बस काफिया रदीफ़ मिलाने में रह गए।

कहते कहाँ से बात सजाने में रह गए।।

दुनिया के रस्मो राह से नाहक जुदा हुए

तनहा किसी को अपना बनाने में रह गए।।

हम क़ामयाब यूँ हैं मदरसा-ए-इश्क़ के

हम जल गए वो हमको जलाने में रह गए।।

दुनिया सराय है हमें मालूम था मगर

कुछ बात थी कि एक ठिकाने में रह गए।।

ये जानते हुए कि वो पत्थर है दिल नहीं

उस संगदिल से दिल को लगाने में रह गए।।

इक दूसरे की जान थे वो लोग अब कहाँ

अहदो-वफ़ा भी सिर्फ़ फ़सानों में रह गए।।

इंसान हो के हम तो ज़हाँ से निकल लिए

तुम तो ख़ुदा थे फिर क्यों ज़माने में रह गए।।

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