आंख भर नींद उतारी कब थी।

रात भर रात हमारी कब थी।।

तुमसे उम्मीद हमें थी  लेकिन 

तुमने तकदीर सँवारी कब थी।।

दिन उजालों में भी उजले कब थे

रात भी  रात से भारी कब थी।।

ज़िन्दगी ज़ीस्त से जीती कब है

ज़िन्दगी मौत से हारी कब थीं।। 

हसरतें तन्हा कहाँ रहती हैं

आरजुये भी कुंवारी कब थी।।

कैसे होते जवां एहसास मेरे

शोखियाँ तुमने उभारी कब थी।।

हम में माना थी शरारत लेकिन

तुम कहो तुम भी बेचारी कब थी।।

तेरी आँखों मे नशा है अब भी

हम में इस मय की ख़ुमारी कब थी।।

हम तेरा हुस्न मुकम्मल करते

तुमने वो रात गुज़ारी कब थी।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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