मार्क्स ने इस पर चिंतन किया।मार्क्सवाद हो गया। मार्क्स नहीं करते तब कोई अन्य करता।आप नाम को प्रासंगिक मानने लगते हैं। यह विचार कि सबल और निर्बल का अमीर और गरीब का अथवा तंत्र और लोक का संघर्ष सतत जारी रहता है।इस संघर्ष तीव्रता और श्रांतता की स्थितियां क्रमशः आती जाती रहती हैं।किंतु इन सब मे तीव्रता के तुरंत बाद लम्बी श्रांती के लिए मार्क्स ने एक ऐसे समाज की कल्पना की,जहां पूरा तंत्र मेहनतकशों के द्वारा संचालित हो। यह विचार द्वंदात्मक भौतिकवाद है।
किन्तु संघर्ष तो शाश्वत है।क्या जीवन के प्रत्येक स्तर पर संघर्ष नहीं है।क्या जीवन संघर्ष नहीं है। हमारे जीवन का आरम्भ ही संघर्ष का प्रतिफल है।करोड़ो शुक्राणुओं में से एक जो शेष से श्रेष्ठ है वह डिम्ब को वेध कर भ्रूण बनता है।
क्या इससे पहले यह विचार नहीं आया होगा। जरूर आया होगा।विचार संघर्ष समाप्त करने का, विचार समाज को दुखों से मुक्ति देने का। विचार भी सतत है।यह रूपान्तरित होता रहता है।समय दर समय,व्यक्ति दर व्यक्ति विचारों पर पालिस चढ़ती रहती है।बढ़ती रहती है। इन दोनों के साथ एक और चीज शाश्वत है। वह है विपरीत परिस्थिति, विपरीत विचार , और विपरीत प्रकृति के साथ समन्वय।यह समन्वय ही जीवन की संभावना है । यह समन्वय ही सौंदर्य है।यह समन्वय ही सृजन है।यह समन्वय ही सृष्टि का मूल है।
#समन्वयवाद
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