हरे भरे वन बाग
लहलहाती हरियाली दूर दूर तक
खेतों में मुस्काती सरसो पीली पीली
मन्थर मन्थर गति से चलते पवन झकोरे
दूर क्षितिज पर नावों जैसे तिरते बादल
आसमान छूने को उत्सुक उड़ते बगुले
सुखद प्रकृति संगीत चहचहाहट चिड़ियों की
कहीं वृक्ष की ओट कूकती प्यारी कोयल.....
सहसा जैसे एक धमाका हुआ कहीं पर
चिन्दी चिन्दी फूल हो गए
पत्तों पर की ओस गिर पड़ीं आहत होकर
मुरझाने सी लगी दूब
गिरी धरा पर एक हँसी क्षत विक्षत होकर
रो रो कर फिर गीत हो गए मौन
अँधियारा हँस पड़ा ठठाकर
पेड़ों से पीली हो होकर गिरी पत्तियाँ
पर सरसों के फूलों जैसा रंग नहीं था
घाटी का सौंदर्य झुर्रियोंदार हो गया
लाज समेटे अनावृत्त हो गईं चोटियाँ
तभी सामने मेरे आ गयी एक चढ़ाई
चढ़ता जाता हूँ मैं उस दुख पहाड़ पर
और अचानक ऊँचाईं से गिरते गिरते
भयवश काँप रहा हूँ आंखें फैल गयीं हैं
गिरता हूँ मैं गिरता हूँ गिरता जाता हैं
पर स्थिति से बचने की कोशिश जारी है
और अचानक एक ज्योति सी कौंध गयीं है
आहट से खुल गईं आंख सपना टूटा है
नहीं चाहना है अब उससे पुनः मिलन की
फिर भी दुख है उस प्रवाह के रुक जाने का
बहती थी जो कलकल कलकल प्राणदायिनी
अमृतमय वह स्वर लहरी ना सुन पाने का
हौले हौले पाँव बढ़ाता सम्हल सम्हल कर
शिशु प्रभात मेरे कमरें में आ पहुँचा है
पुनः हवा ने मन्थर बहना सीख लिया है
आ पहुँचा है समय तमस के मिट जाने का
धूप आ रही है छन कर मेरे कमरे में.....
सुरेशसाहनी, देहरादून 1992
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