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Showing posts from June, 2023
 तमाम उम्र इसी बात का मलाल रहा। मेरा सवाल मुसलसल महज सवाल रहा।।सुरेश साहनी
 कद को लेकर बौने खूब झगड़ते हैं ऐसा करने से वे कितना बढ़ते हैं।। अच्छे घोड़े कब नखरे दिखलाते हैं बेदम घोड़े ही राहों में अड़ते हैं।।
 दादरी नंगी हुयी दनकौर नंगा कर दिया। इस सियासत न हमें हर ओर नंगा कर दिया।।  इस ज़हाँ को कौन पूछे आसमां  की फ़िक्र है आदमियत छोड़ हिन्दू मुसलमां की फ़िक्र है यूँ भी चिथड़ों में थे हम कुछ और नंगा कर दिया।।.....  जाति भाषा धर्म के आधार पर नफरत बढ़ी कमजोर  बेइज्जत हुए ज़रदार की इज़्ज़त बढ़ी घर की बातों पर मचाकर शोर नंगा कर दिया।।  हर मुहल्ले में कोई लम्पट करे नेतागिरी और उसके लगुवे भगुवे कर रहे दादागिरी हर ठिकाना हर गली हर ठौर नंगा कर दिया।। हर गली में निर्भया की चीख है चित्कार है आसिफा राधा सभी को कृष्ण की दरकार है आज इस इरफान ने मन्दसौर नँगा कर दिया।। सुरेश साहनी कानपुर
 नहीं टूटता है चक्रव्यूह/ अभिमन्यु की तरह / न जाने कितने मारे गए/ जैसे गोरख पांडेय/ होते तो लिखते/ नहीं टूटता कविता का कोलोजियम....
 कोरोना कईले बाटे परेशान सँवरु। हउवें देशवा के लोग हैरान सँवरु।। गइल अषाढ़  सवन ऋतु आइल सजना के सुधि आ सनेस ना सुनाईल एमें बरखा के बुन्नी लगे बान सँवरु।। देवरा से कइसे डिसटेन्स हम बनाई घर में ना रहीं बोलीं कहाँ चलि जाई रउवा कहतीं त दे देती परान सँवरु।।
 उसने क्या क्या नहीं दिया कहिये। जो है उसका ही शुक्रिया कहिये।। आग पानी हवा कुदूरत सब उसने किसको मना किया कहिये।। श्याम को कुछ बुरा नहीं लगता  चोर छलिया कि कालिया कहिये।। कृष्णमय हो जगत कि राधामय  श्याम मीरा का हो लिया कहिये।। साहनी ख़ुद का क्या सुनाता है सब है मालिक की बानियाँ कहिये।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फिर मेरे शौक कसमसाये हैं। फिर हमे आप याद आये हैं।। उसके लब पर कोई गजल होगी फिर मेरे होठ थरथराये हैं।। ये शबे-वस्ल अब मुकम्मल हो बाद मुद्दत क़रीब आये हैं।। मुस्करा कर सवाल करता है आपने दिल पे जख़्म खाये हैं।। चाँद क्यों आज गैरहाजिर है चांदनी ने सवाल उठाये हैं।। जिंदगी तुझ से तो उम्मीद नहीं ख़्वाब उनको करीब लाये हैं।। फिर जवां हसरतें लरजती हैं फिर उम्मीदों के पंख आये हैं।।
 चलो करें जी भर कर बातें। अपने दिन हैं अपनी रातें।। जीत गए हम लेकर फेरे कैसी शह अब कैसी मातें।। चाँद हमारे पहलू में हैं तारे तो हम तोड़ न पाते।। तुम हो तो यह जीवन भी है तुम बिन जीते जी मर जाते।। मेरे गीत अधूरे रहते तेरे होठ अगर न गाते।। सारी ऋतुएँ अपनी ही हैं सर्दी गर्मी या बरसातें।।
 मित्रों! सेवा निवृति क्या है? परमेश्वर अवसर देता है जीवन फिर से जी लेने का अमृतघट रस पी लेने का परमेश्वर अवसर देता है अपना चाहा कहा कर सको जिससे तुम कुछ नया कर सको परमेश्वर अवसर देता है मुक्त बन्धनों से होने का एक दूसरे में खोने का परमेश्वर सब कुछ देता है हित अनहित साथी अरु परिजन   जीवन तो  है फिर भी जीवन  परमेश्वर अवसर देता है पुनः आत्मचिंतन करने का तीरथ देशाटन करने का परमेश्वर आगे भी देगा सुन्दर स्वस्थ हर्षमय जीवन सामाजिकता प्रभु आराधन ईश्वर हमको भी कर देना सुखद शान्तिप्रद सेवा प्रवृत्त और समय पर सेवा निवृत  ( इं Ashok Kumar Sahni के आग्रह पर )
 भूली बिसरी यादों के किस्से बतियाओगे।  जब तुम उतरे यौवन में फिर से मिल जाओगे।। कुछ खोने की गुम होने की एक कसक होगी या पाने की बन जाने की ठाठ ठसक होगी दोनों स्थितियों में सहज कहाँ रह पाओगे।। हम दोनों के जीवन साथी जानें कैसे हों हम दोनों हम दोनों ही थे चाहे जैसे हों टीस रहेगी इस सच को कैसे झुठलाओगे।।
 हद से ज्यादा हसीन हैं फिर भी आप कितनी ज़हीन हैं फिर भी।।  पास उनके महल दुमहले थे  आज ज़ेरे-ज़मीन हैं फिर भी।।  आदमी एहसास छोड़ चुका तो मशीनें मशीन हैं फिर भी।। सख्त जां भी तो हार जाते हैं आप तो नाज़नीन हैं फिर भी।। भाव उनके भी अब नहीं मिलते जोकि कौड़ी के तीन हैं फिर भी।। इतनी शाइस्तगी है नज़रों में आप तो जायरीन हैं फिर भी।। वो हमारी नज़र में क्या होंगें  लाख गद्दीनशीन हैं फिर भी।। मेरी किस्मत में क्यों अंधेरे हैं आप तो महज़बीन हैं फिर भी।। अब न जलवा हुआ तो कब होगा सामने हाज़रीन हैं फिर भी।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 तुम जहाँ हमसे किनारे हो गए। हम वहीं पर बेसहारे हो गए।। झील आंखों में ठहर कर रह गयी और हम टूटे शिकारे हो गए।। तुम हमारे कब रहे दिल से कहो और हम दिल से तुम्हारे हो गए।। दिल को दिल की राह कब मालूम थी और आंखों में इशारे हो गए।।
 तुम कुछ खोये खोये थे ना। दिल के  दर्द  संजोए थे ना।। दामन भी भीगा भीगा है सच कहना कल रोये थे ना।। ख्वाबों में कुछ कम मिलते हो वैसे कल तुम सोए थे ना।। मौसम भी है गीला गीला ग़म के बादल ढोये थे ना।। आज तुम्हें जो शूल चुभे हैं कल तुमने ही बोए थे ना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आप को भी धमाल आते हैं। और क्या क्या कमाल आते हैं।। आप मौका निकालते हैं या मौके खुद को निकाल आते हैं।। जब भी साहिल पे ऊब होती है हम समन्दर उछाल आते हैं।। तुमने देखा है चश्मेनम हमको हम लहू तक उबाल आते हैं।। अपने सपनों को बेचते हैं हम तब तो दिरहम रियाल आते हैं।। वो मेरे मुल्क़ के मसीहा हैं उनको कितने बवाल आते हैं।। ज़िन्दगी रोज़ ज़ख़्म देती है रोज़ हम दर्द टाल आते हैं।। हमको इन डेज़ में यक़ीन नहीं ये जो हर एक साल आते हैं।। साहनी के जेह्न में कुछ तो है शेर क्या बेमिसाल आते हैं।। साहनी,सुरेश कानपुर  9451545132
 अश्क पलकों पे जगमगाने दे। ज़िंदगी गम को मुस्कुराने दे।। नूर चेहरे पे चल के आएगा आस की शम्अ तो बुझाने दे।।
 फिर से विश्वास का दामन थामें टूटती आस का दामन थामें उम्र रो धो के बिताने से भला  हास परिहास का दामन थामें।।
 इक अधूरी गजल का मतला हूँ। या की बेचैनियों का पुतला हूँ।। मेरे हालात पे सवाल तो हैं पर तवारीख़ में सुनहला हूँ।। तुमसे आगे भी और आएंगे फिर न कहना कि मैं ही अगला हूँ।। कल कोई आफ़ताब आएगा हो के महताब जो मैं निकला हूँ।। हाँ मगर मुझपे ऐतबार करो मैं न बदलूँगा और न बदला हूँ।। आज पीकर के लड़खड़ाने दो मुद्दतों बाद आज सम्हला हूँ ।।
 तुम ,समय,तकदीर सबने ही छला है। सूर्य मेरे भाग का जल्दी ढला है।। फूल जैसे डाल से तोड़ा गया हूँ पंखुड़ी दर पंखुड़ी नोचा गया हूँ गंध लेना  फिर मसल देना    कला है।। तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।। हर समय हम साथ चलना चाहते थे तुम बहुत आगे निकलना चाहते थे पाँव में मेरे नियति की मेखला है।। तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।। राह में जब छोड़  तुम चलते बने  किस हृदय से फिर तुम्हे अपना गिनें  और कब सागर नदी से आ मिला है।। तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आज बारिश हुई है जी भर के। पेड़ टूटे  चरर  मरर  कर  के।। हर तरफ जाम हर तरफ फिसलन लोग निकलेंगे बच के डर डर के।। पहली बारिश मे चरमरा उट्ठे हाल बिगड़े निगम के दफ्तर के।। वो विधायक बनेगा हीरो है कौम मेडल भी देगी मर्डर के।। बादलों कर्ज़दार किसके हो इस ज़मीं के कि उस समन्दर के।। ये ग़ज़ल दम न तोड़ दे क्योंकि दर्द इसमें नहीं जहाँ भर के।। सुरेश साहनी
 पीठ खंज़र की सिम्त कर लेंगे यूँ निभाएंगे दोस्ती कर के।।सुरेश साहनी
 देने वाले  जवाब भी दे दे दर्द तेरे सवाल करते हैं।।SS
 बेघर होना बेकल होना। नैनों में नियमित जल होना हम मज़दूरों की नियति है थोड़ा हँसना पल पल रोना।। हम मज़दूरों की आदत है वादों पर भी विह्वल होना।।
 सच से आँख चुराएं कैसे। अन्तस् से बिक जाएं कैसे।। कुछ सुविधाओं के एवज में  ग़ैरत से गिर जायें कैसे।। नोटों में बिकने वालों से अपने वोट बचायें कैसे।। नारी गृह में नेता सोचे अपनी हवस मिटायें कैसे।। मंत्री जी की गिद्ध नज़र से बचे भला बालायें कैसे।। बन्धक अपने खेत पड़े हैं घर रेहन रख आएं कैसे।।। कोरे भाषण से क्या होगा बच्चों को समझाए कैसे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 किसलिये तुम आस के दीपक बुझाते फिर रहे हो। तेज वंशी हो अमावस्या जगाते फिर रहे हो ।। कल तुम्हारे पाप के फल भोगेगी जब सन्तति तुम्हारी क्यों उजालों की जगह पर तम उगाते फिर रहे हो।। क्या तुम्हें विश्वास है दिनमान यह कल फिर उगेगा किसलिये फिर राहु के गुणगान गाते फिर रहे हो।
 धूल जमी है आईने पर ये सच है। या आंखों में धुंध जमी है ये सच है।। नींद नहीं है इन आँखों मे सच है या आज हृदय में बेचैनी है ये सच है।।
 तुम मेरी हरकतों पे उज़्र करो तुम मेरे हौसलों का दम तोड़ो मेरी उम्मीद का गला घोटों तुम मेरी आशिक़ी का फन कुचलो
 तुम्हारा सोचना सचमुच उदास करता है तुम्हारा हो के भी जैसे यहाँ नहीं होना तुम्हारा अपने खयालों में इस तरह खोना महकती शोख फ़िज़ा गमशनास करता है
 तंज़ओ संग झेल जाएंगे। जब मना लेंगे रूठ जाएंगे।। साथ हर दर्द झेल जाएंगे।। और कब तक रहेंगे जाने ज़हाँ ये फफोले भी फूट जाएँगे।। आईना दिल का बच न पायेगा तुम न होगे तो टूट जाएंगे।। सच को दोज़ख भली है अब यारब जबकि जन्नत में झूठ जाएंगे।।
 चढ़ा था हुस्न ढलता जा रहा है। जवां पैकर पिघलता जा रहा है।। हमारे इश्क़ का आलम न पूछो लहू बन कर उबलता जा रहा है।।
 ना पूछो जिंदगी अपनी गंवाई किस तरह मैंने। कमाई किस तरह मैंने लुटाई किस तरह मैंने।। सहारा खलवतों में थी तुम्हारी याद की चादर सुनोगे किस तरह ओढ़ी बिछाई किस तरह मैंने।।
 शुभ समाचार की प्रतीक्षा है। एक अवतार की प्रतीक्षा है।। जिस से भगवान अवतरित होंगे उस अनाचार की प्रतीक्षा है।। धर्म को और डगमगाने दो ये तो हर बार की प्रतिक्षा है।। जो गरीबों के हक में भी सोचे ऐसी सरकार की प्रतीक्षा है।। हर बुरे आदमी की पत्नी को कृष्ण से यार की प्रतीक्षा है।। लोग दायित्व भूल बैठे हैं मात्र अधिकार की प्रतीक्षा है।। एक अच्छी सी गीतिका उतरे इस कलमकार की प्रतीक्षा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हमें तुमको मनाना चाहिए था । तुम्हे भी मान जाना चाहिए था।। हमारी जान जाने से बची है तुम्हे भी यूँ न जाना चाहिए था। जरा सी उम्र है इस चार दिन को हमें संग संग बिताना चाहिए था।। हमारे प्यार में क्या क्या कमी थी तुम्हे कुछ तो बताना चाहिए था।। अगर शक़ था तुम्हे मेरी वफ़ा पर यकीनन आज़माना चाहिए था।। जरा सी बात दिल पर बोझ क्यों है उसी पल भूल जाना चाहिए था।। सुरेशसाहनी
