सदियों सदियों हार हार कर
लहरों सा सर मार मार कर
सत्यवती की तरह समर्पण-
करना है तो मत विचार कर
झंझावात प्रलय दावानल
आँधी या घनघोर घटायें
बुझना ही है ,बढ़ना ही है-
अँधियारा क्या दीप जलाएं
पूर्वज अगणित मरते देखे
वंश वृद्धि का मोह न छूटा
फिर फिर पीड़ा प्रसव सरीखी
भुला काम ने यौवन लूटा
मेरे हाथ स्वयं शीथिल हैं
मैं किसको क्या बाँध सकूँगा
कोष हीन मैं ,शक्ति हीन मैं
किंचित कुछ भी दे न सकूँगा
कामी कपटी पुत्र हुए जो
मधुप्रेमी रोगी या भोगी
वीर्यविचित्र पुत्र यदि होंगे
आशायें धुसरित ही होंगी
ऐसी सन्ततियों के बल पर
आखिर किससे रार ठान लें
इससे बेहतर मौन धार ले
नीयति को उपहार मान लें
यदि आशीष लगे उपयोगी
यह ले लो कुछ शेष बचा है
होनी अनहोनी क्यों सोचें
विधना ने जब यही रचा है।।
सुरेशसाहनी
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