आप जाने किसलिये अक़वाम से जलते रहे।

मुल्क़ के हालाते-ख़ैरो-ख़ाम से जलते रहे।।


हमको मक़तल में बुलाया बातिलों ने प्यार से

आप चल देते फ़क़त पैग़ाम से जलते रहे।।


ग़म की रातें काटनी थीं मुख़्तसर   हो या तवील

हम चरागों की तरह आराम से जलते रहे।।


ज़ीस्त ने रोशन किये थे हासिलों के आफ़ताब

बेवज़ह ही आप सुबहो-शाम से जलते रहे।।


खुदबखुद क़िरदार मेरा रोशनी से भर गया

शुक्रिया जो आप इस बदनाम से जलते रहे।।


हममें तो आगाज़ से शौके-शहादत थी अदीब

आप किसके वास्ते अंजाम से जलते रहे।।


मन्ज़िलों के कैफ़ के तो आप भी हकदार थे

किसलिये फिर  मरहलों से गाम से जलते रहे।।


सुरेश साहनी कानपुर

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