 एक दारूबाज को पुलिस का सिपाही डपट कर बोला, -क्या कर रहा है बे? दारूबाज ने अपने अंदाज में लहराते हुए कहा,-तुम्हारी तनख़्वाह का इंतज़ाम कर रहा हूँ। आप इसे मजाक में ले सकते हैं।किन्तु मैं गम्भीर हूँ। एक दिन मेरी तरह जनता भी गम्भीरता से चिंतन करेगी।लेकिन हैरानी की बात है कि वर्षों से जनता इसे केवल मजाक में ही ले रही है।हाँ कुछ लोग दुखिया दास बने समाज की चिंता में जागते रहते हैं।ऐसे लोग सदैव दुखी ही रहते हैं।।कांग्रेस के टाइम में भी परेशान रहे।उन्हें लोकतंत्र खतरे में ही दिखता रहा। वे काकस, करप्सन , और काला धन पर चिंतित रहे।जनलोकपाल मांगते रहे।उन्हें किसी भी दल की सरकार में कुछ सकारात्मक नही लगा और अब  भी नही लगता है।मैंने कई कॉमरेडों को देखा है कि वे कॉमरेडों को ही गरियाते रहते हैं।उनका गुस्सा तभी खत्म होता है जब उनकी सुविधाओं का इंतज़ाम हो जाता है।या वे पुलिस की तनख्वाह का इंतज़ाम कर लेते हैं। लेकिन पुलिस ही क्यों हम तो पूरी सरकार को चलाने का इंतज़ाम करते हैं। अब ये जान के ऐठने मत लगना, नही तो सलवारी बाबा बना दिए जाओगे।माल्या की तरह भाग भी नही पाओगे। लेकिन जनता समझदार है।शायद इसीलिए आज तक उसे
 अपन दुआर न छोड़िहs भइया। नेह हमार न छोड़िहs भइया।। नाम कमयिहs परदेसे में गॉंव जवार न छोड़िहs भईया।। हाल सनेसा भेजत रहिहs घर से प्यार न छोड़िहs भैया।। केतहुँ रहिहs नीमन रहिहs आस के तार न छोड़िहs भैया।। अपन भुईधरी अपने होले ई अधिकार न छोड़िहs भैया।। सुरेशसाहनी
 शिक्षा अब व्यापार बन गयी। बढ़िया कारोबार बन गयी।। नेता जी हंस कर कहते है शिक्षा कब अधिकार बन गयी।। विद्यालय में अनुशासन है स्टेटस सिम्बल फैशन है फीस समय पर भारी भरकम सेशन है कन्वरसेशन है कमर झुकी जाती बच्चों की शिक्षा जैसे भार बन गयी।। शिक्षा अब शिक्षक अपनी मर्यादा को दायित्वों को भूल चुके हैं कोचिंग में मेहनत करते हैं वेतन इधर वसूल चुके हैं नैतिकता सिखलाने वालों  की अनीति व्यवहार बन गयी।। सुरेशसाहनी
 मैंने मुरझाये चेहरों के साथ बहुत मुस्काना चाहा। मैंने व्यथित हृदय वालों से प्यार किया दुलराना चाहा।। एकाकीपन अंतिम सच है हर महफ़िल झूठी महफ़िल है सत्य यही है मेरी मंजिल  केवल मेरी ही मंजिल है मैंने नाहक कुछ मित्रों को मंजिल तक पहुंचाना चाहा।। ख़्वाब हक़ीक़त क्या हो पाते झूठ बदलता कैसे सच में ईर्ष्या द्वेष दम्भ छल वाली बातें रहीं अगर अन्तस में व्यर्थ उन्हें सम्यक जीवन जीने के ख़्वाब दिखाना चाहा।। सुरेशसाहनी
 चलो पुनः श्रृंगार लिखें प्रिय!  मिलन लिखें अभिसार लिखें प्रिय!!!! दुनियादारी में क्या उलझे हम अपनी सुध भूल गए थे घर परिवार भरण पोषण में झंझाओं में झूल गए थे चलो मुक्ति की युक्ति करें प्रिय! मुग्ध हृदय से प्यार लिखें प्रिय!!!! औ,फिर हममें अनबन है क्या तुम बिन जीवन जीवन है क्या वैसे भी प्रेमी जीवन मे शर्तों पर गठबंधन है क्या हम बंधन पर वार लिए प्रिय तुम पर खुद को वार लिखें प्रिय!!! वैसे भी हम जनम जनम से एक दूसरे की थाती हैं अंधकार से भरे लोक में  मैं और तुम दीया बाती हैं अंधकार को दूर करें प्रिय! जीवन में उजियार लिखें प्रिय!!! सुरेशसाहनी
 और कितना गिरोगे यार!कभी इस मंदिर कभी उस मंदिर कभी धन्ना सेठों के चरणों मे कभी धर्म के ठेकेदारों की दहलीज पर।इतना मत गिरो कि लोग तुम्हें उठाने में शर्माने लग जाएं।गिरते तुम हो भाव पेट्रोल के बढ़ते हैं।आग महंगाई को लगती है।ओले गरीब के सर पड़ते हैं। ऐसे ही गिरते रहे तो एक दिन तुम्हारी स्थिति दलितों की दशा से भी गयी गुज़री हो जाएगी। तुमने रूबल का हश्र तो देखा ही है।खैर तब तुमने रूस की इज़्ज़त बचाई थी।लेकिन अब वो ज़माना नहीं रहा। पश्चिमी सभ्यता के डॉलर तुम्हें छोड़कर निकल लेंगे।पौंड की हालत वैसे भी खराब है।यूरो भी घर का झगड़ा निपटाने में लगा है। तुम भी ब्रिटेन के राजा की तरह पायजामे में रहो।
 तन तो क्या मन भी भीग जाते थे आज वो बारिशें नहीं होतीं।।सुरेश साहनी
 हरे भरे वन बाग  लहलहाती हरियाली दूर दूर तक खेतों में मुस्काती सरसो पीली पीली मन्थर मन्थर गति से चलते पवन झकोरे दूर क्षितिज पर नावों जैसे तिरते बादल आसमान छूने को उत्सुक उड़ते बगुले सुखद प्रकृति संगीत चहचहाहट चिड़ियों की कहीं वृक्ष की ओट कूकती प्यारी कोयल..... सहसा जैसे एक धमाका हुआ कहीं पर चिन्दी चिन्दी फूल हो गए पत्तों पर की ओस गिर पड़ीं आहत होकर मुरझाने सी लगी दूब गिरी धरा पर एक हँसी क्षत विक्षत होकर रो रो कर फिर गीत हो गए मौन अँधियारा हँस पड़ा ठठाकर पेड़ों से पीली हो होकर गिरी पत्तियाँ पर सरसों के फूलों जैसा रंग नहीं था  घाटी का सौंदर्य झुर्रियोंदार हो गया लाज समेटे अनावृत्त हो गईं चोटियाँ तभी सामने मेरे आ गयी एक चढ़ाई चढ़ता जाता हूँ मैं उस दुख पहाड़ पर और अचानक ऊँचाईं से गिरते गिरते भयवश काँप रहा हूँ आंखें फैल गयीं हैं गिरता हूँ मैं गिरता हूँ गिरता जाता हैं पर स्थिति से बचने की कोशिश जारी है और अचानक एक ज्योति सी कौंध गयीं है आहट से खुल गईं आंख सपना टूटा है नहीं चाहना है अब उससे पुनः मिलन की फिर भी दुख है उस प्रवाह के रुक जाने का बहती थी जो कलकल कलकल प्राणदायिनी अमृतमय वह स्वर लहरी ना सुन
 आप जाने किसलिये अक़वाम से जलते रहे। मुल्क़ के हालाते-ख़ैरो-ख़ाम से जलते रहे।। हमको मक़तल में बुलाया बातिलों ने प्यार से आप चल देते फ़क़त पैग़ाम से जलते रहे।। ग़म की रातें काटनी थीं मुख़्तसर   हो या तवील हम चरागों की तरह आराम से जलते रहे।। ज़ीस्त ने रोशन किये थे हासिलों के आफ़ताब बेवज़ह ही आप सुबहो-शाम से जलते रहे।। खुदबखुद क़िरदार मेरा रोशनी से भर गया शुक्रिया जो आप इस बदनाम से जलते रहे।। हममें तो आगाज़ से शौके-शहादत थी अदीब आप किसके वास्ते अंजाम से जलते रहे।। मन्ज़िलों के कैफ़ के तो आप भी हकदार थे किसलिये फिर  मरहलों से गाम से जलते रहे।। सुरेश साहनी कानपुर
 बंगले से इक चिराग निकाला गया तो क्यों। फिर रोशनी के घर से उजाला गया तो क्यों।। मालूम था सभी को ये काटेगा एक दिन फिर आस्तीं में सांप को पाला गया तो क्यों।। यदि आप कह रहे हैं कि खुशहाल मुल्क़ है छिन मुफ़लिसों के मुँह से निवाला गया तो क्यों।। कोरोना में चुनाव कराए थे किसलिए बच्चों के इम्तेहान को टाला गया तो क्यों।।  थे मौन जब कि बेटा मनोनीत था हुआ संसद में रामदीन का साला गया तो क्यों।।  संसद में चोर क्यों गए इसका नहीं मलाल है दुख कि खेत जोतने वाला गया तो क्यों।। दावा था उनका मुल्क़ में आएंगे अच्छे दिन उनसे न ये निज़ाम सम्हाला गया तो क्यों।। सुरेश साहनी, kanpur
 पंचवटी में राम बिराजे कमल नयन सुखधाम विराजे आठ प्रहर  चैतन्य निरंतर जहां लखन निष्काम विराजे वीराने आबाद हुए यूं जंगल में ज्यों ग्राम विराजे सोहे सीय संग रघुवर ज्यों साथ कोटि रति काम विराजे सहज लब्ध है चहुं दिसि मंगल  जहां राम का नाम विराजे कण कण तीरथ हुआ प्रतिष्ठित जब तीरथ में धाम बिराजे सुरेश साहनी कानपुर
 इश्क़ भटका किया वीरानों में। हुस्न  आबाद है  ऐवानों  में।। हुस्न महफ़िल में बुझा रहता है इश्क़ रौशन है बियावानों में।।  होश आया तो चले मयखाने हुस्न अब भी है सनमखानों में।। बोझ यादों का तेरी लाद सके अब नहीं दम वो मेरे सानो में।। कल हकीकत से बना कर दूरी हुस्न शामिल  हुआ अफसानों में।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुम्हारे साथ गुजरा कल कहाँ है। मिले थे जब वो पहला पल कहाँ है।। बिछाया था मेरी राहों में जिसको  तुम्हारा रेशमी आँचल कहाँ है।। बचाता था हमें जो बदनजर से तुम्हारी आँख का काजल कहाँ है।। चलो माना बहुत मेहनत की तुमने तुम्हारी कोशिशों का हल कहाँ है।। नदी नाले नहीं गंगा दिखाओ बताना फिर कि गंगाजल कहाँ है।। तुम्हे पूजा तुम्हे चाहा है लेकिन बताओं प्यार का प्रतिफल कहाँ है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ईद के जैसी ईद नहीं है। जश्न कोई मुनकीद नहीं है।। आज उस माँ ने चाँद न देखा कल जुनैद की ईद नहीं है।। सब्र कहाँ तक कितना रक्खें जब कोई उम्मीद नहीं है।। क़ौम तरक्की कैसे करले ज़ाहिद हैं तौहीद नहीं हैं।। त्योहारों में जश्न न होंगे ऐसी भी ताईद नहीं है।। तकरीरों में खामोशी है मौजूं है तमहीद नहीं है।। अकलीयत पर मज़लूमों पर ज़ुल्म न हो ताकीद नहीं है।। बच्चे खुश हैं खुश रहने दो दुनिया नाउम्मीद नहीं है।।
 न पूछो मुल्क़ में गर्मी का आलम लहू की प्यास वाले बढ़ गए हैं।।
 मित्र इतने ढेर सारे किसलिए लादे फिरे हो बोझ मत डालो जेहन पर हो सके जल्दी हटा दो सिर्फ़ दो पल पास अपने बैठ कर खुद को तलाशो ज़िन्दगी का सबसे बेहतर दोस्त तुममे ही मिलेगा
 हम इसी वास्ते निकल आये। इत्तेफाकन न बात चल जाये।। बेख़ुदी राह में न दम तोड़े लड़खड़ाकर न दिल सम्हल जाये।। तितलियों धूप में न इतराओ पंख नाजुक कहीं न जल जाये।। मैंने कल ख़्वाब में उसे देखा बात उसको पता न चल जाये।। रहती जन्नत को देख ले तो फिर शेख भी मयकदे में ढल जाये।। फिर भी मौसम पे एतबार तो है आदमी कब कहाँ बदल जाये।। इश्क़ के फेर में न डाल हमें ये न हो हाथ से ग़ज़ल जाये।। Suresh sahani, kanpur
 हासिलें है तो सफर लाज़िम है। इश्क़ का दिल पे असर लाज़िम है।। आज लगता है तो फिर हो जाये मुल्क़ में एक गदर लाज़िम है।। नाख़ुदा ख़ुद को ख़ुदा समझे तो उस समन्दर में भंवर लाज़िम है।। उसको तुम प्यार के उपदेश न दो ज़हर कटने को जहर लाज़िम है।। जबकि मुर्दों को भी घर मिलता है सो गरीबों को भी घर लाज़िम है।। हम तो मयकश हैं गुनहगार नहीं  शेख साहब को ये डर लाज़िम है।। ग़म के दरिया से न घबरा शायर इसमें तुफानो- बहर  लाज़िम है।। सुरेशसाहनी, कानपुर 9451545132
 इस तरह अजदाद के किस्से कहानी भूलकर खो गए मशरिक़ में हम अपनी निशानी भूलकर हम गुलामी से बचे लेकिन गुलामी ओढ़ ली सीख ली   अंग्रेजियत हिन्दोस्तानी भूलकर।।
 कब माने हैं कोई व्याकरण कलम प्रेम में जब चलती है। टेढ़े मेढ़े करती विचरण कलम प्रेम में जब चलती है।। मिलती है तो प्रेयसि की अलकों से करती है क्रीड़ा और विरह में तरह तरह से भरती है अन्तस् में पीड़ा प्रेम समान मानती है रण कलम प्रेम में जब चलती है।। भावनिष्ठ जब जब रहती है सँजोती है रीति पुरातन भावप्रवण होकर करती है मर्यादाओं का उल्लंघन करती है उन्मुक्त आचरण कलम प्रेम में जब चलती है।। कलम कभी सीता सी चलकर पति पद का अनुसरण करे है कभी उर्वशी रम्भा बनकर यतियों के तप हरण करे है करती है सर्वस्व समर्पण कलम प्रेम में जब चलती है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ऐसा करता हूँ बादल हो जाता हूँ तुमको यूँ भी सावन अच्छा लगता है।
 बस्ती बस्ती पर्वत पर्वत केवल उसकी बात। दिन भर उसके चर्चे उसके किस्से सारी रात।।
 अपना जनसेवक विदेह है। ऐसे में जन जवाबदेह है।। कुर्सी तो जनता ने दी है इस हित कुर्सी से स्नेह है।।
