हमने चाहे थे फूल के जंगल।
हाथ आये बबूल के जंगल।।
प्यार की बस्तियां न उग पायीं
हर तरफ थे उसूल के जंगल।।
आदमी था ज़मीन का हवशी
काट डाले रसूल के जंगल।।
आके शहरी इमारतें देखो
ये भी हैं उल जलूल के जंगल।।
यूँ लगा आके राजधानी में
आ गए जैसे भूल के जंगल।।
आज तो गुलिस्तां भी लगते हैं
शूल भाले त्रिशूल के जंगल।।
साहनी क्यों दिखा रहे हो तुम
बेवज़ह ये फ़िज़ूल के जंगल।।
सुरेश साहनी कानपुर
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