उसकी क़ातिल निगाह उफ़ तौबा

कितनी शीरी है आह उफ़ तौबा।।

उनके कदमों में झुक गए आकर

कितने आलम पनाह उफ़ तौबा।।

उनका मरमर का जिस्म हय अल्ला

उसपे जुल्फें सियाह  उफ़ तौबा।।

इश्क़ दरवेश  हो के ढूंढे है

हुस्न की ख़ानक़ाह उफ़ तौबा।।

शीश देकर के इश्क़ आया है

हुस्न की बारगाह उफ़ तौबा।।

हुस्न बोला कि तुम गुलाम हुए

ऐ मेरे बादशाह उफ़ तौबा।।

जिसको कहना था हम दिखाएंगे

अपने मारों को राह उफ़ तौबा।।

कितना मासूम है मेरा क़ातिल

कौन होगा गवाह उफ़ तौबा।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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