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Showing posts from April, 2023
 आंकना है  अगर  मुझे ,तो आंक , देखना है अगर मुझे तो देख ।  मेरी    मंजिल न तो मेरा हासिल , मेरी मेहनत मेरा हुनर तो देख  ॥ सुरेश साहनी
 क्यों टूटे दिल के अफ़साने लेकर बैठे हो। आख़िर किसको ज़ख्म दिखाने लेकर बैठे हो।। गए ज़माने के सिक्कों का कोई मोल नहीं मत सोचो अनमोल ख़ज़ाने लेकर बैठे हो।। सुरेश साहनी
 थम गयीं आकर बहारें रुत सुहानी चल पड़ी।। चल पड़ी फिर प्यार की अपनी कहानी चल पड़ी।। रार फिर तक़रार फिर मनुहार की बातें हुईं  प्यार का सिग्नल मिला तब राजधानी चल पड़ी।। सुरेश साहनी कानपुर
 अभी शून्य से सफर शुरू कर  शिखर चूमने निकल पड़ा हूँ.... सागर तक कितनी बाधायें जाति धर्म की प्रबल शिलायें राह रोकने को उद्यत हैं  सुन हिमनद सा उबल पड़ा हूँ.... अभी मेरी पहचान नहीं है अभिघोषित सम्मान नहीं है कद से कहीं अधिक साहस है तभी भीड़ में उछल पड़ा हूँ.... सब कुछ है बस नाम नहीं है महिमामण्डित काम नहीं है आज नहीं कल हो जाएगा लिए भावना प्रबल पड़ा हूँ.....
 देश बदलने के लिए मिला हाथ से हाथ। लोकतंत्र को दीजिये  चार कदम का साथ।।सुरेश साहनी
 प्रातः उठ कर कीजिये मज्जन अरु स्नान। लोकतंत्र के पर्व पर तब करिये मतदान।।सुरेश साहनी

मतदान

 जाति धर्म से ऊपर उठिए। सही गलत का चिंतन करिये। संविधान है धर्म देश का संविधान द्रोही मत चुनिये।। अपना भला चाहने वाले गुण्डे-बदमाशों से बचिए।। केवल अपनी जाति देखकर गुण्डा चुन अच्छा मत बनिये।। वे अपने मन की कहते हैं आप आपके मन की सुनिये।। भाषा जाति क्षेत्र और मज़हब तजिये सिर्फ देश को चुनिये।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जिसको अब तक पूजता था आप किंचित वह नहीं हैं। वो हमारा देवता था आप किंचित वह नहीं हैं।। अनगिनत घड़ियाँ गुज़ारी  अर्चना में साधना में रात दिन खोए रहे हम  प्रेम की आराधना में जो हमारी कामना था आप किंचित वह नहीं हैं।। जिसको अब तक पूजता था आप किंचित वह नहीं हैं।....... हृदय मीरा देह तुलसी दृष्टि पावन सूर जैसी और अंतस में सनम की छवि ख़ुदा के नूर जैसी  काम रति से अलहदा था आप किंचित वह नहीं हैं।। जिसको अब तक पूजता था आप किंचित वह नहीं हैं।........ सुरेश साहनी ,कानपुर
 अब के नेता सब करें , अपने मन की बात। चुनिए उसको जो करें जन के मन की बात।।सुरेश साहनी
 इक हसीं शौके-वहम पूजा है। हमने पत्थर का सनम पूजा है।। हमको मंज़िल भी कहाँ मिलनी थी उम्र भर ख़ाक़-ए- क़दम पूजा है।। रहती दुनिया को जलाकर हमने हैफ़ अहसासे- अदम पूजा है।। आपको जब कि ख़ुदा मान लिया आप कहते हैं कि कम पूजा है।। हमने पूजा है आदमियत को आपने जात धरम पूजा है।। लोग मरते है फ़क़त खुशियों पर हमने तो आपका ग़म पूजा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 कल भारत के कल को बेहतर होना है। हिम्मत रखो सत्य शिव सुन्दर होना है।। युग युग से ऐसा ही होता आया है हम को विष पी पीकर शंकर होना है।। कोरोना  कालिया नाग  मर्दित होगा जग कालीदह को  अमृतसर होना है।।
 किस वफ़ादारी की मुझसे है तवक़्क़ो आप को दोस्त था पहले कभी दुश्मन नहीं हूँ आज भी।।सुरेश  साहनी
 सच यही है मैं तुम्हारा दिल नहीं धड़कन नहीं। और अब मेरे हृदय के तुम भी स्पंदन नहीं।। फिर वफ़ादारी की मुझसे है तवक़्क़ो बेवज़ह दोस्त पहले भी नहीं था आज भी दुश्मन नहीं ।। किसलिए मैं गाँव जाऊँ सिर्फ यादों के सिवा जब वहाँ फुलवा नहीं ,पनघट नहीं बचपन नहीं।। अजनबी से खेत हैं अनजान हैं पगडंडियां उगती दीवारों के दिल मे प्यार के आँगन नहीं।। आशना होना मुहब्बत की निशानी भी नहीं और शाइस्ता निगाही तर्ज़े-अपनापन नहीं।। साफ किरदारी है बेहतर पैरहन बुर्राक से खूबसूरत तुम हो पर उजला तुम्हारा मन नहीं।। हुस्न है अब होटलों में   क्लब मैं है डिस्को में है इश्क़ को हरगिज़ जहाँ घुसने की परमीशन नहीं।। प्यास पनघट पर तड़प कर तोड़ देगी दम कि अब गांव में कजरी नहीं गगरी नहीं कजरारी पनिहारिन नहीं।। साहनी क्यों थामकर बैठे हो गुज़रे वक़्त को जो झटक कर चल दे तेरे यार का दामन नहीं।। सुरेश  साहनी ,कानपुर
 हर भोले बचपन  को सपनो की दुनिया  से  बाहर लाना होगा अपनों की दुनिया से अम्मा से बाबू से दादा से दादी से छुटकारा दिलवा कर झूठी आज़ादी से नाना और नानी से मामी और मामा से दावा से वादा से माझा से झामा से सूरज से चाचा से या चंदामामा से आधी हर नेकर से ऊँचा पाजामा से इन सब से बचना है यदि आगे बढ़ना है ग़ैरों से बचना है अपनों से लड़ना है मरना कब आसां है मुश्किल कब जीना है विष घट भी अमृत सम घूँट घूँट पीना है     ये भी समझाना जो हल और कुदाली है तसला हथौड़ी या गैंती भुजाली है तेरे पसीने के ये सब ही साथी हैं पानी का लोटा है रोटी की थाली है उठ तुझको दुनिया के साँचे में ढलना है दुनिया नहीं अपना तेवर बदलना है चल बेटा उठ जल्दी रोजी पर चलना है रधिया की दुनिया को बाहर निकलना है............. सुरेश साहनी, कानपुर
 सफर सफर गुजर रहे है हम। दर नहीं दर-ब-दर रहे हैं हम।। कोई नजरें मिला के कह देता उसके दिल में उतर रहे हैं हम।। उनकी तारीफ़ दूसरा न करे इतने फितना जिगर रहे हैं हम।। उसकी नजरों में कोई जादू है कतरा कतरा संवर रहे हैं हम।। सिर्फ अपने लिए ही क्या जीना कोई एहसान कर रहे हैं हम।। इतनी वहशत हमारी आँखों में क्या कभी जानवर रहे हैं हम।।
 चार रोटी नमक औ प्याज  के साथ हमारी भूख तेरी दावतों पे भारी है।।
 जब बस्ती में आग लगेगी हमीं बुझाएंगे। उससे पहले आग लगाने  भी हम आएंगे  ।। हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में भाई इनको पहले लड़वाएंगे फिर मिलवायेंगे।। जाति धर्म भाषा मजहब से भूख नहीं मिटती हम इनके द्वारा ही अपनी भूख मिटायेंगे।। राजनीति को धर्म समझना बड़ी मूर्खता है किन्तु धर्म की राजनीति को हम अपनाएंगे।। शेमलेस होकर ही हम संसद में पहुंचेंगे फिर संसद में शेम शेम हम ही चिल्लायेंगे।। सुनते है पिछले डिब्बे में  झटके लगते हैं हम गाड़ी में पिछला डिब्बा नहीं लगाएंगे।।
 तुम अपने नेकदिल होने का कोई तो भरम दे दो। मुझे कुछ भी न दो मंजूर है बस अपने गम दे दो।।
 जब तुम संघर्षों के पथ पर पाते हो खुद को कुछ कमतर चल न सको आवाजें दे दो।।..... मत होना तुम भय से कातर साथ मिलेगा कदम कदम पर केवल तुम आवाज लगा  दो।।..... रण है निश्चय होना ही है कुछ तो निर्णय होना ही है तुम निर्णायक हो सकते हो।।..... जीत गए तो राज करोगे मृत्यु हुयी तो स्वर्ग चलोगे हर स्थिति में तुम विजयी हो।।..... हाथ बढ़ाओ ,कदम मिलाओ मेरे स्वर के तार बढ़ाओ नारे और हुलारे दे दो।।....... चल न सको आवाजें दे दो।।.....
 आओ बैठो सुख-दुःख पूछो अपने दिल का हाल कहो इतनी जल्दी जाओगे तो दिल वाले मर जाएंगे।।सुरेश साहनी
 जरा हम तीरगी में आ गए हैं। मेरे साये किधर कतरा गये हैं।। मैं खुश हूँ इश्क़ से आज़ादियों में  हमारे ग़म से वो झुंझला गये हैं।। हमारी आरजुएं मिट चुकी हैं तुम्हें खोकर हमें हम पा गये हैं।। हमें रोशन करेंगी बिजलियाँ ही अगरचे गम के बादल छा गए हैं।। हमारा ज़िक्र होगा महफिलों में हजारों गीत हम जो गा गये हैं।। बड़ी तहज़ीब से हमसे मिले सब लगा हम मैकदे में आ गए हैं।।
 हम तो ग़म में खुश रहते हैं। रंज़ो-अलम में खुश रहते हैं।। उनको हैरत है हम कैसे इस आलम में खुश रहते हैं।। दरिया सागर में मिलने दो हम संगम में खुश रहते हैं।। दानिशवर समझे जो खुद को सिर्फ वहम में खुश रहते हैं।। तुम खुशियों को बाहर ढूंढ़ो हम तो हम में खुश रहते हैं।।
 रिश्ता बड़ा सहारा भी है। रिश्तों ने ही मारा भी है।। मुझे कत्ल करने वालों में दिलवर नाम तुम्हारा भी है।। रिश्तों की कीमत पर हमने जाने क्या क्या हारा भी है।। रिश्ते बचे रहें इस ख़ातिर मिट जाना स्वीकारा भी है।। कुछ रिश्तों ने डुबा दिया तो कुछ ने हमें उबारा भी है।। अगर जरूरी लगा कभी तो रिश्तों ने फटकारा भी है।। रिश्तों ने बचपन से अबतक दुलराया पुचकारा भी है।। रिश्तों का सम्मान जरूरी रिश्तों से उजियारा भी है।। रिश्तों से घर है छाया है  आँगन आस ओसारा भी है।।
 ए भइया!तूँ ई का कईलS। आगि लगा के कोना धइलS।। आपन बोली माई दादा गांव गड़ा कुल बिसरा दिहलS।। हम सोचलीं तूँ आगे जइबS तूँ एतने में छितरा गइलS ।। करिया से उज्जर ना होइबS हरखू से तS हैरी भइलS ।। आजु गाँव में अइबो कइलS अवते घर बांटे के  कहलS ।। मेहरी पवलS मेहरा होके माई के गरियावे लगलS।। जा ए बाबू जूड़े रहिहS जइसन कइलS  नीके कइलS।।
 हमें तुमको यगाना चाहिए था। तुम्हें महफिल का बाना चाहिए था।। ख़ता मेरी बताकर जा रहे हो तुम्हें तो इक बहाना चाहिए था।।
 एकाकीपन के मेले में खोकर देखो और नहीं तुम सिर्फ स्वयं के होकर देखो दुनियादारी बोझ नहीं है समझ सकोगे केवल इकदिन बोझ स्वयं का ढोकर देखो
 काहे का एकाकीपन है जब तुममें ही खोया मन है मुझमें भी तुम ही दिखते हो जाने ये कैसा दरपन है
 तुम्हारे अश्क़ यक़ीनन मलाल देते हैं।  हमारे अश्क़ समुन्दर उछाल देते है।। सुकूने-बहर में तूफाने- बहरे-ग़म भी है जो किश्तियों को भँवर से निकाल देते हैं।।
 दिल इतना बेताब नहीं था। यूँ भी उधर नक़ाब नहीं था।। ज़ख्म दिए मेरे अपनों ने  खंज़र में वो ताब नहीं था।। टूटा पलक झपकते कैसे दिल था तेरा ख़्वाब नहीं था।। ख़ैर करो दो बूंदे बरसीं अश्कों का सैलाब नहीं था।। दिल ने कई सवाल उठाए जां के पास जवाब नहीं था।।  नाहक नज़र हटाई तुमने इतना बड़ा हिसाब नहीं  था।। इश्क़ फकीरों का था माना हुस्न कोई नव्वाब नही था।। क्यों सुरेश बस्ती में आया अपना गाँव ख़राब नहीं था।। **सुरेश  साहनी कानपुर **
 हाँ शिकायतें हैं तुमसे अपनापन कम मिलने की फिर सोचा करता हूँ  क्या मैंने परिपूर्ण दिया है।। जीवन कम है या  ज्यादा माने तो रखता है पर जितना साथ मिला हमने क्या वह सम्पूर्ण जिया है।।
