एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो हैं। उन्होंने ग़ज़ल के नीचे जाते स्तर पर चिंता व्यक्त की थी।वैसे बड़े विद्वानों का अथवा प्रतिष्ठित महानुभावों का यह सम्मत धर्म है कि वे जिस क्षेत्र में बुलायें या आमंत्रित किये जायें उस क्षेत्र अथवा विषय के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करें। इससे एक तो आयोजकों पर उनका रौब ग़ालिब होता है दूसरे उस क्षेत्र के एकलव्यों और दुष्यन्त कुमारों को सहमने का मौका मिलता है।वे स्वयं को कविताई या ग़ज़लगोई से ख़ुद ही खारिज़ कर लेते हैं,अर्थात उनके शायर बनने की संभावनाओं पर वहीं फुलस्टॉप लग जाता है।इसके साथ ही उन वक्ता के बड़े विद्वान होने का भ्रम भी समाज मे स्थापित होता है।जैसे एक नेता जी एक वैज्ञानिक सेमिनार में मापक इकाइयों के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए बोले कि पहले हम लोग दूरी को योजन,कोस मील और फर्लांग में मापते था आज मिलीमीटर और नैनोमीटर में सिमट कर रह गए हैं।विज्ञान क्या खाक़ तरक्क़ी करेगा।लोग कहते हैं नेता जी बिल्कुल सही बोले,पहले हम पुष्पक विमान से चलते थे आज स्कूटर भी विदेश के सहयोग से बना रहे हैं।" उधर आयोजक माथा पकड़ के बैठ चुके थे।
ख़ैर गज़लगो महोदय का कहना था हिंदी में ग़ज़ल लिखी जाय पर गजल में गजल जैसा कुछ रहना चाहिए ।निस्संदेह उनकी रचनाओं में एक गहराई है।ग़ज़ल के व्याकरण के सभी मानकों पर उनकी रचना खरी उतरती है।यह उनका कौशल है। किसी ने कहा है कि
"मुझको यूँ ही नहीं तहरीरे-सुखन आया है।
पाँव दाबे हैं बुजुर्गों के तो फन आया है।।,
हो सकता है उन को यह कुदरत की देन हो,लेकिन यह सच है कि ग़ज़लगोई के लिए उस्तादों की शागिर्दगी जरूरी है।पहले दाग़ के मीर के स्कूल चला करते थे।उस दौर में ग़ज़ल अपने पूरे ऐजाज में नज़र आती है।आज कही न कहीं यह कमी महसूस होती है।कानपुर में तो ग़ज़ल जैसे दो चार नामों तक सिमट कर रह गयी है।हमारे जैसे लोग हवा में हाथ पाँव मारा करते हैं।
आखिर किसको सुनाएँ।कौन सुनेगा या कौन सुन रहा है।जब कोई हमें सहेजने संवारने वाला नहीं है तो जो हम लिखेंगे हमारे लिए वही ग़ज़ल है।
ठीक है हमारे पास कोई मंच नहीं है फेसबुक तो है। कुछ बड़े नाम अपने इगो के मारे हमारी तरफ नज़र भी डालने में शरमाते हैं।कमेन्ट वगैरह तो दूर की बात है।ऐसे में यही कहा जा सकता है, आलेख तो अच्छा है लेकिन उसकी चिंताएं सतह तक ही महदूद है।
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