छोड़ कर वो शहर निकल आए।

हम नई राह पर निकल आए।।


मुझमें क्या देख कर कहा उसने

चिटियों के भी पर निकल आए।।


ज़िंदगी को हसीन समझे थे

ज़िंदगी में ही डर निकल आए।।


क्या पता नफरतों की लंका में

इश्क का एक घर निकल आए।।


ज़िंदगी को ग़ज़ल में मत बांधो

जाने कैसी बहर निकल आए।।


ज़िंदगी तो उधर ही रहती थी

हम न जाने किधर निकल आए।।


मौत हो आख़िरी सफ़र मौला

फिर न कोई सफ़र निकल आए।।


हम ज़माने की मांद में जाकर

फिर मिलेंगे अगर निकल आए।।


काम आ जाए तीसवां रोज़ा

ईद वाला कमर निकल आए।। 


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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