता के प्रतिमा नाही बा, बाकी उनकर कीर्ति बा। वेद के एही सूत्र के आत्मसात कइके ई सम्पूर्ण समाज सुरुज देवता के रूप में सोझे भगवान से साक्षात्कार करेला।नीक से कहल जा ते छठपूजा के इहे सरलता एहकर सुन्दरता हवे।  छठी माई के घाट पर आके केहू भी छोट-बड़, अमीर-गरीब आ बाभन-चमार ना रहि जाला। सुरुज भगवान के किरण लेखा छठि माई के किरपा सभे जनी के उप्पर समान रूप से बरसेला। इहे एह त्योहार के सार्थकता का दो सौंदर्य कुलि हवे।
 मैंने दिल की बस्ती का सच खोजा तो वीराना निकला। मेरी प्रेम कहानी उनकी नफ़रत का अफ़साना निकला।। वैसे उनकी मेरी बातें कितनी मिलती जुलती हैं निकला मेरा मन वृंदावन  उनका मन बरसाना निकला।। उनकी यादें उनकी बातें उनके किस्से मेरा क्या बेगानी शादी में मैं भी अब्दुल्ला दीवाना निकला।। उनका क्या है मेरे दिल पर फिर भी उनका ही कब्ज़ा मेरी खाला  के घर मे ख़ुद जैसे मैं  बेगाना निकला।। जब  दिल का बक्सा खोला तो उसमें ढेरों यादें थीं तह पर तह में दर्द लपेटे  ग़म से भरा ज़माना निकला।। सुरेश साहनी, अदीब  कानपुर
 ज़िंदगानी ने रुलाया उम्र भर। दर्दो-ग़म ने आजमाया उम्र भर।। ज़िन्दगी भर सर पे साये की तरह मौत ने फिर भी निभाया उम्र भर।। हम तो खुद से भी कभी रूठे नहीं आपने किसको मनाया उम्र भर ।। सोच पाए बैठ कब तस्कीन से क्या बिगाड़ा क्या बनाया उम्र भर।। जो कि बोसे में दिया था आपने गीत वो ही गुनगुनाया उम्र भर।। कोशिशें की खूब कह पायें ग़ज़ल पर हमें लिखना न आया उम्र भर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 पढ़ने पर लगता है अच्छा लिखता है। सुनने पर लगता है अच्छा पढ़ता है।। उसे काफिया बहर नहीं कुछ है मालूम पर सुरेश गजलें भी अच्छी कहता है।।
 जहां नजदीकियां बढ़ने लगी हैं। दिलों में दूरियां बढ़ने लगी हैं।। जमीं के लोग छोटे दिख रहे हैं मेरी ऊंचाईयां बढ़ने लगी हैं।। हम अपनी खामियां देखें तो कैसे नज़र में खामियां बढ़ने लगी हैं।। हमारा ताब ढलना चाहता है इधर परछाईयाँ बढ़ने लगी है।। सम्हलने के यही दिन है मेरी जां बहुत बदनामियाँ बढ़ने लगी हैं।। हमें मालूम है तौरे-ज़माना मग़र हैरानियाँ बढ़ने लगी हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जहां नजदीकियां बढ़ने लगी हैं। दिलों में दूरियां बढ़ने लगी हैं।। जमीं के लोग छोटे दिख रहे हैं मेरी ऊंचाईयां बढ़ने लगी हैं।। हम अपनी खामियां देखें तो कैसे नज़र में खामियां बढ़ने लगी हैं।। हमारा ताब ढलना चाहता है इधर परछाईयाँ बढ़ने लगी है।। सम्हलने के यही दिन है मेरी जां बहुत बदनामियाँ बढ़ने लगी हैं।। हमें मालूम है तौरे-ज़माना मग़र हैरानियाँ बढ़ने लगी हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कभी कभी सच ऐसे भी जिन्दा रखा है। बोला है पर चेहरे पर पर्दा रखा है।। तुम मेरी पहचान के लिए व्याकुल क्यों हो क्या मेरे चेहरे पर सत्य लिखा रखा है।। क्या चेहरा दर चेहरा सच बदला करता है आखिर ऐसे बदलावों में क्या रखा है।। अब उसकी बातों को सारे सच मानेंगे उसने अपना नाम तभी बाबा रखा है।। साथ चलो यदि चल न सको तो मिल कर बोलो अपना और पराया क्या फैला रखा है।।
 ज़ीस्त अपनी निकल गयी आख़िर। मौत  आयी थी  टल गई आख़िर।। आरज़ू कब   तलक जवां  रहती उम्र के  साथ   ढल गयी आख़िर।। नौजवानी   ढलान  पर   आकर बचते बचते फिसल गई आख़िर।। आपने भर निगाह देख लिया इक तमन्ना मचल गयी आख़िर।। हुस्न होता भले बहक जाता पर मुहब्बत सम्हल गयी आख़िर।। उम्र के इस पड़ाव पर आकर ज़िंदगानी  बदल  गयी आख़िर।। Suresh Sahani,kanpur
 अमरीका की चाकरी, अम्बानी का वेश। सत्य कहें तो आप कब समझे अपना देश।।1 सरकारी संपति घटी ,बढ़े निजी व्यापार। बेटा माँ को बेचने ले आया बाज़ार।।2 सरकारी उपक्रम बिके बिके भेल अरु गेल।। रक्षा राखें राम जी,बिके किश्त में रेल।।3 लोकतंत्र को रौंद कर जीत मिली इस बार। जन की चिंता क्यों करे ,ईवीएम सरकार।।4 सत्य हारते जा रहे झूठों से संग्राम। अट्टहास रावण करे हैरत में श्री राम।।5
 एक नासन्ज़ीदा ग़ज़ल।समाअत फ़रमायें। खूब रद्दोबदल किया उसने। शेर मेरा था पढ़ दिया उसने।। बे बहर हो गयी ग़ज़ल अपनी सिर्फ़ बदला था काफ़िया उसने।। ख़त किताबत है गर रक़ीबों से क्यों मुझे रक्खा डाकिया उसने।। बेदरोदर था पर मेरे दिल में इक ठिकाना बना लिया उसने।।  ग़ैर का ख़त पढा मेरे आगे या पढ़ा मेरा मर्सिया उसने।। क़त्ल करके मेरी मुहब्बत का क्या निकाला है ताज़िया उसने।। जाने किसकी हँसी उड़ाई है नज़्म पढ़कर मज़ाहिया उसने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जाने मुझको क्या हुआ है इन दिनों। हर कोई मुझसे ख़फ़ा है इन दिनों।। मुझसे मुझको ही मिले मुद्दत हुई क्या कोई मुझसे मिला है इन दिनों।।  मैं भला नाराज उससे क्यों रहूँ     कुछ  तबियत ही जुदा है इन दिनों।। आदमी मिलते कहाँ हैं आजकल हर कोई इक देवता है इन दिनों।। किसको तोहमत दें सराहें किसको हम जबकि सच कहना मना है इन दिनों।। बेवफा किसको कहें इस दौर में कौन तस्वीरे-वफ़ा है इन दिनों।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फ़क़त बरबाद हूँ इतना बहुत है। दिले नाशाद हूँ इतना बहुत है।। ज़माने ने भुलाया पर अभी भी तुम्हें मैं याद हूँ इतना बहुत है।। सुरेश साहनी, कानपुर