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Showing posts from May, 2023
 छोडो यार साहनी जी विद्वान मत बनो। अपनी चादर में रहो ढेर जिब्रान मत बनो।। रामकहानी लिख तुलसी ना बन जाओगे भक्ति भावना में बहि के रसखान मत बनो।। अंडा जैसे फूट पड़े , एक देश बन  गए  पैजामा में रहो चीन जापान मत बनो।। हमे पता है गुड़ के बाप तुम्ही हो कोल्हू मजा ले रहे हो , इतने अनजान मत बनो।। पार नाव से हुए लौट विमान से आये उतराई तो दो ज्यादा भगवान मत बनो।। अबकी बार वोट को फिर से बेच न देना पहचानो जानो तब दो अनजान मत बनो।।
 ख़बर तो थी मगर अख़बार में नहीं पहुंची। वो चीख़ जो कभी दरबार में नहीं पहुंची।। के कारवां में भी लुटती रही तमन्नाएं उरूज़ क्या कहें मैय्यार में नहीं पहुंची।। जिसे मैं चाहता था वो मेरी ग़ज़ल निकली सलीकेदार थी बाज़ार में नहीं पहुंची।। वो होती तो न जाने कितनी ज़िन्दगी देती जो ज़िन्दगी कभी संसार में नहीं पहुँची।। सुरेशसाहनी
 सिर्फ़ अपनी कविता कविता नहीं होती मन मष्तिष्क में उठते गुबार भावों के उठते गिरते ज्वार कूड़ा कचरा भी हो सकते है औरों को भी पढ़ो तुम्हारी सोचने की सीमाओं से परे बहुत अच्छा या बुरा और कुछ नितान्त भिन्न ऐसा ज़रूर मिलेगा जो तुम्हारी सोच या सोचने की दिशा  बदल देगा!!! सुरेशसाहनी
 हमने तो फिर भी गुज़ारा कर लिया। किसलिए तुमने किनारा कर लिया।। तुम हमें मंझधार में छोड़ आए जब हमने मौजों का सहारा कर लिया।। हँस दिए जो तुम मेरे हालात पर तुमने खुद को ही बेचारा कर लिया।। बेनयाजी चाँदनी की देखकर चाँद ने अपना उतारा कर लिया।। तुम थे हरजाई तुम्हे क्या उज़्र है हमने अपना घर दुबारा कर लिया।। सुरेशसाहनी
 वैसे भी वह हँसता कम है। शायद उसको कोई ग़म है।। उसकी पाकीज़ा आंखों के  आंसू भी आबे-ज़मज़म है।। उसकी आंखें उसकी बातें  उसका चेहरा कितना  नम है।। तुमको मालुम है तो बोलो टूटे दिल का क्या मरहम है।। दूर कहीँ मत खोजो प्यारे दिल की दुनिया चार कदम है।। सुरेशसाहनी
 मत कुरेदो राख के नीचे दबे अंगार को मत उभारो भावनाओं के दबे उद्गार को  क्या करोगे चूमकर अब मृत्यु सी ठंडी जवानी बिन सहारे  जब बिता डाली ये सारी ज़िंदगानी तप सरीखी काट दी जिसके विरह में ज़िन्दगी  मत मनाओ फिर उसी से काम मय अभिसार को।। फिर बसन्ती दिन सुनहरे लौट कर आने है ख़्वाब बिखरे टूट कर जो फिर सिमट पाने नहीं हैं तोड़ डाले थे कभी जिसने तेरे सपने सुनहरे  मत सजाओ उस छली संग स्वप्न के संसार को   ...... सुरेशसाहनी
 धूल में मिल गयी भावना आस की। डोर टूटी नहीं किंतु विश्वास की।। * रास की आस में रासवन में फिरे, ज्यूँ मधुप रूप के अंजुमन में फिरे मन के आँगन की तुलसी रही सूखती भामिनी के बिना ज्यूँ भवन में फिरे हों भले गोपियाँ संग सब कृष्ण के राधिका के बिना क्या छटा रास की।। प्रेम पाते कहाँ से अहंकार में ज्ञान पाकर फँसे बीच मंझधार में जाके उधौ से पूछो दशा योग की जीत जिनको मिली प्रेम से हार में राधिका प्राण है बाँसुरी देह है श्याम अनुनाद है श्वास दर श्वास की।। सुरेशसाहनी
 हम भी वहीं करें जो मेरे यार कर रहे। ना राहजन हुए ना कभी राहबर रहे।। जो भी मिला नसीब से तस्लीम कर लिया ना मुतमईन थे ना कभी बेसबर रहे।। इस इश्क़-ए-नामुराद ने  हस्ती समेट दी  बदनाम ना हुए ना कभी नामवर रहे।। ये चार दिन की ज़ीस्त भी कुछ इस तरह कटी     ना उनके घर गए ना कभी अपने घर रहे।। हम इस शहर से उस शहर किसकी तलाश में अहले शहर थे फिर भी गरीब उल शहर रहे।। मंज़िल न मरहला न ठिकाना कोई मिला ख़ानाबदोश जैसे फिरे दरबदर रहे।। दिन इंतज़ार ले गया कुछ हिज़्र में गए कैसे कहें वो साथ मेरे उम्र भर रहे।। यूँ भी कलम रही है फ़कीरी मिज़ाज़ की हम बाबहर रहे न कभी बेबहर रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 देख के मेरा मोम का पैकर पागल है। फेक रहा है मुझपर पत्थर पागल है।।  इश्क़ से उसको जाने कितनी नफ़रत है घूम रहा है ताने खंज़र पागल है।। पहले कितना सीधा सादा दिखता था अब जब आया है अपनी पर पागल है।।
 फिर लरजते हुए होठों पे हँसी आयी है। फिर सहमते हुए इस घर मे खुशी आयी है।। नूर इतना भी नहीं है कि इसे दिन कह दें हाँ मगर सच है अंधेरों में कमी आयी है।। अब कहाँ अश्क़ कि तस्दीक करें तेरे ग़म पर तुझे देख के आँखों में नमी आयी है।।
 ख़्वाब मत देख नींद भी ले ले। नूर भर भर के तीरगी ले ले।। मौत को डर है इश्क़ कहता है हुस्न पे मर के ज़िन्दगी ले ले।। दूर तक हैं बला के अंधियारे कुछ दुआओं की रोशनी ले ले।। इश्क़ है नाम सब गँवाने का हुस्न से जो मिले वही ले ले।। जितने दरिया  हैं सब तो खारे हैं प्यास के वास्ते नदी ले ले।। तेरा आशिक़ चला है मक़तल को जाते जाते तो हाज़िरी ले ले।। ज़ीस्त उम्मीद का समन्दर है हसरतों भर तो तिश्नगी ले ले।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132 Email:-  srshsahani@gmail.com
 बिना कहे कितनी सारी पाबंदी है। शासन का मतलब ही गुंडागर्दी है।। मज़लूमों मजबूरों को लतिआएगा आख़िर उसके तन पर खाकी वर्दी है।।
 किसी को चाहतों ने मार डाला। किसी को नफ़रतों ने मार डाला।। मैं ज़िन्दा था दुवा से दुश्मनों की फ़ितरतन दोस्तों ने मार डाला।। अदाओं पर मैं जिसकी मर मिटा था उसी की हरकतों ने मार डाला।। मेरे साक़ी में गोया ज़िंदगी थी छुड़ाकर ज़ाहिदों ने मार डाला।। न था अलगाव कोई मैक़शों में ख़ुदा वालों ने मुझ को मार डाला।  जो अनपढ़ थे मुहब्बत से भरे थे मुझे ज़्यादा पढ़ों ने मार डाला।।
 किसी को चाहतों ने मार डाला। किसी को नफ़रतों ने मार डाला।। मैं ज़िन्दा था दुवा से दुश्मनों की फ़ितरतन दोस्तों ने मार डाला।। अदाओं पर मैं जिसकी मर मिटा था उसी की हरकतों ने मार डाला।। मेरे साक़ी में गोया ज़िंदगी थी छुड़ाकर ज़ाहिदों ने मार डाला।। न था अलगाव कोई मैक़शों में ख़ुदा वालों ने मुझ को मार डाला।  जो अनपढ़ थे मुहब्बत से भरे थे मुझे ज़्यादा पढ़ों ने मार डाला।।
 होठ उसके हैं जाम के प्याले उसकी आँखों में कोई सागर है। वो हमें डूबने नहीं देता बेख़ुदी से उसे कोई डर है।।
 मस्त निगाहों के मस्ताने हम भी हैं। जलने का क्या डर परवाने हम भी हैं।। माना तेरे दीवानों की लाइन है कुछ उनसे हटकर दीवाने हम भी है।। तुम कहते हो तुमने दुनिया देखी है छोटे बच्चे नहीं सयाने हम भी हैं।।
 कह कह के सैलाब नहीं लाये जाते। मनचाहे से ख़्वाब नहीं लाये जाते।। किस्सों में गंगा लाने की बातें हैं बातों से दरियाब नहीं लाये जाते।।
 क्या बतायें कि क्या बता आये। हाँ उसे दर्दे-दिल सुना आये।। इसके आगे ख़ुदा की मर्जी  है हम यहां तक तो बावफ़ा आये।।   ये तड़प आसमान तक पहुंचे कम से कम कुछ तुम्हे मज़ा आये।। क्या क़यामत का इन्तेज़ार करे आज ही क्यों न कुछ किया जाये।। एक घर प्यार का बना डालें बर्क़ टूटे कि ज़लज़ला आये।। इश्क़ पेशा नहीं कि फ़िक्र करें हम तो दिल भी कहीं गुमा आये।। हुस्न इतना गुरूर ठीक नहीं इश्क़ बाज़ार में न आ जाये।। सुरेश साहनी कानपुर
 फिर नदी पर पुल बना है फिर कई मांझी मरेंगे फिर सड़क बनने लगी है खेत फिर कुछ खत्म होंगे बांध बनते ही नदी से मछलियां गायब हुई हैं बाग बन जब जब कटे हैं तितलियां गायब हुई हैं खुद हमारे ही पतन की हम कहानी गढ़ रहे हैं ज़िन्दगी की खोज में हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं.....