 भटक रहे हैं अब भी वन वन जाने कितने राम। मातु पिता के आदर्शों की ख़ुद पर कसे लगाम।। कैकेयी सी कोप भवन में बैठी हैं छलनाएँ पिता विवश हैं कैसे तृष्णाओं पर कसे विमायें शीथिल दशरथ इन्द्रिय गति को कैसे लेते थाम ।। भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।....... कभी अवधपति और कैकई  एक व्यक्ति होते हैं और मंथरा चरित भ्रमित कुछ नेक व्यक्ति होते हैं कभी कभी वन से दुरूह हो जाते हैं घर ग्राम।। भटक रहे हैं अब भी वन में जाने कितने राम।
 अर्श तक नज़रे-दूरबीन भी रख। और पैरों तले  ज़मीन भी रख।। सांप हों या न हो गुरेज नहीं बाँह रखता है आस्तीन भी रख।। ख़ूब सबका ख़याल रखता है अपने बारे में छानबीन भी रख।। तू मदारी है जान ले मंतर साथ अपने तमाशबीन भी रख।। फर्क क्या है शहर हो या जंगल  पालना साँप है तो बीन भी रख।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ख़ुद से आगे निकल रहे हो तुम। सच कहो किस को छल रहे हो तुम।। लोग  कपड़े  बदल  नहीं  पाते जैसे तेवर बदल रहे हो तुम ।। सूं ए मंजिल न जायेगी हरगिज राह जिस पर कि चल रहे हो तुम।। आने वाली है शब ठहर जाओ अल सुबह क्यों मचल रहे हो तुम।। कल भी अपना ही कल रहोगे प्रिय कल भी अपना ही कल रहे हो तुम।। सुरेश साहनी कानपुर
 सब चले राहे-मुहम्मद अहले-क़ुरआं हो गए। तब कहाँ से इतने मसलक-ए-मुसलमाँ  हो गए।।
 जिंदगी जीने की ये जद्दोजहद ये रंज-ओ-ग़म बेतरह दुश्वारियां ये उलझनें ये पेचो-ख़म उस पे उनका हुस्न उनके नाज़ उनके ज़ेरो बम मेरे राहे इश्क़ में बढ़ने नहीं देते  कदम।।SS
 तुम नहीं हो तो किसे याद करें । तुम अगर हो तो किसे याद करें।। दिल में यादें हैं दर्द है गम हैं  और कितना इसे आबाद करें।। आईये दिल को तोड़ने के लिए एक तरीका नया इज़ाद करें।।
 जिस्म जब भर निगाह देखा कर। बेबसी रंज़ आह देखा कर।। मेरा दमन टटोलने वाले दाग खुद के सियाह देखा कर।। एक तेरी वज़ह से दिलवाले कितने दिल हैं तबाह देखा कर।। जो तेरा मुन्तज़िर अज़ल से है यार उसकी भी राह देखा कर।। दूसरों पर सवाल कर लेकिन पहले अपने गुनाह देखा कर।। रोशनी अपने घर मे कर पहले फिर कहीं खानकाह देखा कर।। लड़ने वाले भी जा के करते हैं मयकदे में निबाह देखा कर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मुल्क़ की ज़िल्लत का सामां हो गए। सब जहाँ में हम पशेमां हो गए। नेक एहसासात ही जाते रहे जब से हम हिन्दू -मुसलमां हो गए।।SS
 आज बारिश हुई है जी भर के। पेड़ टूटे  चरर  मरर  कर  के।। हर तरफ जाम हर तरफ फिसलन लोग निकलेंगे बच के डर डर के।। पहली बारिश मे चरमरा उट्ठे हाल बिगड़े निगम के दफ्तर के।। वो विधायक बनेगा हीरो है कौम मेडल भी देगी मर्डर के।।
 घर है जिस से घर का कोना कोना भी।। माने तो रखता है उसका होना भी।। उस बिन घर का सोना जैसे माटी है वो है तो माटी माटी है सोना भी।। जिसकी बातों में इतना अपनापन है पाना है उसकी बातों में खोना भी।। बोझ विरासत का इतना आसान नहीं रीति रिवाजों को मुश्किल है ढोना भी।। उसकी बातें भी मनभावन होती हैं मनमोहक है उसका रूप सलोना भी।। जब लड़ती है ज़्यादा प्यारी लगती है निश्चित करती होगी जादू टोना भी।। बातें करना या चुप रहना कुछ भी हो वो है तो है घर का हँसना रोना भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जिस मुहब्बत से पास आये थे उस मुहब्बत को भूल बैठे हो। तुम हमारी वफ़ा के आदी थे ऐसी आदत को भूल बैठे हो।। मयकशी से था एतराज किसे मयकशी तो तुम्हारा शौक रहा प्यार करना तुम्हारी फितरत थी अपनी फ़ितरत को भूल बैठे हो।। लौट आओ कि उन पलों में चले जो तेरी क़ुर्बतों में गुज़रे हैं कैसी ज़हां में पहुँच गए हो तुम अपनी जन्नत को भूल बैठे हो।।
 थे शरीके सफर न पहुँचे हम। घर से अपने ही घर न पहुँचे हम।। रूह से दो कदम पे जन्नत थी जिस्म से उम्र भर न पहुँचे हम।। वो हमारे शहर में रहता है और अपने शहर न पहुँचे हम।। उस ख़ुदा की अना से बाज़ आये वो जिधर था उधर न पहुँचे हम।। खाक़ पाते अगर पहुँच जाते खाक़ छूटा अगर न पहुँचे हम।। आप भी अर्श पर न रह पाये खैर है बाम पर न पहुँचे हम।। इक दफा मयकदे टहल आये फिर किसी दैरो-दर न पहुँचे हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जन्म जन्म की साध हमारी  रघुवर इतना तो समझोगे। फिर भी नाव न चढ़ पाओगे जब तक पांव न धुलने दोगे।।
 फिर मत कहना तैयार न था। सच कहना उससे प्यार न था।। उसकी मंज़िल थी तेरा दिल तेरा ही पारावार न था ।। इससे लेना उसको देना ये प्यार कोई व्यापार न था।। तुम एक न एक दिन सोचोगे वो अच्छा था बेकार न था।। उसको ग़म दे डाले जिसको तेरा दुःख स्वीकार न था।। माना उसमें भी कमियां थी पर तू भी कम ऐयार न था।। बेमौसम आंसू बरसेंगे इन आँखों से आसार न था।। वो शीशे सा दिल तोड़ दिया तुमको इसका अधिकार था।। ऐ काश कि वो ताज़िर होता पर दिल उसका व्यापार न था।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हम अपने पारंपरिक शत्रु चीन को ही प्रथम शत्रु मानते रहते तो यह स्थिति नही बनती।किन्तु नेहरू से लेकर मोदी तक भारत प्रवंचना में जीता रहा है।नेहरू जी ने पंचशील के सिद्धांत बनाएं।गुट निरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया।अमेरिका सहित वैश्विक शक्तियों से समान दूरी बनाई।किन्तु चीन जैसे हमारी शांति की अवधारणा को हमारी कमजोरी मानकर अवसर की प्रतीक्षा में बैठा था।उसने नवोदित भारत को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका भी नही दिया।और सीमा विवाद के बहाने भारत की जमीन ही नहीं हथियाई बल्कि सम्राट अशोक के समय भारत की आध्यात्मिक यज्ञशाला और एक बड़े बफर इस्टेट तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया।इसके साथ ही भारत के एक बड़े भूभाग पर भी कब्ज़ा कर लिया।आज भी यह दुष्ट राष्ट्र भारत समेत अपने सभी पड़ोसी शांतिप्रिय देशों को हानि पहुँचाता रहता है या कुचक्र रचता रहता है।  मैं एक भारतीय होने के नाते भारतीय प्रधानमंत्री के साथ खड़ा हूँ।मुझे पता है कि माननीय मोदी जी की मंशा उतनी ही साफ़ है जितनी नेहरू जी की थी।वे भी नेहरू जी की भांति देशहित के मामले ने निष्कपट हैं।किन्तु यह दुनिया और दुनिया के कुछ मुमालिक इतने निष्कपट या अच्छे नही  हैं। शायद नेह
 श्याम अगर इस युग में होते क्या कालीदह जलने देते। शस्य श्यामला इस धरती पर किन्चित पाप न पलने देते।। शिशुपालों ने गाली देकर मर्यादाएं खंडित की हैं दुष्ट शकुनियों ने हर घर की नींव शिलायें खंडित की हैं चीरहरण दुष्कर्म अनवरत क्या तुम यूँ ही चलने देते।। द्रोण आज भी काट रहे हैं प्रतिभाओं के अंक अंगूठे फिर औचित्य सिद्ध करने को गढ़ते हैं  वे तर्क अनूठे क्या तुम  ज्ञानयोग साधक को अर्थयोग से छलने देते।। पुत्र मोह अब रीति बनी है कितने पिता आज अंधे हैं रिश्ते अपमानित होते हैं पितामहों के हाथ बंधे हैं क्या तुम इन मन के कालों को कुत्सित चालें चलने देते।। श्याम अगर इस कालयवन फिर से पश्चिम की सीमाओं को लाँघ रहा है जरासंध के उकसावे पर काली नज़रें डाल रहा है क्या माँ के आंचल पर कलुषित कुटिल दृष्टि को पड़ने देते।। श्याम अगर
 फुटबॉल भारत का राष्ट्रीय खेल है।एक बच्चे ने जीके में यही उत्तर दिया था।बाकी के बच्चे हँस दिए थे।क्योंकि वे सब जानते थे कि नए भारत का राष्ट्रीय खेल फुटबाल नहीं क्रिकेट है। पता नहीं किसलिए किताबों में क्रिकेट की जगह हॉकी लिखा रहता है। उससे अच्छी जानकारी तो गूगल बाबा देते हैं।जैसे गूगल पर इन दिनों नेहरू जी को मुसलमान और हर विपक्ष समर्थक को देशद्रोही बताया जा रहा है।   वैसे तो भारत मे पूरा सिस्टम ही फुटबाल है तथा  सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दो टीम हैं। हमारे देश की जनता भी फुटबाल ही है, जिससे नेता और नौकरशाह खेलते रहते हैं।  कई बार तो पार्टियां अच्छे खासे नेता को फुटबाल बना देती हैं।समझदार नेता अपनी हवा खुद ही निकाल कर चुपचाप कोना पकड़ लेता है।  लेकिन बात तो असली फुटबॉल की चल रही है। पता नहीं क्यों हमारे अनूप शुक्ल जी ने इस पर जुगलबन्दी की बात चला दी।जबकि भारत मे फुटबाल गोलबंदी से जुड़ा विषय है। फिलहाल हमारा मीडिया दस पन्द्रह दिन फुटबाल मय हो जाता है।स्टूडियो बड़े मैदान सा नजर आएगा। एंकर फुटबाल की तरह उच्छलते मचलते नजर आएंगे।पता नहीं कहाँ से दिल्ली के आसपास से तीन चार अंतरराष्ट्रीय फुटबाल विशेष
 हम विश्व गुरु थे हमारा पतन हो गया हज़ारों साल दबे रहे अब उबरे हैं हम फिर पतन नहीं चाहते  समझे गुरु!!!!
 या हमें रास्ता दिखा दीजै। या सलीके का मशविरा दीजै।। सिर्फ़ इस्मे-शरीफ़ पूछा है अपनी औक़ात मत बता दीजै।। आप भी हैं इसी मुहल्ले में यूँ शरारों को मत हवा दीजै।। लोग रहते हैं किस मुहब्बत से इनको आपस में मत लड़ा दीजै।। या मेरे दर्द की दवा करिये या मेरे दर्द को बढ़ा दीजै।। आप गमख़्वार हो नहीं सकते कुछ न दीजै तो हौसला दीजै।। हम तो आदम के ख़ानदानी हैं आप भी अपना सिलसिला दीजै।। सुरेश साहनी कानपुर
 भीड़ में  तन्हाइयों का साथ दो। वक़्त की रानाईयों का साथ दो।। उम्रभर हरजाईयों का साथ दो। वक़्त पर अच्छाईयों का साथ दो।। तीरगी में छोड़ जायेंगी मगर आज इन परछाइयों का साथ दो।। प्यार पाना है तो छुपना छोड़कर वज़्म में रुसवाइयों का साथ दो।। सीख लो लिपटी लता से प्रियतमे फागुनी अंगड़ाईयाँ का साथ दो।। गर्मियां सर पीट कर रह जाएंगी बारियों अमराईयों का साथ दो।। पेंग सावन में बढ़ा दो प्यार की झूमकर पुरवाईयों का साथ दो।। आज के सारे भले धृतराष्ट्र हैं इसलिए बीनाइयों का साथ दो।। मौन ठूंठों में लुटी थी द्रौपदी कृष्ण जैसे भाईयों का साथ दो।।  फिर से तुमको ज़िन्दगी धोखा न दे मौत के सैदाइयों  का साथ दो।। भीड़ से बाहर समझ लो मौत है भीड़ में तन्हाइयों का साथ दो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्रेम को देखा नहीं है प्रेम की अनुभूति की है माँ पिता जी साथ मिलकर नित्य प्रति तैयार करके नाश्ता और टिफिन दोनों प्रेम से देते थे हरदम यह कि बेटा लेट ना हो मॉड्यूलर सा कुछ नहीं था हाँ मगर मिट्टी का चूल्हा था मेरे घर एक कोयले की अँगीठी और दोनों साफ सुथरे  माँ उन्हें नित साफ करती लेपती मिट्टी से नित प्रति और उस चूल्हे की रोटी दाल खाकर हमें जो संतुष्टि मिलती उसकी वजह प्रेम की सोंधी महक  थी आत्मीयता के स्वाद से लिपटा   सचमुच प्रेम वह था...... सुरेशसाहनी, कानपुर
