आग मांगी थी धुवाँ ले आया।

गर्दिशे-वक़्त कहाँ ले आया।।

सोग में मुझको डुबाया पहले

फिर तसल्ली का गुमां ले आया।।

मैं जहाँ छोड़ गया था मुझको

कौन शह कर के वहाँ ले आया।।

रेत पर एक घरौंदा तो था

कौन लहरों से निशां ले आया।।

मेरे तकिए पे वो हँस कर बोले

बेदरोदर भी मकाँ ले आया।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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