यूँ अधरों पर धर दिये अधर

मानो स्वीकृति पर लगी मुहर।।


उसका दुस्साहस तो देखो

मेरी सौ बार असहमति पर

वह हठी न माना थका नहीं

अनगिनती प्रणय निवेदन कर

वह अपने तप मे सफल हुआ

मुझ से पत्थर को पिघला कर।।....


हो लाख हृदय प्रणयाकुल पर

कब भाव शब्द में प्रकट हुए

नयनों ने भी इंकार किया

तब कैसे हम सन्निकट हुए

क्या इसमें मेरी सहमति थी

कुछ देर नयन मुंद गए अगर।।....


कुछ हो मर्यादा का कोई

तटबन्ध नहीं तोड़ा मैंने

निभ सका जहाँ तक  निभा कोई

अनुबन्ध नहीं तोड़ा मैंने

हम पूर्ण संयमित होकर क्यो 

थे विह्वल उच्छ्रंखलता पर।।.....

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