यार की मस्तनिगाही का भरम क्या रखता।
सर्द से रिश्तों में जज़्बात गरम क्या रखता।।
उससे नफ़रत से भरी बात नहीं की मैंने
ऐसे हालात में रुख इससे नरम क्या रखता।।
ज़हर देने की जगह उसको दवा दी मैंने
उसके हाथों में भला इतना भी कम क्या रखता।।
उसने पहले ही मुझे अपनी कसम दे दी थी
उसके आगे मैं कोई और कसम क्या रखता।।
बोझ दिल पर लिए फिरने की कोई बात नहीं
पर दिले-मोम में पत्थर का सनम क्या रखता।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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