छठ पूजा आस्था और प्रकृति के संगम के महापर्व हवे।हमन बचपन से देखत चलि आवत बानी। जीउतिया, तीज आ छठ ई तीन गो पर्व अईसन बाड़न जेमे मनई नहियो चाहे तब्बो ओकर गोड़ घाटे कोर घूमि जाला। एमे जे जईसे सुरुज भगवान के गंगा मैया के छठी माई के पूजा ध्यान सुमिरन क पावेला करेला।

 अब ते घाटे पर लोग मूर्ती सजावत बाटे।नाही त एह महापर्व में कवनो मूरति , पण्डा पुरोहित, आ कवनो टिटिम्म कब्बो नाही लउकल।सोझे सोझे भक्त आ भगवान के संवाद होखेला। जइसे यजुर्वेद में लिखल गईल बा, 'तस्य प्रतिमा ना असि, तस्य किर्तिह असि।"अर्थात ओह परमपिता के प्रतिमा नाही बा, बाकी उनकर कीर्ति बा। वेद के एही सूत्र के आत्मसात कइके ई सम्पूर्ण समाज सुरुज देवता के रूप में सोझे भगवान से साक्षात्कार करेला।नीक से कहल जा ते छठपूजा के इहे सरलता एहकर सुन्दरता हवे।

 छठी माई के घाट पर आके केहू भी छोट-बड़, अमीर-गरीब आ बाभन-चमार ना रहि जाला। सुरुज भगवान के किरण लेखा छठि माई के किरपा सभे जनी के उप्पर समान रूप से बरसेला। इहे एह त्योहार के सार्थकता का दो सौंदर्य कुलि हवे।

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