 क़ौम के क़ातिल बहुत हैं। हक़ कहें बातिल बहुत हैं।। आप ने इल्ज़ाम थोपे और हम बिस्मिल बहुत हैं।। एक दो  हों  तो बतायें और भी ज़ाहिल बहुत हैं।। आप के ग़म में मरे क्यों और भी हासिल बहुत हैं।। कोई मरहम हो तो देना यां भी उजड़े दिल बहुत हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वो तुमने समझा कि बादे-सबा सी गुज़री है ख़ुदा कसम तुम्हें आवाज़ दे रहा था मैं।।साहनी
 मंज़र ये हक़ीक़त के भरम तोड़ रहे हैं। हम आप का हर एक वहम तोड़ रहे हैं।। जब इंतजामिया का ही दम टूट चुका हो  फिर जाके बताएं किसे दम तोड़ रहे हैं।।  कल तुझको दिखेगा जो परस्तार हैं तेरे बाज आके तेरे दैरो-हरम तोड़ रहे हैं।। ये कैसे हैं महबूब कि जिस दिल मे रहे हैं उस घर को ये पत्थर के सनम तोड़ रहे हैं।। अब तुझको दुआओं में रखें हमसे न होगा जा तुझसे मुहब्बत की क़सम तोड़ रहे हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 कर्तव्य नदारद है सद कर्म नदारद है। बेशर्म कलमकारों की शर्म नदारद है। अन्याय के प्रतिकूल अब आवाज नहीं उठती इन भोथरी कलमों का कवि धर्म नदारद है।। सुरेश साहनी कानपुर
 कोई ज़िद आसमानों तक न पहुंचे। मुहब्बत इम्तेहानों तक न पहुंचे।। करो तकरार लेकिन हद में रहकर अदावत खानदानों तक न पहुंचे।। अदब का सिलसिला तहजीब से है ये गिर के पायदानो तक न पहुंचे।। तो बेमतलब की समझो नज़्मगोई अगर ये हमजुबानों तक न पहुंचे।। हमारे हुक्मरां बहरे रहेंगे जो हम सब  उनके कानों तक न पहुंचे।।
 तुम जो वादा निभा रहे होते। ईद हम भी मना रहे होते।।
 रस्ते हैं धूप भी है शज़र एक भी नहीं चारो तरफ मकान हैं घर एक भी नहीं।।
 एगो मित्र के दुकान कस्बा में बावे ,एकदम्म रोडवे से सटल ।मित्र के छोट भाई छोटू  बैठेलन । एक हाली  गौंवे के एगो काका लगिहन बाछी लिहले जात रहुवन । छोटूवा बोललस ,काका सकराहे केने हो ? काका  कहुवन ,पाल खईले बिया भारी करे ले जात बानी । बात आईल गईल हो गईल । एक दिन काका काकी के साथै जात रहुवन । छोटुवा पूछता ,ए काका आजू नाही बताईब केने जात हईं ?काका लाठी तान के खदेर लिहलन ।
 जब सोवियत संघ जूझ रहा था सो रहे थे कॉमरेड शायद उन्होंने साइंस नहीं पढ़ी होगी या वे नहीं जानते रहे होंगे डायनासोर के बारे में जो कभी दुनिया पर राज करते थे जब ग्लासनोस्त  और पेरेस्त्रोइका का दौर चला वे तब भी सो रहे होंगे फिर धीरे धीरे गढ़ ढह गया क्या तब भी कॉमरेड सोते रहे  नहीं नहीं ! जाग चुके होंगे लेकिन उनके अंदर का कॉमरेड दायीं करवट ले चुका होगा और वे बचा रहे होंगे अपने अपने कम्यून दो रोटी और छोटी छोटी सुविधाओं के लिए......
 किसानों ! तुम्हारे पास खेत हैं  हल है बैल हैं ,मेहनत है तुम हल बैल गिरवी रखकर बीज और यूरिया  खरीद सकते हो  खेत के कागज  बैंक में रखकर किसान क्रेडिट कार्ड  ले सकते हो तुम हमारे लिए मेहनत कर सकते हो तुम अगली फसल  उगा सकते हो गेहूं की फसल  फसल नहीं होती तुम गेहूं के बदले ब्रेड खा सकते हो पर तुम किसान नहीं हो सच्चा किसान मर जायेगा आंदोलन नही करेगा आखिर  अमिताभ बच्चन भी किसान है।।।।
 कब मैं सम्हला जो लड़खड़ाऊंगा। होश कब था कि बहक जाऊंगा।। किसने बोला मैं रूठ जाऊंगा। जब मिलोगे मैं मुस्कुराउंगा।। अपनी चाहत पे यदि भरोसा है मैं कहीं जाऊँ लौट आऊँगा।। तुमको शक है तो रूठकर देखो तुमको हर हाल में मनाऊंगा।। शर्त होती नहीं मुहब्बत में फिर भी शर्ते-वफ़ा निभाउंगा।। प्यास किसकी बुझी है सागर से किसलिए  मयक़दे में जाऊंगा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आंख भर नींद उतारी कब थी। रात भर रात हमारी कब थी।। तुमसे उम्मीद हमें थी  लेकिन  तुमने तकदीर सँवारी कब थी।। दिन उजालों में भी उजले कब थे रात भी  रात से भारी कब थी।। ज़िन्दगी ज़ीस्त से जीती कब है ज़िन्दगी मौत से हारी कब थीं।।  हसरतें तन्हा कहाँ रहती हैं आरजुये भी कुंवारी कब थी।। कैसे होते जवां एहसास मेरे शोखियाँ तुमने उभारी कब थी।। हम में माना थी शरारत लेकिन तुम कहो तुम भी बेचारी कब थी।। तेरी आँखों मे नशा है अब भी हम में इस मय की ख़ुमारी कब थी।। हम तेरा हुस्न मुकम्मल करते तुमने वो रात गुज़ारी कब थी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अपने जज़्बात मत दबाया कर। प्यार आता है तो जताया कर।। भूलना है तो भूल जाया कर। फिर कभी याद भी न  आया कर ।। वो ख़ुदा संग दिल नहीं होगा पत्थरों में न वक़्त ज़ाया कर।। रक़्स पाजेब से नही  होते दिल को ये बात भी बताया कर।। आईना किससे प्यार करता है आईने से न दिल लगाया कर।।
 छोड़ कर वो शहर निकल आए। हम नई राह पर निकल आए।। मुझमें क्या देख कर कहा उसने चिटियों के भी पर निकल आए।। ज़िंदगी को हसीन समझे थे ज़िंदगी में ही डर निकल आए।। क्या पता नफरतों की लंका में इश्क का एक घर निकल आए।। ज़िंदगी को ग़ज़ल में मत बांधो जाने कैसी बहर निकल आए।। ज़िंदगी तो उधर ही रहती थी हम न जाने किधर निकल आए।। मौत हो आख़िरी सफ़र मौला फिर न कोई सफ़र निकल आए।। हम ज़माने की मांद में जाकर फिर मिलेंगे अगर निकल आए।। काम आ जाए तीसवां रोज़ा ईद वाला कमर निकल आए।।  सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये किसान आत्महत्या क्यों करते है इन्हें पता नहीं यह संज्ञेय अपराध है; किसानों की ज़मीनें जब्त कर लो देश की खातिर किसानों से कहो  वह गाँव से बाहर निकलकर अपनी ख़ातिर नौकरी ढूंढें। जो गांवों से शहर में आ बसे हैं उन गँवारों से कहो तुम्हारी ही वज़ह से इन महानगरों में दिक्कत है सुनो तुम गांव जाकर खेत क्यों नहीं सम्हालते तुम जिन खेतों को बंधक रखकर आये थे उन्हीं खेतों में नौकरी क्यों नहीं करते और यह नौजवान पीढ़ी  रोज़गार के पीछे क्यों भागती है इन्हें पढ़ लिख कर  देश के उत्थान में हाथ बंटाना चाहिए आख़िर नौकरी रोजगार का अंतिम विकल्प नहीं ये पकौड़ा भी तल सकते हैं या आधुनिक तरीके से खेती कर सकते हैं पर सुनो गांव में जाकर कोरोना मत फैलाना अभी शहर से गांव जाना देश द्रोह है।।.....
 जागो जागो फिर परशुराम! निर्बल जन का सुन त्राहिमाम।।..... अब के कवि कब लिख पाते हैं अपने अन्तस् की वह पुकार। जिसको सुन सुन कर परशुराम का  परशु उठा इक्कीस बार।। आओ पुनि कर में परशु थाम हैं सहसबाहु अब भी तमाम।।.... त्यागो महेंद्र के आसन को मानवता करती है पुकार अगणित महेंद्र फर्जी नरेंद्र विस्मृत कर जन के सरोकार करते कुत्सित अरु कुटिल काम  इन सबको दे दो चिर विराम।।.... नन्दिनियाँ करती त्राहिमाम!!! बढ़ते जाते हैं सहसबाहु क्या दानवदल  फिर जीतेगा विजयी होंगे फिर केतु राहु फिर करो धरित्री दुष्ट हीन फिर परशु उठाओ परशुराम!!! होती अबलाएं नित्य हरण क्यूँ फिर से राम नही आते  दुस्साशन करते अट्टहास पटवर्धन श्याम नहीं आते भारती न होवे तेजहीन जागे कल का सूरज ललाम!!! सुरेश साहनी
 किसी लिहाज़ से इतना गुमान ठीक नहीं। जमीन वालों हवा में उड़ान ठीक नहीं।।
 हक़ो-हुक़ूक़ के लंगर जो डाल रखे हैं। इसी से हमने समन्दर सम्हाल रखे हैं।। उरुज़े हुस्न पे इतना गुरुर ठीक नहीं इसी के बाद ख़ुदा ने ज़वाल रखे हैं।। हमारे हौसलों से आसमान झुकता है कि हमने आस के पत्थर उछाल रखे हैं।। कभी जो वक्त मिले आके हमसे ले लेना हमारे पास तुम्हारे ख़याल रखे हैं।।
 तुम्हे खेल लगती हैं बातें हमारी डराता है हमको लड़कपन तुम्हारा।।सुरेश साहनी
 मेरे हितैषी मित्रगण और प्रशंसक अक्सर सलाह देते हैं कि आप अपना रचना संग्रह निकालें। मैंने बताया कि लगभग दो हजार कविताएं हैं। सात आठ कहानियां हैं,दर्जन भर निबन्ध हैं।दो चार व्यंग भी हैं। कवियों में जो ब्राण्ड नेम बन चुके है उन को छोड़कर हिंदी कवियों की दुर्दशा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।अब कुछ भी लिखकर कविता के नाम से चेप देने वालों की बात अलग है।ऐसे लोग हर महीने एक कविता संग्रह निकाल देते हैं। कई बार भ्रम होने लगता है।कवि सम्पन्न हो जाता है या सम्पन्न ही कवि होते हैं। कानपुर के कवियों पर तमाम संकलन निकल चुके हैं।अभी तक मैं किसी मे भी स्थान पाने में असमर्थ रहा हूँ। मेरे एक मित्र हैं वे अक्सर कहते हैं कि वे रहस्यवादी कवि हैं।उनकी कविताएं हमारी समझ मे नहीं आती।वे कहते हैं,यही तो रहस्य है।अभी उनकी  गुणवत्ता पर एक कविता को फैक्ट्री के मुख्य सूचनापट पर स्थान दिया गया। 1000/₹ पुरस्कार स्वरूप भी मिले। उसमें उन्होंने लिखा था     अपने जी एम पी के दत्ता     हमें बढ़ानी है गुणवत्ता       रोजी रोटी कपड़ा लत्ता        कूड़ा करकट कागज गत्ता          सारे काम करेंगे मिलकर           सफल करेंगे हम गुणवत्ता
 चलो फिर आसमां छूने की कोशिश तो करें। सितारे तोड़ कर लाने की ख्वाहिश तो करें।। थमेगी और मिटेगी भी अंधेरों की शहंशाही इक छोटी सी कोई चिनगारी  जुम्बिश तो करे।।सुरेश साहनी
 लेना- देना तो होता है  प्यार मगर व्यापार नहीं है। अग्नि परीक्षा ले लो लेकिन अविश्वास स्वीकार नहीं है।। मेरा हृदय तुम्हारा घर है औरों का आगार नहीं है।। कैसे तुमने मान लिया यह हमको तुमसे प्यार नहीं है।।
 कि मैं शरीके-गुनाह कब था। बताओ वो बेगुनाह कब था।। वो कब न था दाग़दार यारों हमारा दामन सियाह कब था।। जो सबकी ग़ुरबत बता रहा है वो खुद भी आलमपनाह कब था।।  बसा रहा था हमारे दिल को हमारा दिल पर तबाह कब था।। वो हमपे तोहमत लगा रहा है कहे तो वो मेरी राह कब था।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चाँद तारों पे क़दम थे अपने। जब तलक आप सनम थे अपने।। आप हैं अपने वफादारों में हाय रे क्या क्या वहम थे अपने।। क्या ख़बर थी वो सितमगर भी हैं जो कभी अहले-करम थे अपने।। कौन अपना है ज़माने में जब तेरी महफ़िल में भी कम थे अपने।। वो मेरे हाल पे कितने खुश हैं जिनके हर रंज़ो-अलम थे अपने।।
 तुमसे अनजानापन क्या है। इसमें दीवानापन क्या है।। तुमने दर्द दिया हम रोये इसमें मनमानापन क्या है।। तुमको जितना पढ़ लेते हैं अपने आगे दरपन क्या है।। क्यों हमसे रूठे रहते हो आख़िर ऐसी अनबन क्या है।। सुरेश साहनी, कानपुर घाव पे घाव दिये जाते हो ऐसा भी अपनापन क्या है।। बीच भंवर में छोड़ रहे हो पूछ रहे हो उलझन क्या है।। खुद का होश नहीं रहना गर प्यार है तो पागलपन क्या है।।