 अब देश कमजोर करने के लिए किसी बाहरी ताकत को कुछ नहीं करना पड़ेगा। पूरे देश मे बना भयावह वातावरण इस के लिए पर्याप्त है। किंतु इसके लिए कोई दल विशेष दोषी नहीं है।इसके लिए वे सभी व्यक्ति,नेता अथवा दल दोषी हैं,जिन्होंने अपने राष्ट्रीय नेताओं को अपना रोल मॉडल तो बनाया किन्तु उनके सिद्धान्तों और जीवन मूल्यों से सदैव किनारे रखा।   वे सभी लोग दोषी हैं जिन्होंने मात्र विरोध के नाम पर विरोध की राजनीति की और देश के विकास में बाधा डालते रहे। इसका एक उदाहरण कंप्यूटर तकनीक के विरोध में बैलगाड़ी वाला प्रदर्शन भी है।  उन सभी फर्जी समाजवादी नेताओं का दोष भी है जो समाजवाद के नाम पर राजनीति में सफल तो हुए ,किन्तु सत्ता पाते ही समाज से विमुख हो गए।  वे अल्पसंख्यक नेता भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी ऊर्जा अपने समुदाय के सांगोपांग विकास की जगह केवल उनकी मज़हबी पहचान बनाये रखने में लगा दी। जबकि इस संकीर्ण सोच ने अल्पसंख्यक समुदायों को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से बाहर कर दिया। वे अम्बेडकरवादी भी ज़िम्मेदार हैं जो बाबा साहेब के नाम पर राजनीति तो करते हैं परंतु अपने समाज को सही दिशा देने की बजाय केवल जातिय घृ
 कहानी से उभर आये कई किस्से,कहानी में। रवानी से उभर आये कई किस्से, रवानी में।। किसी की बात क्या करते कहीं की बात क्या करते उसी से कब उबर पाये नई की बात क्या करते पुरानी से उभर आये कई किस्से पुरानी में।। किसे मुंसिफ़ बनाते हम व्यथा किसको सुनाते हम मेरे मुख्तार थे जब तुम तुम्हें कैसे मनाते हम बयानी से उभर आये कई किस्से,बयानी में।। कहानी अपनी उल्फ़त की ज़माने से अदावत की तेरी तस्वीर सीने में निशानी है मुहब्बत की निशानी से उभर आये कई किस्से, निशानी में।।
 आप यूँ ही तो नहीं चहके थे। जो गुलाबों की तरह दहके थे।। हमने माना है खता भौरे की कुछ तो गुल के भी कदम बहके थे।। रात कुछ नींद भी बेहतर आई ख़्वाब जो गुल की तरह महके थे।। कल मैं गुलशन में नमूदार हुआ तुम जो कोयल की तरह कुहके थे।। तुमने आबाद कर दिया वरना हम बियावान की तरह के थे।। साहनी सुरेश कानपुर वाले 9451545132
 क्या जानो तरुणायी है क्या। जाने पर भरपाई है क्या।। ये शहरों में मिलने वाली कोई नज़र लजायी है क्या।। जीवन है अनमोल खजाना  कोई आना पाई है क्या।। लज्जा गांवों में बसती है शहरों में रुसवाई है क्या।। कब देखा महुए का चूना क्या जानो अमराई है क्या।। कितनी चहक रही है कोयल पी से मिलकर आई है क्या।। तुम एसी कल्चर के जाए क्या जानो पुरवाई है क्या।। उसने मीठी गाली क्यों दी वो अपनी भौजाई है क्या।। सुरेश साहनी कानपुर
 सदियों सदियों हार हार कर लहरों सा सर मार मार कर सत्यवती की तरह समर्पण- करना है तो मत विचार कर झंझावात प्रलय दावानल आँधी या घनघोर घटायें बुझना ही है ,बढ़ना ही है- अँधियारा क्या दीप जलाएं पूर्वज अगणित मरते देखे वंश वृद्धि का मोह न छूटा फिर फिर पीड़ा प्रसव सरीखी भुला काम ने यौवन लूटा मेरे हाथ स्वयं शीथिल हैं मैं किसको क्या बाँध सकूँगा कोष हीन मैं ,शक्ति हीन मैं किंचित कुछ भी दे न सकूँगा कामी कपटी पुत्र हुए जो  मधुप्रेमी रोगी या भोगी वीर्यविचित्र पुत्र यदि होंगे आशायें धुसरित ही होंगी ऐसी सन्ततियों के बल पर  आखिर किससे रार ठान लें इससे बेहतर मौन धार ले नीयति को उपहार मान लें यदि आशीष लगे उपयोगी यह ले लो कुछ शेष बचा है होनी अनहोनी क्यों सोचें विधना ने जब यही रचा है।। सुरेशसाहनी
 मेरी बिगड़ी हुयी तकदीर का सानी न मिला। गया हाजत को तो संडास में पानी न मिला।। इक न इक हर्फ़ हर तहरीर में छूटा निकला । पानी थोड़ा ही मिला लोटा भी फूटा निकला।।SS
 तुम अमृत पी लेते ख़ुद को देव तुल्य हो जाने देते। अपने गरल हमें दे हमको नीलकंठ हो जाने देते।। हमने कब रोका था तुमको सब आकाश तुम्हारा ही था बीच राह में टूट गया जो वह विश्वास तुम्हारा ही था दीप जलाते आशाओं के तूफानों को आने देते।। अपने गरल... शाश्वत प्रेम भूलकर तुमने अनुबंधों का जीवन जीया देह अर्थ आसक्त कृतिम किन सम्बन्धों का  जीवन जीया भाव प्रधान प्रेम अपनाते कुछ खोते कुछ पाने देते।।अपने गरल.... सुरेशसाहनी
 कुछ लोग जी रहे हैं कुछ लोग मर रहे हैं इस मस्लेहत से वाकिफ सारे गुज़र रहे हैं इतनी बड़ी बगावत क्यों आप कर रहे हैं सुन देख तो रहे थे सच बोल भी रहे हैं कुछ लोग मर रहे हैं क्या फर्क पड़ रहा है जब सौ करोड़   मुर्दे इंसान जी रहे हैं दुनिया को क्या हुआ है दुनिया तो चल रही है दुनिया की फ़िक्र में क्यों बेज़ार हो रहे हैं मज़हब परस्त कोई  इंसान कब रहा है ये जानवर हैं सारे खूँख्वार हो गए हैं हथियार ले के दुनिया आपस मे लड़ रही है हथियार से अमन के ऐलान हो रहे हैं दुनिया बनाने वाला ख़तरे में है बताकर मज़हब चलाने वाले सब मौज कर रहे हैं सुरेशसाहनी, कानपुर
 है मगर कंदील जैसा दिल नहीं। झील होकर झील जैसा दिल नहीं।। क्या किसी को रास्ता दिखलाओगे तुममें संगे-मील जैसा दिल नहीं।।
 लोग मन मे लिए डर पीते हैं। हम तो हँस हँस के ज़हर पीते हैं।। तब हमें होश कहाँ रहता है उनकी आंखों से अगर पीते हैं।। आप मे आग है रहने दीजै हम भी शोला ओ शरर पीते हैं।। हम कहाँ पीते हैं पीने वाले रात दिन शामो-सहर पीते हैं।। शेख है ख़ौफ़े ख़ुदा से तिशना हम तो रखते हैं ज़िगर पीते हैं।।
 बहुत से लोग मुझे जानते तो हैं लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते  यही सच है।।
 आज तक सबने सुनाई जानी पहचानी ग़ज़ल। रूप की रानी ग़ज़ल है हुस्न के मानी ग़ज़ल।। साहनी तन्हा जिये हैं ज़िन्दगी तो फिर किसे आज हम जाकर सुना देते बियावानी ग़ज़ल।। दरदेदिल के वास्ते यारों ने नुस्खे भी पढ़े कोई लुकमानी ग़ज़ल  कोई सुलेमानी ग़ज़ल।।
 शब्द चयन है जितना अनुपम भाव मेरे उतने ही पावन। भावों की बारिश में भीने निर्मल कर देते हैं तनमन।। भावों की सरिता में डूबा कविता की गागर ले उबरा
सब्र को भी बुजदिली कहना बड़ा आसान है जब कभी वालिद रहोगे तब समझ मे आएगा।।साहनी
 उन नैनों में झूल गया फिर। इश्क कहां स्कूल गया फिर।। स्मृत थीं कितनी गाथाएं आज स्वयं को भूल गया फिर।। इश्क़ गोपियों को देकर वह कब कालिन्दी कूल गया फिर।। एक फूल लेने आया था देकर कितने शूल गया फिर।। पनघट से प्यासा लौटा मैं मिलना आज फिजूल गया फिर।।
 मिलने में रुसवाई थी क्या। तुम सचमुच बौराई थी क्या।। फिर किसका अफसोस करें हम साथ खजाना लाई थी क्या।। क्यों जाने पर इतना हल्ला मौत बता कर आई थी क्या।। चेहरा ढक कर ही क्यों जाना आदत से हरजाई थी क्या।। शाखे गुल इक लचकी तो थी वो उनकी अंगड़ाई थी था।। मयकश अच्छे भी होते हैं कोई और बुराई थी क्या।। कौन साहनी फर्जी कवि है कविता नई सुनाई थी क्या।। सुरेश साहनी कानपुर
 हम थे प्रेम पथिक जाने कब राह भटक कर इधर आ गए। मेरे गीतों में जाने कब राजनीति के रंग आ गए।। उधर जोड़ना  इधर तोड़ना उधर मनाना इधर थोपना उधर शान्ति नन्दन कानन की इधर मरुस्थल जैसी तृष्णा हम तिरसठ के योगी कैसे घटकर छत्तीस भोग पा गये।।हम थे..... एक तरफ मस्तों की टोली दूजी ओर कुटिलताएँ हैं अपने मन को हम मधुवन से कंटक पथ पर ले आये हैं उधर बुहरती राह हमारी इधर मित्र काँटे बिछा गये।।हम थे... जीवन था सतरंगी सपने- कभी रूपहरे कभी सुनहरे आज व्याकरण बद्ध हो गए कड़वे कर्कश कुटिल ककहरे आज विवशता है दोहरापन गिरगिट भी हमसे लजा गये।।हम थे...
 मयकदे में भी रहा शेखो-बरहमन आदमी बेख़ुदी में  होश रहना मयकशी में कुफ़्र है।।SS
 ज़हाँ अदब भी सियासत की बात करता है। कोई तो है जो मोहब्बत की बात करता है।। सभी शुमार हैं फिरका परस्तियों में  जब ये कौन मुल्क़ की मिल्लत की बात करता है।। ख़ुदा की नेमतों का शुक्रिया तो करता चल क्यों वाहियात क़यामत की बात करता है।। वतन से बढ़के कोई भी ज़हाँ हसीन नहीं तू हमसे कौन से जन्नत की बात करता है।। सुरेश साहनी कानपुर
 मयपरस्ती से कीजिये तौबा। और फिर कह के पीजिये तौबा।। कौन मुल्ला की फ़िक्र करता है गर ख़ुदा कह दे कीजिये तौबा।। करके वादा वफ़ा नहीं करते शौक़ से उनको भेजिये तौबा। इक दफ़ा होठ से लगा लीजै और फिर कर के देखिये तौबा।। चीज़ यह भी ख़ुदा की नेमत है शुक्रिया कह के लीजिये तौबा।। सुरेश साहनी कानपुर
 थे कभी अब तो गुज़िश्ता हो चुके हैं। छोड़िये हम लोग मुर्दा हो चुके हैं।। जा चुकी अफ़सोस करने की घड़ी अब कई इबलीस ज़िंदा हो चुके हैं।। भीड़ के सर सिर्फ चढ़ते हैं फ़रेब कह के सच हम लोग तन्हा हो चुके हैं।। उस मदारी के हुनर की दाद दें सब तमाशाई तमाशा हो चुके हैं।। उस ख़ुदा के पास ताकत थी कभी नाख़ुदा उससे भी ज़्यादा हो चुके हैं।। हम भी थे किनके जुनून-ए-इश्क़ में जो रक़ीबों से शनासा हो चुके हैं।। अब तो सच लिखने से बाज आ जाईये झूठ वाले सब शहंशा हो चुके हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 कन्दील उसने सिर्फ़ जलाए तो इसलिए क़िरदार उसके चाँद का मद्धम लगा उसे।। सूरज भी उसके वक़्त का कुछ कम लगा उसे।। दिन में भी जैसे रात का आलम लगा उसे।।
 अपना शासन है करो जम कर नङ्गा नाच। यूपी दिल्ली एक है कौन करेगा जाँच।।सुरेश साहनी
 एक  पुरानी ग़ज़ल सुनोगे। आज सुनोगे कि कल सुनोगे।। वही सुनाऊँ उल्फ़त वाली या फिर उसका बदल सुनोगे।। कैसे इन शातिर आंखों से   बातें सीधी सरल सुनोगे।। क्या अब भी उस भोलेपन से बैठ हमारी बगल सुनोगे।। बस इल्ज़ाम लगा बैठे थे किसने की थी पहल सुनोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कभी तो मेरे लबों से भी गुनगुनाया कर। कभी तो मुझको मुहब्बत से आज़माया कर।।
 एक गीत तुम तट तीर विहरना प्रियतम भव मंझधार मुझे दे देना मधुवन मधुवन जीना जीवन  सब पतझार मुझे दे देना...... आतप शीत वृष्टि की सारी पीड़ाएँ मुझको दे देना ऋतू बसन्त हेमन्त शिशिर से निज तन मन सुखमय कर लेना रंग महल में तुम रह लेना दुख के द्वार मुझे दे देना........ मधुवन....... बचपन से लेकर यौवन तक कब तुमसे कुछ भी मांगा है किन्तु तुम्हारे से सनेह का यह जो कोमलतम धागा है यह भी बोझ लगे यदि तुमको इसका भार मुझे दे देना... मधुवन...... इस पीड़ा में कितना सुख है प्रेम प्रेम में रोना भी है पा लेना ही प्रेम नहीं है कभी कभी कुछ खोना भी है तुम राधा मैं श्याम बन सकूं यह अधिकार मुझे दे देना.... मधुवन.... सुरेश साहनी कानपुर
 बता दो मेरा जनाज़ा है ये बरात नहीं। हमें पता है वो रूठे है कोई बात नहीं।। सुनहरी धूप खिली है हमारे मर्ग के रोज़ वफ़ा के वास्ते इस से सियाह रात नहीं।। तुम्हारे ग़म अगरचे साथ हैं तो ग़म क्या है कि चंद खुशियां लुटी हैं कोई हयात नहीं।।
 ज़ीस्त तनहा निकाल दे मौला। या कोई हमख़याल दे मौला।। पेशतर कुछ ज़बाब देता चल फिर कोई भी सवाल दे मौला।। नाख़ुदा भी तेरे भरोसे हैं डूबतों को उछाल दे मौला।। हम भी हैं तेरी सरपरस्ती में इक नज़र हम पे डाल दे मौला।। तेरे जैसा कोई करीम नहीं कोई  किसकी मिसाल दे मौला।। सुरेशसाहनी
