एक उदासी अजब सी तारी है।

जंग कोविड से फिर भी ज़ारी है।।


देश इस युद्ध मे भी जीतेगा

अपनी हिम्मत वबा पे भारी है।।


कब तरक्की है पेड़ का कटना

बल्कि अपनी नफ़स पे आरी है।।


ताज पाने के फेर में हमने 

अपनी पगड़ी स्वयं उतारी है।।


अब वबा से उबर रहे हैं सब

जो बची है फ़क़त खुमारी है।।


चीनियों आज खूब इतरा लो

तुमसे शैतानियत जो हारी है।।


जाल में जब फँसोगे समझोगे

वक़्त कितना बड़ा शिकारी है।।


सुरेश साहनी, कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है