 मैंने कह तो दिया नया क्या है। इसमें सौ बार पूछना क्या है।। हौसला है तो चल रहा हूँ मैं वरना आंधी में इक दिया क्या है।। तुमको देखा तो प्यार जाग उठा क्या बताऊँ कि माजरा क्या है।। इश्क़ होता है दर्दे-दिल की दवा दर्द है इश्क़ तो दवा क्या है।। चाहता हूँ सलामती उनकी मैं नहीं जानता दुआ क्या है।। यूँ ज़रूरत हैं हम ख़ुदा की भी हम नहीं हैं तो फिर ख़ुदा क्या है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जो भी मुहब्बत सीख गया है। कुछ तो शराफत सीख गया है।। वैसे भी वो सादिक़ दिल था और सदाक़त   सीख गया है।। ईमां से  भटका है  शायद बुत की इबादत सीख गया है।। हम भी यक़ी से पुख़्ता हो लें यार अक़ीदत सीख गया है।। ख़्वाब पशेमां हो जाते हैं क्या क्या हरकत सीख गया है।। हाँ इतना है इश्क़ में सब की करना इज़्ज़त सीख गया है।। दर्द भी देगा हौले हौले इतनी मुरौवत सीख गया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मुझसे कोई सवाल करो फिर ज़वाब लो। पहले मेरा खयाल करो फिर ज़वाब लो।। दुनिया ने क्या किया ये बताएंगे बाद में तुम भी कोई कमाल करो फिर ज़वाब लो।।
 मेरा दुख कम करते करते घाव हृदय के भरते भरते मुझसे प्रेम न करने लगना। पीड़ाएँ होती हैं छलना।। बचपन से लेकर यौवन तक यौवन से लेकर इस क्षण तक मन की आकुलता से लेकर व्याकुल तन के आकर्षण तक कुछ पा लेने की कोशिश में कुछ अपना मत खोने लगना।। मुझसे.... मेरे हंसने में दुनिया को केवल मेरा सुख दिखता है मैं भी ढक लेता हूँ वह सब जिसमे मेरा दुख दिखता है मेरे आँसू क्या रुकने हैं तुम मत नयन भिगोने लगना।।मुझसे .. पीड़ाओं ने अपनाया है प्रेम कहाँ मैने पाया है तुम कुछ समझो लेकिन मैंने केवल पीड़ा को गाया है।। मैं गाता हूँ भूल सकूँ दुख तुम पीड़ा मत गाने लगना।।मुझसे..... सुरेश साहनी
 गंजी खोंपड़ियों से लंबे केशों से। कुटिल हृदय से उकसाये आवेशों से।। खुदा और भगवान बेचते लोगोंसे मन का मलिन ढाकने वाले वेशों से।। भाई चारा अमन चैन का युग बीता आज जूझता समय कलह से क्लेशों से।। देश भरा है रियासतों इस्टेटों के फर्जी सुल्तानों से छद्म नरेशों से।। अब संसद में सहमति वाली बात गयी शायद मुल्क चलेगा अध्यादेशों से।। हे प्रभु भूले से भी ऐसा मत करना देश हमारा ले निर्देश   विदेशों से।। सुरेश साहनी, कानपुर
 रोते रोते हंसने वाली फितरत रख। हंसते हंसते रोने वाली आदत रख।। क्या जाने कब तुझको जाना पड़ जाये बैठे बैठे चल पड़ने की ताक़त रख।। मंज़िल कब आसानी से  मिल  पाती है गिर गिर करके भी चढ़ने की कुव्वत रख।। प्रेम गली से सूली तक ही जाना है खुद को खोकर पाने वाली हिकमत रख।। जैसे तू चल पड़ता है सब की खातिर ऐसे ऐसे चार जनों की सोहबत रख।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ग़ैरों को जोड़े फिरते हो। क्या अपनों से भी जुड़ते हो।। कुछ अपनों को फोन ही कर लो कुछ अपनों से हाल भी पूछो दिन भर  फोन लिए रहते हो।। व्हाट्सएप के कूड़ा करकट खाली पीली बोगस फोकट कॉपी पेस्ट किया करते हो।। अपने कई मित्र ऐसे हैं जाने कब से नहीं मिले हैं क्या उनकी चिंता करते हो।। बेशक़ डेली पोस्ट करो सर औरों को भी पढ़ा करो पर भाई! क्या ऐसा  करते हो।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132
 अब मत पूछो मुझसे कितने  सौगात समय ने छीन लिए। जैसे बचपन की सुबह शाम  दिन रात समय ने छीन लिए।। जो दिया समय ने छीन लिया  जो नहीं दिया वह भी छीना कर दिया देह की चादर का  अंतर्मन उससे भी झीना अंतस्थल कर कर के विदीर्ण  जज्बात समय ने छीन लिए।। छीना बाबू जी का दुलार ममता का आंचल छीन लिया आंगन पनघट वीथी गलियां में बीता हर पल छीन लिया साहब कहकर लल्ला वाले सब ठाठ समय ने छीन लिए।। बचपन तो गया लड़कपन भी यौवन अल्हड़पन ले डूबा तब बना बुढ़ापे में आकर हरि भजन भाव का मंसूबा अब मिले भुने मेवे बदाम जब दांत समय ने छीन लिए।। सुरेश साहनी कानपुर ९४५१५४५१३२
 मैं भी कलम चला लेता हूँ। दिल अपना बहला लेता हूँ।। लोग कहा करते हैं अक्सर तुमने लाइन गलत पकड़ ली, तुम अच्छे कवि हो सकते थे जाने  क्यों  मजदूरी कर ली, मैं खुद को समझा लेता हूँ।।दिल.....
 जो गांधी को गरियाता है। वो ही नेता बन जाता है।। अब पूरे किसको करने हैं  वो वादा तो कर जाता है।। अपनी माता का ध्यान नहीं जय माता दी चिल्लाता है।। जनता की माँगें बारिश है उसका चुनाव चिन्ह छाता है।। जो तड़ीपार अपराधी था अब अपना भाग्य विधाता है।। जनपथ पर पड़ी सिसकती है हाँ वो ही भारत माता है।।
 एक कंवल को कंवल बना दें। तुम पर भी इक ग़ज़ल बनादें।। तुम तो खुद इक ताजमहल हो कहो तुम्हारा बदल बना दें।। इतनी कुव्वत फ़क़त ख़ुदा में है कि तेरी नकल बना दे।। तू चाहे तो मुमकिन भी है मेरा हर दिन अज़ल बना दे।। तुझको मौला ने भेजा है मेरा जीवन सफल बना दे।।
 उसमें पहले जैसी आदत अब नहीं है। मेरे दिल में उतनी इज़्ज़त अब नही है।। मुंह चुराकर बादलों में जा छिपा है  रौशनी थी उसकी फितरत अब नहीं है।। पास है दो गज़ ज़मीं भी आज जब साहनी भी बे-दरों-छत अब नही है।। तुमको आना है तो आओ ठीक है पर वो पहले सी मुहब्बत अब नही है।। जिस वज़ह से तुम कभी बेरुख़ हुए जा चुकी है अपनी ग़ुरबत अब नही है।। सुरेश
 पास रहकर गुम कहाँ हो। हम यहां हैं तुम कहाँ हो।। आज जी लो जिंदगानी कल कहाँ हम तुम कहाँ हो।। ज़लाल सम्हलेगा तो कैसे अकबरी बेग़म कहाँ हो।। दम निकलता जा रहा है ऐ मेरे हमदम कहाँ हो।।
 क्या बचता प्रतिबिम्ब तुम्हारा  मन दर्पण तो टूट चुका है। जितना मुझसे हो सकता था उससे अधिक निभाया मैंने एक तुम्हारी ख़ातिर कितने अपनों को ठुकराया मैंने क्या बोलूँ जब मुझसे मेरा अपना दामन छूट चुका है।।..... इस मंदिर में तुम ही तुम थे जिसका प्रेम पुजारी था मैं पर तुमको यह समझ न आया सचमुच बड़ा अनाड़ी था मैं  प्रेम कहाँ अब बचा हृदय में हृदय कलश तो फूट चुका है।।.... माना मेरा दिल पत्थर है दिल में किन्तु तरलता भी है ऊपर ऊपर भले तपन   है पर मन मे शीतलता भी है किसको दोष लगाऊँ मुझसे आज समय तक रूठ चुका है।।... सुरेश साहनी
 तुम हमारे नहीं हो कोई ग़म नहीं हम तुम्हारे हैं इतना बहुत है सनम।।
 जाम चलने का इन्तेज़ार न हो। शाम ढलने का इन्तेज़ार न हो।। प्यार करने का है मुहूरत क्या दिल मचलने का इन्तेज़ार न हो।। चाहतें जबकि हैं सुलग उट्ठी  जिस्म जलने का इन्तेज़ार न हो।। जिस्मो- जां सब से लूट लो मुझको दम निकलने का इन्तेज़ार न हो।। दिल न चाहे तो छोड़ दो उसको मन बदलने का इन्तेज़ार न हो।। साहनी जी फ़रेब को समझो हाथ मलने का इन्तेज़ार न हो।। सुरेश साहनी, कानपुर
 राह प्रगति की देखते बीते यूँ कुछ साल। जीवित भी तकलीफ में मुर्दे भी बेहाल।। एक एक कर जा रहा अच्छा हिन्दुस्तान। आख़िर कब तक थमेगा कोविड का तूफान।। जब दुनिया हो जाएगी भक्तों से वीरान। तब तन्हा क्या करेगा मन्दिर में भगवान।। मन्दिर मस्जिद के लिए जूझ रहे इंसान। अस्पताल स्कूल पर जाता किसका ध्यान।। एक प्रगति  पा ही गया अपना हिंदुस्तान। गलियां कब्रिस्तान है गांव गांव शमसान।।
 आज उसने कहा गुलाब मुझे। जो समझता रहा ख़राब मुझे।। मेरा उससे कोई सवाल न था उसने भेजा मगर जवाब मुझे।। दिल से चश्में उबालता लेकिन उसने समझा फ़क़त सराब मुझे।। उसको जुगनू पसंद थे शायद यार कहते थे आफ़ताब मुझे।। वो सरापा शराब थी गोया पी गयी फिर वही शराब मुझे।। किस तरह कह दें बेनयाज़ उसे जो दिखाता रहा है ख़्वाब मुझे।। जाने किसका लिहाज है उसको चाहता है जो बेहिसाब मुझे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अकेले तुम नहीं हो यार उनके। यहां है और भी बीमार उनके।। कोई मर जाए तो उनकी बला से वहां है खून में व्यापार उनके।। ये दहकां क्यों नहीं समझें हैं याराब कभी होंगे नहीं जरदार उनके।। हसन बैयत तुम्हें क्यों कर मिलेगी अगर हैं मोमिनों अंसार उनके।। उन्हें रुसवाइयों का डर भी क्यूं हो सहाफी उनके हैं अखबार उनके।। यहां काजी है जिनका भीड़ उनकी शहर उनका है संगोदार उनके ।। वकील उनका यहां मुंसिफ उन्ही का मुकदमा उनका पैरोकार उनके।। सुरेश साहनी , कानपुर
 बदले रंग सियार के देख समय के दांव। नींबू भी बिकने लगा नारंगी के भाव।। साहनी
 जब दूजे पर आफत टूटे,हम रखते हैं मौन।  अपना नम्बर आ सकता है ,तब बोलेगा कौन।।
 अपने दिल नज़रो-जिगर सब मे निहां रखता हूँ। क्या बताऊँ मैं तुम्हें और कहाँ रखता हूँ।। इश्क़ मेरा तेरे रुसवाई का वाइस न बनें कहने वाली कई बातें यूँ अयां रखता हूँ।।साहनी
उठती गिरती लहरों ने जब मझधारों का दामन छोड़ा।  तट पर जैसे उम्मीदों  ने टकराकर अपना दम तोड़ा।।
 उनके सालों की मुहब्बत देखिये। जम के कर डाली हजामत देखिये।। घर में बीवी और बाहर है पुलिस और क्या होगी क़यामत देखिये।। इक ज़रा बाहर टहल कर आईये और फिर अपनी मज़म्मत देखिये।। हम तो फिर भी साहिबे ईमान हैं शेख कुछ अपनी भी हरकत देखिये।। धो दिए चुपचाप बरतन और क्या खान साहब की ही हालत देखिये।। अब मैं समझा हश्र के इंसाफ को सिर्फ़ मर्दों को है जन्नत देखिये।।
 उनकी सुना करें कभी अपनी कहा करें। आदत ये डाल प्यार से घर में रहा करें।।
 #भोजपुरी_ग़ज़ल ज़िन्दगी एक दिन तS मुअईबे करी। मौत से नातेदारी निभईबे करी।। उ हँसाई कबो आ रोवाई कबो जिन्नगी बा  त खेला खिलईबे करी।। सौ बरिस के तूं सामान करि लS सखी तुहके नईहर त छूछे पठईबे करी।। जिन्नगी लाज केतनो बचा के चली मौत के हाथ एक दिन गंवईबे करी।। नाम लिहले चलS प्यार बाँटत चलS काम आवे के होई त अइबे करी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सुप्रसिद्ध हिंदी दैनिक #अमरउजाला ने भी स्थान दिया था। दुनिया पर मंडरा रहा है चीनी आतंक ज़हर फेंकता है कहीं ,कहीं मारता डंक कहीं मारता डंक मार है अमरीका तक  ऑस्ट्रेलिया यूरोप डरा है अफ्रीका तक  कह सुरेश कविराय  लगाकर सीधी गुनिया हम सब मिलकर आज बचा सकते हैं दुनिया।। - सुरेश साहनी
