प्रेम को देखा नहीं है

प्रेम की अनुभूति की है

माँ पिता जी साथ मिलकर

नित्य प्रति तैयार करके

नाश्ता और टिफिन दोनों

प्रेम से देते थे हरदम

यह कि बेटा लेट ना हो


मॉड्यूलर सा कुछ नहीं था

हाँ मगर मिट्टी का चूल्हा था मेरे घर

एक कोयले की अँगीठी

और दोनों साफ सुथरे 

माँ उन्हें नित साफ करती

लेपती मिट्टी से नित प्रति

और उस चूल्हे की रोटी दाल खाकर

हमें जो संतुष्टि मिलती

उसकी वजह प्रेम की सोंधी महक  थी

आत्मीयता के स्वाद से लिपटा   सचमुच प्रेम वह था......


सुरेशसाहनी, कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है