 हम भी तुम पर वार चुके हैं यूँ ही नहीं बावरी हो तुम। तन मन तुम पर हार चुके हैं यूँ ही नहीं बावरी हो तुम।। गुड्डे गुड़ियों वाले दिन से चूल्हे चकियों के आंगन तक बचपन के भोलेपन से ले यौवन वाले अल्हड़पन तक सौ सौ नज़र उतार चुके हैं यूँ ही नहीं साँवरी हो तुम।। अब तक  तुमने खेल खिलौने अठखेली में समय बिताया मेरा हृदय लिया तो तुमने किन्तु उसे कितना अपनाया हम यह भी स्वीकार चुके हैं यूँ ही नहीं भ्रामरी हो तुम।। बचपन मे देखा करती थी पुलकित हर्षित विस्मित होकर पहली बार निहारा बेशक़ तुमने स्नेह-लाजयुत होकर हम भी सतत निहार चुके हैं यूँ ही नहीं मदभरी हो तुम।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आईना बनकर के  पछताता हूँ मैं। दुश्मनी सब से लिए जाता हूँ मैं।। एक दिन मानेंगे सब शंकर मुझे हर हलाहल कंठ तक लाता हूँ मैं।। एक दिन जल जायेगा तेरा ही घर ऐ पड़ोसी तुझ को समझाता हूँ मैं।। बाप मत बन चीन की चालें समझ दोस्त से बढ़कर बड़ा भ्राता हूँ मैं।। आसमां का कद लिए भटका बहुत आज खुद कोफर्श पर पाता हूँ मैं।। आज खुद उलझा हुआ हूँ हैफ है उलझने औरों की सुलझाता हूँ मैं।। मस्जिदों-मंदिर में भटका  बेसबब मैकदे की राह अब जाता हूँ मैं।। सुरेशसाहनी
 आज पितृ दिवस पर एक संक्षिप्त भाषण देते समय मेरी आँख भर आई।मैंने अपने पिता से बेहतर कोई मित्र नहीं पाया।उनकी स्मृति में मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी थी।प्रस्तुत है। बाँहों में अपनी हमको झुलाते थे जो,गये।  सीने पे अपने हमको सुलाते थे जो,गये॥  कांटे मेरी डगर से हटाते थे जो,गये।  ऊँगली पकड़ के चलना सिखाते थे जो,गये॥  कन्धा जरा सा देने में हम पस्त हो गये काँधे पे अपने रोज घुमाते थे जो,गये॥  हम चूक गये हाय इस ख़राब दौर में, ,हाँ हर बुरी नजर से बचाते थे जो,गये॥ गम और ख़ुशी के मशविरे किससे करेंगे हम मुश्किल घड़ी में राह दिखाते थे जो,गये॥  मेरा पिता के जैसा  खैरख्वाह कौन था हरदम दुआ के हाथ उठाते थे जो,गये॥
 अब तेरी याद भी नही आती। पर मरी नींद भी नही आती।। फिर तेरा इन्तज़ार क्या होता तू मेरे बाद भी नही आती।।SS
 खुद में डूबा हुआ मैं किधर चल पड़ा। श्वास क्यों रुक गयी मैं अगर चल पड़ा।।खुद में डूबा..... मेरी दीवानगी औ ऊधम कम हुए मेरे जाने से दुनिया के ग़म कम हुए लोग समझे मैं दूजे नगर चल पड़ा।।खुद में डूबा..... इक मुसाफ़िर  था मैं चार दिन के लिए नेह किस से लगाता मैं किन के लिए मोह माया सभी छोड़कर चल पड़ा।।खुद में डूबा..... जिंदगी में मेरी कुछ कमी भी न थी बिन तुम्हारे मगर जिंदगी भी न थी राह तकते थकी यह उमर चल पड़ा।।खुद में डूबा..... एक हद तक तेरा मुंतज़िर मैं रहा इक तेरे वास्ते दरबदर मैं रहा अन्ततः प्राण प्रण हारकर चल पड़ा।।खुद में डूबा..... सुरेशसाहनी, कानपुर
 आज सुबह तो मोतीझील से लेकर पूरे विकास प्राधिकरण परिसर में रौनक पसरी थी।वैसे एक दिन पहले से योग की स्वनामधन्य संस्थाएं और योगकर्मी प्रचार प्रसार में सक्रिय थे।मुझे  ये आयोजन वगैरा बड़े ज़हमत वाले काम लगते हैं।लेकिन ज़रूरी भी हैं। फिर आज तो विश्व योग दिवस अर्थात योगा डे है। खैर रॉयल क्लिफ चौराहे पर कुछ हलचल सी लगी।हम उधर बढ़ लिए।आयोजक संख्या बढ़ाने के जुगाड़ में एक रिक्शे वाले को समझा रहे थे।आओ योगा करो।तुम बड़े भग्यशाली हो जो आज योगा का मौका मिल रहा है ।एक टीशर्ट भी मिलेगी। रिक्शे वाला बोला ,"हमका टी बरेड  दिला देओ हम बइठ जाते हैं।मुला हमे करना का है? उस कार्यकर्ता ने समझाया, पेट अंदर करना है । रिक्शे वाला चिढ सा गया।बोला ,अरें साहब!हमारा पेट तो पहिले से अंदर है। खाये का मिले तब तौ पेट बाहर आवे।" खैर मुझे ड्यूटी भी जाना था।मैं तेजी से आगे बढ़ गया।
 वे भी तुनकमिजाज हैं, ये भी हैं मग़रूर। ऐसे में  रिश्ता कोई चलता कितनी दूर।। सुरेश साहनी
 आप चिंता कर रहे बेकार में। जबकि सब कुछ ठीक है अख़बार में।। कुछ न होगा चीखिये चिल्लाईये  या कि सर दे मारिये दीवार में।। मेरे नेता जी बड़े हुशियार हैं हों कहीं मंत्री रहे सरकार में।। बेचिए या आप ही बिक जाईये बीच का रस्ता नहीं बाज़ार में।। दाम, रिश्वत ,ब्रोकरी कल्चर में है अब नहीं आते ये भ्रष्टाचार में।। मुल्क के हालात पर मत रोइये और भी ग़म है यहाँ संसार मे।। सत्य नैतिकता यहाँ मत ढूंढिए ये पड़े होंगे कहीं भंगार में।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 जब भी लगता देश में हैं आसन्न चुनाव। तब तब सीमा पर बढ़ा दिखता हमें तनाव।। आम दिनों में मित्रता शांतिपूर्ण सम्बन्ध। फिर चुनाव के वक़्त ही क्यों बारूदी गन्ध।।
 शमए-महफ़िल न बन सका अबतक। हूँ बियावान का दिया अबतक।। धड़कनें दिल की जिससे रुक जातीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ अबतक।। दिल लगाता तो टूट सकता था दिल किसी से नहीं लगा अबतक।। मर्ज़ तो कोई भी बता देगा इश्क़ की है कोई दवा अबतक ।। जिसने देखा है वो ही बात करे मैंने देखा नहीं खुदा अबतक।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तड़प तो ये थी तुम्हें हम भुला न पाए कभी सुकून ये है कि तुम याद भी नहीं आते।। सुरेश साहनी
 चाँद पूरी तरह से पसरा है। ऐसा लगता है पी के आया है।।
 मेरे एक परिचित को कही से ज्ञान प्राप्त हो गया।उन्होंने अपनी पूजा पद्धति बदल ली।मंदिर की बजाय चर्च जाने लगे।राम राम की जगह जय मसीह बोलने लग गए। यही नहीं उनके साथ ही उनकी पत्नी और बच्चों को भी दिव्य ज्ञान मिल गया।अब घर के अंदर इनका परिवार प्रभु पुत्र यीशु को पूजने लगा ,जबकि इनके भाई और माँ काली के साथ आधा दर्जन देवी देवताओ को धुप दीप दिखाते थे। धीरे धीरे सास बहु में तकरार बढ़ने लगी।और एकदिन बहू ने सास को घऱ से निकाल दिया।सास यानि परिचित सज्जन की माँ एक मंदिर के सामने भिक्षा मांग कर जीवन यापन करती हैं ,यद्यपि वे संपन्न हैं ।उक्त परिचित सज्जन भी अपने आप को preist या पादरी कहने लगे।हिन्दू पौराणिक कहानियों का मजाक उड़ाकर यीशु के गुणगान करने लगे।मुझे पक्का यकीन अब भी है कि स्वयं प्रभु यीशु ऐसे कृत्य को पसंद नहीं करेंगे। इक दिन उनकी माँ की स्थिति पर तरस खाकर कुछ मित्रों ने पुलिस के पास जाने का सुझाव दिया।किन्तु हाय रे माँ का दिल!!!!माँ ने पुलिस के पास जाने से यहकर मना कर दिया कि "ऐसा करने से उसके बेटे की नौकरी चली जायेगी।मैं भूखे रह सकती हूँ किन्तु पुत्र को तकलीफ में नहीं देख सकती।
 तुम का उखाड़ लईहो । केहिका पछाड़ लईहो।। बहुमत मिला है उनका तुम का बिगाड़ लईहो।। जब एक मत नहीं हौ काहे बदे मरत हो दल दल में एक हुई के झंडा न गाड़ लईहो।। ऐसे न होई खेती सब आन के भरोसे तुमसे न हुई सकत है अपने न फाड़ लईहो।। पाछे न जीत पाये मैनेजरन के बूते ऐसे न जीत पईहो जो फिर जुगाड़ लईहो ।। चाहो तो कइ सकत हो गम्भीर हुई के देखो हर बार हम नये हैं की केतनी आड़ लईहो।। सुरेशसाहनी, कानपुर #व्यंग रचना
 हम तेरे  वादे  लिये बैठे रहे । बेख़ुदी में बिन पिये बैठे रहे ।। नफ़रतें बाज़ार में चलती रहीं हम मुहब्बत ही लिये बैठे रहे । उसको शायद और ही दरकार थी और हम इक दिल दिए बैठे रहे । सिर्फ़ ख़ुद्दारी ने बहकाया हमें जिनको कुछ था चाहिए बैठे रहे । हासिलें जब हसरतन तकती रहीं हम पकड़ कर हाशिये बैठे रहे ।। राह में गड़ कर नज़र पत्थर हुईं ख़त दबाये डाकिये बैठे रहे ।। तेरे आने का यकीं हरदम रहा मरने वाले भी जिये बैठे रहे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 सीधे सादे मसलों में अपनी टांग अड़ाना सीख। हवा हवाई बातों से जनता को भरमाना सीख।। हंसना रोना गाना सीख चलना आना जाना सीख राजनीति आ जायेगी झूठी कसमें खाना सीख।।SS
 आज कतरा के ग़ज़ल  मेरे बगल से गुज़री।  पैकर-ए- हुस्न में ढल  मेरे बगल से गुज़री।। जान जाती सी लगी मौत आती सी लगी एक मुश्किल सी सहल मेरे बगल से गुज़री।। साँस कुछ रुक सी गयी धड़कने थम सी गयीं शर्म जब करके पहल मेरे बगल से गुजरी।। बज उठे साज कई बन गए ताज कई जब वो मुमताजमहल मेरे बगल से गुज़री।। सुरेशसाहनी, अदीब, कानपुर
 क्या विभाजन क्या गुणनफल ज़िन्दगी का है। मौत ही जब आख़िरी हल ज़िन्दगी का है।।
 कितनी मशक्कत से  अपनों को दूर कर के कितनी सहजता से जुटाई थी यह भीड़ एक छोटे से घर में जिसमें पूरा परिवार रहता था अम्मा बाबूजी , हम दोनों  और हमारे बच्चे  भरपूर जगह थी  किसे पता था कि ये टीवी मोबाइल ,वाशिंग मशीन, एसी, फ़्रिज और ढेर सारी सुख सुविधाये जुटाने की अंधी दौड़ एक दिन तन्हाई का वायज़ बन जायेंगी।
 मैंने भी संघर्षों से टकराना सीख लिया। आँसू पीना सीख लिया, ग़म  खाना सीख लिया।। अपनों के ठुकराने से ही जीना सीखा था गैरों के अपनेपन पर मिट जाना सीख लिया।। एक समय तक अपने बेगाने की चिंता थी बड़ा हुआ तो दुनिया को अपनाना सीख लिया।। तुमने आँसू देकर सोचा था मर जायेगा मैंने रोते रोते हँसना गाना सीख लिया।। मैंने इतना पाया प्रभु से ख़ुद में डूब गया तुमने तो थोड़े में ही उतराना सीख लिया।। सुरेश साहनी कानपुर
 जो रह रह ऊबते हैं और होंगे। हमें फुर्सत कहाँ जो बोर होंगे।। हमारी फ़ितरतें भी मुख़्तलिफ़ हैं जो हम इस छोर वो उस छोर होंगे।।
 वो जो भी है बेपनाह है। अपने फ़न का बादशाह है।। कहते हैं सब शायर उसको क्या सचमुच इतना तबाह है।।
 समझो कलियुग आ गया जब स्वारथ में लाल। राजनीति हित ही करें मां का इस्तेमाल।। मां का इस्तेमाल करें फोटो खिंचवावें साल भरे में एक दफा वे मिलने आवें कह सुरेश कविराय बहस में काहे उलझो।    ऐसे लक्षण दिखें जहां तहैं  कलयुग समझो।।
 माजी छोड़ें मुस्तकबिल की ओर चलें। इस पड़ाव से उस मंज़िल की ओर चलें।। अपने दिल से उसकी यादें दूर करें उसके दिल से अपने दिल की ओर चलें।। मांझी भाग गया तो कोई बात नहीं किश्ती लेकर ख़ुद साहिल की ओर चलें।। कातिल खंजर लेकर खाक डराएगा मरना सीखें खुद कातिल की ओर चले।। क्यों सोचें क्यों माथा पकड़ें हम अपना खुशी मनाने अब हासिल की ओर चलें।। सुरेश साहनी कानपुर
 जब उन्हें और कोई प्यारा था। कैसे कह दूं कि मैं भी वारा था।। फूल मैंने कभी दिए  जिसको मुझ पे पत्थर उसी ने मारा था।।   सबसे ज्यादा उम्मीद थी उनसे जिस किसी का भी मैं सहारा था।। तीरगी में हमें वो डाल गए कल मैं जिनके लिए सितारा था।। उनको उठना न था पसंद मेरा मुझको झुकना ही कब गंवारा था।। प्यार में जीत जीत कब होती हार कर भी कहां मैं हारा था।। काश वो लौट कर चले आते साहनी ने बहुत पुकारा था।। सुरेश साहनी,कानपुर
 निज़ाम बदला है सवालात नही बदले हैं। कौम के आज भी हालात नही बदले हैं।।
 आडवाणी में क्या बुरायीं है। सिर्फ मस्ज़िद ही एक गिराई है।। आज काँटे कहाँ से आ टपके आज जबकि बहार आयी है।। आज वो ही हुए प्रतीक्षारत जिनकी मेहनत से रेल आयी है।। अब जलन किसलिए तपिश कैसी आग हमने ही तो लगायी है।। दुनियादारी मगर निभानी है रो के हँस के उसे बधाई है।।
 मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर  जाने कितने चुकवि बन गये। मैं रह गया महज एक जुगनू वे तारा शशि रवि बन गये।। निश्चित यह मेरा प्रलाप है इसे दम्भ भी कह सकते हो मन की कुंठा,हीनग्रंथि या  उपालम्भ भी कह सकते हो पर यह सच है मन मलीन ही छवि भवनों में सुछवि बन गए।। मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर ....... इधर उधर से नोच नाच कर कविता पूरी कर लेते हैं दिन दहाड़े शब्द चुरेश्वर रचना चोरी कर लेते हैं वे याजक बन गए सहजतः हम समिधा घृत हवि बन गये।। मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर ....... सुरेशसाहनी, कानपुर
 प्रश्न कुछ लाज़वाब होते हैं। हम जो ख़ाना ख़राब होते हैं।। ज़िन्दगी और कैफ़ देती है दर्द जब बेहिसाब होते हैं।। ख़्वाब में आके रूठ जाओ तुम और कैसे अज़ाब होते हैं।। सपके अपने सवाल होते हैं सबके अपने जवाब होते हैं।। नींद उनको कभी नहीं आती जिनकी आंखों में ख़्वाब होते हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 तुम हमारे ही थे ये मान लिया तुम हमारे न थे यही सच है।। साथ गुज़रे तो इत्तेफाक रहा पर गुज़ारे न थे यही सच है।।SS
 मेरी एक ग़ज़ल अच्छी थी। मैंने तुम पर तब लिक्खी थी।। तुमने मेरे बालों में जब अंगुलियों से कंघी की थी।। तुम्हे याद है तब फूलों से भी तुम घायल हो जाती थी।। जाने कैसे   नंगे पैरों तब मिलने आया करती थी।। पर जैसे अब शर्माती हो क्या तुम सचमुच शर्माती  थी।। क्या वह तुम थी शक होता है तुम खुद से भी शरमाती थी।। अब मैं कवि हूँ कैसे कह दूँ तुम ही तो मेरी कविता थी।। Suresh Sahani कानपुर
 मुझे उम्मीद तो है कल मिलोगे।। कमल बन मन सरोवर में खिलोगे।। कोई वादा वफ़ा यदि हो न पाया जो कोई स्वप्न पूरा हो न पाया तो क्या इतनी ख़ता पे छोड़ दोगे।। तो क्या अब प्यार करना छोड़ दूं मैं हर इक उम्मीदो-हसरत तोड़ दूँ मैं भरम में कब तलक रक्खे रहोगे।। मुहब्बत चीज़ है क्या उम्र भर की ज़रूरत भी न होगी जब शकर की  शहद बन ज़िन्दगी में तब घुलोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वो नाज़ों में पला लगे है। फूलों फूलों चला  लगे है।। यार अगर रूठा रूठा हो ऐसे में क्या भला लगे है।। जिसने इश्क़ किया ना होगा इश्क़ उसी को बला लगे हैं।। पर उसकी नज़रें हैं चंचल कभी कभी मनचला लगे है।। रीझ गया है मन क्यों उस पर यह भी कुछ बावला लगे है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यहां के संगो -दर बदले हुए हैं। सभी ठैरो - ठहर  बदले हुए हैं।। जुबानें क्यों नहीं बदलेंगी उनकी परिंदों ने शजर बदले हुए हैं ।। नज़र वाले नज़र बदले तो बदलें यहां अंधे नज़र बदले हुए हैं।। कि नफ़रत आज भी है नफरतों सी मुहब्बत के असर बदले हुए  हैं।। हमारे जिस्म अब भी है वहीं पर फकत रूहों ने घर बदले हुए हैं।। बताओ किस लिए गैरों में बैठें भले अपनों के स्वर बदले हुए हैं।। वही मंज़िल वही हैं रास्ते भी मगर अहले -सफर बदले हुए हैं।। सुरेश साहनी कानपुर
 इश्क में शायिस्तगी अच्छी नहीं। हुस्न की बेहूरमती अच्छी नहीं।। इश्क है दोनों तरफ तो ठीक है एकतरफा आशिकी अच्छी नहीं।। आप तो सब कुछ भुला कर चल दिए इस क़दर दीवानगी अच्छी नहीं।। हुस्न है सजने संवरने के लिए ये जबरिया सादगी अच्छी नहीं।। टूट जायेगा न सब पर फेंकिए साथ दिल के मसखरी अच्छी नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर
 हर बदलाव सहजता से स्वीकार करो यह बेहतर है। या करना है तो खुलकर यलगार करो यह बेहतर है।। तुमको अपने जीवन का निर्धारण ख़ुद ही करना है ख़ुद को उस अनुरूप स्वयं तैयार करो यह बेहतर है।।
 देश के लिए रघुराम राजन से छोटा राजन का महत्वपूर्ण होना हैरत की बात नहीं।आखिर छोटा राजन का संघर्ष जमीनी या ग्राउंड लेवल पर रहा है, बल्कि उससे भी अधिक यानि अंडर ग्राउंड या वर्ल्ड लेवल का रहा है।और इस क्षेत्र की सर्वोच्च प्रतिभाओं में छोटा राजन का स्थान रहा है।मेरिटोरियस होना साधारण बात नही है।देश में इकॉनोमी, कॉमर्स ,व्यापार-प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण विषयों के लाखों प्रोफेसर,रीडर या टीचर होंगे।उन्हें कौन जानता है।यदि आरबीआई के गवर्नर न होते तो रघुराम जी को कोई जानता भी नही।आज भी कुछ पढ़े लिखे फेसबुकियों या सु स्वामी जैसे नेताओं के अलावा उन्हें कौन जानता है।जबकि छोटा राजन भैया को पूरा पाताल- वर्ल्ड जानता है।आरबीआई से केवल भारत की अर्थव्यवस्था सम्बंधित है।जबकि छोटा राजन भैया दुबई से सिंगापुर तक जाने कितने देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते रहे हैं।इस हिसाब से आप पाताल जगत के कारोबार और सकल वार्षिक उत्पाद का आंकलन कर सकते हैं।इसके अतिरिक्त भैया शूटिंग स्पर्धा में भी शीर्ष पर रहे हैं।यदि इन्हें उचित अवसर मिलता या ये इच्छा रखते तो दर्जन भर ओलिंपिक स्वर्ण पदक देश के लिए ला सकते थे।किन्तु भैय
 ये हुस्न बेमिसाल है कितनी बहार का। गोया कोई ख़याल हों नगमानिगार का ।। ये हुस्न देख कर कई इमां पे आ गए सब को यकीन हो चला परवरदिगार का।। महफ़िल में मेरे सामने जलवानुमा न हो इतना न इम्तेहान ले सब्रो-क़रार का।। गैरों से मेलजोल भली बात तो नही कमज़ोर सिलसिला है सनम एतबार का।। कलियाँ चटक चटक के जवां फूल बन चुकीं दम टूटने लगा है मेरे इंतज़ार का।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मेरी सियाह सी रातों को रौशनी मत दे मुझे अंधेरों से लड़ने का हौसला दे दे।।SS
 हम बहुत भाग्यवान हैं क्योंकि हम भारत मे जन्में हैं।हम इसलिए भी भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे पास आहत होने के बावजूद दुखी होने का समय नहीं हैं।हम एक डॉक्टर पर हमला होने पर उद्वेलित होते हैं, तो तुरंत एक दूसरे डॉक्टर को जूते से पीटे जाने पर तालियां भी बजाते हैं। एक लड़की के रेप होने पर कैण्डल मार्च और रैलियां निकालते हैं तो सैकड़ों बलात्कार होने के बावजूद मौन भी साध लेते हैं। वस्तुतः हम बहुआयामी हैं।हमें मालूम है कि सब माया है।   अभी बिहार में सैकड़ों की संख्या में बच्चे मर गए।डॉक्टर्स कह रहे हैं बच्चे इंसेफेलाइटिस से मरे हैं।विशेषज्ञों की राय है कि कच्ची लीची में पाए जाने वाले न्यूरोटॉक्सिन की वजह से मौते हुई हैं।बीच में यह रिपोर्ट भी आई कि बच्चों  में मरने के पूर्व हाइपोग्लाइसीमिया के लक्षण पाए गए जो मृत्यु की बड़ी वजह बनी।कुछ लोग बोल रहे हैं कुपोषण इसका प्रमुख कारण हैं। सबसे सही बात स्वास्थ्य मंत्री जी ने बताई है कि बच्चे अपने दुर्भाग्य से मरे हैं। और मेरा भी मानना है चौबे जी ने सत्य कहा है।यह उन बच्चों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वे ऐसे माननीयों के प्रतिनिधित्व वाले राज्यों में जन्म लेत
 हाल न पूछो बद हो  बेहतर। आखिर क्या होगा कह सुनकर।। कुछ लेना है सीधे बोलो क्यों कहते हो बात घुमाकर।। मेरा बढ़ना क्या बढ़ना है घर की मुर्गी दाल बराबर।। छोड़ो भूली बिसरी बातें क्या मिलना है याद दिलाकर।। बातें उसकी दीन धरम की नज़र टिकी है पैमाने पर।। सुरेशसाहनी
 अठन्नी और चवन्नी का हिसाब रखता है। वो हर सवाल के सौ सौ जवाब रखता है।। ज़ुबान उसकी भले ही बहुत कंटीली है मगर हंसी में वो ताजे गुलाब रखता है।। ये कायनात भरी है उसी के जलवों से जो अपने नाम का खाना ख़राब रखता है।। न बल्ब से न चिरागों से उसके नूर मिला वो एक दो नही सौ आफ़ताब रखता है।। सुरेशसाहनी
मुझे नज़दीक से आकर न देखो दरक सकती है वो तस्वीर जो कि तुम्हारे मन में इतनी खूबसूरत  न जाने किस तरह से बन गयी है असल में मैं बहुत अच्छा नहीं हूँ मग़र इतना बुरा भी मैं नहीं हूँ मुझे जितना बुरा मैं सोचता हूँ सभी के वास्ते दुःख और सुख में जहाँ तक हो सके रहता हूँ शामिल हमारे घर गृहस्थी की जरूरत- में जो कुछ चाहिए उनको निभाकर हमारी जेब से कुछ बच बचाकर जहाँ तक हो सके करता रहा हूँ हमारी सोच है आकाश जितनी भले इक छत में सिमटा जा रहा हूँ मेरी मजबूरियां मैं जानता हूँ न जाने फिर भी क्यों शरमा रहा हूँ मैं जैसा दिख रहा हूँ वो नहीं हूँ मैं जैसा हूँ मैं वैसा ही रहूँगा मेरी तस्वीर ऐसी ही बना लो मुझे नज़दीक से तब  देख लेना अभी नज़दीक से आकर न देखो.... सुरेशसाहनी, अदीब
 वन उपवन वे काटते, करें नदी जलहीन। पर शहरों में खोजते  तरु के लिए जमीन।।SS
 देश के बड़े बड़े लाभ वाले सार्वजनिक उपक्रम बिक रहे हैं। कई अघोषित रूप में पहले ही निजी हाथों में सौंपे जा चुके हैं।ठीक भी हैं।जब ये लगाए गए थे तब देश के पास संसाधन नहीं थे। कुल पौने दो सौ करोड़ की पूंजी थी।देश को अंग्रेज जाते जाते खाली कर गए थे। देश के युवाओं को  रोजगार की जरूरत थी। नए उद्योग लगाए गए। देश को बिजली ,इस्पात ,सीमेंट और तमाम सारे आधारभूत ढांचों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना था।तब किया भी गया।   आज देश को रोजगार की ज़रूरत नहीं है। आज रोटी,कपड़ा और मकान बुनियादी ज़रूरतें नहीं हैं। आज देश का हर युवा अपनी अपनी जाति और धर्म की टोपी या टीशर्ट पहन कर एक उन्माद लिए घूम रहा है।आज उसकी शाम एक बोतल बियर और चंद उन्मादी नारों से मुक़म्मल हो जाती है।   आज किसान तो थोड़ा बहुत जूझ रहा है।किंतु उनकी नई पीढ़ी गेंहू-धान उगाना नहीं चाहती। उसे मालूम है कि अब गांव के चौराहे पर भी पिज्जा बर्गर, नूडल्स और मोम्मोज मिल रहा है।दूध की जगह पेप्सी मिल रही है।ऐसे में अनाज उगाने की जहमत कौन उठाएगा।आखिर रोटी नहीं तो ब्रेड खाने की सलाह देने वाले नेता तो हमने ही चुने हैं।   फिर समाजवाद भी तो ब्रांडेड समाजवाद हो गय
 प्यास ऐसे तो ना बुझाएंगे। पहले खुद्दारियाँ बचाएंगे।।  उसने मारा है पीठ पर खंज़र क्या उसे दोस्त फिर बनाएंगे।। इतने नादान भी नहीं हैं जो तुम कहोगे तो मान जाएंगे।। वक़्त का इंतज़ार कर ड्रैगन तुझको औक़ात में भी लाएंगे।।
शाम भी ढलने लगी है दीप भी जलने लगे हैं। स्वप्न आशा के थकी  पलकों तले पलने लगे हैं।। मन सुलझना चाहता है नींद के पहले चरण में उलझनें इस ज़िद पे हैं यह- रात बीते जागरण में तन ठहरना चाहता है आसरे छलने लगे है।। उम्र ने आधी सदी को दान कर दी ज़िन्दगानी फिर नियति क्यों चाहती है हसरतों की मेजबानी मृत्यु के संकेत आंखें भोर से मलने लगे हैं।। एक बिस्तर नींद लेकर देह गिरना चाहती है पर थकन इस देहरी पर ही ठहरना चाहती है चिर प्रतिक्षित वेदनाओं के नयन खुलने लगे हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 हमारे उसके रिश्तों में बड़ी बारीक़ दूरी है नहीं है ग़ैर फिर भी उसको अपना कह नहीं सकता।।
 बस्ती बस्ती ढूंढ रहा था गिरि वन गह्वर ढूँढ़ रहा हूँ। पोखर नदिया ताल तलैया सात समंदर ढूँढ़ रहा हूँ।। कुछ लासानी रिश्तों के भी सानी मिलने के भ्रम में अपने अन्तस् की चीजों को बाहर बाहर ढूंढ रहा हूँ।। रूहानी रिश्तों को जिस्मों में पाने की कोशिश में तुम भी बाहर भटक रहे हो मैं भी बाहर ढूंढ रहा हूँ।।
