मेरा माजी मुझे पहचानता है।
मुस्तकबिल मगर अनजान सा है।।
हमारी ख्वाहिशें सहमी हुयी हैं
इधर ईमान कुछ बहका हुआ है।।
बोझिल सी हुयी जाती हैं पलकें
तसव्वुर में तेरे कितना नशा है।।
समय के संतरी सोये हुए हैं
कोई इतिहास वापस आ रहा है।।
सुरेश साहनी
मेरा माजी मुझे पहचानता है।
मुस्तकबिल मगर अनजान सा है।।
हमारी ख्वाहिशें सहमी हुयी हैं
इधर ईमान कुछ बहका हुआ है।।
बोझिल सी हुयी जाती हैं पलकें
तसव्वुर में तेरे कितना नशा है।।
समय के संतरी सोये हुए हैं
कोई इतिहास वापस आ रहा है।।
सुरेश साहनी
Comments
Post a Comment