कब माने हैं कोई व्याकरण

कलम प्रेम में जब चलती है।

टेढ़े मेढ़े करती विचरण

कलम प्रेम में जब चलती है।।


मिलती है तो प्रेयसि की

अलकों से करती है क्रीड़ा

और विरह में तरह तरह से

भरती है अन्तस् में पीड़ा


प्रेम समान मानती है रण

कलम प्रेम में जब चलती है।।


भावनिष्ठ जब जब रहती है

सँजोती है रीति पुरातन

भावप्रवण होकर करती है

मर्यादाओं का उल्लंघन


करती है उन्मुक्त आचरण

कलम प्रेम में जब चलती है।।


कलम कभी सीता सी चलकर

पति पद का अनुसरण करे है

कभी उर्वशी रम्भा बनकर

यतियों के तप हरण करे है


करती है सर्वस्व समर्पण

कलम प्रेम में जब चलती है।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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