 उसकी क़ातिल निगाह उफ़ तौबा कितनी शीरी है आह उफ़ तौबा।। उनके कदमों में झुक गए आकर कितने आलम पनाह उफ़ तौबा।। उनका मरमर का जिस्म हय अल्ला उसपे जुल्फें सियाह  उफ़ तौबा।। इश्क़ दरवेश  हो के ढूंढे है हुस्न की ख़ानक़ाह उफ़ तौबा।। शीश देकर के इश्क़ आया है हुस्न की बारगाह उफ़ तौबा।। हुस्न बोला कि तुम गुलाम हुए ऐ मेरे बादशाह उफ़ तौबा।। जिसको कहना था हम दिखाएंगे अपने मारों को राह उफ़ तौबा।। कितना मासूम है मेरा क़ातिल कौन होगा गवाह उफ़ तौबा।। सुरेश साहनी, कानपुर
 छानी छप्पर उनके नाही लउकेला। हमहन के घर उनके नाही लउकेला।। नेता जी  दिल्ली से लंदन घूमेलन बलिया बक्सर उनके नाही लउकेला।। वोट बदे अँकवारी  लिहलन जौना के अब ऊ मेहतर उनके नाही लउकेला।। अब उ पाउच में हर चीज मंगावेलन सानी गोबर उनके नाहीं लउकेला।। बंगला से आफिस ले उहे देखेलन एसे लमहर उनके नाही लउकेला।। मेम शहर में अगरेजी रखले बाड़न घरनी सुग्घर उनके नाही लउकेला।। न्यूज़ छपल बा अखबारन में का होई करिया अक्षर  उनके नाही लउकेला।। सुरेश साहनी, कानपुर
 प्यार कुछ यूं भी कर लिया करिए। सिर्फ बाहों में भर लिया करिए।। इश्क  की राह से  गुजरते  ही सिर हथेली पे धर लिया करिए।। हम कहां तक बनेंगे आईना आप ख़ुद सज संवर लिया करिए।। फिर नकल पांच बार ही की क्यों नाम आठों पहर लिया करिए।। आप अब भी भरम में हैं खालिक  कुछ जमीं पर उतर लिया करिए।। फर्ज क्या सब हमीं पे लाज़िम है खुद भी दिजै  अगर लिया करिए।। क्या पता अब भी मुंतजिर हो दिल इस गली से गुज़र लिया करिए।। सुरेश साहनी, कानपुर ९४५१५४५१३२
 वे थोड़े जो खास है ,उनको चुनते आम । उनको हक है देश को कर देंवें नीलाम ।।
 जाने कितनी नजरों के पर्दे में रहकर । नारी कब रह पाती है पर्दे के भीतर।। चाहे जितने कपड़ों के वह कवच चढ़ा ले चुभते रहते हैं वहशी नज़रों के नश्तर।। किन किन रिश्तों में नारी महफूज रही है कहने को तो पर नारी है बहन बराबर।। रिश्ते के भाई,चाचा बाबा या जीजा कोई पडोसी फूफा मामा जेठ औ  देवर।। सब के सब ही अपनी जात दिखा देते हैं एक जानवर छुपा हुआ है सबके भीतर।। सुरेश सहनी
 कुछ बड़े कवि होते हैं।कुछ बड़े कवि बनते हैं।कुछ बड़े फेसबुक -व्यक्तित्व भी हैं जो किसी भी लाइक या कमेन्ट से परहेज रखते हैं।मैं भी बड़े होने के मुगालते में था।लेकिन मेरा भरम उसी दिन टूट गया जिस दिन मेरे साथ कुछ भले कनपुरियों ने कट्टा लगाकर मेरी जमापूंजी पर हाथ साफ़ किया था। उस समय मैं अगल बगल भी देख रहा था कि मेरे परिचित एक दो लोग तो सड़क पर नजर आएं।लेकिन कउनो नाही दिखा।मैं उन पुलिस वालों को धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने मेरे मुगालते को तवज्जो दी ।उनका कहना था कि लुटेरे आपसे परिचित रहे होंगे।मैंने कहा हो सकता है #कट्टाकानपुरी के साथ एकाध बार देख लिया हो।दरोगा जी ने कहा ,'तुम्हारे चेहरे से तो नहीं लगता लूट हुयी है।"मैंने उनसे कहा कि सर!ऑटोग्राफ नहीं ले पाये ,यह भूल हो गयी।आगे से ध्यान रखेंगे सर। हद तो तब हो गयी जब एसपी साहब आये।उस समय तक मेरे इर्द गिर्द काफी जानने वाले मित्र भी आ गए थे।एसपी साहब के सामने ही एक कवि मित्र बोले ,यार!हम लोगों के साथ लूट हो गयी? तुरंत एक अधिकारी ने पूछा,क्या मतलब?दूसरा बोला ,साहब!ये भी गिरोह वाले लगते हैं।'खैर तब से काफी पॉपुलर हो गया हूँ।एक पार्षद की शिक
 जाने किस बोझ से दबे चेहरे। कब खिलेंगे बुझे बुझे चेहरे।। नदी सूखी है ताल सूखे हैं रह गए हैं तो सूखते चेहरे।। आईने कैसे साफ़ दिखलाते गर्द से धूल से सने चेहरे।। वो मेरी अहमियत समझते हैं कह रहे हैं बने ठने चेहरे।।  जान जाती है फिर बिकेगी वो जब भी दिखते हैं कुछ नए चेहरे।।
 करिया अक्षर भइस बराबर। अच्छा है हम रहे निरक्षर।। सोचा था इंसान बनेंगे पढ़ लिख कर हो गए जानवर।। अहंकार में ऐसे डूबे डूब मरे लाजन दसकंधर।। बने लुटेरे सब जनता के बाबू टीचर लीडर अफसर।। पढ़े लिखे का हाल न पूछे आज कबाड़ी उनसे बेहतर।।
 Ek purani rachna# कुछ मत करना देखा करना कुछ निरीह लोगों का मरना विचलित होकर दुःख मत करना इसे मानना विधि की रचना।। उसका घर है गिर जाने दो उनका छप्पर जल जाने दो अभी झोपड़ी दूर तुम्हारी कल जलनी है फिर क्या डरना।। इसकी अस्मत आज लुटी है खतरे में उसकी बेटी है अभी तुम्हारी कुछ छोटी है अपनी आँख बंद ही रखना।। Suresh Sahani KANPUR
 हौसले  बड़े इतने  आसमान छोटा सा क्यों नहीं ले लेता  इम्तिहान छोटा सा  ख़्वाब हैं सितारों में आशियाँ बनाने का ढेर सारी उम्मीदें  पर मकान छोटा सा
 कभी जो मेरा सलाम लेना। तो ज़ीस्त भर का निज़ाम लेना।। अगर मेरे दिल मे आ रहे हो तो फिर न दूजा मुकाम लेना।।
 साथ रखना सदाओं में न रखना। हमें बेशक़ दुआओं में न रखना।। मै खुश हूँ तेरे ग़म के साथ मुझको ख़यालों के ख़लाओं में न रखना। अदाएं तुम से बेहतर तो नहीं हैं कभी खुद को अदाओं में न रखना।। मुहब्बत तो तेरे बुत से है फिर भी सनम ख़ुद को ख़ुदाओं में न रखना।। मुहब्बत में खुदी का काम क्या है मुहब्बत को अनाओं में न रखना।। चुरा ले आँख से काजल न कोई बदन अपना घटाओं में न रखना।। तुम्हें हर्फे वफ़ा से क्या गरज है मुझे अपनी वफाओं में न रखना।। मुझे जलने की आदत पड़ गयी है मुझे चाहत की छांवों में न रखना।। तुम्हारे दिल के मंदिर में नहीं हूँ सम्हलना फिर भी पांवों में न रखना। जफ़ा की है तो फिर तस्लीम कर लो मुहब्बत को भुलावों में न रखना।।  करोना से बड़े ख़तरे हैं इनसे सियासी दाँव गाँवों में न रखना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 #भोजपुरी_ग़ज़ल रउवा सभे शेयर कईल जा। काहें हमहीं के मुजरिम बोलावल गइल। उनसे अईसन भईल कि करावल गइल।। मन से भोला न हम तन से  शंकर हईं काहें हमके हलाहल पियावल गइल।। कादो हमरा के करतिन समय ना रहे कादो उनका से चिठियो न बाँचल गइल।। आज हँस हँस के दुसरा से बोलली सखी ए तरह से भी हमके सतावल गइल।। रउरे तकला से केतना के जीवन मिलल त काहें हमके नज़र से मुवावल गइल।। हमरे मुवला पे दुश्मन भी अइलें मगर उनसे दू डेग चल के न आवल गइल।। साहनी लिख त दिहलें कहानी अपन ना ते केहू पढ़ल ना सुनावल गइल।। सुरेश साहनी, कानपुर
 चला करते हैं कारोबार सारे। भले छुट जायें अहले यार सारे।। हमें तन्हाईयां भाने लगी हैं उधर महफ़िल में हैं बीमार सारे।। ज़माने भर के सरमाये जुटा लो अगर ले जा सको उस पार सारे।। अगर सब काम वाले जा रहे हैं तो क्या रह जाएंगे बेकार सारे।। मुसलसल धूप साया हो रही है कहाँ हैं पेड़ वे छतनार सारे।। अपीलें सच की खारिज़ हो चुकी हैं भरे हैं झूठ से अख़बार सारे।। ख़ुदा जन्नत में तन्हा क्या करेगा अगर करने लगेंगे प्यार सारे।। तुम्हें क्या खाक़ पूछेगा ज़माना कि बन जायें अगर सरकार सारे।। उरुज़े दोस्ती क्या आज़माएँ अभी दुश्मन नहीं तैयार सारे।। पनह मांगेगी जुल्मत भी यक़ीनन करेंगे एक दिन यलगार सारे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अच्छा ही है जो फ़िक्रे - बवा कर रहा है यार। जो काम है ख़ुदा का ख़ुदा  कर रहा है यार।। यूँ ही नहीं है लौटती आ आ के हर बला कोई तो अपने हक़ में दुआ कर रहा है यार।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 समझौतों में आनंद कहां अनुबंधों का उत्सव कैसा जब नेह नहीं तब स्वार्थ भरे संबंधों का उत्सव कैसा...... इनके उनके तेरे मेरे कर भेद असीमित हो जाएं संबंधों के व्यापक ताने  स्वारथवश सीमित हो जाएं तब व्यवहारों पर लगे हुए प्रतिबंधों का उत्सव कैसा....... है प्रेम नदी जैसा बहकर मिलना अभीष्ट में खो जाना गोपी बनना मनमोहन का राधा का साँवल हो जाना है घाट अगर मन के सूखे तट बंधों का उत्सव कैसा,..... क्या मन के टूटे दर्पण का संभव है फिर से जुड़ पाना  तुम उत्सवधर्मी हो शायद क्या जानो मन का मर जाना जा चुकी बहारें उपवन से तब गंधों का उत्सव कैसा...... सुरेश साहनी, कानपुर
 बेबसी उनकी देखने वाले उनकी खुद्दारियाँ भी देखा कर। तुझको जिनकी मदद भी करनी है उनकी तस्वीर तो न खींचा कर ।।
 मेरी एक पुरानी रचना पर आपका आशीर्वाद चाहूंगा। ***************************************** मेरे मित्र बहुत ज्यादा है पर वो सचमुच मित्र नहीं हैं। सब कुछ है पर अर्थहीन है छायायें हैं चित्र नहीं हैं आभासी दुनिया भी कैसी मृग मरीचिका है माया है कैसे करें आंकलन हमने क्या खोया है क्या पाया है एकाकीपन भरी भीड़ में तनहाई में अगणित साथी और अंत में प्रतिफल भी क्या वही भोर की दिया बाती कितने जोड़े कितने छोड़े अगणित जुड़े अनगिनत टूटे परछाई के पीछे भागे प्रतिफल कितने अपने छूटे आभासी दुनिया है सचमुच या दुनिया ही आभासी है अष्टावक्री समाधान का यह विदेह भी अभिलाषी है आभासी दुनिया में हमने जब भी खोजी प्रासंगिकता खुद ही लिख ली खुद ही पढ़ ली अपनी लिखी कहानी कविता Suresh Sahani
 मौत से जब तलक मैं डरता था ज़िन्दगी भी हमें डराती थी मौत से एक दफा मुहब्बत की ज़िन्दगी ख़ुद ही पास आ बैठी।।
 मुल्क़ की हालत बतायें और क्या। चल रहीं उल्टी हवायें और क्या।। पांचवे खम्बे का ये ईमान है जिससे पायें  उसकी गायें और क्या।। तप रहे हैं जब कहीं एहसास तक किसलिए रिश्ते निभाएं और क्या।। आदमी की आदमी के वास्ते मर चुकी संवेदनायें और क्या ।। आज इस दौलत की अंधी दौड़ में कौन समझे भावनाएं और क्या।। हम रहेंगे तब बचाएंगे तुम्हें क्या करें ख़ुद को बचाएं और क्या।। एक दौलत  ही  चली ताज़िन्दगी माँ ने दी थी जो दुआएं और क्या।। दो ज़हां में माँ के जैसा कौन है ले ले अपने सर बलाएँ  और क्या।। लोग जलते हैं जलें हम क्या कहें क्या करें ख़ुद को जलायें और क्या।। साहनी लिखता तो है अच्छी ग़ज़ल हम किसी से क्यों बतायें और क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फिर वहीं बातें पुरानी फिर लड़कपन का जुनून इश्क़ में संज़ीदगी का बारहा करते हो खून।।
 उसने मेरा नाम लिया है कुछ के दिल मे आग लगी है। महफ़िल इतनी रौशन क्यों है क्या महफ़िल में आग लगी है।। मैं अक्सर सोचा करता हूँ आखिर मुझमें ऐसा क्या है दो दस कविता लिख लेने से क्या व्यक्तित्व बदल जाता है क्या मैंने ऐसा पाया है जिस हासिल में आग लगी है।। ठहरे पानी में इक पत्थर किसने आज उछाल दिया है स्नेह कुंड के अग्निगर्भ में आशाहुति स्वह डाल दिया है क्या उसको भी मालूम है यह किस मंज़िल में आग लगी है।।....
