सच यही है मैं तुम्हारा दिल नहीं धड़कन नहीं।
और अब मेरे हृदय के तुम भी स्पंदन नहीं।।
फिर वफ़ादारी की मुझसे है तवक़्क़ो बेवज़ह
दोस्त पहले भी नहीं था आज भी दुश्मन नहीं ।।
किसलिए मैं गाँव जाऊँ सिर्फ यादों के सिवा
जब वहाँ फुलवा नहीं ,पनघट नहीं बचपन नहीं।।
अजनबी से खेत हैं अनजान हैं पगडंडियां
उगती दीवारों के दिल मे प्यार के आँगन नहीं।।
आशना होना मुहब्बत की निशानी भी नहीं
और शाइस्ता निगाही तर्ज़े-अपनापन नहीं।।
साफ किरदारी है बेहतर पैरहन बुर्राक से
खूबसूरत तुम हो पर उजला तुम्हारा मन नहीं।।
हुस्न है अब होटलों में क्लब मैं है डिस्को में है
इश्क़ को हरगिज़ जहाँ घुसने की परमीशन नहीं।।
प्यास पनघट पर तड़प कर तोड़ देगी दम कि अब
गांव में कजरी नहीं गगरी नहीं कजरारी पनिहारिन नहीं।।
साहनी क्यों थामकर बैठे हो गुज़रे वक़्त को
जो झटक कर चल दे तेरे यार का दामन नहीं।।
सुरेश साहनी ,कानपुर
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