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अपरिभाषित

देखो ना ये वही जगह है जहाँ मिला करते थे हम तुम मगर अब यहाँ बाग नहीं है आमों के वह पेड़ नहीं हैं महुवे की वह गन्ध नहीं है आज यहां अपना मकान है कितना ऊँचा कितना प्यारा अगर प्रेम हो रह सकता है जिसमें अपना कुनबा सारा यहीं कहीं पर हम दोनो ने एक दूसरे को चाहा था तुमने अपनी गुडिया को जब मेरे गुड्डे से ब्याहा था तुमको शायद स्मृत होगा इसी जगह पर खुश होते थे सींको के हम महल बनाकर और आज इस रंगमहल में वही नहीं है सूनी सूनी दीवारें हैं खुशी नहीं है वही नहीं है जिसको पाकर हम अनुबन्धित हो सकते थे जो सपने हमने देखे थे वह सपने सच हो सकते थे आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है सत है, चित है, सदानन्द है सहज योग है, स्वयम सृष्टि है बचपन में हम अनावृत ही साथ पले है, साथ बढे़ है और आज परिधान सुशोभित देह-यष्टि है हम दोनो की पर समाज ने अपने वैचारिक स्तर से नग्न सत्य की किसी क्रिया को सोच लिया है जो शाश्वत है,ईस्वरीय है उसे अनैतिक मान लिया है आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरो

पत्र

तुमसे दूर यहाँ पर डेरा अर्थहीन है सांझ सवेरा मेरी भटकन दून नगर में मन का लगता तुम तक फेरा तुमसे.... साथ तुम्हारे सदा सरसता बिना तुम्हारे हाय विवशता तुम बिन मुझे अकेला पाकर नीरसता ने डाला घेरा.... तुमसे.... हूं विदेह संकेत समझना भूल गया हूं आपा अपना तुम बिन इस यायावर मन का देह बनी है रैन बसेरा...... तुमसे....... तुमसे केवल एक निवेदन यथा शीघ्र हो पत्र भेजना पत्र तुम्हारा धैर्य-दीप बन किन्चित कर दे दूर अन्धेरा.... ...तुमसे दूर यहाँ पर डेरा अर्थहीन है सांझ सवेरा.....॥ स्व: सतीश पाण्डेय को समर्पित!

मेरी खुशियां न छीन ले कोई

मेरी खुशियां न छीन ले कोई एहतियातन उदास रहता हूं! फ़कीराना मिजाज है लेकिन बारहा गमशनास रहता हूं!