 संग रहना सदाओं में न रखना। भले अपनी दुआओं में न रखना।। मै खुश हूँ तेरे ग़म के साथ मुझको ख़यालों के ख़लाओं में न रखना। अदाएं तुम से बेहतर तो नहीं हैं कभी खुद को अदाओं में न रखना।। मुहब्बत तो तेरे बुत से है फिर भी सनम ख़ुद को ख़ुदाओं में न रखना।। मुहब्बत में खुदी का काम क्या है मुहब्बत को अनाओं में न रखना।। चुरा ले आँख से काजल न कोई बदन अपना घटाओं में न रखना।। तुम्हें हर्फे वफ़ा से क्या गरज है मुझे अपनी वफाओं में न रखना।। मुझे जलने की आदत पड़ गयी है मुझे चाहत की छांवों में न रखना।। तुम्हारे दिल के मंदिर में नहीं हूँ सम्हलना फिर भी पांवों में न रखना। जफ़ा की है तो फिर तस्लीम कर लो मुहब्बत को भुलावों में रखना।।  करोना से बड़े ख़तरे हैं इनसे सियासी जीव गाँवों न रखना।।
 मुंह को ढांके कर रहे वे छल भरे प्रबंध आज राम की राह में अगणित पड़े कबंध।। सुरेशसाहनी
 अगर बिकता तो मैं क्या  काम करता। बस अपनी नस्ल को नीलाम करता।। शिकायत बेवज़ह अजदाद को थी कहाँ था नाम जो बदनाम  करता।। मशक्कत से ज़ईफ़ी जल्द आई पता होता तो मैं आराम करता।। सियासत एक अच्छा कैरियर था अगर करता तो मैं भी नाम करता।। अगर शमशीर से दिल जीत सकता तो मजनूँ  खूब कत्लेआम करता।। मैं था  हालात से  मजबूर वरना गली में तेरी सुबहो-शाम करता।। तेरी आँखों की मस्ती काम आती मुझे हक था मैं शौक़-ए-ज़ाम करता।।
 हमने सर्वजन कल्याण के विषयों को अनावश्यक गूढ़ बना दिया है। हो सकता है यह प्रयास बाह्य आक्रांताओं से ज्ञान गंगा को बचाना मात्र रहा हो।किन्तु इस दोष के चलते बहुत सारा ज्ञान लुप्त हो गया।दरअसल हम जिसे हठ योग कहते हैं,यही सहज योग है।धर्म की आड़ में   कुटिल और अधकचरे बाबाओं ने अपना महत्व और प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए इन विषयों को आम जन से दूर  एवं दुरूह कर दिया।अन्यथा भारतीयता और भारतीय जीवन दर्शन विश्व में सबसे सरल थे और हैं। वस्तुतः बुद्ध के उपरांत वैचारिक क्रांति तीन भागों में विभक्त हो गई थी।महायान, हीनयान और सहजयान।यह सहजयान इस बात पर बल देता था कि दुखों के निवारण के लिए स्वस्थ मन के साथ स्वस्थ तन भी आवश्यक है।सहज यान साधना के चरम को प्राप्त करने के लिए मठों में रहने की बजाय प्रकृति की गोद में जंगलों ,पहाड़ों और कन्दराओं में विचरण करता था।यही पर स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने शरीर शोधन के सूत्र खोजे  जिन्हें षटकर्म कहा गया।बताते हैं स्वयं महायोगेश्वर शिव ने उन्हें यह ज्ञान प्रदान किया था।तब षट्कर्म और अष्टांग योग जिसे कालांतर में पतंजलि ऋषि ने प्रतिपादित किया स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने जनसा
 इक ख़ुदा तुम इक ख़ुदा हम और भी कुछ सफ़ में हैं इन ख़ुदाओं की वज़ह से नाख़ुदा बेज़ार है।।सुरेश साहनी
 तनहा तनहा बैठे रहना। अपने से ही रूठे रहना।। क्या अच्छा है अपनों का दिल तोड़े रहना टूटे रहना।। यह भी अच्छी बात नहीं है दिल में दर्द समेटे रहना।। आओ कहीं टहल कर आये देर तलक क्या लेटे रहना।। गाँठ न रहने देना मन में रिश्ते लेकिन गांठे रहना।। चिंतन करना अलग बात है उचित नहीं मन औटे रहना।। चलो करें कुछ सदुपयोग है व्यर्थ समय को काटे रहना।। Suresh Sahani KANPUR
 आ गए तंग निगहबानी से। छोड़िये हमको मेहरबानी से।।। मत करें मेरी दवा और दुआ ठीक होंगे तो हवा पानी से।।सुरेश साहनी
 माना मेरा दिल पत्थर है दिल में किन्तु तरलता भी है। ऊपर ऊपर तपन  भरी है पर मन मे शीतलता भी है।। सुरेश
 चलो गाँव की ओर चल पड़ो। शहरों में हर चीज बिके है पानी तक निर्मूल्य नहीं है हर सेवा की कीमत है बस मानवता का मूल्य नहीं है उठो सुनो अपने अन्तस् की बिना मचाये शोर चल पड़ो।। कैसे बना बनाया हमने छोड़ दिया सरमाया हमने जितना यहां कमाया हमने उसे अधिक लुटाया हमने रात चरम पर है कुछ ठहरो होते होते भोर चल पड़ो।।.... कभी भटकते हो दिल्ली में कभी मुंबई में मरते हो कलकत्ता बंगलोर चेन्नई कहाँ नहीं जिल्लत सहते हो अपने घर इंसान रहोगे यहां बने हो ढोर चल पड़ो।।..... किसी लॉकडाउन से बेहतर गांवों की मर्यादाएं हैं हर घर से निश्छल रिश्ते हैं बन्धु सखा हैं माताएं हैं बहन बेटियों सहज भाभियों की आशा के डोर चल पड़ो।।.... वहीं गांव से दूर कहीं उस तट पर दो पथराई आंखें तुझसे मिल पाने को उद्यत उड़ती है लेकर मन पाँखें उसी प्रतीक्षारत राधा के मन के नन्दकिशोर चल पड़ो।।..... सुरेश साहनी, कानपुर
 हमने जब पत्थर को बेहतर मान लिया। समझो दुनिया भर को बेहतर मान लिया।। वो  ख़ुद को ही  सबसे  बेहतर कहता था कितनों ने हिटलर को बेहतर मान लिया।। जो सारी दुनिया  से छुप कर रहता है सबने उस ईश्वर को बेहतर मान लिया।। मन्दिर मस्जिद  बेहतर हैं इनकार नहीं हमने जब हर दर को बेहतर  मान लिया।। कम से कम वह मेरे दिल मे उतरा तो यारों ने खंजर को बेहतर मान लिया।। तुम बिन हमपे रोज कयामत आती है तुमने किस महशर को बेहतर मान लिया।।
 मैं  लड़खड़ा भी जाऊँ तो बेशक़ सम्हाल मत। लेकिन मेरे वक़ार की पगड़ी उछाल मत।। इतना ही दरियादिल है तो खुल के जकात कर बढ़ चढ़ के नेकियां तो कर दरिया में डाल मत।।
 ज़िंदगी प्यार से अकमल कर दे। इस क़दर चाह कि पागल कर दे।। हश्र के रोज ये हसरत क्यों हो  आज की रात मुकम्मल कर दे।। मरमरी जिस्म है संदल  तेरा मेरी हर सांस को संदल कर दे।। अपनी आंखों में बसाना है तो तू मेरे जिस्म को काजल कर दे।। अपनी जुल्फों की घनी छांव में रख और हर दीद से ओझल कर दे।। सुरेश साहनी कानपुर
 बिलकुल अनजाने लगते हो । तुम भी कितना बदल गए हो।। कहाँ गया बेबाक ठहाका अब धीरे से हंस देते हो।। तुममे तुमको कैसे ढूंढ़े कितना गलत पता देते हो।। आज मिटा तो भेद दिलों से शिकवे गिले लिए बैठे हो।। प्रेम गली में हम रहते हैं तुम भी कुछ दिन वहां रहे हो।। हम जो भी हैं बतलाते हैं तुम भी बोलो तुम कैसे हो।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132
 हमहूं बड़ा फेर में बानीं बाबा साहेब भीम राव जी जाने कवन बिरादर रहुवें  आखिर उतना बड़ मनई के जाति बतवले का मिलि जाई आ अईसन बड़हन सोचे वाला जाति धरम से उप्पर होलें का  उहवाँ के जानतारS खलिहा उनके मानतारS तब काहें तूँ जाति पकड़ के आजु तलक ले बईठल बाड़S बाबा साहेब का का कहुवें जाने के कब कोशिश कईलS बाबा कहलें जाति हटावS जाति पकड़ि के बईठल बाड़S बाबा  कहुवें दीपक हो जा तूँ अन्धकार में भागतारS शिक्षा अउर संगठन पहिले तब संघर्ष मनावल जाई पढ़S  लिखS ए भईया लोगन इहे श्रध्दा सुमन कहाई!!!!!!
 मैंने कहा-  'मन कठुआ गया है।" उसने मुँह बना कर कहा- "ससुरे विपक्षी,.....  (मेरी एक कविता से ) Suresh Sahani, कानपुर
 भारत की सिंधुघाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है ,जो कि लगभग ग्यारह हजार वर्ष प्राचीन है।अर्थात भारत से  सभ्यताओं का उद्गम है।  कोल भील निषाद भारत की सर्वाधिक प्राचीन जाति है।निषाद संस्कृति के अधिष्ठाता स्वयं शिव हैं।शिव आदिदेव है। शिव पुराण में निषाद को सृष्टि का प्रथम राजा बनाये जाने का उल्लेख है।पद्मपुराण में विष्णु से ब्रम्हा की उत्पत्ति और ब्रम्हा के चार अंगों से चार वर्ण उत्पन्न होने का उल्लेख है। किंतु निषाद का उल्लेख नहीं है। जबकि मान्यताओं के अनुसार ब्रम्हा के मष्तिष्क या मन से उतपन्न कश्यप ऋषि निषाद जाति के आदि पुरुष हैं।ब्रम्हा के मन से मां सरस्वती की रचना का वर्णन पुराणों में मिलता है।  आदि ग्रंथ ऋग्वेद में निषाद का उल्लेख है।
 गुनगुनाती हुई ग़ज़ल थी वो। आशिक़ी का मेरी बदल थी वो।। अपनी दुनिया का शाह था कल मैं  हाँ मेरे प्यार का महल थी वो।। मेरे ख्वाबों में कल दिखी थी मुझे अब भी वैसी है जैसी कल थी वो।। याद आते हैं दिन वो कालिज के मेरी नज़रों को जब सहल थी वो।। ज़िंदगी से तवील थे आलम जब मुहब्बत के चंद पल थी वो।। जैसे दुनिया थी मेरी मुट्ठी में मेरी तक़दीर का रमल थी वो।। धूप में इक गुलाब थी गोया चांदनी में खिला कँवल थी वो।। इतनी पाकीज़गी थी उस शय में जैसे गंगानदी का जल थी वो।। आज हम उलझनों के मानी हैं और इन उलझनों का हल थी वो।। सुरेश साहनी, कानपुर। 9451545132
 क्यों उसकी तस्वीर लगा दें। क्यूँ कर सोए दर्द जगा दें।। ख़ुद को हम कितना भरमायें ख़ुद को कितनी बार दगा दें।। उसके ग़म  मेरे  मेहमां हैं कैसे ख़ुद से दूर भगा दें।। अंधेरे दिल से मिट जायें कितने सूरज और उगा दें।। वो मेरे तन पर रीझा है मन को किसके रंग रंगा दें।। सुरेश साहनी
 कवि! तुम भावनाओं से परे हो यार! लिखते तो हम भी हैं खैर छोड़ो भी बड़ा होने के लिए व्यस्त दिखना पड़ता है.....
