कहाँ जीने की अब आज़ादियाँ हैं।
कि अब तो हर तरफ पाबंदियां है।।
किसी की जान लेने पर तुले हो
चुहलबाजी है या गुस्ताख़ियाँ हैं।।
नारा–ए–दीन फिर लगने लगे हैं
किसी कोहराम की तैयारियां हैं।।
जिसे अपना समझ कर दिल लुटाया
जेहन में उसके भी मक्कारियां हैं।।
ये किस दुनिया में हम आये हैं ये तो
ठगों और ताजिरों की बस्तियां हैं।।
यहाँ बारूद पर बैठी है दुनियां
ये आखिर किनकी कारस्तानियां है।।
नई पीढ़ी तरक्की कर रही हैं
मेरी आँखों में ही कुछ खामियाँ हैं।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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