 मार्क्स ने इस पर चिंतन किया।मार्क्सवाद हो गया। मार्क्स नहीं करते तब कोई अन्य करता।आप नाम को प्रासंगिक मानने लगते हैं। यह विचार कि सबल और निर्बल का अमीर और गरीब का अथवा तंत्र और लोक का संघर्ष सतत जारी रहता है।इस संघर्ष तीव्रता और श्रांतता की स्थितियां क्रमशः आती जाती रहती हैं।किंतु इन सब मे तीव्रता के तुरंत बाद लम्बी श्रांती के लिए मार्क्स ने एक ऐसे समाज की कल्पना की,जहां पूरा तंत्र मेहनतकशों के द्वारा संचालित हो। यह विचार द्वंदात्मक भौतिकवाद है।  किन्तु संघर्ष तो शाश्वत है।क्या जीवन के प्रत्येक स्तर पर संघर्ष  नहीं है।क्या जीवन संघर्ष नहीं है। हमारे जीवन का आरम्भ ही संघर्ष का प्रतिफल है।करोड़ो शुक्राणुओं में से एक जो शेष से श्रेष्ठ है वह डिम्ब को वेध कर भ्रूण बनता है।  क्या इससे पहले यह विचार नहीं आया होगा। जरूर आया होगा।विचार संघर्ष समाप्त करने का, विचार समाज को दुखों से मुक्ति देने का। विचार भी सतत है।यह रूपान्तरित होता रहता है।समय दर समय,व्यक्ति दर व्यक्ति विचारों पर पालिस चढ़ती रहती है।बढ़ती रहती है। इन दोनों के साथ एक और चीज शाश्वत है। वह है  विपरीत परिस्थिति,  विपरीत विचार , और विप
 जबसे सुना है यूपी सरकार ने लॉकडाउन में 30 लाख रोजगार प्रतिदिन देने का लक्ष्य रखा है।देश विदेश के अविकसित क्षेत्रों में खुशी की लहर है। सूत्रों के हवाले से यह भी खबर है कि महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और कलकत्ता आदि से मजदूरों के एकाएक पलायन के पीछे भी योगी जी की यही रणनीति है।  योगी जी का मानना है कि ऐसा ही पलायन खाड़ी देशों से भी होना चाहिए।इससे उन देशों को आसानी से सुलभ होने वाले श्रम का वास्तविक मूल्य पता चलेगा। अब आप ही बताइए यह कहाँ से उचित है कि अपनी नई नवेली पत्नी,घर परिवार ,और कई कई जगह बाल बच्चों को छोड़कर लोग दो दो तीन तीन साल के लिए खाड़ी देशों में रोजगार के लिए भाग जाते हैं।वहाँ वे आठ से दस हजार रुपये पर गुलामी कर रहे होते हैं।इधर उनके घर वाले खेती के लिए मजूर ढूंढते फिरते हैं। अरे भाई आप क्यों नही मानते कि:-  जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!!"  अवधी के सशक्त हस्ताक्षर स्वर्गीय रफीक़ सादानी ने कहा भी है,              ' नई मेहरिया छोड़ के दुबई भागत हौ            जैसे तैसे करो गुजारा उल्लू हो।।" सबसे बड़ी बात जब इन श्रमिकों की कमी महसूस होगी जब वह सु
 यदि मृत्यु पर आपका अधिकार नहीं है तो आयुर्वेद से ही मरने दीजिये। संजीवनी होने का दावा करती विदेशी दवाओं के भारतीय मरीजों पर प्रयोग कितने लाज़िम हैं। क्या जो दवाएं अमेरिका यूरोप में प्रतिबंधित हैं ,उनका उत्पादन और बिक्री भारत मे धड़ल्ले से जारी है यह किसी से छुपा  है।  यदि कोरोना के मरीज अस्पताल में भर्ती होते हैं तो उनके इलाज का खर्च सुविधा रहित कैम्प/अस्पतालों में यदि साठ हजार से सत्तर हजार प्रतिदिन वसूला जाता है और उसके बाद भी पंद्रह से बीस लाख केवल मृत शरीर वापस करने की फीस ली जाये तो भाई आपके इस अमानवीय सिस्टम में मरने की बजाय उसका आयुर्वेद की गोद मे मरना बेहतर विकल्प है कि नहीं।  मैं बाबा रामदेव का समर्थक नहीं हूँ, किन्तु जब आपके योग्य चिकित्सक रेमडेसवीर की जगह दो रुपये के डेक्सामेथासान को उपयोग में लाने की सलाह देते हैं तो आप  अपने सुयोग्य साथियों की सलाह क्यों नहीं मानते? सिर्फ इसलिए कि मानव हितों से आपके व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हैं।   कल जो लोग बौद्धिक संपदा अधिकार , जेनेरिक दवाओं के एकाधिकार और जीन कैम्पेन और टर्मिनेटर खेती का विरोध करते नज़र आते थे , आज वही लोग इसके समर्थन में ब
 आज दिन भर उमस भरी गर्मी काश की जेब भी गरम रहती।। कल की आंधी ने थोड़ी राहत दी थोड़ी राहत भी कब तलक रहती।।
 ज़रा सी बात है कहानियां बहुत कुछ हैं। के नाम तो नहीं बदनामियां बहुत कुछ हैं ।। ये बात सच है मेरे तेरे बीच कुछ भी नहीं ये बात और अपने दरमियां बहुत कुछ है।। सुरेशसाहनी
 मुझे मत बताओ मेरी राह क्या है। वही कर रहा हूँ जो दिल चाहता है।। न बनने की हसरत न मिटने की ख़्वाहिश मेरा फलसफा दो ज़हाँ से जुदा है।। न जीने से ऊबन न मरने का डर है मुझे मेरे जीने का मकसद पता है।। सभी चल रहे अपनी अपनी डगर पर कोई अब किसी से कहाँ पूछता है।। न उज़रत किसी से न चाहत किसी की न उल्फ़त न रकबत न शिकवा-गिला है।। मुझे क्या ग़रज शेख दैरो-हरम से कि अब मयक़दे का पता मिल गया है।। सुरेशसाहनी
 अबे घुटनों के बल क्यों रेंगता है। तेरे जैसा  ही   कोई दौड़ता है ।। जरा तू सोच इन बैसाखियों के- सहारे कौन  दुनिया जीतता है।।
 सन 2014 से पहले तक इतिहास का वो दौर था, जब 'हम भारत के लोग' बहुत दुखी थे। एक तरफ तो फैक्ट्रियों मे काम चल रहा था और कामगार काम से दुखी थे अपनी मिलने वाली पगार से दुखी थे। सरकारी बाबू की तन्ख्वाह समय-समय पर आने वाले वेतन आयोगों से बढ रही थी, हर छ महीने साल भर मे 10% तक के मंहगाई भत्ते मिल रहे थे नौकरियां खुली हुईं थीं। अमीर-गरीब सवर्ण दलित सबके लिये यूपीएससी था . एसएससी था, रेलवे थी, बैंक की नौकरियां थीं। प्राईवेट सेक्टर उफान पर था। मल्टी नेशनल कम्पनियां आ रहीं थी जॉब दे रहीं थीं। हर छोटे-बडे शहर मे ऑडी और जगुआर जैसी कारों के शो रूम खुल रहे थे। हर घर मे एक से लेकर तीन चार तक अलग अलग माडलो की कारें हो रही थीं। प्रॉपर्टी मे बूम था। नोयडा से लेकर पुणे बंगलौर तक, कलकत्ता से बम्बई तक फ्लैटों की मारा-मारी मची हुई थी। मतलब हर तरफ हर जगह अथाह दुख ही दुख पसरा हुआ था। . लोग नौकरी मिलने से, तन्ख्वाह पेन्शन और मंहगाई भत्ता मिलने से दुखी थे। प्राईवेट सेक्टर आई टी सेक्टर मे मिलने वाले लाखो के पैकेज से लोग दुखी थे। कारों से, प्रॉपर्टी से लोग दुखी थे ....... फिर क्या था.. प्रभु से भारत की जनता
 याद आया वह सावन भीगा। आँचल भीगा जोबन भीगा ।। जो चोरी से मन ले भागा बरसों उसकी याद में जागा लेकर अपना दामन भीगा।। वहीं कहीं पर खोया बचपन वहीं जहाँ पर भीगा तन मन जहाँ मिला नवजीवन भीगा।। कितना मादक कितना कोमल   प्रमुदित किसलय प्रफुटित कोंपल
 वे तपती धूप में जलती सड़क को  नाप लेना चाहते हैं वे पगडंडी पर, मिट्टी में , गिट्टी पर ,रेल की फिश प्लेट्स पर और  टहकते कोलतार पर तपते  सिहरते  डोलते चलते  और कभी कभी दौड़ते कदम इस खुशी में हर दर्द भूल चुके हैं कि वे जल्द ही अपने मुलुक  अपने गाँव में होंगे माँ जैसी गाँव की माटी  जिसने रोजी रोजगार भले न दिया लेकिन प्यार बहुत दिया है और दुआर पर की नीम भी तो अगोरती है उसके नीचे केतना बढ़िया बयार लगता है हाली हाली चलते हैं ए सुनु रे ! हम तो चल रहे हैं ई सांस क्यों रुक रही है रुकु रे! अब तो नगिचा गए हैं -बस दुइये दिन अउर फिर नीम के तरे खटिया डार के आराम से सुतियेगा उठ क्यों नहीं रहे हैं  उठिए न बेलास के बाबू!!!!
 वे कहते हैं विद्रोही पहचान बेच दूँ। कलम बेच दूँ मैं अपना ईमान बेच दूँ।। आज भले ज़िंदा हूँ पर क्या बन पाया हूँ अब तक पाने से ज्यादा खोता आया हूँ बोल रहे हैं वे मैं अपनी शान बेच दूँ।।1 . लोकतंत्र अब जाने किस पर टिका हुआ है जिस पर करो भरोसा वो ही बिका हुआ है ख़ुद्दारी की मैं भी आज दुकान बेच दूँ।।2. भगत सिंह आज़ाद आज लगभग विस्मृत हैं देश बेचने वाले ही अब सम्मानित हैं मैं भी खुद को लेकर कुछ सम्मान बेच दूँ।।3. गिरवी रख दूँ खुद को अपनी श्वास बेच दूँ कफ़न बेच दूँ जनता का विश्वास बेच दूँ  सोच रहा हूँ जनगण का अभिमान  बेच दूँ।।4. वे समाज को बेच सदन की जान बन गए भगवानों को बेच स्वयं भगवान बन गए क्या मैं अपने अन्दर का इंसान बेच दूँ।।5. सुरेश साहनी, कानपुर
 खुशी से सुनाना अदाओं के किस्से। पढ़े हैं किताबी वफाओं के किस्से।। पता है हमें इसलिए कह रहे हैं खुलें ना तुम्हारी जफ़ाओं के किस्से।।
 नित्य सृजन करते हुए कवि रच गए पहाड़। जहां निधन उनका हुआ सब कुछ हुआ कबाड़।। बच्चों का साहित्य से इतना रहा लगाव। कुछ दिन वे अनमोल थी फिर रद्दी बेभाव।।
 चढ़ा है आप का सूरज तो कल ढलेगा भी यहाँ तो जिस्म भी फ़ानी हैं कल रहे न रहे। इसी अना में तो पन्जे का टूटना तय था इसी गुरुर में खिलते कमल रहे न रहे।।
 जरूरी तो नहीं मैं सच ही बोलूं अभी सच बोलना अपराध भी है।।
 जब तलक जीते रहेंगे प्यार वाले। दिन रहेंगे हुस्न के श्रृंगार वाले।। क्या करोगे हद से ज्यादा रूठकर यदि रूठ जायेंगे तेरे मनुहार वाले।। चाहने वाले हैं सौदागर नहीं हम भाव मत खाओ अभी बाज़ार वाले।। मत गहो विषबेल का दामन अनारो क्या करेंगे दिल तेरे बीमार वाले।। हम न देखेंगे तमाशा साहिलों से हम तो आशिक हैं तेरे मझधार वाले।। औपचारिकता न होगी साफ सुन लो और होंगे शुक्रिया आभार वाले।। फिर प्रलय तक क्यों प्रतीक्षा साहनी जी दिन न आयेंगे पुनः अभिसार वाले।। सुरेश साहनी ,कानपुर  9451545132