 मीटू से तो हमको भी डर लगता है। हो जाये तो घर  चिड़ियाघर लगता है।। वो बोले तो मिमियाना पड़ सकता है एक हिरण तब शेरे- बब्बर लगता है।।
 समूचा तंत्र ही बीमार है क्या। व्यवस्था इस क़दर लाचार है क्या।। सभी खबरें तो छन के आ रही हैं तो फिर अख़बार भी अख़बार है क्या।। हमारे मुल्क में सब बादशा हैं तुम्हारे मुल्क़ में सरकार है क्या।। कोरोना घुस गया है जेहनियत में तुम्हारे पास कुछ उपचार है क्या।। ज़माना है तुम्हारा  कह रहे हो तुम्हारा भी कोई अगियार है क्या।। वफ़ा होना तो नामुमकिन है फिर भी कोई वादा नया तैयार है क्या।। यकीं है सबको उसके झूठ पर भी कोई उससे बड़ा फ़नकार है क्या।। तुम्हें मैं कम सुनाई दे रहा हूँ हमारे बीच इक दीवार है क्या।। भला क्यों शाह घबराता है इतना जुबानें हैं कोई तलवार है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर वाले 9451545132
 इधर सजने संवरने लग गए हो। किसी से प्यार करने लग गए हो।। किसे तुम मार देना चाहते हो बताओ किसपे मरने लग गए हो।। किसे तुमने गिराया है नजर से जो शीशे में उतरने लग गए हो।। नहीं आसार अच्छे लग रहे हैं इधर से फिर गुजरने लग गए हो।। बचाना दाग से दामन मेरी जां फजाओं  में बिखरने लग गए हो।।
 दिल का शीशा चूर हो तो हो। कोई दिल से दूर हो तो हो।। मैं विवश था तो वो नाटक था तुम अगर मजबूर हो तो हो।।
 वो अरसे से मुहब्बत कर रहे हैं। तभी हर शय से नफ़रत कर रहे हैं।। न होगा क्यों मेरा  किरदार रोशन अंधेरे ख़ुद हिफाजत कर रहे हैं।। उसे  शक है हमारे हौसले पर ये हम जिसकी बदौलत कर रहे हैं।। ज़फाओं  के लिए मशहूर हैं जो निभाने की नसीहत कर रहे हैं।। जेहन में इस कदर नफरत खुदारा ये हम किसकी इबादत कर रहे हैं।। उन्हें यलगार पर शायद यकीं हो वो अरसे से सियासत कर रहे हैं।।
 इक तेरे होने से महफिल का गुमा होता है और चले जाने से मयखाने उठा करते हैं।।साहनी
 अगर मैं उर्दू या हिंदी का  जानकार होता तो मैं नज़र को नज्र और शहर को शह्र  ज़रूर लिखता अथवा घोर अरबी फारसी और घनघोर संस्कृत अथवा प्राकृत के शब्द ठूंसता।  मुला मैं ठहरा भोजपुरी कनपुरिया। सो भाषा के मामले में कबीर से दू कदम आगे ही समझिए। मुझे आज भी रामलरायन महतो चाचा कि याद आ जाती है। एक बार वे लेट हो गए। पूछने पर उन्होंने बताया कि ," का बतावल जा साहब ! हम त डिपुटी टाइमें से आ रहे थे कि रस्ता में ओंहर से एगो छोकड़ी आ रही था।बस ऊ आके मारिये नू दिया। फिर उन्होंने इतने आराम से बताना चालू किया कि अधिकारी महोदय ठीक है ठीक है कहते हुए निकल लिए। "  उनकी इस गंवई मिश्रित बोली में जो लालित्य ,जो प्रवाह और ठहराव या लयात्मकता नजर आती थी उसे कागज पर उतारना शायद रेणु या प्रेमचंद के ही बस की बात होगी। भाषा के पंडित , वर्तनी और उच्चारण में मीनमेख निकालने वाले उर्दू के अलंबरदार लोग भाषा की सहजता को अंगीकार कर केशवदास तो हो सकते हैं तुलसी और कबीर नहीं ।   ऐसे में एक और संकट है।एक तो मैं लोहा लंगड़ वाला मजूर और उस पर गूगल इनपुट पर टाइपिंग में दिक्कतें। लिखो कुछ लिख जाता है कुछ।सो आधे अक्षर वाले
 हमारी उम्र का हम पर असर दिखने लगा है। कि जैसे घर कोई अब खण्डहर दिखने लगा है।। दिखावों में तो लौ रह रह भड़कती है हमेशा ख़यालों में मगर बुझने का डर दिखने लगा है।। तेरे जलवों की चर्चा है कि जलवों की लहर है तेरे जलवों में आलूदा शहर दिखने लगा है।।
 मैं विद्रोही स्वर का कवि हूँ क्यों अगवानी के गीत लिखूं।। सदियों ने भट गायन कर कर सच से समाज को दूर किया कायर शाहों को शूर कहा यूँ जनमानस को सूर किया क्या मैं भी भट गायक बन कर राजा रानी के गीत लिखूं।।मैं विद्रोही.... क्यों कर हूणों ने भारत को दशको दशको आक्रांत किया कैसे यवनों ने सदियों तक आधा भारत भयक्रांत किया कैसे गजनी की सोमनाथ पर मनमानी के गीत लिखूं।।मै विद्रोही..... आखिर दिल्ली के शूरवीर  क्यों सोमनाथ पर नहीं लड़े कैसे मुट्ठी भर मुगल यहां थे चार सदी तक रहे चढ़े चारण गीतों से अच्छा है मैं जन वाणी के गीत लिखूं।।मैं विद्रोही..... ***सुरेशसाहनी, कानपुर***
 तस्बीह लेके सोचते हैं मग़फ़िरत मिले नेकी तमाम उम्र कमाई नहीं गयी।।SS
 किसी का दर्द बांटो खुश रहोगे। ज़हाँ में प्यार बांटो खुश रहोगे।। दुकानों में न ढूंढ़ो रंज़ होगा ये अपनों में तलाशो खुश रहोगे।। यही अज़दाद अपनी मिल्कियत है इन्हीं के पाँव दाबो खुश रहोगे।। शहर की भीड़ से कुछ रोज हटके ज़रा अपनों में पहुंचो खुश रहोगे।। न पीटो ढोल अपनी नेकियों के करो फिर भूल जाओ खुश रहोगे।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ना गर्ज़ हो तो कोई दीद भी नहीं देता। यहाँ तलाश के कोई ख़ुशी नहीं देता ।। मांगिये मौत तो शायद कोई तरस खा ले के भीख में तो कोई जिंदगी नही देता ।। पता न था कि कोई बेवफा यहाँ तक है मेरे ख़ुदा उसे दिल तो कभी नहीं देता।। बताओ कैसे कहें वो क़रीम है यारों अगर वो चाहता कोई कमी नही देता।।
 तुम अगर भूलना सिखा देते।  हम यकीनन तुम्हे भुला देते।। तुमको हक़ था हमारी चाहत पर एक तोहमत कोई लगा देते।। दर्दे-दिल का इलाज़ इतना था सिर्फ इक बार मुस्कुरा देते।। और ये भी नही गवारा था प्यार से ज़हर ही पिला देते।। आज तक हमने जो कमाया है सब तेरे प्यार में लुटा देते।। हम तो तेरी रज़ा में राज़ी थे तुम किसी ग़ैर से निभा देते।। दिल की दौलत तुम्हे कुबूल न थी हम भला और तुमको क्या देते।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 दीमक अंदर है बाहर है। दीमक अब सिंहासन पर है।। पहले हल फिर बैल बिके थे आगे खेती का नम्बर है।। अब कैसी मर्यादा है जब पंचायत चौराहे पर है।। कल घर साथ बनाया सबने आज अलग चूल्हा टब्बर है ।। यूँ बाज़ार न बनने देन्गे देश हमारा घर था घर है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 मेरे लब पे परीशां हो के देखो। मेरी आँखों में ख़ुद को खो के देखो।। तमन्नाओं के दीये जल उठेंगे हमारा  ख़्वाब इक संजो के देखो।। तुम्हे रोने में भी तस्कीन होगी कभी गैरों के ग़म में रो के देखो।। जहाँ पर ख्वाहिशें दम तोड़ती है वहीँ पर ख्वाहिशें कुछ बो के देखो।। मेरी आँखों में सपने तैरते हैं मेरे ख्वाबों में एक दिन सो के देखो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ईद का चांद देखने के लिए  हमने तारे भी खूब देखे हैं उसके भाई फिरे थे लट्ठ लिए ये नज़ारे भी खूब देखे हैं खुद बख़ुद हो गए कई रोज़े जिल हज़ा भूख से संवारी है चाँद के दीद के लिए हमने रात आंखों में भी गुज़ारी है #ईद मुबारक़ Suresh Sahani  कानपुर
 निश दिन सीमा पर हुए इतने लाल शहीद। फीके हर त्योहार हैं क्या होली क्या ईद।।सुरेश साहनी
 नेता जी बदला किये गिरगिट जैसे रंग। कल उस दल के साथ थे अब इस दल के संग।।SS
 कल हमारा जवाब अच्छा था आज उसके सवाल बेहतर हैं।।SS
 मेरी एक बात के तुमने  कितने अर्थ निकाल लिये हैं शायद बहुत बड़ी बातों के  इतने अर्थ नहीं होते हैं।।SS
 तुम इतने खूबसूरत भी नहीं हो। अभी मेरी ज़रूरत भी नहीं हो।। मुहब्बत जिस से है ऐलानिया है  सो तुम मेरी मुहब्बत भी नहीं हो।। तुम्हारी हरक़तें इब्लीश  सी हैं सनम सामाने -मिल्लत भी नहीं हो।। अदायें है तुम्हारी जानलेवा मगर इतनी क़यामत भी नहीं हो।। ज़नाज़े में मेरे अग़ियार तो हैं फ़क़त तुम वक़्ते-रुख़सत भी नहीं हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ग़म की बारिश से बचेंगे तो मेरी जां बेशक़ अगली बारिश में तेरे साथ नहा भी  लेंगे ● Suresh Sahani
 एक कारगिल हो सकता है एक कारगिल हो जाने दो किन्तु चीन को गलबहियाँ कर  छाती पर तो मत छाने दो।।SS
 वे खुश अपनी वाल पर ,हम अपनी पर यार। दोनों अपनी पर अड़े ,कैसे हो संचार।। मुख पुस्तक पर मित्र हैं बेशक़ पाँच हज़ार। क्या जो मुखड़ा पढ़ सकें हैं कुछ ऐसे यार।। देखा कवि ने वाल पर दिल का दर्द उड़ेल। सौ लोगों ने कह दिया नाइस वेरी वेल।। सुन्दर छवि संग डाल दी दो लाइन इक बार। टिप्पणियां हैं तीन सौ, लाइक डेढ़ हज़ार।। आज भले स्वीकार्यता में प्रतीत हो देर। मौलिकता का मान ही होता देर सवेर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मैं मुहब्बत की तरह उम्दा हूँ। और आशिक की तरह तन्हा हूँ।।  हुस्न लैला की तरह सुन्दर है मैं भी मजनू की तरह अच्छा हूँ।।
 मुहब्बत में अगर धोखा मिले तो। हमें तस्लीम है, मौका मिले तो।। ये दुनिया आज भी मुश्किल नही है कोई साथी अगर मन का मिले तो।। खबर कैसी भी हो रोचक लगेगी मसाला जायका तड़का मिले तो।। ये सारे देवता हैं आजकल के अरज सुनते हैं गर मस्का मिले तो।। उसे बेटी की शादी की फ़िकर है गरीबी में कोई लड़का मिले तो।। वो मन्दिर और मस्जिद में नही है बताना कुछ पता उसका मिले तो।।
 आज के कान्वेंट स्कूलों में बच्चों के ऊपर पाठ्यक्रम लादा जा रहा है।छोटे छोटे बच्चे रीढ़ और कन्धों की बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं।यह कौन सी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति है, जिसमे बच्चों को आँख के चश्मे लग रहे हैं।बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है।यह कौन सी शिक्षा पद्धति है जिसमें बच्चों को सुबह शाम अपना बचपन जीने का मौका नही मिल रहा है।आखिर बच्चों को पर्याप्त नींद सोने और खेलने का समय क्यों नही मिल रहा है।बच्चों के बस्ते का वजन निर्धारित क्यों नही हो रहा है।सरकारी स्कूलों में अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाली सरकारें इन कान्वेंट स्कूलों की मनमानी पर मौन क्यों हैं।भारी भरकम फीस लेने के बावजूद बच्चों पर कोचिंग का अतिरिक्त भार पड़ रहा है।इन स्कूलों की फीस,किताब कापियों की संख्या,पाठ्यक्रम,दिनचर्या अवधि, नैतिक शिक्षा और खेलों की अनिवार्यता पर गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।मैं माननीय प्रधानमंत्री जी और मानव संसाधन मंत्री जी से आग्रह करता हूँ कि इस सम्बन्ध में एक उच्चस्तरीय जाँच समिति बनाकर अपने स्तर से बच्चों को त्रासदी पूर्ण जीवन चर्या से मुक्ति दिलाएं और उन्हें उनका वह बचपन प्रदान करें जैस
 उसको चुभता है खास रहना भी।  मेरा  सादा लिबास   रहना भी ।।  आदतन अपनी खुशमिज़ाजी भी  एहतियातन  उदास  रहना भी।।
 आज सो लें नींद मनभर  कल नई कविता लिखेंगे  ....... रात छोटी है सृजन की नींद भर कुछ स्वप्न बुन लें और दिन भर के लिए अपना नया किरदार चुन लें कल इसी किरदार को हम तूलिका लेकर गढ़ेंगे..... मृत्यु तक ठहराव जीवन एक लंबा स्वप्न ही है आस उम्मीदों तले यह ज़िन्दगी भी दफ़्न ही है मृत्यु तक आराम कर लें फिर सफर पर चल पड़ेंगे.......