 ये हिन्दू मुसलमान वाले डरें हैं। वो नफ़रत की दूकान वाले डरें हैं।। ये ईसा ने बोला है सूली चढ़कर भला किससे ईमान वाले डरे हैं।। कहाँ भ्रम था शैतान वाले डरेंगे यहां अल्ला भगवान वाले डरें हैं। किसी ग़ैर से क्या डरेंगे कि अब तो मिलने से  पहचान वाले डरें हैं।। अभी डर है महफ़िल में बस्ती-शहर में सुना था बियावान वाले डरे हैं।। करोना है इबलीस का बाप इससे अमेरिका ओ जापान वाले डरें हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दिन में अक्सर  बात तुम्हारी आ ही जाती है। दिन ढलते ही रात तुम्हारी आ ही जाती है।। जागूँ तो यादों की नेमत पाता रहता हूँ ख़्वाबों में सौगात तुम्हारी आ ही जाती है।।साहनी
 शायरी आसान होनी चाहिए ।  कहन में भी जान होनी चाहिए।। आप जलते हों किसी भी रंग में पर महक लोबान  होनी चाहिए।।
 मेरी दुनिया सहल तुमसे हुई है। चहल तुमसे पहल तुमसे हुई है।। ये दुनिया लाख पहले से रही हो मुहब्बत तो अजल तुमसे हुई है।। बला के शेर नाजिल हो रहे हैं मेरी हस्ती गजल तुमसे हुई है।। सुना है ताज भी है खूबसूरत बताते हैं नकल तुमसे हुई है।। तुम्हे दिल आज दे डालें तो कैसे अभी पहचान कल तुमसे हुई है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जय बाबा! जय  भीम  ! कह नाज करा |    आगे बढ़ा व्यर्थ न   अकाज      करा ||          शिक्षित होखा ज्ञान के प्रकाश करा ,         संगठित समाज हो    प्रयास   करा ,         संघर्ष से बुराई     के विनाश करा , एही  बले   दुनिया पे     राज करा||   आगे बढ़ा.......
 हम तुम्हारे ख़्वाब लेकर जी रहे हैं। और हैरां हैं कि क्यूँकर जी रहे हैं।। बस गए हैं बस्तियों में जानवर इसलिए जंगल में आकर जी रहे हैं।। गांव की आबो- हवा में थी घुटन चिमनियों में साँस पाकर जी रहे हैं।। रूह तब तक थी जहाँ तक था ज़मीर अब फ़क़त जिस्मों के पैकर जी रहे हैं।। कौन कहता है बड़ा हैं ये शहर लोग दड़बों में सिमटकर जी रहे हैं।। अब हुकूमत पत्थरों के साथ हैं आईने फितरत बदलकर जी रहे हैं।। मेरे अंदर  एक शायर था कभी अपने शायर को दफन कर जी रहे हैं।
 नया दौर हैं तौर भी अब नए हैं। तमद्दुन ओ तहज़ीब बदले हुए हैं।। मुहब्बत है गुज़रे ज़माने के सिक्के अज़ायबघरों में जो रक्खे गये हैं।।साहनी
 कभी किसान सिर्फ किसान थे आज अमीर और गरीब दो तरह के किसान हैं उनमें भी कुछ हिन्दू  कुछ सिख,कुछ ईसाई  और कुछ मुसलमान हैं उनमें भी कुछ कांग्रेसी कुछ वामपंथी या समाजवादी और कुछ भाजपाई हैं और बहुत सारे ऐसे भी हैं जो एक साथ कई रंग  और कई ढंग के झंडे या बैनर रखते हैं और वैसे ही रंग जाते हैं जैसा समय देखते हैं वे जानते हैं यह नेता तो क्या इसका बाप भी किसान नहीं था और तो और इसके पास  किसी भी गांव में  खेत या मकान नहीं था फिर भी ये उसको जाति, या मजहब या पार्टी के नाम वोट दे आते हैं और सोचते हैं इस बार  भले बगल के खेत में  सूखा पड़े उनके खेत में हरियाली होगी रघुआ अकाल से मरेगा शास्त्री जी के घर खुशहाली होगी।।
 सब खतम भईल अब रोवS जिन। अब एतनो सरवन होवS  जिन।। रहले पर नाही पतियवलS डटलS मरलS आ गरियवलS गइले पर लोर चुवावS  जिन।। ऊ तुहरे करतिन कुल कइलें हग्गल मूतल कुल सरियवलें उनकर नेकी बिसरावS जिन।। तूं सुतलS उ जागत रहलें कोरॉ ले ले टहरत रहलें बड़ भईलS अब टेढ़ीयावS जिन।। माई दादा कुलि भूलि गईल नवकी माई जब आय गईल मानS नीमन मेहरावS जिन।।
 अभी तो सांझ का सूरज ढला है , अभी से रात गहराने लगी है। कोई जुगनू तो आकर मुस्कुराये , उदासी आस पर छाने लगी है।।
 जान तक तुमपे लुटा दूँगा मैं। इससे बढ़कर भला क्या दूँगा मैं।। बेवफाई का सिला चाहे हो ठीक है फिर भी वफ़ा दूँगा मैं।।
 मुझसे लोग कहते हैं, कोरोना पर कुछ लिखिए  मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि क्या यह कोई इवेंट है कि इसे उत्सव की तरह स्वीकार कर लें। मैं कोई विशेषज्ञ भी नहीं कि इस सम्बंध में विज्ञान अथवा तर्कसम्मत जानकारी दे सकूँ।ऐसा सेलेब्रिटी भी नहीं हूँ कि मेरे ढेर सारे फॉलोवर्स हों और मेरे लिखे का उन पर असर हो जाएं। मुझे पता है जब मैं टीवी देखने या मोबाइल इस्तेमाल करने के खतरों के बारे में बताता हूँ तो ऐसी बातें घर के सदस्यों तक के गले से नीचे नहीं उतरती।फिर बाहर के लोग मेरी कोई बात क्या खाक मानेंगे।और आजकल तो लॉकडाउन के चलते टीवी और मोबाइल ही सहारा हैं। जिससे घर मे बच्चे अवसाद में आने से बच रहे हैं।फोन से यत्र तत्र बातें करके महिलाएं अपना भोजन पचा पा रहीं हैं। एक मेरे सज्जन मित्र हैं। उन्होंने मानवीय मूल्यों और आदर्श गृहस्थ होने का हवाला देते हुए घर के काम मे हाथ बटाना चालू किया। पत्नी ने देखा कि अंगुली पकड़ में आ ही गयी है सो पहुँचा पकड़ने में क्या दिक्कत है । बकौल हमारे कवि मित्र Suraj Rai Suraj उन्हें आये दिन ताना भी मिलना चालू हो गया कि "बड़ा दिन भर पहाड़ तोड़ते थे।अब समझ मे आया कि हम घर मे कित
 आपकी रहमत है बाकी ठीक है। इक ज़रा दहशत है बाकी ठीक है।। लोग नाहक़ मर रहे हैं भूख से उनकी ये किस्मत है बाकी ठीक है।। मौत पे उसकी लिखा हुक्काम ने घरों की हुज्जत है बाकी ठीक है।।
 मेरा हासिल मेरा हासिल था ही कब। वैसे भी मैं इतना क़ाबिल था ही कब।। कब उसे नाचीज़ की दरकार थी उसके तीरों का मैं बिस्मिल था ही कब।। हुस्न की नज़रों में दौलत थी बड़ी इश्क़ पर वैसे वो माइल था ही  कब।। इश्क़ उसपे आप ही मरता रहा हुस्न है मासूम क़ातिल था ही कब।। हुस्न को महले दुमहले चाहिए उसके लायक इश्क़ का दिल था ही कब।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 राह में उम्र भर  रहोगे क्या। तुम यूं ही दरबदर रहोगे क्या।। सबके हासिल हैं कामयाबी है साहनी जी सिफर रहोगे क्या।।
 रोशनी में बढ़े पले फिर भी। शाम होते ही हम ढले फिर भी।। था पुकारा ज़मीर ने बेशक दीप बन कर न हम जले फिर भी।। तीरगी ने बचा दिया अक्सर रोशनी से गए छले फिर भी।। आप अपनों से टूट जाते हैं लाख रखते हों हौसले फिर भी।। कौन बचता है इश्क में फंसकर हाथ कितना कोई मले फिर भी।। फिर बिठा लें भले तुम्हें दिल में मिट न पाएंगे फासले फिर भी।। ख़ुद को बेशक ख़ुदा करार करे है बशर आसमा तले फिर भी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हो के सरकार पढ़ नहीं पाते। अपने सरदार पढ़ नहीं पाते।। हम वो अशआर पढ़ नहीं पाते। सच के अखबार पढ़ नहीं पाते।। अब भी अहले क़लम की खुद्दारी अहले दरबार पढ़ नहीं पाते।। वो किताबें ज़हाँ की पढ़ते हैं बस मेरा प्यार पढ़ नहीं पाते।। अबके मुंसिफ़ गुनाह करते हैं ये गुनहगार पढ़ नहीं पाते।। बातिलों को है डिग्रियाँ हासिल जबकि हक़दार पढ़ नहीं पाते।। आज भी एकलव्य कटते हैं अब भी लाचार पढ़ नहीं पाते।। आइने आदमी नहीं होते आइने प्यार पढ़  नहीं पाते।। साहनी को फकीर गुनते हैं पर ये ज़रदार पढ़ नहीं पाते।। सुरेश साहनी, कानपुर 945154512
 वो कहते हैं मुहब्बत इक हुनर है इबादत हम इसे समझा किये थे।।सुरेश साहनी तमाम बंदिशें ख़्वाहिश मिटा नहीं सकती। अगर तू चाह ले तो कैसे आ नहीं सकती।।साहनी ज़िन्दगी की एक मंज़िल थी  तो आख़िर क्यों जिये। आख़िरत जब कुछ न हासिल थी  तो आख़िर क्यों जिये।। वस्ल का इंतज़ार था कितना आह फिर हो गयी मुक़म्मल शब।।  सुरेश साहनी किसकी आंखों का बह गया काजल  शाम से तीरगी ज़ियादा है।।सुरेश उस गुल से ये कह दो जाकर कांटों में महफूज़ रहेगा।।साहनी
 चले राम मुनि आयसु पाई।तुरतहि पंचवटी नियराई।। इसमें नियर का वही अर्थ है जो near का शाब्दिक अर्थ है।यहां ज्ञातव्य है कि तुलसीदास के समकाल में अंग्रेज भारत में आने लगे थे।  सर टामस रो जहाँगीर के दरबार में आया था।यह प्रमाणित सत्य है।मेरा कहना है कि अंग्रेजी में कई भारतीय शब्द जस के तस ले लिए गए हैं।
 जवानी रेत का कोई महल है। तुम्हारा हुस्न भी दो चार पल है।। तुम्हारा हुस्न है कोई कयामत हमारा इश्क जन्नत का बदल है।। न जाने किसलिए इतरा रही हो जरा सा चीज है कितना खलल है जिसे बुढ़िया समझ कर डर रही हो तुम्हारे हुश्न का रद्दो बदल है।। न जाने कितने दिल तोड़े हैं तुमने ये मत समझो कोई अच्छा शगल है।। यहाँ उससे भी ज़्यादा उलझने हैं तुम्हारी जुल्फ में जितनाभी बल है।। तमन्नाएँ हमारी जितनी कम हैं समझिए ज़िन्दगी उतनी सहल है।। मुकम्मल हो न पायी ज़िन्दगी भी गोया इक अधूरी सी गजल है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 सुनो अच्छा बुरा कुछ तो कहो। तुम्हे मेरी कसम  चुप ना रहो।। मेरा दम घोंटती है ये ख़ामोशी बहो वादे-सुखन बन कर बहो।। तुम्हे हक़ है हमारी जान ले लो कि मैं दे दूँ मगर खुल कर कहो।। तुम्हारे ग़म का साझीदार हूँ मैं तुम्हे क्या हक है सब तनहा सहो।। भरी महफ़िल में तन्हा मत रहो तुम मगर दिल में मेरे तनहा रहो।। सुरेश साहनी, कानपूर