 आज फिर दूर बहुत दूर हुआ हूँ ख़ुद से। कौन लूटेगा मुझे मैं तो लुटा हूँ ख़ुद से।।
 भले परदेश में अच्छा सा घर है। शहर अपना मगर अपना शहर है।। सभी को एक जैसी क्या दुआ दूँ कोई दहकां है कोई कूजागर हैं।।
 मेरे लोकप्रिय गीत के कुछ अंश, चुप रहो प्यार होने तलक चुप रहो। पीर उपचार होने तलक  चुप रहो।। प्यार ही बोधि है प्यार ही मर्म है। प्यार से है सृजन प्यार ही कर्म है प्यार आचार होने तलक चुप रहो।। हम मिलें इक नई ज़िन्दगी मिल सके सुनके किलकारियाँ हर खुशी मिल सके यूँ ही  दो चार होने तलक चुप रहो।। लोक कल्याण की साधिका हो तुम्हीं  कृष्ण निर्माण हित राधिका हो तुम्हीं  मुक्त संसार होने तलक चुप रहो।।
 एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो हैं। उन्होंने ग़ज़ल के नीचे जाते स्तर पर चिंता व्यक्त की थी।वैसे बड़े विद्वानों का अथवा प्रतिष्ठित महानुभावों का यह सम्मत धर्म है कि वे जिस क्षेत्र में बुलायें या आमंत्रित किये जायें उस क्षेत्र अथवा विषय के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करें। इससे एक तो आयोजकों पर उनका रौब ग़ालिब होता है दूसरे उस क्षेत्र के एकलव्यों और दुष्यन्त कुमारों को सहमने का मौका मिलता है।वे स्वयं को कविताई या ग़ज़लगोई से ख़ुद ही खारिज़ कर लेते हैं,अर्थात उनके शायर बनने की संभावनाओं पर वहीं फुलस्टॉप लग जाता है।इसके साथ ही उन वक्ता के बड़े विद्वान होने का भ्रम भी समाज मे स्थापित होता है।जैसे एक नेता जी एक वैज्ञानिक सेमिनार में मापक इकाइयों के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए बोले कि  पहले हम लोग दूरी को योजन,कोस मील और फर्लांग में मापते था आज मिलीमीटर और नैनोमीटर में सिमट कर रह गए हैं।विज्ञान क्या खाक़ तरक्क़ी करेगा।लोग कहते हैं नेता जी बिल्कुल सही बोले,पहले हम पुष्पक विमान से चलते थे आज स्कूटर भी विदेश के सहयोग से बना रहे हैं।" उधर आयोजक माथा पकड़ के बैठ चुके थे।   ख़ैर गज़लगो महोदय का कहना था हिंदी म
 मैं जो भी लिख रहा हूँ सब है बहर से बाहर। गलियों तलक से ख़ारिज बिल्कुल शहर से बाहर।। आशिक़ औ शायरों के है हाल एक जैसे ये उनके दिल से बाहर ये अपने घर से बाहर।।
 ज़िन्दगी कुछ गुम हुई लगती है अब। हम से हस्ती तुम हुई लगती है अब।। यूँ उरियां हूँ कि इन हालात में ईंट हर कुलसुम हुई लगती है अब।। थी कभी पहलू में हासिल जो खुशी दूर का अंजुम  हुई लगती है अब।।
 केवल लयकारी करना संगीत नहीं होता। शब्दों के ढेर लगा देना ही गीत नहीं होता।। साथ साथ रहने भर से या परिचय होने से लाख राब्ता हो लेकिन वह मीत नहीं होता।।
 हुस्न जब आशिक़ी से रूठ गया। इश्क़ तब ज़िन्दगी से रूठ गया।। तिश्नालब मयकदे से हम लौटे जाम भी तिश्नगी से रूठ गया।। झील को देखकर वो क्या मचली कोई सागर नदी से रूठ गया।। इश्क़ अपने उरूज़ पर आकर जाने क्यों बेख़ुदी से रूठ गया।। बन संवर के वो ख़ूब आया था पर मेरी सादगी  से रूठ गया।। ये नए दौर की क़यामत है हुस्न पाकीज़गी से रूठ गया।। हम उसे किसलिए ख़ुदा कह दे जो मेरी बन्दगी से रूठ गया।। उस गज़लगो से ये उम्मीद न थी वो मेरी शायरी से रूठ गया।। साहनी में कोई तो जादू है मानकर भी खुशी से रूठ गया।। साहनी सुरेश, कानपुर वाले 9451545132
 रिश्ते क्या घर तक टूटे हैं। दिल जब अंदर तक टूटे हैं।। महंगाई ने जब तोड़ा तो टीन कनस्तर तक टूटे हैं।।
 इश्क में और हमने जाना क्या। इश्क़ हो जाए तो ज़माना क्या।। जहाँ परिंदे भी पर न मार सके उस जगह आशियाँ बनाना क्या।। दोस्त ही आजमाए जाते हैं किसी दुश्मन को आज़माना क्या।। यार पत्थर के दिल नहीं होता एक पत्थर से दिल लगाना क्या।। दिल के बदले में दिल ही मिलता है इसमें खोना नहीं तो पाना क्या।। इश्क़ को इससे कोई फ़र्क नहीं ताज  क्या है गरीबखाना क्या।। हमने तो हाल दिल का जान लिया आज हमसे नज़र चुराना क्या।। चार दिन की है जिंदगानी भी और इसमें नया पुराना क्या।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आप क्यों ज़हमतें उठाते हैं। हम ही महफ़िल को छोड़ जाते हैं।। अब वफ़ादारियां नहीं मिलती गोकि कुत्ते वफ़ा निभाते है ।। हमसे रिश्ते बना के रखियेगा खोटे सिक्के भी काम आते हैं।। किन खयालों में आप खोये हैं दिन कहाँ फिर से लौट पाते हैं।। जब जवां थे तो कोई बात न थी अब मगर उन दिनों की बातें हैं।। दुश्मनों पर यक़ीन है लेकिन दोस्तों को भी आज़माते हैं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 इन्होंने दलितों का भला किया है ये शिक्षित हुए हैं संगठित हुए हैं संघर्ष किया है और समझौता भी  समाज की कीमत पर सुविधाएँ ली हैं समाज वहीँ है फिर कोई आएगा फिर दलितों का  भला करेगा!!!!! ★ ★ ★ ★ ★ ★ सहारनपुर कितनी दूर है लखनऊ से दिल्ली से  गाज़ियाबाद से हाजीपुर से पटना से नागपुर से कितने घण्टे लगेंगे बस से कार से ट्रैन से या चवाई जहाज से जन्तर मन्तर पर कौन जल्दी पहुंचेगा ज़ी न्यूज़ आजतक एन डी टी वी या बीबीसी खैर छोडो भी आईपीएल कौन जीता #सुरेशसाहनी, कानपूर#
 ज़नाज़े पर मेरे आंसू बहा लो ज़माना भी यही सब देखता है।।SS
 मिट्टी के घर उनके लिए मकान नहीं। अपनी आवाज़ों को मिलते कान नहीं।। हर बारिश में अपने घर बह जाते हैं फिर समेटते हैं घर यह आसान नही।। जन के भक्षक जन सत्ता में जनमत से सच पूछो तो हम भी कम हैरान नहीं।।  कोई पीड़ा नहीं हमें पीड़ायें हैं हम सब हैं पर खबरों के उनवान नहीं।। जब अपनी पीड़ाओं को हम गाते हैं वो कहते हैं इस कविता में जान नहीं।। पांच साल में  दो दिन तो आ जाते हैं ये भी उनके हमपर कम एहसान नहीं।। बस्ती की बेटियां हमारी चिंता हैं नेता जी हम इतने भी अनजान नहीं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 भूल कर अपनी विरासत चल पड़ो। दूर करनी है ज़हालत चल पड़ो ।। चल पड़ो ऐ अहले मिल्लत चल पड़ो। वक़्त की समझो नज़ाकत चल पड़ो।। खेत से खलिहान से बागान से छोड़ दो जड़ से मोहब्बत चल पड़ो।। जल ज़मीं जंगल तुम्हारे हैं मगर क्या तुम्हारी है अदालत चल पड़ो।। जान पहले है ज़मीनें बाद में ताज़िरों की है हुकूमत चल पड़ो।। उनपे फरियादों का क्या होगा असर उनकी आँखों में हैं वहशत चल पड़ो।। बोलना जब आये दौरे-इंकलाब आज चुप की है ज़रूरत चल पड़ो।। अपने बच्चों को पढ़ाओ खुद पढ़ो कब तलक झेलोगे जिल्लत चल पड़ो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 न बनने की हसरत न मिटने की ख़्वाहिश मेरा फलसफा दो ज़हाँ से जुदा है।।सुरेश साहनी
 न जाने कैसे मेरी हसरतें दम तोड़ गयीं अभी अभी तो उम्मीदों ने हाथ थामें थे।।SS
 मीलों  फैली तन्हाई का  ख़ाक शहर आबाद करें हम। बंजारी यादों को लेकर  कैसे घर आबाद करें हम।। तुम थे जब तो केवल तुम थे दिल में कोई और नहीं था तुम्हें  दिया था दिल पर लेकिन  कोई डर या जोर नहीं था एक तुम्हें खोने का डर था अब क्या डर आबाद करें हम।। घर घर वालों से होता है खुशियां हैं रिश्ते नाते है वरना खुशियों को तो छोड़ो ग़म भी कम आते जाते हैं घर क्या गिरता हुआ खण्डहर किस दम पर आबाद करें हम।। हरी भरी शाखों पर पंछी सुबह शाम फेरा करते हैं दूर देश से आ आ कर खग रात वहीं डेरा करते हैं जब बहार जा चुकी शज़र से क्या कोटर आबाद करें हम।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर
 कभी तो धूप के साये से निकलो। अंधेरों से न कतराए से निकलो।। चलो सड़कों पे तो बिंदास जानम न झिझको और न घबराए से निकलो।। चलो हमपे खफ़ा हो लो चलेगा यूँ बाहर तो न झल्लाये से निकले।।
 आप इक बार मुस्कुरा दें तो जाने कितने कमाल हो जाएं और दिल का महल बसा दीजै हम भी आबाद हाल हो जायें।।
 हिंदी और अंग्रेजी पारस्परिक व्यवसायिक हितों के चलते एक दूसरे को बढ़ा रही हैं। जबकि हिंदी और उर्दू की आपसदारी भावात्मक है।वह दिन दूर नहीं जब आधे से अधिक सोवियत यूनियन के देश भी भारतीय उपमहाद्वीप के भाषायी प्रभाव के दायरे में होंगे। किसी भी भाषा मे शब्द जोड़े नहीं जाते , स्वतः जुड़ते हैं।यह भाषा की जीवन्तता और जिजीविषा पर निर्भर है।  जीवन्तता नहीं होने पर विकसित बोलियाँ भी लुप्तप्राय हो गईं।
 क्या गंगा में घड़ियाल होते हैं। सुना है घड़ियाल भी रोते हैं। मछलियों की मासूमियत सबको मालूम है पर बड़ी मछलियों की बात और है उन्हें पक्का मालूम होगा वैसे रोने के लिए दुखी होना ज़रूरी भी नहीं नरसंहार के बाद रोया था अशोक भी  फूट फूट कर ज़ार ज़ार लगातार......
