हमारे खेत घर खलिहान छूटे जा रहे हैं

शहर की लपलपाती जीभ सी सड़कें लपक कर

हमारी झोंपड़ी घर मेड़ पगडंडी बगीचे 

हमारे खेल के मैदान नदियां ताल पोखर

सभी कुछ लील जाना चाहती हैं

शहर की भूख बढ़ती जा रही है।।


इधर शहरों में सब कल कारखाने

सभी छोटे बड़े व्यापार धंधे

ये सारे बंद होते जा रहे हैं

सभी बन्दी की जद में आ रहे हैं

ये रेहड़ी, खोमचे वाले  

सड़क पर की दुकानें

शहर इनसे भी आज़िज़ आ चुका है

शहर कुछ और बढ़ना चाहता है

ये झोंपडपट्टियाँ भी हैं मुसीबत

शहर इनसे उबरना चाहता है

बड़े लोगों की तकलीफें बड़ी हैं....


सुरेश साहनी , कानपुर

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