 भारतीय दर्शनों में छः दर्शन अधिक प्रसिद्ध हुए-महर्षि गौतम का #न्याय’, कणाद का ‘#वैशेषिक’, कपिल का ‘#सांख्य’, पतंजलि का ‘#योग’, जैमिनि की #पूर्वमीमांसा और  ‘#वेदान्त’। ये सब वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है।यद्यपि वेद में कहीं भी ईश्वर की सगुण रूप मैं अराधना का उल्लेख नहीं है, अलबत्ता प्रकृति को देवता जरूर कहा गया है। इसके अतिरिक्त  तीन अन्य दर्शन है जो तर्क और वैज्ञानिकता पर बल देते हैं।इन्हें नास्तिक दर्शन कहा गया।इन्हें #चार्वाक,  #जैन और #बौद्ध दर्शन के नाम से जाना जाता है। विद्वान पंडित कुमारिल भट्ट ने नास्तिक दर्शनों को उपयोगी बताते हुए कहा है कि इनसे अवैज्ञानिक बुराईयों और धर्म के दुरूपयोग को रोकने में मदद मिली। कालांतर में वेदों से इतर सगुण स्वरूपों की आराधना के साथ अनेक मत-मतान्तरों का भी जन्म हुआ।ठीक इसी प्रकार आने वाले समय मे सुरेश साहनी के #समन्वयवाद की चर्चा होगी। #समन्वयवाद के सूत्र
 हम ग़ैरों से कब हारे हैं। अपनों से ही सब हारे हैं।। भक्तों को क्या समझाओगे भक्तों से मकतब हारे हैं।। अज़मत देखो दरवेशो से ओहदे औ मनसब हारे हैं।। प्यार में कितनी ताक़त है कि बन्दों से साहब हारे हैं।। जीत इसी में है हम सब की हारे तो हम सब हारे हैं।। हमने दिल से ठान लिया जब तब उनके करतब हारे हैं।। इश्क़ में जीता है कब कोई रब हारे यारब हारे हैं।। सुरेश साहनी,कानपुर
 कविता लिखो ना  मुझे विश्वास है  तुम  और मैं कविता नहीं लिख सकते  क्योंकि कविता तो वह भाव है जो शब्दों के ढेर से परे भी प्रवाहित होता है कविता आकाश की नीरवता से उतरकर  बादलों पर तैरती हुई हौले हौले राजहंसों की तरह मंडराते हुए धरती की गोद मे आ बैठती है किसी पहाड़ के हृदय से द्रवित ग्लेशियर  जब मदालसा स्त्री की तरह अंगड़ाई लेकर आगे बढ़ता है तो किसी झरने से झम्म से नीचे गिरने का भय उसके स्त्रीत्व को पुनः जगा देता है और वह झर झर झरती हुई नदी में बदल जाता है यह कविता  प्रकृति ने लिखी है दूर तक फैले आसमान पर उड़ते बादल रोज कविता लिखते हैं उन्हें पढ़ने चाँद,सूरज, ढेर सारे तारे  और पंछी सब आते हैं लेकिन अब कविता पहाड़ों से उतरकर जंगलों से गुजर रही है इन पंछियों के कलरव , जंगल मे गूंजती आवाजें और नदी की कल कल  यह सब कविता है ना ! नदी कल कल बहते हुए  गांवों कस्बों से गुज़र रही थी अब वो कल कल नहीं करती शायद शहरों के समीप आने का भय कविता को सता रहा है कविता का गला सूखने लगा है हाँ शहरों में कविता सम्पादित होती है उसे सुन्दर सुन्दर नहरों की शक्ल मिलेगी  और कविता शायद न रहे कविता। वस्तुतः कविता वह अनगढ़ देह
 आप इक ऊँचे सुखनवर हैं तो हैं। ठीक है पर हम भी शायर हैं तो हैं।। आपके डर से ज़मी क्यों छोड़ दें हाँ मगर नज़रें फलक पर हैं तो हैं।। आप का कद ताड़  जितना है  तो क्या हम जो छतरी के बराबर हैं तो हैं।। आसमां पर चढ़ के वो चमका करे अपने घर मे हम मुनव्वर हैं तो हैं।। क्या सिकन्दर कुछ ज़मीं से ले गया ठीक है फिर हम कलंदर हैं तो हैं।। ........... सुरेश साहनी ,कानपुर
 कानपुर में इस समय एक अजीब तरह का माहौल है।ऐसा कोई समय नहीं जब लुटेरे अपनी सेवाएं न देते हों।अखबार लूट और राहजनी की ख़बरों से भरे रहते हैं।और हमारे रक्षक उन अख़बारों में अपनी नींद तलाशते रहते हैं।सड़क पर ,गली कूचों में ग्रांड प्रिंक्स को मात देते बाइक सवार इस रोमांचक एहसास को बनाये रखते हैं।बेरोजगारों को जैसे रोजगार का एक विकल्प मिल गया है।तमंचा लगाये बेख़ौफ़ घूमते इन रहजनों ने उन पतियों को काफी राहत दी है ,जो पत्नी की महंगी फरमाइशों से परेशान रहते थे।स्वर्ण उद्योग को जरूर कुछ दिक्कत हो सकती है।लेकिन शस्त्र निर्माण के कुटीर उद्योग बढ़ रहे हैं यह शुभसंकेत है।ऐसा लगता है कि कुछ दिनों में हम पेशावर और रावलपिंडी को इस उद्योग में पीछे छोड़ देंगे।बड़े बूढ़े स्त्री पुरुष सब समान रूप से लूटे जा रहे हैं।ये सही मायने में एक तरह का समाजवाद है।
 अंगना आस ओसारा नईखे।  रात ते बा  भिनसारा नईखे।। रउरे होई   भा न होई हमके आस दोबारा  नईखे।। के सोरठ ब्रिजभार सुनाई के बाटे जे निरगुन गाई डीजे बा इकतारा नईखे।। रतिये बा भिनसारा नईखे।। अब्बो महुआ चूवत होई अब्बो बारी महकत होई लईकन के लहकारा नईखे।। हमहन के भिनसारा नईखे।। सुरसतिया के पियरी छूटल जबसे साथ पिया के छूटल ओकर कोर किनारा नईखे।। रात ते बा भिनसारा नईखे।। ईया बाबा भैया बहिनी सबके हम बेंवत भर कईनी एसे ढेर पसारा नईखे।। रात ते बा भिनसारा नईखे।। के का कहलस्,के का सुनलस के अझुरवलस ,के फरियवलस हमरे पीन पंवारा नईखे।। रात ते बा भिनसारा नईखे।।
 भईया!रंगी मामा चलि गइलन।फैक्टरिया में मशीनन के शोर में मोबाइल साफ़ नाही सुनाला।हम पुछलीं ,गुड्डू बोलSतारSS!  ओहर से गुडुवे रहुवन।रतनपूरा  वाला रंगी मामा के मुअला के दुखद समाचार रहल।बढियां सुभाव रहल।वैसे उ हमार मामा ना रहुवें।उ हमरे पिताजी के मामा रहुवे।बाकी कुछ उनकर स्वभाव नीमन रहे।आ कुछ हमरे पिताजी ( बाबु जी )के जिला जवार में परिचय बढ़िया रहे।आ ओकरा पर जब से जेपी जी गोद लिहलें ,तहिये से मामा के सभे केहू मामे कहे लगल।आजु उनकर निधन सुनके मन बुता गईल।कुछ नीक नईखे लगत बावे।एक एक करके पुरान पीढ़ी चलल चल जात बा।माई के पिता जी के सोरी से जुड़ल आ जानकार केहू जाला ते सारा संसार निःसार लगे लागेला।बाकि का कईल जा।कमयियो करे के बा।आ जिला जवार भी देखेके बा।बाईस ले काम किरिया होई तब्बे जाईब।जय राम जी
 डरो मत गर यहाँ पर तीरगी है। यहीं से दो कदम पर रौशनी है।। ये सच है मौत है अंजामे-आख़िर मगर  उससे भी पहले ज़िन्दगी है।। बहारें देख जो इतरा रहे हैं उन्हें कुछ बदगुमानी हो गयी है।। सहेजो आज जो मौका मिला है बहुत सी बर्फ रिश्तों में जमी है।।
 शोहरतों में ज़रा गुमराह हुआ और फिर हमसे कलम रूठ गयी।।सुरेश साहनी
 फिर एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा दान  जायेगा। फिर से अभिमन्यु चक्रव्यूह में ही मारा जाएगा।। फिर भक्ति भाव वश बर्बरीक अपना सिर कटवाएगा। फिर शिवपुत्रों का  स्वाभिमान मठ में रौंदा जाएगा।। जब संजय अपनी आंखें मठ में गिरवी रख आएगा। जब पुत्रमोह में ऐसा नायक अंधा हो जाएगा। जब गंगा जमुना की संतानें यूँ घुटने टेकेंगी तब संततियां सदियों तक क्या दासत्व नहीं भोगेंगी।। हे सत्यवती की संतानों तुमने जो कार्य किया है। तुमने निजहित ही नहीं समाज हित को भी बेच दिया है।। सुरेश साहनी, कानपुर।।
 प्यार मुहब्बत कसमे वादे झूठे उस हरजाई से। डर लगता है अब तो मुझको खुद अपनी परछाई से।। रोते रोते चुप हो जाना चुप हो कर फिर से रोना इस रोने धोने में क्या क्या छूट गया तरुणाई से।। पूछो मत क्या खोया मैंने मत पूछो क्या पाया है एकाकीपन की महफ़िल  या मेलों की तन्हाई से।। माना मैं दिलदार नहीं था तुम भी यार फरेबी थे मेरे पास झिझक थी तुम भी डरते थे रुसवाई से।। सुरेश साहनी
 इस ग़ज़ल पर आपकी तवज्जह चाहूंगा। हम नहीं अब सिर्फ़ मैं-तुम देखिये। तल्खियों में गुम तबस्सुम देखिये।। क्या ज़रूरी है ज़ुबाँ से बोलना  कितने दहशत में हैं कुलसुम देखिये।। नाख़ुदा की बदगुमानी पर फिदा हैं तो चलिए क्या तलातुम देखिये।। हमने माना वो बड़ा मासूम है कुछ तो अंदाज़े- तकल्लुम देखिये।। गुफ़्तगू के दौर तो जाते रहे अब नज़रियों पर तसादुम देखिये।। जब तलक तहजीब थी जन्नत थे घर बढ़ रहे हैं अब जहन्नुम देखिये।। बेसुरे से राब्तों के दौर में साहनी जी का तरन्नुम देखिये।। कुलसुम/ आंखें नाख़ुदा/ नाविक तलातुम/ ज्वार- भाटा, ऊँची लहरें तकल्लुम/ बातचीत गुफ़्तगू/वार्तालाप,बातचीत तसादुम/ टकराव नज़रिया/विचार जहन्नुम/नर्क राब्ता/ सम्पर्क, रिश्ता तरन्नुम/ लय
 हमारे साथ ही दुख दर्द की लंबी कहानी खत्म हो जानी है एक दिन जिसको सुनने की तुम्हें फुर्सत नहीं है और सुनाने के लिए भी  पास मेरे वक्त कम है इसलिये बीती कहानी भूल जाना क्या उसे सुनना सुनाना जो बची है आओ उस को नाच गा कर काट डाले ज़िन्दगी उत्सव बना लें।। काट कर देखो कभी रोने से दिन कटते नहीं हैं यूँ भी सबने रोके काटे हैं बहुत दिन जो बची है उसको हँस कर ही बिता लें जिंदगी उत्सव बना लें।। सुरेश साहनी
 घर वन उपवन पर पहरा है मेरे विचरण पर पहरा है मेरे भावों पर पहरा है पूरे जीवन पर पहरा है इसको कैद नहीं कहते हैं मौलिक चिन्तन पर पहरा है हम प्रमाण लाएं तो कैसे प्रमाण निर्गमन पर पहरा है जन की बातों पर सासों पर या यह जनजन पर पहरा है
 तीन ओर से समुद्र से घिरे हुए , सैकड़ों नदियों , हजारों झीलों , लाखों ताल -पोखरों और महा जलस्रोत हिमाच्छादित हिमालय वाले देश में  उस पर आश्रित समुदाय से सब कुछ छीना जा चुका है।इसमें किसी व्यक्ति या राजनैतिक दल का हाथ नहीं है।यह इस समुदाय की वह कमी है ,जिसके चलते डायनासोर जैसी प्रजाति लुप्त हो गयी। यानि समय के साथ हुए बदलाव के साथ यह समुदाय स्वयं को नहीं बदल पाया।उत्तर वैदिक काल ,बुद्ध काल,बुद्ध के बाद का समय,मौर्य वंश,गुप्त वंश,पुष्यमित्र शुंग का जनसंहार , हूण, शक,यवन,अरब और मंगोलों का अतिक्रमण ,मुस्लिम आक्रमण,मुगल काल,अंग्रेजी उपनिवेश काल, नवजागरण काल और उसके पश्चात आज़ादी के सत्तर वर्ष।भारत निरन्तर बदला है।इस समुदाय को कभी जल से बेदखल किया गया ,कभी जमीन से हटाया गया।कभी जल,जमीन दोनों से बेदखल कर जंगलों में भेज दिया गया।तो कभी जंगलों में भी उनके रहन सहन और स्वतंत्रता पर बंदिशे लगायी गयीं।कभी छल से कभी बल से इस समुदाय को अधिकार विहीन कर दिया गया।चुपचाप शोषण स्वीकार करने पर दास बनाया गया और विरोध प्रकट करने पर कभी राक्षस तो कभी नक्सली बताकर मारा गया। इनकी युद्धक क्षमताओं का उपयोग राम से ल