 ये मत सोचो बनाने में लगे हैं। सभी मौका भुनाने में लगे हैं।। उतारे हैं कई ने अपने परचम नया झंडा लगाने में लगे हैं।। जिन्हें मौकों की बारीकी पता है मढ़ी अपनी बजाने में लगे हैं।। उतर जाओ ज़माने के चलन में भला क्या आज़माने में लगे हैं।। भला पुरखों के घर में क्या धरा है समय भी आने जाने में लगे हैं।। नया घर मिल रहा है लाज कैसी बुरा तो घर पुराने में लगे हैं।। बड़े अहमक़ हैं दानिशवर यहाँ के विरासत को बचाने में लगे हैं।। उड़ा लो बाप दादों की नियामत मशक्कत तो कमाने में लगे हैं।। सुरेश साहनी
 जब कभी रोशनी बिखेरा कर। कुछ इधर भी निगाह फेरा कर।। मुद्दतों बाद आस जागी है मेरे हिस्से में भी सवेरा कर।। अक्स उम्मीद के दिखें जिनमे हो सके चित्र वह उकेरा कर।। महफ़िलो में तलाश मत खुद को जा बियावान में बसेरा कर।। वक़्त गुज़रा न हाथ आता है उस को आगे से आ के घेरा कर।। घर बनाएगा टूट जायेगा रोज़ ख़ानाबदोश डेरा कर।। तुझमें पिन्हा है आफ़ताब कई देखना है तो कुछ अंधेरा कर।।  सुरेश साहनी, कानपुर
 हम प्रशस्ति गायन करते तो अच्छे कवि कहला सकते थे और बहुत कुछ पा सकते थे दरबारी बनकर बहुतों को  जागीरें पाते देखा है आगे- पीछे घूम घूम कर पद-प्रतिष्ठ होते देखा है यदि प्रशस्ति गायन करते तो हम भी मनसब पा सकते थे यश वैभव सब पा सकते थे सत्ता के सापेक्ष रहा जो सत्ता का गुणगान करेगा अंतरात्मा मर जाए पर सत्ता में तो मान रहेगा हम यह कष्ट उठा लेते तो अखबारों में छा सकते थे लालकिले से गा सकते थे हम भी भटगायन करते तो...... Suresh Sahani Kanpur
 हमारे खेत घर खलिहान छूटे जा रहे हैं शहर की लपलपाती जीभ सी सड़कें लपक कर हमारी झोंपड़ी घर मेड़ पगडंडी बगीचे  हमारे खेल के मैदान नदियां ताल पोखर सभी कुछ लील जाना चाहती हैं शहर की भूख बढ़ती जा रही है।। इधर शहरों में सब कल कारखाने सभी छोटे बड़े व्यापार धंधे ये सारे बंद होते जा रहे हैं सभी बन्दी की जद में आ रहे हैं ये रेहड़ी, खोमचे वाले   सड़क पर की दुकानें शहर इनसे भी आज़िज़ आ चुका है शहर कुछ और बढ़ना चाहता है ये झोंपडपट्टियाँ भी हैं मुसीबत शहर इनसे उबरना चाहता है बड़े लोगों की तकलीफें बड़ी हैं.... सुरेश साहनी , कानपुर
 जिन्दगी के चार दिन को तुमने दो दिन कर दिया। कितनी आसानी से अपनी हां को लेकिन कर दिया।। इस कदर खामोश शिरकत मैं कभी करता न था पर तुम्हारी बेनयाजी ने ये मुमकिन कर दिया।। सुरेश साहनी
 बेटी  बीबी  माई  हूँ मैं। रिश्तों की रानाई  हूँ मैं।। मेरी दुनिया हो मत पूछो किस दुनिया से आई हूँ मैं ।। उस दुनिया में सब कहते थे  ये घर नहीं परायी हूँ मैं ।। उजियारा है मुझसे घर में या पति की परछाई हूँ मैं।। मैं  मेरी पहचान नहीं हूँ कैसे समझ न पाई हूँ मैं।। *सुरेशसाहनी ,कानपुर*
 फ़िज़ां बदली बदल गए तुम भी। सबके जैसे निकल गए तुम भी।। काफिलों से उम्मीद क्या करते मौसमों से मचल  गये तुम भी।। जैसे घूरे के दिन बहुरते है वैसे दौर आया तो चल गये तुम भी।। हमने सोचा की तुम खरे होंगे खोटे सिक्के निकल गए तुम भी।। तुमसे उम्मीद थी सम्भालोगे और सागर में ढल गये तुम भी।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 कैसे कह दें अच्छे हो। तुम भी औरों जैसे हो।। बातें अच्छी करते हो चाल फरेबी चलते हो।। कोई भी फंस सकता है भोले भाले दिखते हो।। कौन यकीं कर पायेगा तुम भी खंज़र रखते हो।। ख़ैर पुरानी बातों को छोड़ो किनमे उलझे हो।। कितने खोये खोये हो तनहा तनहा लगते हो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 लेकर हमदर्दों के साये  घूमा लादे दर्द पराये।। कुछ यादें कुछ ज़ख्म पुराने कुछ लेकर ग़म के सरमाये ।। ये भी इक ज़हमत लगता है उस भूले को कौन भुलाये।। शहतीरें  टिकती क्या लेकर ढहते घर के जर्जर पाए ।। हम टूटे दिल क्या बदलेंगे कितना कोई मन बहलाये ।। सुनते हैं मन हल्का होगा कोई आकर हमें रुलाये।। अब जीवन भारी लगता है दिल भी कितना बोझ उठाये।। सुरेश साहनी
 केवल अपने वास्ते सज़ा रहे हो स्वर्ग।। सारे मारे जाओगे लाख बना लो वर्ग।। सचमुच में होता कहीं यदि ऐसा स्थान। सर्पों में न विराजते लक्ष्मी पति भगवान।। बस इतने में जानिए स्वर्ग नर्क का खेल। एक पुण्य की कैद है एक पाप की जेल।। चर्बी मध्यम वर्ग की छांट रही सरकार। फिर भी तलवे चाटना श्वान वृत्ति है यार।।
 आँख चुराना मौजूदा हालातों से। गद्दारी है इन्सानी जज़्बातों से।। भूखे नङ्गे लोग नहीं हैं सड़कों पर कुछ तो सीखो अबके अख़बारातों से।। सच के दो अल्फ़ाज़ बोलने बेहतर हैं झूठ की इन लम्बी चौड़ी बारातों से।। अश्कों की बारिश से भीगे भीगे हो आगे बचना बेमौसम बरसातों से।। दिन के अंधियारों का खौफ नहीं लेकिन डर है शहरों की उजियारी रातों से।।
 क्यों ऐसा लग रहा था कि सुराज आ गया है। पूरी तरह स्वदेशी अंदाज आ गया है।। अपने ही घर से बेघर, अपने ही दर से बेदर क्या ईस्ट इंडिया का फिर राज आ गया है।। जनतंत्र था जो पहले अब है दे मोय कुर्सी शायद मेरे वतन में फिर ताज आ गया है।। दुनिया को ये बता दो भारत नहीं मिटेगा भारत को ज़िन्दगी का अंदाज़ आ गया है।। रह जायेगा हमारा भारत बाजार बनकर निगमीकरण नहीं ये परराज आ गया है।। मजदूर पिट रहे हैं वो किसान मर रहे हैं हे राम कैसे माने तेरा राज आ गया है।। सुरेश साहनी
 तुम किसी से भी निभा कर खुश हो। या मेरे दिल ही दुखाकर खुश हो।। मुझ से बेहतर कोई पाकर खुश हो। या फ़क़त मुझ को सता कर खुश हो।। सच कहो भूल के खुश हो मुझको या मेरी याद में आकर खुश हो।। तुम दुआओं में मेरी अब भी हो तुम भले अपनी जफ़ा पर खुश हो।। प्यार ठुकरा के कहीं प्यार मिला या की ज़रदार को पाकर खुश हो।। सुब्ह सूरज की सुआओं में रहो शाम हो चाँद उगा कर खुश हो।। मेरे आगोश में रहकर खुश हो या बड़ी सेज पे जाकर खुश हो।। तुम मेरे दिल मे थे बेहतर या फिर खुद को बाज़ार बना कर खुश हो।। अपने ग़म का मुझे अफसोस नहीं ज़िन्दगी तुम तो बराबर खुश हो।। सुरेश साहनी , कानपुर
 पिछली गर्मियों में हुए अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुआई तीन मैग्सेसे पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति कर रहे थे - अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी. अरविन्द केजरीवाल के बहुत से गैर-सरकारी संगठनों में से एक को फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान मिलता है. किरण बेदी के एनजीओ को कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स से पैसा मिलता है.  भले ही अन्ना हजारे स्वयं को गांधीवादी कहते हैं, मगर जिस कानून की उन्होंने मांग की है- जन लोकपाल बिल- वह अभिजातवादी, खतरनाक और गांधीवाद के विरुद्ध है. चौबीसों घंटे चलने वाले कॉर्पोरेट मीडिया अभियान ने उन्हें 'जनता' की आवाज घोषित कर दिया. अमेरिका में हो रहे ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन के विपरीत हजारे आंदोलन ने निजीकरण, कॉर्पोरेट ताकत और आर्थिक 'सुधारों' के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला. उसके विपरीत इसके प्रमुख मीडिया समर्थकों ने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार घोटालों, जिनमें नामी पत्रकारों का भी पर्दाफाश हुआ था, से जनता का ध्यान सफलतापूर्वक हटा दिया और राजनीतिकों की जन-आलोचना का इस्तेमाल सरकार के विवेकाधीन अधिकारों में और कमी लाने एवं और अधिक निजीकरण की
 आओ चाँद पे धब्बा लगाये जो धवल है। चलो सूरज पे थूकें काम ये कितना सरल है।। नाम होना चाहिए अखबार के पन्नों में अपना भैया !नग्नता का नाम फैशन  आजकल है ।।
 आप आये तो कुछ खयाल आये। आँधियों की तरह सवाल आये।। हम जिन्हें देवता समझते थे वो ही दोज़ख़ में हमको डाल आये।। कुछ जिना कुछ गुनाह हो जाते जाने कैसे वो वक्त टाल आये।। तुम थे मदहोश हम भी पागल थे गिरते गिरते तुम्हे सम्हाल आये।। आईने से गुरुर कर बैठो तुम पे इतना भी ना जमाल आये।। मैंने तुमको दिया था दिल अपना तुम न जाने कहाँ पे डाल आये।। गैर का अब ख्याल मत करना फिर न शीशे में मेरे बाल आये।।
 हम कहाँ ऐसे खुशनसीबों में। जिनको गिनता है तू करीबों में।।  जो रक़ाबत हमारी करते हैं हैफ वो हैं तेरे हबीबों में।। तेरी ख़ातिर महल बना देते हम न होते अगर गरीबों में।। हममें खुद्दारी है सनम वरना अपनी कीमत भी है दरीबों में।। दौरे हाज़िर में हक़ पसन्दों को लोग गिनते हैं कुछ अजीबो में।। जानना है मेरी सदाकत तो बैठ  जाकर मेरे रक़ीबों में।। वक्त रहते सम्हल गए वरना हम भी दिखते तुम्हे सलीबों में ।।
 प्यार मुहब्बत वाली कविता अच्छी सूरत  वाली कविता काली जुल्फों वाली कविता तीखे नैनों वाली कविता सचमुच लिखना भूल गया हूँ। कविता कहना भूल गया हूँ।। हरे भरे खेतों की कविता हल-बैलों जोतों की कविता गाते हुए किसानों वाली भरे हुए खलिहानों वाली कविता बोना भूल गया हूँ।। लाऊं प्यारे गांव कहाँ से वो पेड़ों की छाँव कहाँ से झुरमुट झाड़ी बागों वालीं वो सनेह के धागों वाली कविता लाना भूल गया हूँ।। बौनों वाली परियों वाली तारों की फुलझड़ियों वाली तितली वाली फूलों वाली इंद्रधनुष के झूलों वाली लोरी गाना भूल गया हूँ।। नून तेल लकड़ी में फंसकर जाने किस टंगड़ी में फँसकर जैसे समय घसीट रहा हूँ इक लकीर ही पीट रहा हूँ कलम चलाना भूल गया हूँ।। सचमुच लिखना भूल गया हूँ।।
 सम्हल जाने की हद तक देख गिरके  तेरे अपने  यकीनन थाम लेंगे।।सुरेश साहनी
 कितनी बार करी अनदेखी कितनी बार सताया तुमने। सतत रहा है प्रणय निवेदन किन्तु सदा ठुकराया तुमने।।......... आज हार कर लौट रहा हूँ  जीवन के अनजाने पथ पर आरूढ़ होकर ही लौटूंगा  सुख-समृद्धि के स्वर्णिम रथ पर तब तुम करना स्वयं आंकलन क्या खोया क्या पाया तुमने।।..... सतत रहा है प्रणय निवेदन किन्तु सदा ठुकराया तुमने।।........ व्यर्थ रखीं आशायें तुमसे  व्यर्थ तुम्हारी राह निहारी टूटे सारे स्वप्न सुनहरे  हाथ झार फिर चला जुआरी बहुत बड़ा आभार तुम्हारा जग व्यवहार सिखाया तुमने।।......... सतत रहा है प्रणय निवेदन किन्तु सदा ठुकराया तुमने।।.......
