नींद में होके चल रहा हूँ मैं।
क्या कहूँ ख़ुद को छल रहा हूँ मैं।।
ख़्वाब रोशन हैं किसलिए मेरे
क्या चिरागों सा जल रहा हूँ मैं।।
ज़िन्दगी कब उरूज़ पर होगी
जिस्म कहता है ढल रहा हूँ मैं।।
जाने तक़दीर की सुबह कब है
देर से आँख मल रहा हूँ मैं।।
जबकि दुनिया हबीब है अपनी
क्यों यतीमों सा पल रहा हूँ मैं।।
और कितने रक़ीब हैं अपने
और कितनो को खल रहा हूँ मैं।।
सामने ले रहे हो अंगड़ाई
फिर न कहना मचल रहा हूँ मैं।।
किसकी यादो की गर्मियां हैं ये
बर्फ जैसा पिघल रहा हूँ मैं।।
उन की आंखों में मयकदा है क्या
लड़खड़ा कर सम्हल रहा हूँ मैं।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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