ले अंधेरे शाम की मुंडेर पर

बैठ जाती है उदासी घेर कर

उसने मौके की नज़ाकत भाँप ली

आस का सूरज गया मुँह फेर कर


रोशनी की झिलमिलाहट क्या बढ़ी

ये अंधेरे और गहरे हो गए

फुलझड़ी तड़पी पटाखे रो दिए

हर किसी के कान बहरे हो गए


क्या करें फरियाद इस हालात में

कौन दे देगा उजाला भीख में

हाथ मेरे आज तक फैले नहीं

किसलिए माँगू निवाला भीख में


सुरेश साहनी , कानपुर

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