 फिर कहीं इस्लाम ख़तरे में ना हो फिर कहीं श्रीराम ख़तरे में ना हो आदमी  मरता है   कोई ग़म नहीं लीडरी का काम ख़तरे में ना हो आशिक़ी में रिस्क जमकर लीजिये देखकर अंज़ाम खतरे में ना हो हर फ़टी में टांग जमकर डालिये आपके आराम ख़तरे में ना हो रात दिन खटिये मगर यह ध्यान हो दिन सुबह या शाम ख़तरे में ना हो
 आधी बात बताते हो तुम। कैसे दर्द छुपाते हो तुम।। नदियों अश्क़ ज़हाँ भर के ग़म बिन बोले पी जाते हो तुम।। कुछ कहने पर नज़र झुकाये केवल शरमा जाते हो तुम।। शिक़वे गिले जताना सीखो आख़िर क्या जतलाते हो तुम।। कैसे जी भर प्यार करें हम मिलने से कतराते हो तुम।। अब तो आंख मिचौनी छोड़ो जब देखो छुप जाते हो तुम।। मेरे   रोने  पर    बोले  हो कितना अच्छा गाते हों तुम।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ईश्वर हमसे जाने कब का रूठ गया होता। यदि फ़रेब का दामन हमसे छूट गया होता।। ताजमहल शाही शानो-शौक़त का दर्पण है प्रेम महल होता तो कब का टूट गया होता।। अल्ला ईश्वर समझदार हैं छुप कर रहते हैं वरना  इनका भांडा कबका फूट गया होता।। वक़्त फ़कीरों के डेरे तक लूटा करता है बारी होती तो हमको भी लूट गया होता।। सच का जलवा होता झूठे ताज़ नहीं पाते अगर तेरे दोज़ख में कोई झूठ गया होता।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 सड़कें सूनी देखकर श्वान वृन्द हैरान। सोच रहे आखिर कहाँ चले गए इंसान।।साहनी
 इक सुहानी सी ग़ज़ल है। वो रवानी सी ग़ज़ल है।। तैरती है ख़ुशबुओं में  रातरानी सी ग़ज़ल है।। हुस्न उनका है कि उनकी तर्जुमानी सी ग़ज़ल है।।  ज़ीस्त के रंजो-अलम में शादमानी सी ग़ज़ल है।। गो सुबह से शाम ढलती ज़िंदगानी सी ग़ज़ल है।। बेजुबाँ हम इश्क़ वालों-  की ज़ुबानी सी ग़ज़ल है।। आग है दुनिया की फितरत और पानी सी ग़ज़ल है।। चल रही है जो अज़ल से उस कहानी सी ग़ज़ल है।। सुरेशसाहनी,कानपुर
 मैं मुट्ठी मुठ्ठी धूप लिए तिमिरांगन खोजा करता हूँ। प्रायः रिश्तों की सर्दी में कुछ जीवन जलते देखे हैं निर्धनताओं में ठिठुरे से समझौते पलते देखे हैं ऐसी अंधेरी कुटियों में नवजीवन बांटा करता हूँ।।........ सत्ता  निर्धन की थाली में केवल भूख परोसा करती है सत्ता जिस पर  भोली जनता दिन रात भरोसा करती है  उन बूटों उसी भरोसे का नित मर्दन देखा करता हूँ।। सुरेश साहनी, Kanpur
 अँधेरा आज कुछ ज्यादा घना है। चिरागों!  रौशनी देना मना है।। अमावस अब कई दिन जागती है किधर है चाँद ये क्या बचपना है।। ये बादल किसलिए छाये हुए हैं अगर खेतों को यूँ ही सूखना है।। अगर बरसो तो तुम हर बार आओ मगर तुमको तो केवल गरजना है।। हक़ीक़त हम तुम्हारी क्या बताएं तुम्हारे पास कैसा आईना है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 यूँ सरे रात जागता क्या है। मौत का इससे वास्ता क्या है।। नींद आखों से भाग जाती है नींद आने का रास्ता क्या है।।  ये अंधेरे में छोड़ जाएगा कद को साये से नापता क्या है।। एक छत के तले हैं हम दोनों फिर दिलों का ये फासला क्या है।। मौत से मुस्कुरा के मिलता हूँ तब ये तकलीफ ये बला क्या है।। हमपे इल्ज़ाम बेवफाई के तुझको मालूम है वफ़ा क्या है।। उम्र के साथ सीख जाऊंगा क्या बुरा है यहां भला क्या है।। *सुरेश साहनी, कानपुर*
 भाषा मज़हब जातन मा देश बंट गवा घातन मा जनता इतनी भोली है फँसि जावत है बातन मा।।
 चंदन है ब्रजभूमि की माटी तपोभूमि हर ग्राम है। यहां हृदय राधिका विराजें तनमन में घनश्याम है। भक्ति भाव अभिभूत हृदय से वासुदेव का ध्यान करें मथुरा की माटी माथे रख किस्मत पर अभिमान करें।। इस युग के रसखान बिहारी रामेंद्र सिंह नाम है। इनको अपनी गोद खिलाकर धन्य मुरलीया ग्राम है।। यहां हृदय राधिका विराजें हर तन में घनश्याम हैं।।
 माँ होती है वस्तुतः धरती का पर्याय। बच्चे लादे गोद में थैला रही उठाय।।सुरेश साहनी
 चेहरा घुमा लें या हम मुंह पर रुमाल रख लें। दिल से खुशी मनाएं रुख पर मलाल रख लें।। गिरगिट की तरह कैसे पल पल में रंग बदलें एहसास मार डालें मोटी सी खाल रख लें।। तुम थूक कर के चाटो यह देश बेच डालो गद्दार हम तुम्हारा कैसे खयाल रख लें।। निगमीकरण करो तुम हम बोल भी न पाएं आंखों में कैसे अपनी सूवर का बाल रख लें।। हम तुमको वोट  देकर पछता रहे हैं कितना तुम से है बेहतर हम कोई दलाल रख लें।। सुरेश साहनी
 एक उदासी अजब सी तारी है। जंग कोविड से फिर भी ज़ारी है।। देश इस युद्ध मे भी जीतेगा अपनी हिम्मत वबा पे भारी है।। कब तरक्की है पेड़ का कटना बल्कि अपनी नफ़स पे आरी है।। ताज पाने के फेर में हमने  अपनी पगड़ी स्वयं उतारी है।। अब वबा से उबर रहे हैं सब जो बची है फ़क़त खुमारी है।। चीनियों आज खूब इतरा लो तुमसे शैतानियत जो हारी है।। जाल में जब फँसोगे समझोगे वक़्त कितना बड़ा शिकारी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दीद नज़रों तलक नहीं आयी। ईद डेरों तलक नहीं आयी।। बात इतनी कभी न बढ़ पाती बात अपनों तलक नहीं आयी।। मौत ने इक दफा जगाया था नींद वर्षों तलक नहीं आई।। जाम हाथों में आके लौट गये प्यास होठों तलक नहीं आयी।।
 हम भी किससे इश्क़ का इज़हार कर बैठे। ख़ुद को ही रुसवा सरेबाज़ार कर बैठे।। नींद जैसे सौत बनकर दूर जा बैठी हम भी किस क़ातिल से आँखे चार कर बैठे।। इश्क़ पा लेना असल मे कामयाबी है दिल को देकर ख़ुद को हम बेकार कर बैठे।। सब तो कहते हैं कि तुम खुशहाल थे लेकिन क्या पड़ी थी ग़म का कारोबार कर बैठे।।
 आप अक्सर तलाश करते हैं। कौन सा दर तलाश करते हैं।। कितने नादान हैं लुटेरों में आप रहबर  तलाश करते हैं।। जबकि ईश्वर  की है तलब लेकिन लोग पत्थर तलाश करते हैं।। अपने अंदर तलाशिये उसको जिसको बाहर तलाश करते हैं।। प्यास इतनी बड़ी नहीं फिर भी हम समन्दर तलाश करते हैं।। पीठ पीछे सुना है कुछ अपने रोज़ खंजर तलाश करते हैं।। जबकि दुनिया सराय फ़ानी है वो मेरा घर तलाश करते हैं।। बंट चुकी है ज़मीं कबीलों में कोई अम्बर तलाश करते हैं।। साहनी हैं कि आपदा में भी एक अवसर  तलाश करते हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वह दिन भारतीय लोकतंत्र का काला दिन होगा जिस दिन सीबीआई और पुलिस स्वतन्त्र अर्थात निरंकुश हो जाएगी । अभी सरकार का अंकुश है तब जाँच संस्थायें और पुलिस के अत्याचार आम है । निरंकुश होने पर उसकी भूमिका देश में इमरजेंसी जैसे हालात पैदा कर देगी । कोई भी संवैधानिक पद या संवैधानिक संस्था निरंकुश नहीं होनी चाहिए । अपने देश के संविधान में अच्छाई है कि हर संवैधानिक संस्था स्वायत्त होते हुए एक दुसरे के प्रति जबाबदेह भी है । व्यवस्थापिका ,कार्यपालिका और न्यायपलिका तीनों स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हैं ,लेकिन जनता के प्रति सभी जबाबदेह भी हैं । जनता का मूर्त रूप उनके प्रतिनिधि होते हैं । इसलिए उनकी सर्वोच्चता को मान्यता दी गयी है । किन्तु उसमे भी सभी एक दुसरे के प्रति जबाबदेह हैं । आज तोताराम जी ने अपनी लाचारी दर्शायी है । लेकिन यही तोताराम जब चारा घोटाले के समय डी आई जी थे तब इन्होने कई नेताओं को बचाने का काम किया था । अगर यह ईमानदारी से अपना कार्य करते और खुद को लोक कार्यकारी समझते तो आज सुप्रीम कोर्ट से फटकार ना खाते ।
 समर शेष है शेष समर है। द्रोण तुम्हारे शिष्य किधर  है।। शत को शत प्रतिशत दे डाला और एक से छल कर डाला क्यों इसका कोई उत्तर है।। एक कार्य यह किया अनूठा छल से मांग लिया अंगूठा कहो दोष यह किस किस पर है।  अश्वत्थामा आज किधर है नर है या कोई कुंजर है और युधिष्ठिर भी पामर है।। राजपुत्र राजा ही होगा कितना मान भला वो देगा एकलव्य फिर भी तत्पर है।। आज सभी सत्ता के अनुचर कहो कहाँ से हैं वे गुरुवर गुरु स्थान बहुत ऊपर है।। माना गुरु सम हैं पितु माता किन्तु गुरू है भाग्य विधाता ऐसा गुरु हरि से ऊपर है।।
 चलो ये मान के सो जाते हैं वो सुबह कभी तो आएगी और फिर ऐसी भी जल्दी क्या है रात कुछ और भी ख्वाबीदा हो रात कुछ और हो तस्कीन भरी रात कुछ और भी लंबी हो तो बेहतर इससे जियादा क्या है अपना तो दिन भी हमें रात नज़र आता है दूर तक जिसका सबेरा ही नहीं  वो सबेरा जहाँ हम आँख अगर खोले तो दूर तक पसरी हुयी हरियाली प्यार आँखों में लिए घरवाली रात का देती उलहना बोले  बस यही काम बचा है तुमको बाबूजी जाग गये तुम भी उठो हमको पनघट पे भी जाना है कहीं माँ न जगे और सखियां भी हमे देख के हंसने न लगे ख़ैर ये ख़्वाब है ये ख़्वाब बना रहने दो ख़्वाब में ही सही  कुछ देर तो जी लेने दो हम हैं मज़दूर जगे भी तो  भला किसके लिए सुबह उठते ही  नियामत नहीं मिल जानी है हमको मालूम है वो सुबह नहीं आनी है।।
