समझौतों में आनंद कहां
अनुबंधों का उत्सव कैसा
जब नेह नहीं तब स्वार्थ भरे
संबंधों का उत्सव कैसा......
इनके उनके तेरे मेरे
कर भेद असीमित हो जाएं
संबंधों के व्यापक ताने
स्वारथवश सीमित हो जाएं
तब व्यवहारों पर लगे हुए
प्रतिबंधों का उत्सव कैसा.......
है प्रेम नदी जैसा बहकर
मिलना अभीष्ट में खो जाना
गोपी बनना मनमोहन का
राधा का साँवल हो जाना
है घाट अगर मन के सूखे
तट बंधों का उत्सव कैसा,.....
क्या मन के टूटे दर्पण का
संभव है फिर से जुड़ पाना
तुम उत्सवधर्मी हो शायद
क्या जानो मन का मर जाना
जा चुकी बहारें उपवन से
तब गंधों का उत्सव कैसा......
सुरेश साहनी, कानपुर
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