थे कभी अब तो गुज़िश्ता हो चुके हैं।

छोड़िये हम लोग मुर्दा हो चुके हैं।।

जा चुकी अफ़सोस करने की घड़ी

अब कई इबलीस ज़िंदा हो चुके हैं।।

भीड़ के सर सिर्फ चढ़ते हैं फ़रेब

कह के सच हम लोग तन्हा हो चुके हैं।।

उस मदारी के हुनर की दाद दें

सब तमाशाई तमाशा हो चुके हैं।।

उस ख़ुदा के पास ताकत थी कभी

नाख़ुदा उससे भी ज़्यादा हो चुके हैं।।

हम भी थे किनके जुनून-ए-इश्क़ में

जो रक़ीबों से शनासा हो चुके हैं।।

अब तो सच लिखने से बाज आ जाईये

झूठ वाले सब शहंशा हो चुके हैं।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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