 किसको किससे सरोकार है छोड़ो भी। सामाजिकता निराधार है छोड़ो भी।। कौन शिकारी है बस इतना ध्यान रहे कौन कहाँ किसका शिकार है छोड़ो भी।। मेरे जैसे  जाने  कितने मिलते हैं वो खुद अच्छा शाहकार है छोड़ो भी।।  तुम भी कितने संजीदा हो जाते हो शायद तुमको प्यार वार है छोड़ो भी।। किसकी चिंता में तुम बैठे हो उसके साथी बंगला और कार है छोड़ो भी।। नाहक उसकी मान मनौवल करते हो जाने कितना अहंकार है छोड़ो भी।।
 भटकन नई दिशा देती है। भूली राह बता देती है।। खोजो तो प्रभु भी मिलता है भटकन यही पता देती है।। थके हुए तन विचलित मन को यह भर नींद सुला देती है नए नीड़ के सृजन हित पुनः सोए भाव जगा देती है।। कोलम्बस से पूछो भटकन जीवन सफल बना देती है।। साधारण से राज कुँवर को प्रभु श्रीराम बना देती है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 बस काफिया रदीफ़ मिलाने में रह गए। कहते कहाँ से बात सजाने में रह गए।। दुनिया के रस्मो राह से नाहक जुदा हुए तनहा किसी को अपना बनाने में रह गए।। हम क़ामयाब यूँ हैं मदरसा-ए-इश्क़ के हम जल गए वो हमको जलाने में रह गए।। दुनिया सराय है हमें मालूम था मगर कुछ बात थी कि एक ठिकाने में रह गए।। ये जानते हुए कि वो पत्थर है दिल नहीं उस संगदिल से दिल को लगाने में रह गए।। इक दूसरे की जान थे वो लोग अब कहाँ अहदो-वफ़ा भी सिर्फ़ फ़सानों में रह गए।। इंसान हो के हम तो ज़हाँ से निकल लिए तुम तो ख़ुदा थे फिर क्यों ज़माने में रह गए।।
 कुछ ख़ास नहीं फिर भी हम आम नहीं रहते जब मेरी कहानी में वो फेरबदल करता।। ये प्यार भरी नज़रें जिस दम वो फिरा देता  बेदम को अदम करता फ़ानी को अज़ल करता।। मुरझाई कली दिल की खिलकर के कँवल होती जब तन को मेरे छूकर  वो ताजमहल करता।।
 जिस ने मानी तेरी हस्ती प्रभु जी। जान उसकी है क्यों सस्ती प्रभु जी।।  अब तो तूफां से कहो सब्र करे अब किनारे पे है कश्ती प्रभु जी।। इक महीना तो बनाते जिसमें मय कटोरे में बरसती प्रभु जी।। आप भी उनसे मिले लगते हो वो ख़ुदाओं की है बस्ती प्रभु जी।। ज़ीस्त में कैसे उलझ बैठे हम भूल कर मौत की मस्ती प्रभु जी।। जब फ़कीरी में है कुर्बत तेरी क्यों बनाई ये गिरस्ती प्रभु जी।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 सचमुच अज़ीब सी लगती हैं माँ की महिमा पर लिखी गईं कवितायें ,चेंपे गये पोस्ट बस अपनी माँ बस अपनी माँ  बेशक़ माँ अच्छी होती है पर  और दूसरी मातायें   क्या वे श्रद्धा की मूर्ति नहीं  यदि युवा दिखें तो और भाव बस बूढ़ी हों तो बेहतर हैं सम्मान अगर कुछ देना था तो हर उस नारी को देते जो किसी पुरुष को देती है हक़ बनें पिता भाई बेटे नन्ही बच्ची में माँ देखो माँ में इक बेटी दर्श करो फिर मन मे श्रद्धा भाव लिये नत शीश चरण स्पर्श करो......... यदि सृष्टि तुम्हें दे देती है कुछ क्षण शिव होने का गौरव इस पर अभिमानित होकर तुम क्यों सत्य विमुख हो जाते हो यह जगजननी का होना ही तुमको शिव होने देता है उस क्षण तुम परमपिता तो हो फिर रह जाते हो जीव मात्र जैसे एक जीव गर्भ में हो..... या और अधिक कटु सत्य लिखूं इक आईवीएफ इंजेक्शन से कुछ अधिक पुरुष अस्तित्व नहीं पर माँ बनना या माँ होना जग को नवजीवन देना है उतना ही शाश्वत है जितना धरती का धरती होना है।।...... #सुरेशसाहनी,कानपुर
 सोच मत सिर्फ़ अपने बारे में ज़िन्दगी मैं भी रोज थकता हूँ।। साहनी
 है मेरी ज़ीस्त में बशर कोई। जैसे साहिल पे दीपघर कोई।। एक मुद्दत से मुन्तज़िर है दिल कब से आया नहीं इधर कोई।। आशना होगा मुझसे वो वरना क्यों झुकाकर गया नज़र कोई।। मंजिलें तक सवाल करती हैं अब भी बाकी है क्या सफर कोई।। जब उबरता हूँ मैं तभी दिल में बैठ जाता है फिर से डर कोई।। आदमी हूँ गए ज़माने का जैसे वीरान खंडहर कोई।। ज़िन्दगी धूप से मुतास्सिर थी किसलिए ढूंढ़ते शज़र कोई।। मुझको अपनों के गाँव जाना था उसकी आँखों मे था शहर कोई।। साहनी तुम कहो कि क्यों तेरी आज लेता नहीं ख़बर कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 तुम्हें ही ऑक्सीजन चाहिए क्या। कि इक तुमको ही जीवन चाहिए क्या।। मुसलसल पेड़ काटे जा रहे हो तुम्हें कंक्रीट का वन चाहिए क्या।। कभी देखो तो उपवन का भरम हो तुम्हें इक ऐसा  दरपन चाहिए क्या।। दवा भी और चिकित्सा कक्ष सघन भी तुम्हें ही सारे साधन चाहिए क्या।। अभी तुम ठीक हो तो क्यों रुके हो मरीजों वाला वाहन चाहिए क्या।।
 ये न समझो जमात वाले हैं। हम तो तम्बू कनात वाले हैं।। हम गरीबों को गैर मत समझो हम इसी कायनात वाले हैं।। उनसे धोखा मिला है दुनिया को जो ये कहते थे बात वाले हैं।। नसीब वाले तुझे खयाल रहे हम भी शह और मात वाले हैं।। आप को कोफ्ता मुबारक हो हम तो बस दाल भात वाले है।। मेरी पत्तल भी छीन बैठे हैं कैसे थाली परात वाले हैं।। कैसे कैसे हैं आज संसद में गोया शिव की बरात वाले हैं।। सुरेश साहनी
 होता है मगर आपके जैसा नहीं होता। ऐसा नहीं होता कभी वैसा नहीं होता।। कुछ तो कमी हममे है ये हम मानते भी है वरना यूँ मुहब्बत का तमाशा नहीं होता।। होता नहीं है फिर भी यही हमने सुना है हाँ अक़्ल बड़ी होती भैंसा नहीं होता।।
 चलो कुछ चीजें  छोड़ते हैं या यूँ कहें कुछ आदतें बदल लेते हैं मसलन सोचना ,बोलना ,लिखना या प्रतिक्रिया देना  या नाहक सच कहना कुछ चीजों को स्वीकार कर लेते हैं जैसे महंगाई बेरोजगारी, अनाचार , सत्ता पोषित हिंसकता  आदि आदि यकीन करिये आप तक आँच पहुंचने तक आप सुरक्षित रहेंगे।। सुरेश साहनी
 क्यों इतना लिखते पढ़ते हो। सबकी नज़रों में गड़ते हो।। दुनिया पीछे भाग रही है तुम नाहक़ आगे बढ़ते हो।। क्या मिलता है सत्य बोलकर  आखिर क्यों सूली चढ़ते हो।। सबका हक़ छीना है उसने तुम ही क्यों इसपर लड़ते हो।। झूठ के पैर नहीं होते हैं क्यों उसके पीछे पड़ते हो।। दुनिया उससे भी ऊपर है तुम जितना ऊँचा उड़ते हो।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मां बन कर खुद को खो देना  यह नज्जो की फितरत है मैं अब भी अपने ख़्वाबों में  उसको खोजा करता हूँ।।साहनी
 उसकी माँ में बहुत कमी है। बहुत बड़ी गलती करती है।। उसका बेटा बहुत बड़ा हो हरदम यही दुआ करती है।।
 तुमने दिल से यारी कब की। मैंने दावेदारी कब की।। मेरा दुख मेरा ही दुख था तुमने हिस्सेदारी कब की।। तुम ही रोता छोड़ गए थे फिर मैंने ऐयारी कब की।। दिल लेकर तुम मुकर रहे हो मैंने यह हुशियारी कब की।।
 यह अंकों का प्रतिशत क्या है क्या जीवन से अधिक बड़ा है तुमने एक परीक्षा दी है जबकि सबका सारा जीवन उनका और हमारा जीवन लम्बी बड़ी परीक्षा ही है यह जीवन सौ प्रतिशत जानो फिर चाहे मानो मत मानो इस जीवन का कितना प्रतिशत मम्मी पापा जी पायें हैं। इम्तेहान जैसे क्रिकेट है तुमने केवल यह देखा है सचिन खेल में शतक लगाकर ऊंचाई पर पहुँच गया है क्या तुमको यह नहीं दिखा है कितनी बार शून्य पर आउट कितनी बार जल्द रन आउट कितनी बार हिट विकेट होकर कई कई बार बिना खेले ही सचिन तेंदुलकर लौटा है पर क्या तुमको दुख से रोता बैट पटकता बाल नोचता कोई खिलाड़ी कभी दिखा है इस जीवन मे जीवन रण में हरदम खेल लगा रहता है हार जीत सब अंग इसी के पास और फेल लगा रहता है जिसने खेला अच्छा खेला आज नहीं कल शतक बनेगा कितने ही रीयल हीरो हैं जो कक्षा दस पास नहीं हैं पर ऐसे लोगों ने अपना  जीवन सौ प्रतिशत जीया है भले बोर्ड में फेल हुए हों किन्तु मनोबल पास किया है।। सुरेश साहनी , कानपुर
 जो कवि हौं  मिले श्याम कृपा  तो मैं राधे के नाम कवित्त पढूँ ।। भाव बनूँ तो मैं राधे के नाम पे जाई के श्याम के चित्त चढ़ूँ।। जल्द ही मथुरा में मिलते हैं।जय श्री कृष्ण।
 क्या ज़रूरी है तुम मिलो मुझको मैं तुम्हें यूं भी चाह सकता हूं।।साहनी
 अब मजदूरों पर दया नहीं आती। आज ये मजबूर हैं वरना ये  ख़ुद को मजदूर कहने में शर्माते हैं इनसे पूछो ये अपनों से  कैसे पेश आते हैं ये इनके हक़ की बात कहने वालों से दूरी बनाते हैं ये किसी मजदूर को वोट तक नहीं देते नहीं पढ़ते ये ऐसे घोषणा पत्र जिसमें सिर्फ इनकी बात लिखी हो ये पैसे लेकर रैलियों में जाते हैं लुभावने वादों पर तालियां बजाते हैं और तो और ये मजदूर हैं यह बात भूल जाते हैं और औक़ात भूलकर बाभन चमार या हिन्दू मुसलमान हो जाते हैं एक बोतल और हजार पाँच सौ के एवज में अपना वोट ईमान सब बेच आते हैं काश इन्हें पता होता कि ये  हजार पाँच रुपये के मोहताज नहीं ये इस देश के पाँच सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था के मालिक हैं तब ये भी अपना वोट  लक्जरी कार मालिक की बजाय  किसी मजदुर को दे रहे होते। सुरेश साहनी कानपुर
