उस बुत की परस्ती कहीं ईमान न ले ले।
डरते हैं मुहब्बत मेरी पहचान न ले ले।।
पत्थर के पिघलने में बड़ा वक़्त लगेगा
आईना तेरा इश्क़ तेरी जान न ले ले।।
मुज़रिम मेरा ज़रदार है कमज़र्फ है मुंसिफ
वो अपने मुताबिक नया मीज़ान न ले ले।।
मुमकिन तो नहीं है मगर इक कैफ़ की खातिर
दिल उनके इनायात के एहसान न ले ले।।
इक चोर को अरकान बनाना भी गलत है
वो देके शहर कोई बियावान न ले ले।।
अल्लाह भी डरता है धरती पे उतरने से
के उसकी जगह कोई इंसान न ले ले।।
बेकार की हर बात को उठते ही दबा दो
बढ़कर वो कहीं शक्ल-ए-तूफान न ले ले।।
सुरेश साहनी,कानपुर
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