क्या बचता प्रतिबिम्ब तुम्हारा
मन दर्पण तो टूट चुका है।
जितना मुझसे हो सकता था
उससे अधिक निभाया मैंने
एक तुम्हारी ख़ातिर कितने
अपनों को ठुकराया मैंने
क्या बोलूँ जब मुझसे मेरा
अपना दामन छूट चुका है।।.....
इस मंदिर में तुम ही तुम थे
जिसका प्रेम पुजारी था मैं
पर तुमको यह समझ न आया
सचमुच बड़ा अनाड़ी था मैं
प्रेम कहाँ अब बचा हृदय में
हृदय कलश तो फूट चुका है।।....
माना मेरा दिल पत्थर है
दिल में किन्तु तरलता भी है
ऊपर ऊपर भले तपन है
पर मन मे शीतलता भी है
किसको दोष लगाऊँ मुझसे
आज समय तक रूठ चुका है।।...
सुरेश साहनी
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