 जब जफ़ा पर कोई सवाल आया। मुझको अक्सर तेरा ख़याल आया।। दर्द मुझको उठा के महफ़िल से फिर बियावान में बिठाल आया।। अश्क हँसते नज़र नहीं आते कौन सीने में दर्द डाल आया।। याद आई कि झील में दिल के फिर से कंकड़ कोई उछाल आया।। उन निगाहों में कुछ तवक़्क़ो थी उन सवालों को मैं ही टाल आया।। दिल की तन्हाइयों सहमती हैं रात आयी कि वो बवाल आया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मुझको बेशक उठा हुआ न समझ। मत समझ पर गिरा हुआ न समझ।। तू भले मेरा मर्तबा न समझ। पर किसी गैर को खुदा न समझ।। जब भी दोगे सदा मैं आऊंगा मुझको हरगिज़ गया हुआ न समझ।। तू जो हर इक अदा पे मरता है ये तड़प है इसे अदा न समझ।। कब रकाबत मसीह ने की है इन रकीबों को देवता न समझ।। इश्क का हर इलाज इश्क में है जो जहर है उसे दवा न समझ।। सबसे कहता फिरे है अब नासेह साहनी को भी पारसा न समझ।। सुरेश साहनी कानपुर
 दिन गया रात गयी। हर गयी  बात गयी।। हम सियासी जो हुए सारी औकात गयी।। चन्द रूपये भी गए और मुलाकात गयी।। उसकी अस्मत भी लुटी और हवालात गयी।। खेत सूखे ही रहे पूरी बरसात गयी।। धन यहीं छूट गया नेकियाँ साथ गयी।।
 गाँव के बहुत पेड़ अब नहीं है मुहब्बत की जड़ें भी मर चुकी हैं यहाँ था गांव का बरगद पुराना तरक्की की हवा से गिर गया वो यहीं इसके तले चौपाल भी थी जहाँ वीरानियाँ दम तोड़ती थीं वहां खामोशियों की आड़ लेकर विधायक जी ने कब्जा कर लिया है हाँ उनके भी अब कुछ दिन बचे हैं वहां बैठक है बड़के चौधरी की बुलेरो है ,कई डम्फर खड़े हैं वो बड़का घर तो कब का गिर चुका है पलानी छा के सारे रह रहे हैं अब साहू जी प्रधान हो गए हैं शंकर फिर खेत रख दिया है मनरेगा में काम मिल गया है चार आना परधान जी लेते हैं इमनदारी से पैसा दे देते हैं अरे अब गांव बहुत बढ़ गया है दारू की दुकान भी  खुल गयी है।।
 इस जवानी पे कुछ रहम कर दे। दूरियां बेहिसाब कम कर दे।। दिल हमें दे ना दे  तेरी मर्जी एक मेरे दिल पे कुछ सितम कर दे।।  तुझको फरियाद भी कुबूल नहीं तो ज़ुबाँ ही मेरी क़लम कर दे।। तू  कोई हुस्न की सुराही है तो मेरे वास्ते भी ख़म कर दे।।  मान जाऊंगा तू समंदर है गर मेरी तिश्नगी ख़तम कर दे।। जानता हूँ के झूठ है फिर भी तू यही कह के खुशफ़हम कर दे।। कह दे ऐलानिया मुहब्बत है दिल के बाज़ार को गरम कर दे।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर
 हम मौसम के साथ मचलना भूल गए। गिरने की है होड़ सम्हलना भूल गये।। अखबारों ने ऐसी बर्फ़ बिछा डाली नई उमर के खून उबलना भूल गए।। मज़लूमों की जात देखकर जाने क्यों कैंडल वाले मार्च निकलना भूल गए।। देख सियासतदानों की ऐयारी को,  गिरगिट अपना रंग बदलना भूल गए।। अब मोबाइल गिरने का डर रहता है खुश होकर बिंदास  उछलना भूल गए।। सुरेश साहनी
 मज़लूमों की जात देखकर जाने क्यों कैंडल वाले मार्च निकलना भूल गए।। देख सियासतदानों की ऐयारी को,  गिरगिट अपना रंग बदलना भूल गए।।साहनी
 जागो जागो फिर परशुराम! निर्बल जन का सुन त्राहिमाम।।..... अब के कवि कब लिख पाते हैं अपने अन्तस् की वह पुकार। जिसको सुन सुन कर परशुराम का  परशु उठा इक्कीस बार।। आओ पुनि कर में परशु थाम हैं सहसबाहु अब भी तमाम।।.... त्यागो महेंद्र के आसन को मानवता करती है पुकार अगणित महेंद्र फर्जी नरेंद्र विस्मृत कर जन के सरोकार करते कुत्सित अरु कुटिल काम  इन सबको दे दो चिर विराम।।.... नन्दिनियाँ करती त्राहिमाम!!! बढ़ते जाते हैं सहसबाहु क्या दानवदल  फिर जीतेगा विजयी होंगे फिर केतु राहु फिर करो धरित्री दुष्ट हीन फिर परशु उठाओ परशुराम!!! होती अबलाएं नित्य हरण क्यूँ फिर से आते नहीं राम दुस्साशन करते अट्टहास पटवर्धन करते नहीं श्याम  भारती न होवे तेजहीन जागे कल का सूरज ललाम!!! सुरेश साहनी
 तुम मेरा प्यार पा के बैठ गए। क्यों मेरा दिल दुखा के बैठ गए।। हम को लड़ना पड़ा ज़माने से तुम तो चेहरा चुरा के बैठ गए।। हम तुम्हारी पनाह क्या पाते तुम ही दिल मे समा के बैठ गए।। तुमसे बोला कि साथ चलना है और अब क्या हुआ के बैठ गए।। एक दिल हमने उनसे क्या मांगा वो तो बाजार लाके बैठ गए ।। इस भरम में कि प्यार दौलत है हम बहुत कुछ लुटा के बैठ गए।। हमने चाहा कि दिल की बात करें और तुम मुँह घुमा के बैठ गए।। प्यार के इम्तेहान तुम भी दो बस हमें आजमा के बैठ गए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कितने जन्मों के प्यासे हैं ये बात अधर बतलायेंगे। अधरों पर निर्भर है वे कब अधरों की प्यास बुझाएंगे।।
 मैंने उसके सो चुके अंतःकरण की बात की। उसने जन हित कह के बाजारीकरण की बात की।। उसने मुझको याद दिलवाए कई कानून भय जब भी उनसे उनके गिरते आचरण की बात की।।
 मेरी खुशियों का ख़ज़ाना इक हँसी ने ले लिया। अब वो क्या देगा मेरा सब कुछ उसी ने ले लिया।। मेरी ख़ुद मुख्तारियाँ जैसे कि गिरवी हो गईं मेरी मस्ती का ठिकाना बेबसी ने ले लिया।।
 कौन आकर भला गज़लों के उजाले देता। इश्क़ जो हुस्न के बढ़कर न हवाले देता।। जो न होते तेरी दुनिया मे ये साक़ी ये शराब कैसे ग़ालिब कोई मस्ती के रिसाले देता।। अपने पीएम का ख़ुदा मान के बोसा लेते लॉकडाउन में जो हर हाथ मे प्याले देता।। आज सलहज ने जिस अंदाज में जीजा बोला यूँ लगा काश ख़ुदा बीस ठो साले देता।। सच कहूँ तो यहीं दहकां है ख़ुदा धरती पर ये न होता तो हमें कौन निवाले देता।। सुरेश साहनी, अदीब  कानपुर
 इंतज़ामात भले कुछ कम थे मेज़बानी तो बराबर की थी।।
 दिल्ली में सारी गलती है सिर्फ़ केजरीवाल की। ममता दीदी ने खराब कर दी हालत बंगाल की।। देश का पिछड़ा राज्य बन गया है केरल किसके कारण महाराष्ट्र में फैल गया है कोरोना कितना भीषण तमिलनाडु में बैठ गया है लंका से आकर रावण आज सिर्फ गुजरात कर रहा है भारत भर का पोषण अब जनता को पता चलेगी कीमत रोटी दाल की।।1 चीन चढ़ा आता है सर पर सब गलती नेहरु की है काश्मीर है मुंबई शहर सब गलती नेहरू की है महंगाई है आसमान पर सब गलती नेहरू की है साल हो गए पूरे सत्तर सब गलती नेहरू की है बाकी गलती इंद्रा की है या फिर उनके लाल की।।2 आगे भी सारी कमियों का दोष उन्ही पर थोपेंगे अपनी हर असफ़लता को हम कोरोना से तोपेंगे कोई आपदा आएगी हम उन को ही आरोपेंगे हम सरकारी  उद्योगों को निजी हाथ मे सौपेंगे आगे सारी जिम्मेदारी है दशरथ के लाल की।।3
 लोग पहले भी बीमार होते रहे हैं और ठीक भी होते आये हैं। लोग पहले भी असमय अथवा समय आने पर परलोक जाते रहे हैं।संसार यथावत है।रूसो के अनुसार प्रकृति सब संतुलित रखती है। चाहे वह अनाज और जनसंख्या का संतुलन ही क्यों न हो । प्राकृतिक संसाधनों के अनावश्यक दोहन का दण्ड वह समय समय पर देती  रहती है। उसे बस्ती और जंगल या प्राकृतिकता और कृतिमता को संतुलित करना आता है।  बात यहाँ बीमार होने और मानव की प्रतिरोधक क्षमता पर होनी चाहिए। पर मीडिया किसी के स्वस्थ होने पर उसे असाधारण हीरो अथवा विजेता की तरह प्रदर्शित करने में लगा है। मैं भी इन्हीं लक्षणों में अस्वस्थ हुआ और ठीक भी हो गया। हाँ एक बात मन मे बैठा ली थी कि आम बुखार पांच दिन लेता है तो वाइरल बुखार ज्यादा से ज्यादा दस दिन ले लेगा। ईश्वर कृपा से ठीक भी हो गया। पर इंसमे विजेता या पराजित जैसी उपाधियों का उल्लेख क्यों करना। आखिर हम जबरन लोगों को डराने का काम क्यों कर रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए।  हाँ पथ्य और बचाव पहले भी हम करते आये हैं।अतः इन परिस्थितियों में मास्क और दो ग़ज़ की दूरी अवश्य अपनाएं।
 क्यों कहें धोखा दिया है आपने। होश में जो ला दिया है आपने।। इक मुहब्बत ही नहीं है ज़िंदगी सिर्फ़ ये समझा दिया है आपने।। हम न भूलेंगे यकीनन उम्र भर इक सबक अच्छा दिया है आपने।। बाद में गिर के सम्हलना था कठिन वक्त से झटका दिया है आपने।। कम से कम हम काम आए आपके शुक्रिया मौका दिया है आपने।। सुरेश साहनी कानपुर
 जातिधर्म में बंट गया हर आभासी मंच। सद आशय की आड़ में करते लोग प्रपंच।। अब जनता की ना रही पांच रुपए की ब्योत। बिन इलाज के क्यों न हो उम्मीदों की मौत।।साहनी
 वो हुस्न के फरेब का मारा हुआ है पर कहता फिरे है इश्क ने बरबाद कर दिया।। साहनी
 तुमसे रखी उम्मीद पे मारे गए हैं हम। जो आज रोजे ईद पे मारे गए हैं हम।। कैसे कहें कि  इश्क  रहा करबला से कम तेरे खुश आमदीद पे मारे गए हैं हम।।
 जाने कितनों से अदावत कर लीं। एक तुमसे जो मुहब्बत कर ली।। एक जरा शौक़ -ओ-तमन्ना जागी और नासाज़ तबीयत कर ली ।।SS
 बड़ी कोशिश से मैं तनहा हुआ हूँ। अभी उतना कहाँ अच्छा हुआ हूँ।। न छेड़ो तार इस दिल के मेरी जां के हर पहलू से मैं  टूटा हुआ  हूँ।। मैं अच्छा हूँ ये तुमने ही कहा था तुम्हीं ने कह दिया बिगड़ा हुआ हूँ।। ये इक दौलत न हमसे छीन लेना तुम्हारे दर्द में    डूबा हुआ हूँ।। अगर ज़हमत हो तुर्बत पे न आना यहाँ मैं चैन से सोया हुआ हूँ।। मेरी फ़िक्र-ओ-नदामत मिट चुकी है बड़ी मुश्किल से घरवाला हुआ हूँ।। तुम्हारे हुस्न का सैदा कभी था अब अपने आप पर सैदा हुआ हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आज कुछ खो गया सा लगता है। मन बहुत अनमना सा लगता है।। चाल बदली सी है हवाओं की वक़्त भी बेवफ़ा सा लगता है।। हमने जां भी नवाज़ दी जिस पे ये उसे इक ज़रा सा लगता है।। जाने क्या क्या सिखा दिया उसने मेरा कातिल पढ़ा सा लगता है।। उसकी यादें चुभे हैं खंज़र सी ज़ख्म फिर फिर हरा सा लगता है।। उसकी बातों में पारसाई है उसका मिलना दुआ सा लगता है।। आजकल वो इधर नहीं आता हो न हो कुछ ख़फ़ा सा लगता है।। सुरेश साहनी
