एक नासन्ज़ीदा ग़ज़ल।समाअत फ़रमायें।


खूब रद्दोबदल किया उसने।

शेर मेरा था पढ़ दिया उसने।।


बे बहर हो गयी ग़ज़ल अपनी

सिर्फ़ बदला था काफ़िया उसने।।


ख़त किताबत है गर रक़ीबों से

क्यों मुझे रक्खा डाकिया उसने।।


बेदरोदर था पर मेरे दिल में

इक ठिकाना बना लिया उसने।। 


ग़ैर का ख़त पढा मेरे आगे

या पढ़ा मेरा मर्सिया उसने।।


क़त्ल करके मेरी मुहब्बत का

क्या निकाला है ताज़िया उसने।।


जाने किसकी हँसी उड़ाई है

नज़्म पढ़कर मज़ाहिया उसने।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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