सिर्फ हमारे लड़ने से क्या बदलेगा
यही सोचकर हमने लड़ना छोड़ दिया
चींटी दीवारों पर चढ़ती है गिरती है
क्या गिरने से उसने चढ़ना छोड़ दिया
दशरथ मांझी भी तो इक इंसान ही था
जिसने पर्वत का भी सीना तोड़ दिया
इसी धरा पर राँझा जैसा वीर हुआ
जिसकी जिद ने दरिया का रुख मोड़ दिया
हम भी सोचें क्या यह निर्णय उचित रहा
हमने आखिर कैसे लड़ना छोड़ दिया
दो रोटी और थोड़े से सुख की ख़ातिर
बड़े युद्ध को कितना अधिक सिकोड़ दिया।।
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