 हम ने कितना गिरा लिया ख़ुद को। इक तमाशा बना लिया ख़ुद को।। हम ख़ुदा से बड़े न हो पाये इस अना में मिटा लिया ख़ुद को।। इतनी हिरसो-हवस भी ठीक नहीं हम ने अन्धा बना लिया ख़ुद को।। आज इबलीस हम पे हावी है और हमने गँवा लिया ख़ुद को।। वक़्त रहते ख़ुदा को याद करो उसको पाया तो पा लिया ख़ुद को।। सुरेश साहनी, कानपुर
 नींद कुछ इस तरह से आई थी कब रहा मौत का ख्याल उसे मौत कुछ इस तरह से आई तब नींद का ना रहा खयाल उसे।।सुरेश साहनी
 उधर एक के वास्ते  भेजा बड़ा विमान। इधर रेल से उड़ गए सोलह जन के प्रान।।
 जब हमारे ही हम से टूट गए। हम से मजबूत ग़म से टूट गए।। मयकदे के वजू का देख असर रिश्ते दैरो- हरम से टूट गए।। उसका महफ़िल में यूँ अयाँ होना दीन वाले धरम से टूट गए।। फिर तो लज़्ज़त रही न रोज़े की जो सुराही के खम से टूट गए।। इतने नाज़ुक नहीं है हम यारब जो गिरे और धम से टूट गए।। तेरी आँखों को देखकर साक़ी हम हमारी कसम से टूट गए।। आशिक़ी के बहर में उतरे क्यों तुम अगर ज़ेरोबम से टूट गए।। सुरेश साहनी, कानपुर
 दौलते-हुस्न लुट भी सकता है इश्क़ कासा है कौन ले लेगा।। sahani
 वही गया था कभी ज़िद में छोड़कर मुझको। उठा रहा है जो इतना झिंझोड़कर मुझको।।,  कभी उम्मीद कभी जर्फ और कभी दिल से कहां कहां से गया गम ये तोड़कर मुझको।। मैं रेत की तरह बिखरा हूं टूट कर लेकिन वो कह रहा है कि जायेगा जोड़कर मुझको।। निकल चुका हूं बहुत दूर हर तमन्ना से भला कहां से वो लायेगा मोड़कर मुझको।। कहां से अश्क इन आंखों में लेके आऊं अदीब गमों ने रख दिया जैसे निचोड़कर मुझको।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर 9451545132
 मेरे दुश्मन से मेरा दिल मिला है। मुझे कितना हसी कातिल मिला है।। कभी गिरदाब ने थामी है बाहें कभी मझधार में साहिल मिला है।। जो पर्दे की वकालत कर रहा था उरीयां वो सरे महफिल मिला है।। मुहब्बत क्या है कुछ हासिल न होना यही तो इश्क का हासिल मिला है।। जिबह करता है ये कितने सुकूं से बड़ी मुश्किल से इक  कामिल  मिला है।। सुरेश साहनी कानपुर
 जिन शर्तों पर वे जीने को कहते हैं उन शर्तों पर तो मरना भी मुश्किल है।। साहनी
 यार बहर में ग़ज़ल नहीं है। ये कुछ हो पर ग़ज़ल नहीं है।। और चाहिए जिस तेवर में उस तेवर में ग़ज़ल नहीं है।। मुफ़लिस तो मुफ़लिस ही ठहरे उनके घर मे ग़ज़ल नहीं है।। अक्षर अक्षर ब्रम्ह भले हो हर अक्षर में ग़ज़ल नहीं है।।
 धूप हाथों से फिसलती जा रही थी और हम। बर्फ़ यादों की पिघलती जा  ज़िन्दगी करवट बदलती आरजू फिर भी मचलती ज़िन्दगानी दिन की ढलती दम ब दम हसरत निकलती इक नदी अब भी उछलती पर शमा बेलौस जलती दिल मे इक उमीद पलती चिट्ठियां पानी मे गलती
 इतने सालों के बाद आ बैठा। फिर वही नामुराद आ बैठा।। हुस्न आया तो सिर्फ़ हक़ लेने इश्क़ की जायदाद आ बैठा।।
 ग़मगुसारी का दौर है शायद। आहो-ज़ारी का दौर है शायद।। अव किसी को कहीं क़रार नहीं बेक़रारी का दौर है शायद।। मौत भी जैसे आज है सफ में  इन्तज़ारी का दौर है शायद।। ज़िन्दगी कह रही है जाने वफ़ा ख़ुद से यारी का दौर है शायद।। हर कदम पर है कर्बला गोया जांनिसारी का दौर है शायद।। नोटबन्दी से लॉकडाउन तक जानमारी का दौर है शायद।। टैक्स की लूट और महंगाई सेंधमारी का दौर है शायद।। सुरेश  साहनी, कानपुर
 कोशिशों भर आपने तोड़ा बहुत। दिल बचा लाये हैं हम थोड़ा बहुत।। आंधियों को आपने न्योता दिया हमने हर तूफान को मोड़ा बहुत।।
 हमने चाहे थे फूल के जंगल। हाथ आये बबूल के जंगल।। प्यार की बस्तियां न उग पायीं हर तरफ थे उसूल के जंगल।। आदमी था ज़मीन का हवशी काट डाले रसूल के जंगल।। आके शहरी इमारतें देखो ये भी हैं उल जलूल के जंगल।। यूँ लगा आके राजधानी में आ गए जैसे भूल के जंगल।। आज तो गुलिस्तां भी लगते हैं शूल भाले त्रिशूल के जंगल।। साहनी क्यों दिखा रहे हो तुम बेवज़ह ये फ़िज़ूल के जंगल।। सुरेश साहनी कानपुर
 प्यार में गर्मजोशियों के लिये। पास रहके भी दूरियाँ रखिये।। ।।   एक दिन ये भी ज़िन्दगी देंगी प्यार वाली ये चिट्ठियाँ रखिये।।
 सुख दुख हर्ष विषाद अनिश्चित किंचित उथल पुथल जीवन है। कर्म भाग्य प्रारब्ध परिस्थिति मिश्रित फल प्रतिफल जीवन है।।
 हममें तुममें न इत्तेफ़ाक़ रहा। हर ख़ुशी से यहाँ तलाक रहा।। ज़िन्दगी इतनी बदमज़ा कब थी तुमसे मिलना मगर मज़ाक़ रहा।।SS
 मेरी रफ़्तार को पर मिल रहे हैं। मेरे स्वर में कई स्वर मिल रहे हैं।। नया कुछ तो सृजन होकर रहेगा कि धरती और अम्बर मिल रहे हैं।। यहाँ दो गज़ जमीं की फ़िक्र क्यों हो सुना है चाँद पे घर मिल रहे हैं।। बड़ी थी आपको शौके-शहादत तो फिर क्यों आज डरकर मिल रहे हैं।। आगे बढ़ के इस्तक़बाल करिये अगर ख़ंजर से खंज़र मिल रहे हैं।। मेरी नीयत में कुछ तो खोट होगा गुलों के साथ पत्थर मिल रहे हैं।। कभी सोचा न था ऐसा भी होगा ये कैसे कैसें मंज़र मिल रहे हैं।। कि सूरज जुगनुओं की क़ैद में है नदी में आके सागर मिल रहे हैं।।
 साहित्यिक विमर्श समीक्षा से समालोचना समालोचना से आलोचना ,आलोचना से कटाक्ष, कटाक्ष से निन्दा और निन्दा से गाली गलौज तक एक लंबी यात्रा कर चुका है।और ऐसा नहीं कि अब से पहले ऐसा नहीं होता रहा है।लेकिन फूहड़ता के जिस उच्चतम स्तर को आज हम स्पर्श कर रहे हैं इसकी कल्पना भी पूर्व के साहित्यकारों ने नही करी होगी।   खैर मैं तो सतही कलमकार ठहरा।फेसबुक के जरिये ही साहित्यिक गतिविधियों और चर्चाओं से दो चार हो पाता हूँ।सर्वाधिक जानकारी अनिल जनविजय की पोस्ट्स से प्राप्त होती है। शेष नाम मैं इसलिए नहीं लिखूंगा कि मेरे ऊपर भी किसी ग्रुप अथवा गिरोह से जुड़े होने का आरोप न लगने पाये। दूसरी बात जिसका नाम लिखा वह भले ध्यान न दे लेकिन जिनके नाम नहीं लिखे वे जरूर लाल पीला हो जाएंगे। आजकल डॉ नामवर सिंह फिर से चर्चा में हैं। ये चर्चाएं भी लाल पीली ही हैं। आज फिर Vijay Gaur ने देहरादून में हुए कविक्रम :साहित्यिक विमर्श से सम्बंधित पोस्ट डाली तब मेरी भी लिखास जाग गयी। मैं तमाम ऐसे साहित्यकारों को देखता सुनता आया हूँ जो त्रिकालज्ञ रहे हैं।केंद्रीय परिक्रमाओं में रत देशकालगति  मर्मज्ञ ये साहित्यकार गण आयोजकों के अनु
 वो खुशियों में डूबा लेकिन अपने ही गम की दौलत की रखवाली भूल गया।।
 यूँ तो  तमाम ज़ख्म थे पाले नहीं गए। जाने क्यों उनकी याद के छाले नहीं गए।। इतने गिरे वो  गिर गए ख़ुद की निगाह से शायद वफ़ा के बोझ सम्हाले नहीं गए।। क्या करते आसमान में ख़ुद ही सुराख थे सो हमसे इंकलाब उछाले नहीं गये।। जब भी चली अवाम के हक़ में क़लम चली शाहों के दर पर ले के रिसाले नहीं गये।। कितने सहाफ़ियों की ज़ुबाँ  सर कलम हुये  पर ख़ौफ़ से सवाल तो टाले नहीं गये।। है फ़ख्र हमने यार के कूचे में जान दी ये आबरू रही के निकाले नहीं गए।। सुरेश साहनी,अदीब , कानपुर
 महफ़िल से उठ लिये तेरी महफ़िल बनी रहे। शायद किसी के प्यार के काबिल बनी रहे।। हासिल न हो सकी हमें रानाईयाँ तेरी तेरे लिए दुआ है तू हासिल बनी रहे।। आएंगे-जायेंगे  मेरे जैसे यहाँ तमाम रस्ते बने रहें अगर मंज़िल बनी रहे।। महफ़िल से उठ गया तो क्या तन्हा नहीं हूँ मैं ये और बात है कि तू गाफ़िल बनी रहे।। सुरेश साहनी,कानपुर
 घूम फिर कर के फिर वही बातें। ज़िन्दगी कुछ तो कर नयी बातें।। रोज़ सोना है रोज़ जग जाना रोज़ वो ही   सुनी कही बातें।। कितने छोटे ख़्याल हैं इसके कर रहा था बड़ी बड़ी बातें।। सुरेश साहनी
 शायद भगवान ने इन्हें नहीं बनाया है जिनके घर तो घर बस्तियाँ भी  फूंक दी जाती हैं, इसीलिए तो वे गांव से  अलग बसाई जाती हैं।।
 जो हक़ीक़त बता नहीं सकते। ख़्वाब हम वो सजा नहीं सकते।। तुम मेरे दिल से खेल सकते हो तुम मेरे दिल में आ नही सकते।। जिनसे ग़ैरत पे आंच आये वो चुटकुले गुदगुदा नहीं सकते।। जिनसे इक बार चोट खायी हो फिर उन्हें आज़मा नहीं सकते।। वो हमारे  वग़ैर भी खुश हैं हम उन्हें क्यों भुला नहीं सकते।। Suresh Sahani, kanpur
 आपको बोलना तो आता है। सच पे क्यों सांप सूंघ जाता है।।
 कुछ सुलगता सा है निहां मुझमें। और क्या है धुआं धुआं मुझमें।।
 तुम कहो तो ग़ज़ल कहें तुमको। एक खिलता कंवल कहें तुमको।। चाँद लिखना अगर पसंद न हो चांदनी का बदल कहें तुमको।। उलझनों से निजात देते हो राहतों की रहल कहें तुमको।।