तुम ,समय,तकदीर सबने ही छला है।

सूर्य मेरे भाग का जल्दी ढला है।।


फूल जैसे डाल से तोड़ा गया हूँ

पंखुड़ी दर पंखुड़ी नोचा गया हूँ

गंध लेना  फिर मसल देना    कला है।।

तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।।


हर समय हम साथ चलना चाहते थे

तुम बहुत आगे निकलना चाहते थे

पाँव में मेरे नियति की मेखला है।।

तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।।


राह में जब छोड़  तुम चलते बने 

किस हृदय से फिर तुम्हे अपना गिनें 

और कब सागर नदी से आ मिला है।।

तुम, समय, तक़दीर सबने  ही छला है।।


सुरेश साहनी, कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है