 गिरेगी जुल्म की दीवार तय है। हमें लगता है इक यलगार तय है।। पहरुए देश के सोने लगे जब समझना कृष्ण का अवतार तय है।। तो क्या सच हौसला भी हार जाए भले ही आज सच की हार तय है।। मुहब्बत में अगर तासीर है तो मिलेंगे जिंदगी के पार तय है।। अगर हो नफरते हर इक जेहन में तो होना मुल्क का बीमार तय है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अपने अपने हिस्से की खुशियाँ तलाशते हैं। एक दूसरे का दुःख हम अब कहाँ बांटते हैं।। मौका पड़ते ही हिन्दू -मुस्लिम हो जाते हैं दीन-धरम का मूल मन्त्र हम कहाँ जानते हैं।। विश्व बंधुता ,राष्ट्रप्रेम का ढोंग रचाये लोग सत्कार बाद में सबसे पहले जाति पूछते हैं।।
 चलो भूलें सभी आयी गयी। कहाँ किसकी कमी पाई गई।। सज़ा ही है जो बातें इश्क़ की भरी महफ़िल में सुनवायी गयी। हमी फरियाद की खातिर गये ख़ता भी अपनी ठहरायी गयी।। कहाँ थे कुरुकुल और कुलगुरु   भरे दरबार जब लायी गयी।। बनाते हैं सभी राहें यहां मिली कब राह बनवायी गयी।।
 तुम ही जुदा जुदा रहे हम तो जुदा न थे। तुमको कभी  ख़बर रही तुम मेरे क्या न थे।।
 तुम्हें मालूम है  तुम बहुत अच्छे थे जब तक तुमने अधिकार नहीं मांगे थे तुम और अच्छे होते अगर यूँ ही सेवा करते रहते
 उठ के  महफ़िल से यूँ चले आये तुमको तन्हाईयाँ पसन्द भी हैं।। सुरेश साहनी
 उनको रुसवाईयाँ पसन्द नहीं। हमको तन्हाईयाँ पसन्द नहीं।। उनको दिलदारियाँ पसन्द नहीं। हमको मक्कारियाँ पसन्द नहीं।। हाले दिल किस तरह सुनाते हम उनको गुस्ताखियाँ पसन्द नहीं।। प्यार करते हैं जिससे करते हैं हमको दोधारियां पसन्द नहीं।।  हैं खफ़ा मेरी साफगोई से उनको बेबाकियाँ पसन्द नहीं।। हमको उनसे बड़ी अज़ीयत है जिनको किलकारियां पसन्द नहीं।। साफ कह देंगे साहनी उनसे हमको ऐयारियाँ पसन्द नहीं।।
 उम्र भर छलती रही ऐसे मेरी तकदीर। एक थाली भूख पर दी एक चम्मच खीर।। घर वही टूटी हवेली का कोई कोना मर्जियाँ कुछ बंदिशों का उम्र भर ढोना बोझ घर का क्या उठाती थक चुकी शहतीर।। और जिम्मेदारियों में थक चुके परिजन झुर्रियों की कोटरों में आस के दर्शन मुझको राजा कह के सौंपी दर्द की जागीर।। नित खुशी का वेदना की सेज पर सोना नित्य आशा का दिलासा अब नहीं रोना एक नदिया प्यास पर ज्यूँ एक अँजुरी नीर।। द्वार पर दरबार लगना घर हुआ रनिवास बालपन में हसरतों को जब मिला बनवास  हाँ यही मुझको मिला है कह उठे रघुवीर।। यातना दावानलों की और चंदन गात इक सुबह की आस ने दी उम्र भर की रात कब किसी केशव ने समझी अश्वसेनी पीर।। इक कदम पर शह मिली दूजे कदम  पर मात मौत भी करती रही है घात पर प्रतिघात दो गुना बढ़ कर मिली है कम हुई जब पीर।। सुरेश साहनी, कानपुर
 📝Suresh Sahani जी की कलम से🙏 -------------------------------------------------------- 5 अप्रैल 2020 ---------------------- आओ मिल कर दीप जलायें। कोरोना को मार भगायें।। कोरोना की उल्टी गिनती निषादराज की मने जयंती दीप जलायें घर के बाहर दरवाजे पर दीवारों पर राष्ट्रीय त्योहार मनायें। कोरोना को मार भगायें।। कश्यप ऋषि को नमन करें हम उनकी बातें मनन करें हम नाचें गायें खुशी मनाएं।।
 इस देश के आर्थिक सुधार में अपराधियों का बड़ा योगदान है।प्रतिदिन हजारो वाहन चोरी होते हैं।वे कबाड़ की दुकानों पर स्पेयर पार्ट्स की शक्ल में आ जाते हैं।हजारों लोगों को रोजगार मिल जाता है।गरीब भी सस्ते में स्पेयर पार्ट्स पा जाते हैं।यही स्थिति इलेक्ट्रॉनिक आईटम विशेषकर मोबाइल की भी है।अभी 30 तारिख को बंदा राहजनी का शिकार हुआ।आज नया मोबाइल खरीद लिया।इस तरह से देखा जाय तो मोबाइल उद्योग को कितना बल मिल रहा है।हमारे नेता भी तो यही चाहते हैं।हम आईटी और संचार के क्षेत्र में विश्वशक्ति बनें।लघु शस्त्र यानि स्माल आर्म्स के क्षेत्र में भी हम विश्व में अग्रणी हैं।मुझे तमंचा दिखा कर लूटा गया था।आखिर एक चोर लुटेरे को भी तमंचे आसानी से मिल जाते हैं।सरकार को चाहिए कि वह लघु शस्त्र निर्माण या कट्टा निर्माण को कुटीर उद्योग की मान्यता दे दे।और लाइसेन्स प्रणाली ख़त्म कर सिंगल विंडो सिस्टम लागू करे।किरण बेदी की सलाह मानते हुए हर जेल हर जिला मुख्यालय और हर स्टेशन पर इन उद्योग प्रवर्तकों/रहजनों के लिए विश्रामगृह बनवाये।इससे हमारे परदेश और देश में उदोगकान्ति आवेगी।एवं मेक इन इण्डिया सार्थक होगा।
 काफी सोच समझकर लिखिए। जो लिखिए डर डर कर लिखिए।। सच लिखना इक बीमारी है बीमारी से बचकर लिखिए।। सूरज चाँद सितारे लिखिए धरती लिखिए अम्बर लिखिये।। आडम्बर को मान मिल रहा बेहतर है आडम्बर लिखिए ।। खलनायक को नायक लिखिए राजा लिखिए ईश्वर लिखिए।।
 आज की ग़ज़ल समाअत फरमायें :- कहने को अनपढ़  ख़ादिम सरकारी था। पर ख़िदमत में आलिम फ़ाज़िल कारी था।। वक़्त ज़रूरत काम सभी के आता था कुछ की नज़रों में वो कम व्यवहारी था।। आंखों का तारा था  कई गरीबों का जो चंद अमीरों के दिल पर वो आरी था।।  हंसता था  हौले हौले तन्हा तन्हा  आज मुहल्ले पर जिसका ग़म तारी था।। कुछ ने चाहा उसे फांसना मुर्गे सा कई घरों की जो रोटी तरकारी था।। वो सीधा था हद से ज्यादा दुबला भी और जनाजा उसका कितना भारी था।  सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या कोई युगचित्र उकेरे दृष्टिहीन  हो गए  चितेरे जातिधर्म की ज्वालाओं ने  फूंक दिये सब प्रेम बसेरे कितनी नफ़रत कितनी कुंठा अपना ही अपनों से रूठा कोई कहता है अपना लो कोई कहता छू मत ले रे।। युगदृष्टा सब रहे ध्यानरत हुए आक्रमण यहां अनवरत भारत माता रही चीखती कहाँ गए सब नाहर मेरे।। उच्च बड़े मंझले छोटू हैं कई तरह के तो हिन्दू हैं फिर सिख मुस्लिम और ईसाई सबके अलग अलग हैं डेरे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 इश्क़ को आजमा रहे हो तो। ज़ुर्म है बरगला रहे हो तो।। वस्ल की बात है तो मिल लेंगे ज़ीस्त से आज जा रहे हो तो।। देखना बेख्याल मत होना तुम मुझे गुनगुना रहे हो तो।। अपने किरदार को बचाना भी जो बुलन्दी पे आ रहे हो तो।। बुतपरस्ती में कोई उज़्र नहीं तुम मेरा दिल जला रहे हो तो।। ये भी शिकमी किराएदारी है दिल जो सबसे लगा रहे हो तो।। मैं तुम्हें बेवफ़ा न समझूँगा प्यार इक से निभा रहे हो तो।। अब कभी बानकाब मत आना साथ गैरों के आ रहे हो तो।।  सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 सृष्टि चक्र है अभी अधर में  कल्कि अवतरण अभी दूर है  जिससे होगा युग परिवर्तन  वह अंतिम रण  अभी दूर है  सृष्टि चक्र के उस सुमेरु से  कोई हनुमत ही लांघेगा  अश्वमेघ  के अग्रदूत को  कोई साधक ही बांधेगा  कब सुमेरु  को  लांघ सका हैं   कोई राजा या अतिवादी  जन्म मृत्यु के इस रौरव से  भोगी कब पाता आज़ादी. लालच सिंधु पार कर लंका जा सकता यदि साधारण नर क्यों प्रभु राम साथ ले जाते  कोल किरात रीछ अरु वननर  सुरेश साहनी
 राउर राह निहारत बावे थेथर मन। केकरे बस में बावे आखिर केकर मन।। रात चनरमा के अंजोरिया खूब रहल तब्बो नाही लउकल कईसन पाथर मन।।
 कोई हालात पे ख़ामोश नज़र रखता है। कोई हालात बदलने का ज़िगर रखता है।। कोई तो है जो बियावां में जलाता है चिराग कोई तो है जो उजाले का हुनर रखता है।। दौरे-गर्दिश में हूँ महफूज़ वज़ह इक माँ है वरना अब कौन दुआओं में असर रखता है।।
 आज कुछ प्रोगराम है शायद। इसलिए तामझाम है  शायद।। भीड़ ज्यादा है आज खाने में और भी इंतेज़ाम है शायद।। वो जो कुछ बददिमाग दिखता है कोई आलीमकाम है शायद।। मुद्दतों बाद मिलने आया है उसको कुछ ख़ास काम है शायद।। ख़्वाब में क्यों दिखा सलीब मेरा- इश्क़ वालों में नाम है शायद।। वो परेशान हाल लगता है ये उसी का निज़ाम है शायद।। वो जो अच्छी ग़ज़ल सुनी तुमने साहनी का कलाम है शायद।। सुरेश साहनी,कानपुर
 इस से पहले कि सब बिखर जाए। आ भी जाओ कि कुछ सँवर जाए।। दिन में मशरूफ़ हो बहुत तो क्या रात इक साथ मे गुज़र जाए।।सुरेश साहनी
 एक दिन भूल गया घर मेरा। वो जो पढ़ता था मुक़द्दर मेरा।। जो था रहजन मेरी उम्मीदों का प्यार से हो गया रहबर मेरा।। वो हरम रोज़ बदल लेता है मुझको मिलता ही नहीं दर मेरा।। होठ उसके है पियाले गोया उसकी आँखों में है सागर मेरा।। उनकी नफ़रत से हुआ जाता है और किरदार मुनव्वर मेरा।। घर मेरा  क़त्ल मेरा और मेरे- दोस्त  क़ातिल मेरे खंजर मेरा।। बाद मेरे कहाँ सोया  क़ातिल उसकी आँखों में रहा डर मेरा।। ऐ यज़ीद मुड़ के किधर जाता है देख वो आता है असगर मेरा।। गीर सुन ज़न्न से तनहा है तू और ईमान है लश्कर मेरा।। सुरेश साहनी, कानपुर मुक़द्दर/ भाग्य रहजन / लुटेरा रहबर / पथ प्रदर्शक क़िरदार /  चरित्र मुनव्वर / प्रकाशित असगर/ हुसैन के नाती , बहुत तेज गति वाला गीर / विजेता ज़न्न / संदेह करने वाला, काफिर ईमान /  विश्वास ,चरित्र लश्कर   / सेना की टुकड़ी
 किससे दिल की बात कहें हम। बेहतर है  ख़ामोश  रहें हम।। बाद मुहब्बत ही सोचेंगे उनके नफ़रत की वज़हें हम।। बेगानी  दुनिया  के  जैसे धारा में दिन रात बहें हम।। खुशियों में हल्ले गुल्ले हों ग़म हो तो चुपचाप सहें हम।। तपते  एहसासों की हद है आख़िर कितना और दहें हम।। साथ अगर छोड़ा है तुमने क्यों कर दामन और गहें हम।। गाँठ मुहब्बत में लाज़िम है क्यों खोलें उनकी गिरहें हम।। सुरेश साहनी, कानपुर
 Ye kyun sochen ki apna kaun hoga Tumhare baad.zinda kaun hoga  Jo mujh saa toot kar chahega tumko Siva mere tumhara kaun hogaa.