थे शरीके सफर न पहुँचे हम।
घर से अपने ही घर न पहुँचे हम।।
रूह से दो कदम पे जन्नत थी
जिस्म से उम्र भर न पहुँचे हम।।
वो हमारे शहर में रहता है
और अपने शहर न पहुँचे हम।।
उस ख़ुदा की अना से बाज़ आये
वो जिधर था उधर न पहुँचे हम।।
खाक़ पाते अगर पहुँच जाते
खाक़ छूटा अगर न पहुँचे हम।।
आप भी अर्श पर न रह पाये
खैर है बाम पर न पहुँचे हम।।
इक दफा मयकदे टहल आये
फिर किसी दैरो-दर न पहुँचे हम।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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