यदि मृत्यु पर आपका अधिकार नहीं है तो आयुर्वेद से ही मरने दीजिये। संजीवनी होने का दावा करती विदेशी दवाओं के भारतीय मरीजों पर प्रयोग कितने लाज़िम हैं। क्या जो दवाएं अमेरिका यूरोप में प्रतिबंधित हैं ,उनका उत्पादन और बिक्री भारत मे धड़ल्ले से जारी है यह किसी से छुपा  है।

 यदि कोरोना के मरीज अस्पताल में भर्ती होते हैं तो उनके इलाज का खर्च सुविधा रहित कैम्प/अस्पतालों में यदि साठ हजार से सत्तर हजार प्रतिदिन वसूला जाता है और उसके बाद भी पंद्रह से बीस लाख केवल मृत शरीर वापस करने की फीस ली जाये तो भाई आपके इस अमानवीय सिस्टम में मरने की बजाय उसका आयुर्वेद की गोद मे मरना बेहतर विकल्प है कि नहीं।

 मैं बाबा रामदेव का समर्थक नहीं हूँ, किन्तु जब आपके योग्य चिकित्सक रेमडेसवीर की जगह दो रुपये के डेक्सामेथासान को उपयोग में लाने की सलाह देते हैं तो आप  अपने सुयोग्य साथियों की सलाह क्यों नहीं मानते? सिर्फ इसलिए कि मानव हितों से आपके व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हैं। 

 कल जो लोग बौद्धिक संपदा अधिकार , जेनेरिक दवाओं के एकाधिकार और जीन कैम्पेन और टर्मिनेटर खेती का विरोध करते नज़र आते थे , आज वही लोग इसके समर्थन में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से समझौतों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। आखिर क्यों।

 मैं उन डॉक्टर्स की मजबूरियों को समझता हूं जो रात दिन अपनी जान जोखिम में डालकर सेवा में लगे हैं। पर उन डॉक्टर्स की सेवाओं पर सरकार ख़ुद कल्याणकारी नहीं होने का ठप्पा लगा रही है। क्योंकि सरकार सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य, सबको भोजन और सबकी सुरक्षा के दायरे से हटा चुकी है। ऐसे में वह निम्न मध्यमवर्ग जो बीस से पच्चीस हजार महीना बमुश्किल कमा पाता है वह इस महामारी का खर्च कैसे वहन कर सकता है। 

 सरकारी डॉक्टर्स के ऊपर अनावश्यक जिम्मेदारियां लाद दी जाती हैं।शासन प्रशासन सब चढ़ा रहता है। वहीं नर्सिंग होम्स को लूट की यह खुली छूट क्यों?

  ऐसे में क्षमा करें! यदि पंद्रह लाख देकर अपने आत्मीय जनों की लाश ही मिलनी है तो देश को मुफ्त के प्राणायाम और सस्ती आयुर्वेदिक दवाओं के सहारे रहने दीजिए।

बकौल अकबर इलाहाबादी  -


हकी़म और वैद्य यकसां हैं अगर तफ़तीश  अच्छी  हो। 


हमें सेहत से मतलब है बनफ़शा हो या तुलसी  हो।।


तो भैया हम ऐसे ही ठीक हैं।चलते चलते स्वर्ग तक पहुंच ही जायेंगे जल्दी क्या है। हम भारतीय मानव हैं ,प्रयोगशाला के चूहा और खरगोश नहीं।

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