 इश्क़ में हम नाक़ाबिल ठहरे। तुम भी तो पत्थरदिल ठहरे।। तुम भी कितने शोख़ नज़र थे हम भी आधे बिस्मिल ठहरे।। तुमने भी क्या चाहा हमसे राही मंज़िल मंज़िल ठहरे।। उफ़ मासूम अदायें तेरी तुम तो अच्छे क़ातिल ठहरे।। हम दुनिया से लड़ सकते थे लेकिन तुम ही बुज़दिल ठहरे।। मोती थे गहरे पानी में तुम ही साहिल साहिल ठहरे।। Suresh Sahani कानपुर
 आज दिन भर नहीं रही बिजली फिर भी रौनक रही बाज़ारों में और पर्दानशीन माँये कुछ अपने माथे पे सलवटों के संग अपनी आंखों में इक चमक लेकर देखती थीं नए नए कपड़े दाम पढ़कर बुझे हुए मन से फिर उन्हें छोड़कर के बढ़ लेतीं सोच में है कि कल सुबह बच्चे क्या पहन कर मिलाद देखेंगे आज फिर देर तक रुके मज़दूर ईद भर की पगार की ख़ातिर पूँजीयां हर तरफ नुमायां है हर तरफ रोशनी है दौलत की रोशनी बिग बाजार से छनकर कुछ सटी बस्तियों में आती है मेरे घर के बगल में खालिद हैं ईद उनके लिए नही आती कुछ सिवईयाँ उधार में लाकर कुछ करेंगे वो ईद की ख़ातिर #ईद मुबारक Suresh Sahani कानपुर
 मौसम पर एक ग़ज़ल समाअत फरमायें:- आज फिर दर्द से धूप दोहरी रही । दूर सीवान पर सांझ ठहरी रही ।। रात भी देर तक अनमनी सी रही भोर अंगनायियों में दुपहरी रही।। सुब्ह सूरज सुनहरा सुनहरा मिला दिन जली तो रूपहरी रूपहरी रही।। आज मौसम भी कुछ अनसुना सा रहा कुछ हवाओं की फितरत भी जहरी रही।। कोई पल्ला न घूंघट न आँचल कोई अप्सराओं की हर सू कचहरी रही।। हर कोई स्वेद से था नहाया हुआ छाँह बरगद भी लू की मसहरी रही।। सुरेश साहनी, अदीब  कानपुर
 वस्ल की बात क्यों नहीं करते। तुम मुलाक़ात क्यों नहीं करते।। उम्र दे दी तमाम दिन किसको साथ इक रात क्यों नहीं करते।। चाँद रातों में मुझसे मिलने के इन्तेजामात क्यों नहीं करते।। वस्ल की रात की सहर गुल हो वो करामात क्यों नहीं करते।। मैं मिलूं तुमसे और हम हों लें ऐसे हालात क्यों नहीं करते।।
 और किस्से कहानियों में रहो। चकल्लसों में जुबानियों में रहो।। उम्र इतनी दराज़ हो तुमको सौ बरस तुम जवानियों में रहो।।
 प्यार शर्तों पे हो नहीं पाया। रूह से जिस्म ढो नहीं पाया।। धुंधली यादों पे रो नहीं पाया। दिल की तस्वीर धो नहीं पाया।।  जिनके चर्चे बज़ार में आते मैं वो अफ़साने बो नहीं पाया।। तर्ज़े-सावन मैं रो पड़ा फिर भी उनका दामन भिगो नहीं पाया।। बहरेग़म ने कोई कमी की क्या मैं ही ख़ुद को डुबो नहीं पाया।। रात भर नींद ने मशक़्क़त की रात भर ख़्वाब सो नहीं पाया।। साहनी बच गया अनाओं से जग के मेले में खो नहीं पाया।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मेरी यादों को पैताने रखता है। वो केवल दौलत सिरहाने रखता है।। दूर हकीकत से रहता है शायद वो दामन में फिल्मी अफ़साने रखता है।। अपनो को रखता है वो बेगानों में और करीबों में बेगाने रखता है।।
 चलो दुश्वारियां के हल तलाशें। भले छोटी खुशी के पल तलाशें ।। तुम्हें भी छूट जाना है किसी दिन तुम्हें फिर किसलिए हर पल तलाशें।। बियावानी शहर में कम नहीं है बताओ किसलिए जंगल तलाशें।। भरोसा आसमानों पर न रक्खें जमीं पर क्यों न इक अफ़ज़ल तलाशें।। न जा पाओगे माजी के सहन में जो आए वो सुनहरा कल तलाशें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हमें उनसे मुहब्बत भी बहुत है। वही जिनसे शिकायत भी बहुत है ।। झिझकता हूं कि वो नाराज ना हों वो मिलते हैं ये रहमत भी बहुत है।। बला की तिश्नगी है उन लबों पे उन्हीं होठों में शरबत भी बहुत है।।
 आज रूठे हैं हमको मना लीजिए। बात बिगड़ी हुई है बना लीजिए।। अपनी पालकों में हमको छुपा लीजिए। अपने सीने में हमको बसा लीजिए।। हम से बढ़कर भले खूबसूरत है वो उसकी जानिब से नजरें हटा लीजिए।। पहले सुनिए मेरी एक एक इल्तिज़ा बाद में जो भी आए सुना लीजिए।। जब जनाजा हो तब ही उठाएंगे क्या आज दर पे पड़े हैं उठा लीजिए।। आपके हैं तो क्या बेवुजूद हो गए गुड की ढेली समझ कर न खा लीजिए।। ये वो दरिया है जिसका किनारा नहीं डूबिए इश्क में फिर मजा लीजिए।। इश्क से बढ़ के कोई इबादत नहीं हर अना छोड़कर सिर झुका लीजिए।। दिल के सौदे में बटमारियां छोड़कर बस वफ़ा दीजिए और वफा लीजिए।। साहनी जब कहोगे चले आयेंगे प्यार से जब भी चाहे बुला लीजिए।। सुरेश साहनी कानपुर

संस्मरण

 मेरे संयुक्त परिवार में मेरे सातवें नंबर के बाबा जी घर में सर्वाधिक परिश्रमी माने जाते थे।वे जितने परिश्रमी थे उससे कहीं अधिक आत्मीय भी थे। गर्मी की छुट्टियों में जब हम गांव जाते तो मेरा सर्वाधिक समय उनके पास ही बीतता था। अक्सर वे मुझे खेत जाते समय साथ ले जाते थे।तब हमारे यहां हल बैलों का उपयोग  खेती के प्राथमिक कार्यों में बहुतायत से होता था। यद्यपि मैं खेती के मामले में अनाड़ी ही रहा। बाबा सिखाने का प्रयास करते थे।  गांव जाते समय कस्बे यानी  अढ़ाई कोस दूर से गांव तक का सफर लढिया या डल्लफ (भोजपुरी में बैलगाड़ी के प्रचलित नाम) पर करना होता था।और कस्बे से गांव तक लाने का कार्य बाबा ही करते थे।   बाबा का प्रिय भोजन रंगून का चावल और ताजी मछली था। इसके लिए वे नित्य शाम को शिकार करने निकलते थे। क्या बार मछली नहीं मिलने के कारण देर भी हो जाती थी। पर  चाहे रात के बारह बज जाएं वे खाली नहीं लौटते थे।मेरी एक चाची जो अब भी हैं जो उतनी रात को भी इस विश्वास के साथ मसाला पीस कर तैयार रखती थीं कि बाबा कभी खाली हाथ घर नहीं लौटते हैं। और बाबा के आने पर उन्हें सुरुचि से भोचन पका कर देती थीं। यद्यपि देर
 नौनिहालों के जेहन में भर दी नफरत किसलिए। पड़ रही है आपको इसकी ज़रूरत किसलिए।। आप हैं अल्लाह वाले ,आप हैं भगवान के इतनी अज़मत है अगर तो नीच हरकत किसलिए।। सब के दावे हैं तरक्की-ए-अवाम-ऒ-मुल्क के फिर ये सौदे, ये दलाली, ये तिज़ारत किसलिए।। जात और मज़हब को लेकर हो रहे जब इंतखाब तो सभी से ये लगावट ये मुहब्बत किसलिए।। जानते हैं सब कि इससे मुल्क को नुकसान है फिर ये भाषा प्रान्त मजहब की सियासत किसलिए।। जबकि जाने कितने इन्सां बे दर-ओ-दीवार है  दैरो-हरम के नाम फिर इतनी मशक्कत किसलिए।।
 हमारे पास इक छोटा सा घर है। यही दुनिया हमारी मुख्तसर है।।  हमें मालूम हैं अपनी हदें भी कहाँ हम हैं कहाँ सारा शहर है।। मसीहा है हमारी नज़्र में वो हमारे दर्द से जो बेख़बर है।। किसे अपना कहें किसको पराया यहां हर एक रिश्ता पुरख़तर है।। घरौंदा प्यार का बनता कहाँ से मुहब्बत ही अज़ल से दरबदर है।। के जीना चाहते हो साथ किसके वो जो भी है बड़ी क़ातिल नज़र है।। Suresh Sahani कानपुर
 हर सिकन्दर भरम में रहता है। कौन जाकर अदम में रहता है।। वक़्त बहता है हर घड़ी यकसां आदमी ज़ेरोबम में रहता है।। ग़ैब दिखता है उसको तुरबत में आदमी किस वहम में रहता है।। आज तो एक से निबह कर ले क्यों बहत्तर के ग़म में रहता है।। आदमी आदमी नहीं रहता जब वो दैरोहरम में रहता है।। हौसले की सलाहियत है ये आसमाँ तक क़दम में रहता है।। एक ज़र्रे ने आसमां  लिक्खा साहनी किस फ़हम में रहता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 तुम्हीं उसको ख़ुदा समझे हुए हो। ज़हां से अलहदा समझे हुए हो।।
 हमने पत्थर को ख़ुदा मान लिया। जो हुआ ठीक हुआ मान लिया।। क्या ज़रूरी है बगावत करना आपने जो भी कहा मान लिया।। आपसे कोई शिकायत क्यों हो आपको हर्फ़े-वफ़ा मान लिया।। हमने तो आपकी इज़्ज़त रक्खी आपने जिसको  हया मान लिया।।
 आग मांगी थी धुवाँ ले आया। गर्दिशे-वक़्त कहाँ ले आया।। सोग में मुझको डुबाया पहले फिर तसल्ली का गुमां ले आया।। मैं जहाँ छोड़ गया था मुझको कौन शह कर के वहाँ ले आया।। रेत पर एक घरौंदा तो था कौन लहरों से निशां ले आया।। मेरे तकिए पे वो हँस कर बोले बेदरोदर भी मकाँ ले आया।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जिसे अखरता हूँ मैं खूब अखरने दो। नफ़रत वो करते हैं उनको करने दो।। जो जैसा करता है वैसा भरने दो। अपनी अपनी मौत सभी को मरने दो।। पशुवत जीना ही यदि इनकी नियति है क्या बदलोगे इनको यूँ ही चरने दो।। क्या बिल्ली माटी का चूहा खाती हैं तो चूहों को ही मूरत से डरने दो।। ज्ञान उन्हें जन्नत से बाहर कर देगा ऐसा है तो सबको अनपढ़ रहने दो।। मज़हब वाले लोग अदूँ क्यों रहते हैं खैर वो जैसे हैं वैसे ही रहने दो।।
 तुम जो मिलते तो तुमको समझाते। झूठ  हैं  प्यार  वार  के  नाते ।। तुम मुझे याद तो नहीं करते तुम मुझे भूल क्यों नहीं जाते।। जिस्म किसको दिया नहीं मालूम दिल उसी को ही जाके दे आते।। तुम मिलोगे यकीं नहीं फिर भी तुम जो मिलते तो खूब बतियाते।। तुम तो मतले से खूबसूरत थे काश हम तुमको गुनगुना पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मैं लिखना चाहता हूँ व्यस्तता कलम पकड़ लेती है जिनके पास समय है वे क्या करते होंगे?
 मैं लिखना चाहता हूँ व्यस्तता कलम पकड़ लेती है जिनके पास समय है वे क्या करते होंगे?
 उस दौर के इंसान तो इंसान थे लेकिन उस दौर में शैतान नहीं थे ये वहम है।।साहनी
 रात इस सीने पे पत्थर सी रही। हर सुबह ख़ाली मुकद्दर सी रही।। दिन रहे हैं इन्तेज़ारों कि तरह साँझ भी भटके मुसाफ़िर सी रही।। ना मरहले हैं न मंज़िल न मुक़ाम ज़िन्दगी जैसे मुहाज़िर सी रही।। हम सिकन्दर की तरह भागा किये हासिलत पर एक फ़ाकिर सी रही।। ज़िन्दगी की कैफ़ियत ही दर्द थी मौत राहतखेज़ मंज़र सी रही।।
 जिस तुलना में काम बढ़े हैं महँगाई और दाम बढ़े हैं श्रम का मूल्य बढ़ा दो मालिक!! नदियां सिमटी पेड़ कट गए बारिश के आवर्त घट गये मौसम भी प्रतिकूल हो गए ऐसे में तुम भी पलट गए माना तुम मानव हो मालिक हम को पशु मत समझो मालिक मानव धर्म निभा दो मालिक!! श्रम का मूल्य बढ़ा दो मालिक।। जब जब हुए चुनाव देश में जागे सेवा भाव देश में ऐसा लगने लगा हमें अब नहीं रहा अलगाव देश में तुम जैसे आदर्श दिखे थे तुममे अपने दर्श दिखे थे फिर वह रूप दिखा दो मालिक!! वाज़िब हक दिलवा दो मालिक!!! देश बढ़ा हम पीछे क्यों हैं पहले से भी नीचे क्यों हैं तुम फकीर हो सौ करोड़ के हम मेहनतकश नँगे क्यों हैं हम धरती पर सोएं मालिक आसमान ही ओढ़ें मालिक गोली मत चलवाना मालिक!! तुम उपवास न रखना मालिक!!
 इक वही हूर की परी न थी। वैसे मुझमे भी कुछ कमी न थी।। वो मुझे देवता समझ लेती मुझमे पत्थर की सीरगी न थी।। आईने का उसे शऊर न था मेरी आँखों में तीरगी न थी।। मैंने शिद्दत से उसको चाहा था ये कोई खेल दिल्लगी न थी।। और मैं इंतज़ार क्या करता इतनी लंबी भी ज़िंदगी न थी।।
 एक ग़ज़ल पेशे-ख़िदमत है। आप सब का आशीर्वाद चाहूँगा। घरौंदे आशियाने किस लिए हैं। ज़हां भर के ठिकाने किसलिये हैं।। ज़रा बोलो ये गिरजाघर ये मस्ज़िद शिवाले आस्ताने किसलिये हैं।। डरे सहमे हैं इतने लोग आख़िर मसीहा-ए-ज़माने किसलिये हैं।। ख़ुदा के वास्ते कुछ तो बताओ भरम के सब बहाने किसलिये हैं।। प्रभू की किसलिये इतनी सुरक्षा ये सब बंदूक ताने किस लिए हैं।। अगरचे आप हैं माया से ऊपर तो दौलत पर निशाने किसलिये हैं।। सुना है छोड़ जाना है यही पर  तो इतने दर बनाने किसलिये हैं।। बिना कुछ भी किये वो पेट भरता तो ये कल कारखाने किसलिये हैं।। ग़ज़ल तो लिख रहे हैं #साहनी भी अभी तक ये अजाने किसलिये हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तेरी नज़रों से पीना चाहता हूँ। अभी मैं सच मे जीना चाहता हूँ।। कटी है इक शिकारे में जवानी मुहब्बत का सफीना चाहता हूँ।। वो दिल से खूबसूरत हो तो बेहतर सलोनी सी हसीना चाहता हूं।।
 दुनिया भर का ग़म है मेरी आँखों में। बारिश का मौसम है मेरी आँखों में।। सुख में दुख में दोनों में नम रहती हैं भावों का संगम है मेरी आँखों मे।।
 उसने जमकर घृणा परोसी है फिल्म उसकी ज़रूर हिट होगी।।साहनी
 तुम्हे आप कहना असहज लगता है  जैसे दो किनारों के बीच  औपचारिकताओं की गहरी नदी बह रही हो और तुम कह सकूँ  अपने रिश्तों में  अभी इतनी नज़दीकियाँ भी नहीं   ऐसा करते हैं हम कुछ दिन और देखते हैं साथ रह कर.....
 धर्मग्रंथों में लिखी बातें अंतिम सत्य भी नहीं होती। भारतीय दर्शन और संस्कृति विचार विमर्श टीकाओं और शास्त्रार्थ को मान्यता देता है। यहां तर्क को ज्ञान और ज्ञान को विज्ञान की कुंजी माना गया है। हमारे उपनिषद इसके श्रेष्ठतम उदाहरण हैं। हमारे यहां सनातन काल से सगुण निर्गुण, निराकार और साकार, आत्मा और ब्रह्म, एकेश्वर और बहुदेव ,आस्तिक और नास्तिक , ईश्वर और अनीश्वर ,शैव और वैष्णव  सगुण में भी तमाम सारे पंथ और निर्गुण में परमात्मा को स्त्री और परम पुरुष मानने वाले , तथा ब्राम्हण और शाक्त, आदि अनेक पंथ साथ साथ रहते आए है। यहां अंधास्था और वैज्ञानिक दोनों को सम्मान मिला है। बौद्ध जैन कबीर पंथी, सिख और पश्चिम अक्षेपन के रूप में यहूदी इस्लाम पारसी आदि के अस्तित्व को भी यहां सहजता से लिया जाता रहा है। अर्थात भारत   आदिकाल से शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को स्वीकारता चला आ रहा है।यदि आज बहुसंख्यक समुदाय उद्वेलित है तो अल्पसंख्यकों को उनकी भावनाओं को समझना चाहिए।हमें देखना होगा कि आखिर वे कौन लोग हैं जो स्वयं को धर्म का अधिपति या खुदमुख्तार बनाने की चेष्टा में पूरे समाज को ज़हालत और हिंसा के रास्ते पर चल
 आज मुझे हमराह बना लो। अपने दिल का शाह बना लो।। तुम दुनिया की चाहत होगी मुझको अपनी चाह बना लो।। शाम सवेरे आते जाते सोते जगते पीते खाते एक तमन्ना तुम जो मिलते तुमसे दिल की बात बताते जिन राहों पर चली प्रियतमें इन नयनों से उन्हें बुहारा किंचित तुम मेरे नयनों से मेरे दिल की राह बना लो....... बेशक राह निहारी प्रियतम उम्मीदें कब हारी प्रियतम एक न एक दिन मधुर मिलन की रही प्रतीक्षा जारी प्रियतम आज साधना का फल दे कर मेरी उलझन का हल दे कर मेरी आकुलता को प्रियतम  तुम अपनी अकुलाह बना लो...... दुष्कर पंथ सहज होगा प्रिय अपना साथ सुखद होगा प्रिय नीम नीम सा नीरस जीवन अपने साथ शहद होगा प्रिय कर दो मनोकामना पूरी आओ भाल करें सिंदूरी  दे दो हाथ मेरे हाथों में मुझको अपनी बांह बना लो....... सुरेश साहनी कानपुर